शनिवार, अप्रैल 12, 2014

समीक्षा


कुमार रवीन्द्र की नई किताब:भारतेन्दु मिश्र







































 
    गत तीन चार दशकों से लगातार जो कवि अपने गीतों नवगीतों से हिन्दी  कविता में अपनी उपस्थिति दर्ज करता आ रहा है ।जिसने अपने गीतों के पाठ्य  से अपनी अलग पहचान बनाई उनके गीतों को लेकर विचार करते हुए यह कहा जा सकता है उन्होने लगातार प्रगतिशील गीत / नवगीत को नए आयाम दिए।ऐसे कवि कुमार रवीन्द्र उन तमाम नवगीतकारों से इस लिए भी अलग हैं क्योकि वे कविसम्मेलनों से कभी जुडे नहीं ।उन्होने आलाप और सुर की साधना न करके गीत के पाठ्य को लेकर सजगता से काम किया। उनकी मौलिकता का प्रमाण उनके गीतों की प्रगतिशील चेतना और युगधर्मिता से आंका जा सकता है। पिछले दशक में मैने अपने आवास पर प्रयोग के तौर पर कुछ कवियों के एकल गीतपाठ के कार्यक्रम आयोजित किए जिसमें श्रोताओं को कवि से उसकी रचना धर्मिता पर प्रश्न पूछने का भी अधिकार था। ऐसे कार्यक्रम में जाहिर है कि अधिक कवि/श्रोता नहीं शामिल हो सके लेकिन गीत के पाठ्य को लेकर कुछ सजग कवियों ने उसमें भागीदारी की कुमार रवीन्द्र उनमे से एक महत्वपूर्ण नाम हैं।उस प्रकार के आयोजन का भी यही उद्देश्य था कि गीत के पाठ्य और सामयिक रचनाविधान तथा कवि  की रचनाधर्मिता  पर बातचीत हो।कुछ लोग आलोचना से डरकर ऐसे आयोजनों में शामिल नहीं होते।बहरहाल कुमार रवीन्द्र जी ने उस दिन अपनी रचनाधर्मिता और वैचारिक प्रगतिशीलता से सबका मन मोह लिया था।  वे वरिष्ठ हैं, विद्वान हैं-उनके लिखे गीतों और विमर्श परक आलेखों का अपना महत्व है।कई काव्यनाटक भी उन्होंने लिखे हैं।आहत हैं वन,चेहरों के अंतरीप,पंख बिखरे रेत पर,सुनो तथागत,और हमने सन्धियां की,उनके गीत नवगीत संग्रह हैं।इसके अतिरिक्त-एक और कौंतेय,गाथा आहत संकल्पों की,अंगुलिमाल उनके काव्य नाटक हैं।इसके अतिरिक्त गीत नवगीत की समीक्षा से भी वे पिछले दशकों से लगातार जुडे रहे हैं।  लखनऊ से पढ लिखकर जीवन भर हिसार में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे। उनका एक अंग्रेजी कविताओ का संकलन भी  प्रकाशित हुआ है।तो उनके कवि कर्म पर बात होनी चाहिए । लोग पीछे पडकर भी समीक्षा लिखवाने के लिए तमाम जतन करते हैं कुमार रवीन्द्र जी ने कभी मुझे इस प्रकार तंग नही किया। गत दिनों लखनऊ के नवगीत परिसंवाद -2011 पर केन्द्रित एक किताब मुझे निर्मल शुक्ल जी ने भेजी थी उसके आवरण पर कुमार रवीन्द्र जी का नवगीत प्रकाशित हुआ था।वह गीत है--इसी गली के आखिर में-
इसी गली के आखिर में है /एक लखौरी ईंटो का घर/किस पुरखे ने था बनवाया/दादी को भी पता नही है/बसा रहा अब उजड रहा है/इसमें इसकी खता नही है/एक एक कर लडके सारे /निकल गए हैं इससे बाहर।  
तो ऐसे लखौरी ईंटो की चिता के बहाने पुराने लखनवी तेवर याद दिलाने वाले और गृहरति की व्यापकता वाले  कवि के नवगीतों पर बात करना मेरे लिए अत्यंत सुख की बात है। लखौरी ईंटों  के रूप में न जाने कितने सामाजिक सरोकार संवेदन  के स्तर पर मिट गये और काव्य संवेदना के रूप में यहां सिमट गए हैं। कवि की अपनी जातीयता को चीन्हने के लिए एक और गीत का मुखडा देखिए----
नदी गोमती /शहर लखनऊ/हम बाशिन्दे उसी शहर के
