#हिन्दी कविता की राजनीति: कुलीनतावादी परंपरा
# भारतेंदु मिश्र
हिन्दी कविता संघर्ष से जूझने के लिए सदैव आगे बढ़ी है| पिछले 50 वर्षों में हिन्दी साहित्य
का सरोकार मार्क्सवादी प्रगतिशील चेतना और सर्वहारा के जीवन और उसकी विसंगतियों को
समर्पित रहा है|साहित्य और विचार के लिए लोगों ने अपनी जान की बाजी भी लगा
दी है| यातनाएं भी सहन की हैं| समाजवादी पक्षकार भी अपनी
नीतियों के अनुरूप साहित्य में संघर्ष करते रहे |बीसवीं सदी के तीसरे दशक
में जब प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना भारत में हुई तब इस समूह में हिन्दी उर्दू
सहित अनेक प्रदेशों में अनेक भाषा के साहित्यकार इसमे जुड़े सबने मिलकर संघर्ष भी
किया| देश की स्वतंत्रता के बाद से स्थितियां बदलती गयीं स्वराज के बाद स्वतंत्रता
की मनमानी व्याख्या भी लोग करने लगे|
कविता में छायावादी युग समाप्त हो चुका था नए प्रयोग और
प्रगतिकामी विचारों का साहित्य पंसद किया जाने लगा|सं 1943 में अज्ञेय जी द्वारा
संपादित 'तारसप्तक,' खंड 1 का प्रकाशन हुआ| अज्ञेय जी स्वयं गीत लिखते
थे अत: उन्हें प्रगतिशीलता के लिए नए विचार और कविता के सरोकार के लिए छंद का विरोध करना बहुत
उचित नहीं जान पडा| उन्होंने अपने वैचारिक मापदंड के अनुसार कवितायेँ चुनीं| मुक्तिबोध हम सबके बहुत
आदरयोग्य सम्मानित कवि हैं| इस 'तारसप्तक' में उनकी कविता 'कालदेवता' संकलित की गयी| यह कविता छंदोबद्ध कविता है| हालांकि मुक्तिबोध आतंरिक
अर्थ लय के कवि हैं| उनकी पंक्तियाँ अपने पद लालित्य के साथ एक लय विशेष में बजने लगती हैं| प्रलय की छाया,राम की शक्ति पूजा, असाध्य वीणा या अँधेरे में
-ये सभी कवितायेँ अपनी आन्तरिक लय और विशिष्ट छन्दस रचना
के कारण अभूतपूर्व बन गयी हैं|
इसके बाद नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल,त्रिलोचन,शमशेर,केदार नाथ सिंह आदि सभी छंद और मुक्त छंद के
साथ आतंरिक छंद लय के कवि हैं| ये सर्वहारा के भी कवि हैं| ये सीधे तौर पर वैचारिक
पाठक और साहित्यानुरागी व्यक्ति के ह्रदय में प्रविष्ट हो जाते हैं| ये अपनी लोक भाषा कभी नहीं छोड़ते|
ये कविता के कैनन में बदलाव का समय था| बदलाव हुआ भी| उन्नीस सौ साठ के दशक में मुक्तछंद
कविताओं का प्रचलन तेजी से प्रारम्भ हुआ|वर्ष 1957 में लक्ष्मी कान्त वर्मा की
आलोचना पुस्तक -'नई कविता के प्रतिमान ' इलाहाबाद से प्रकाशित हुई| इधर नामवर जी अपने संघर्ष
के दिन किसी तरह काट रहे थे| उन्हें सागर वि.वि. से
निकाला जा चुका था और वे अब दिल्ली में राजकमल प्रकाशन में नौकरी कर रहे थे|एक दशक तक लक्ष्मी कान्त वर्मा जी की इस पुस्तक की
बहुत चर्चा रही फिर नामवर जी की किताब 'कविता के नए प्रतिमान'1968 में राजकमल से आयी| तारसप्तक और मुक्तिबोध की
कविताई का बहुत प्रभाव नामवर जी की मान्यताओं पर पडा| दूसरी ओर पुस्तक का शीर्षक
लक्ष्मीकांत वर्मा जी की पुस्तक से लेकर उसे उलट दिया गया | किताब चल निकली केन्द्रीय
साहित्य अकादमी में भारतभूषण अग्रवाल जी थे|वर्ष 1971 में ही इस पुस्तक पर नामवर
जी को साहित्य अकादमी सम्मान मिल गया| वर्ष 1969 में जवाहर लाल नेहरू
विश्वविद्यालय की स्थापना हुई| नामवर जी को वहां हिन्दी
विभाग में नियुक्ति मिली| इसके बाद उन्हें पीछे मुड़कर देखना नहीं पडा|
अब नामवरी आलोचना के युग की शुरुआत हो चुकी थी| आलोचना पत्रिका 1967 से अब नई धज
में नामवर जी के संपादन में शुरू हुई थी| शुरुआत में अर्थात 1951 में
इसके संपादक शिवदान सिंह चौहान जी बने थे|बाद में उन्होंने किसी
खिन्नता वश संपादन छोड़ दिया,फिर बियोगी हरि 1966 तक संपादक रहे | एक बार पुन; चौहान
जी ने आलोचना का संपादन संभाला किन्तु शीला संधू जी ने चौहान जी को हटा कर नामवर
जी को आलोचना का संपादक नियुक्त कर दिया| नामवर जी ने आलोचना को भी पूरी तरह से
संभाल लिया| (चौहान जी नामवर जी के किसी आचरण को लेकर खिन्न भी रहे| सन 2000 में
आलोचना का जो पुनर्प्रकाशन शुरू हुआ तब उसके उद्घाटन हेतु चौहान जी दिल्ली पधारे
थे| उनकी अप्रसन्नता तब भी कुछ हद तक उनकी मुख मुद्रा से जाहिर हो रही थी|) अब
नामवर जी आलोचना के स्टार हो चुके थे| वे अपनी परिस्थितियों से समझौता करके आगे
बढ़ते रहे| जो सामने आया उसको आशीर्वाद भी दिया| तमाम लोगों को नौकरियाँ दीं |अनेक
साहित्यकारों को साहित्य के अनेक पुरस्कार भी दिलवाए| लोग उनकी वाचिक टिप्पणी के
लिए कुछ भी करने के लिए तैयार मिलते थे| जेएनयू से रिटायर होने के बाद उन्हें
राष्ट्रीय सहारा में मंगलेश जी के साथ नियुक्ति मिली| मंगलेश जी भी रिटायर होकर
वहां गए थे|
आलोचना ,पहल,हंस,और जनसत्ता के साहित्यिक पृष्ठों पर
छंदोबद्ध कविता और अवधी ब्रज ,बुन्देली जैसी लोकभाषा में की जा रही कबिताई और उनसे
संबंधित आलोचना लेख आदि को प्रतिबंधित कर
दिया गया| ये आलोचना का शुक्ल पक्ष था या कृष्ण पक्ष कहना कठिन है लेकिन कमला
प्रसाद जी ने जो समावेशी साहित्यिक दृष्टि अपनाई छंदोबद्ध और मुक्तछंद सभी तरह की
कविता को उसकी समसामयिकता के आधार पर प्रलेस की पत्रिका- ‘वसुधा’ में लगातार स्थान
दिया वह सोच नामवर,ज्ञानरंजन,राजेन्द्र यादव,मंगलेश आदि के पास नहीं थी| बाद में तद्भव जैसी कुछ और
पत्रिकाएँ भी इसी विभाजनकारी सोच को लेकर निकलीं| अनेक वर्ष तक इंडिया टुडे की
वार्षिकी निकली उसमें भी यही वैचारिक कुलीनता की जकड़न विद्यमान रही| इस बीच
छंदोबद्ध कविता से जुड़े कवि गजल,दोहा लिखने वाले कवि और सार्थक नवगीतकार संघर्ष
करते रहे| नामवरी आलोचना के समूह ने छंदोबद्ध कविता से लगातार एक दूरी बना कर रखी|
जैसे कुलीन भद्रजन निचले तबके के लोगों के साथ व्यवहार करते हैं| छंदोबद्ध कविता
और लोक भाषा के रचनाकारों के साथ यही आचरण और आलोचना मुद्रा नामवरी स्कूल ने भी बना
ली थी| रामविलास शर्मा जी से अपने निजी मतभेदों के चलते उनके विरुद्ध इसी समूह ने
मोर्चा बनाया था| उन्हें हिन्दुत्ववादी साबित करने की नाकाम कोशिशें भी की गईं| नामवर
जी आज नहीं है लेकिन उनके आलोचना स्कूल की सरगर्मी अभी कायम है|
उधर हिन्दी पट्टी के एक मात्र इफ्टा के केंद्र आगरा में
जहां जन नाटक लोक भाषा चेतना और जन गीत आदि का सार्थक प्रयोग होता था वह राजेन्द्र
रघुवंशी जी के न रहने से समाप्त प्राय हो गया था| अब तो जितेन्द्र रघुवंशी भी नहीं
रहे| वह लोक संपृक्ति की छांदस रचनाशीलता को पहचानने की दिशा भी विलीन हो गयी|
इसीबीच लोक भाषा को बोली बनाने की मुहीम चलाई गयी| अब किसी हिन्दी के किसी प्रोफेसर से पूछिए तो वह
कहेगा अवधी,ब्रज,बुन्देली, आदि हिन्दी की बोलियाँ हैं| जब कोई उनसे पूछता है कि कबीर,सूर,जायसी,तुलसी ,मीरा
आदि क्या बोलियों के कवि हैं तो वह थोड़ी देर चुप रहता है और मेरा ये विषय नहीं है
कह कर खिसक जाता है| हिन्दी सर्वहारा की गली से निकल कर नवसाम्राज्यवाद की भाषा
बने , नव बाजारवादी भाषा का स्वरूप इन कुलीन कवियों को ही अनिवार्य रूप से देना
था| नामवरी आलोचना स्कूल ने हमें इस तरह का हिन्दी कविता समय दिया है| हिन्दी के कथासाहित्य
में लोक भाषाएँ स्वाभाविक तौर से घुस आयी हैं|
ग्राम्शी चोम्स्की जैसे मार्क्सवादी विचारकों के आधार पर
भारतीय कविता चेतना को परखा गया किन्तु हमने कालिदास,शूद्रक,भर्तृहरि
,खुसरो,कबीर,जायसी,तुलसी ,ग़ालिब जोश आदि से भारतीय हिन्दी कविता को दूर रखा गया|
ऐसा लगता है कि अपनी काव्य परंपरा में किसी ने कभी सर्वहारा की चिंता की ही नहीं
थी| असल में कुलीनता को अंगरेजी सूट करती है|इसी विदेशी समीक्षा सैद्धांतिकी से
तमाम हिन्दी कवियों को कविराज बनने का सुअवसर मिला| रामविलास शर्मा जी को
हिन्दुत्ववादी घोषित कराने में इसी स्कूल के साथी काम आये| संस्कृत का नाम लेने
वाले को मूर्ख हिन्दुत्ववादी ,गीत नवगीत छंद आदि की बात करने वाले को
हिन्दुत्ववादी साबित करने की आसान मुहीम भी ये चलाते रहे| ‘काव्यं गीतेन हन्यते’
कह कर नवगीत की चेतना को नष्ट करते रहे| मुझे इन हिन्दी कवियों की यह प्रवृत्ति लार्ड
मैकाले से वंशानुक्रम में आयी कुलीनता के रूप में ही नजर आती है|
इसी क्रम में इन्ही कुलीनतावादी मानदंडों की राह पर चलकर
अनेक कवियों ने बड़े पुरस्कार हासिल किए| अब तो पाठ्यक्रमों में वे चमक रहे हैं|
बड़े प्रकाशक उन्हें ही छाप रहे हैं| ऐसी कुलीन प्रतिभाओं को ही ज्यादातर इन लोगों
ने प्रोत्साहित किया| अशोक बाजपेयी ने भी ‘कभी कभार’ में या अन्यत्र समकालीन
छंदोबद्ध कवि या कविता पर बात नही की| ये हमारी वर्तमान हिन्दी कविता का समकाल है|
इस आलोचना स्कूल ने दलित चेतना पर कभी काम नहीं किया| स्त्री लेखन को सकारात्मक
ढंग से नहीं लिया| आदिवासी बोली और भाषाओं के कवियों की कविताओं को हिन्दी में
आनूदित करके उनके सरोकारों और उनकी समस्याओं पर बात नहीं की| ये मुद्दे कुलीन कवियों
और उनके साथी संपादक,आलोचना से जुड़े टिप्पणीकारों को कभी नजर नहीं आये| इन कुलीन
कवियों की ज्यादातर ये आकांक्षा अवश्य रही कि ये विदेशी भाषाओं में आनूदित होकर
विश्व पटल पर छा जाएं | सब तो नहीं कुछ एक सफल भी हुए| ऐसा हिन्दी का गद्य कवि
जैसे जैसे सर्वहारा और अल्पसंख्यक वर्ग की राजनीति को कविताओं में ढालता जाता है
वह इन्ही पत्रिकाओं के माध्यम से चर्चित होता जाता हैं| थोड़ा सा प्रतिष्ठित होते
ही पुरस्कार और तमगों के लिए उसकी दौड़ शुरू हो जाती है| उसमें भी सब सफल नहीं होते
| इस आलोचना विहीन दौर में कोई कुर्सी कवि है,कोई संपादक कवि है कोई प्रोफेसर कवि
है| इनके अलावा जो कवि या कवयित्रियाँ सभी
अपने दम ख़म से आये हैं उन्हें छ्न्दोबद्धता या लोक भाषा की बात न करने की मूल
कुलीनता वादी अवधारणा ज्ञात है| इसी दिशा से होकर हमारे समय की हिन्दी कविता का
विमर्श आता जाता है| अब तो समकालीन हिन्दी कविता के में छांदस कविता अर्थात नवगीत,
नव दोहा, नई गजल आदि की बात करना बेमानी ,बचकानापन या किसी हद तक अश्लील भी समझा
जाने लगा है| प्रतिरोध के नाम पर चल रही साजिशों को आप कविता की राजनीति कहें आपको
यही शोभा देता है| तेलगू भाषा के कवि वरवर राव जेल में हैं| उनकी कविता पर आपका ध्यान
चाहूंगा-‘जुबान’ शीर्षक कविता का अंतिम अंश है -
‘हाथ, पाँव और पेट वाले
बेज़ुबान मनुष्य को
सही ग़लत कौन बताए ।‘@ वरवर राव (साहस गाथा)
कविता का भाव है कि प्रकृति सब जीवों को संघर्ष से बचाती है जैसे वो मछली को , बच्चे को, कबूतर को प्रकृति लगातार
सही दिशा देकर सुरक्षा देती है|लेकिन जो बेजुबान मनुष्य है
,अर्थात जो ऐसे खतरनाक मुद्दे पर बेजुबान हो आता है|उसे गलत सही का अर्थ कोई
नही बता सकता| अर्थात जान बूझकर लोकभाषा विरोधी समाज विरोधी लोक विरोधी
आचरण करते हुए वो हिन्दी का आचार्य चुप बैठा है और एक नकली प्रतिरोध की छतरी ताने
दिखाई देता है| इसी चुप्पी और एक ख़ास वैचारिकता के नाम पर दिखावे की राजनीति में
शामिल हिन्दी वादियों को मैं कुलीन और कुलीनता वादी कह रहा हूँ| प्रतिरोध क्या ये मुक्तछंद
वाले लोग ही कर रहे हैं| जनसत्ता,पहल,हंस,तद्भव आलोचना के साहित्य
संपादक ही प्रतिरोध के स्वर को आगे ले जा रहे हैं? क्या उनका प्रतिरोध किसान
मजदूर की बोली बानी में है क्या उन तक वह कुलीन स्वर पहुँच रहा है| या कि गीत गजल दोहे बरवै के
माध्यम से भी प्रतिरोध संभव है?
अज्ञात कुलशील बालक की तरह मैं तो आप सबको दूर से ही प्रणाम
कर सकता हूँ| लेकिन ये कुछ सवाल हैं जो आपको हल करने ही होंगे|
# भारतेंदु मिश्र
9868031384
#कवियों की कुलीनता का दस्तावेज# वागर्थ (अप्रैल जून-2020 )
कविता का भविष्य
#कवियों की कुलीनता का दस्तावेज# वागर्थ (अप्रैल जून-2020 )
कविता का भविष्य
कोरोना काल है अभी लॉकडौन में और अनलॉक होने के बाद भी हिंदी कविता की राजनीति पर चर्चा हो ही रही थी कि भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका #वागर्थ ने कविता के भविष्य पर देशव्यापी परिचर्चा कर डाली।
गौरतलब है कि संपादक महोदय ने चुन कर अधिकांश बड़े कुलीन कवियों से लेकर नवोदित कुलीन सम्प्रदाय के हिंदी कवियों के संवाद प्रकाशित किए हैं।इसमें राजेश जोशी से लेकर अच्युतानंद मिश्र तक अनेक कवि शामिल हैं।कोई आदिवासी ,दलित,छंदोबद्ध कविता करनेवाला या लोकभाषा का कवि इससे स्वाभविक रूप से दूर रखा गया है।हिंदी कविता के भविष्य और उसके क्षीजते स्तर पर चर्चा में आखिर ये अकुलीन कवि कैसे शामिल हो सकते हैं। कविता की सत्ता तो इन्हीं एक तरह की समझ और विचारधारा वाले लोगों के हाँथ में है। दूसरे पक्ष यानी नवगीत,दोहा,गज़ल अवधी ब्रज बुंदेली आदि लोक भाषा के उपेक्षित किए जा रहे कवियों से हिंदी कविता के भविष्य को शायद खतरा भी बना हुआ है ।इस संक्रमण काल में कविता को भी कोरोना से बचाने की बड़ी जिम्मेदारी संपादक पर होगी।उन्होंने हिंदी कविता के कुलीनता वादी संस्कारों को इस अंक में बहुत जतन से सुरक्षित रखा। इस प्रकार की चेतना से ही हिंदी कविता के भविष्य की नई रहें फूट सकती हैं। वैसे इस अंक में रेणु जी पर सामग्री है वह बेहद आदर योग्य है।उन्हें इस अंक के संपादन संयोजन हेतु अनेक शुभकामनाएं।
व्यवस्थित कविता की सच्चाई ...
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