 कुमार रवीन्द्र बिम्बों का घना शाल नहीं बुनते बल्कि सीधी सरल भाषा में संवेदना की अनुगूंज पैदा करते हैं।संयोगवश मैने कुमार रवीन्द्र जी का लखनऊ वाला पुराना मकान देखा है।मुझे एकबार उनकी माता जी के दर्शन करने और आशीर्वाद लेने का अवसर मिला है।पिछले दिनों-रखो खुला यह द्वार –शीर्षक से नया नवगीत संग्रह प्रकाशित हुआ है। यह कवि की लगतार सक्रियता का नया दस्तावेज है।
हालांकि सीधे साफ सुथरे गीत रचना कुमार रवीन्द्र की सीमा भी है और शक्ति भी ,कि वे गृहरति यानी घर आंगन के काव्य संसार से बेहतर संवेदनाएं चुराकर वे नवगीत मे ढालने का सफल प्रयोग करते हैं। उनके यहां नचिकेता जैसा जनवाद नही है और जनवाद की नारेबाजी भी  नही है। कभी कभी उनके गीतों मे अतीत चिंता नास्टेलिजिक स्तर पर भी दिखाई दे सकती है।लेकिन यह छन्दोबद्ध कवियों में नवगीत/गजल /दोहा कहते समय आ ही जाती है।
    इस संकलन की भूमिका में कवि ने जो गीत की समकालीनता के प्रश्न पर टिप्पणी की है वह भी पठनीय है। यहां यदि अप्रासंगिक न हो तो कहना चाहता हूं कि कुमार रवीन्द्र जी ने अपने पांच पृष्ठ के वक्तव्य में पांच शब्द भी अपने गीतों पर नही कहा है।तात्पर्य यह कि उन्हे विचार और निजी संवेदना को अलग करने का सलीका आता है।अन्यथा अधिकांश गीतकारों की भूमिका पढकर मन कचकचा जाता(उल्टी करने का  हो आता है ) है।ऐसे वास्तविक रचनाकार और आत्मप्रशस्ति की मदिरा मे धुत्त रचनाकार का फर्क कुछ लोग मिटा देना चाहते हैं। मुझे लंपटो की इस  नव बाजारवादी विकृति पर ऐतराज है।कुमार रवीन्द्र जी नवगीत के कबीर की तरह अपना ताना बाना लेकर  केवल अपनी सृजन धर्मिता से अपने सक्रिय होने का सबूत दे रहे हैं।इस समय में यह बडी बात है कबीर इस लिए क्योकि कबीर का मुहाबरा उनके गीतों मे उनके सिर चढकर बोलता है। साधो को संबोधित उनके गीत समावेशी समाजिक परिवेश की ओर संकेत तो करते ही हैं,कवि की निर्लिप्तता के भी परिचायक हैं। यह कवि के मन का साधो सूर और मिल्टन के पास से तथागत तक भी जाता है। लेकिन अपनी जमीन नहीं छोडता। वे कहते हैं-
सुनो बन्धु/यह गीत नहीं/अचरज की बोली है।
अर्थात कविता कवि के लिए संवाद की भाषा है।वो सुर ताल से श्रोताओं को रिझाने के लिए मंच के प्रपंच की भाषा कदापि नहीं है। जहां वे –
सुनो /बावरे नचिकेता की उल्टी बातें।  
कह कर पौराणिक मिथकों को नवगीत की परिभाषा देने की कोशिश करते हैं तो वहीं –
बांचो साधो/चार पदों का /सांसों का यह गीत हमारा।
कहकर एक ही  गीत में  जीवन के चार आयाम –बचपन ,जवानी,वृद्धावस्था और देहांतर तक की संवेदना को समो लेने का प्रयत्न किया है।प्रत्येक सजग कवि के पास उसकी अपनी जमीन और  जातीयता को आसानी से लक्षित किया जाता है । नगर बोध के स्वर नवगीत में खूब देखने को मिलते हैं कुमार रवीन्द्र के यहां भी ऐसे तमाम गीत हैं। देखें-
हवा बेदम/रौशनी कम/महानगरी की सुबह है
एक और चित्र देखें लेकिन लगता है यहां शायद प्रूफ की कोई कमी रह गई है-
अपनी आंखों पर/पट्टी सब बांधे रहते/कोई भी घर के बंटने का /हाल न कहते/आम कट चुके/खूब फले हैं आक धतूरा/महानगर में।
यहां कोई भी घर के बंटने का हाल न कहते के स्थान पर कहता होना चाहिए क्योकि कोई शब्द एक वचन है और उसकी क्रिया भी एक वचन की ही होनी चाहिए। बहरहाल  रोमानियत और नास्टेल्जिया दोनो ही गीत की संवेदना के साथ हमेशा जुडे. रहते हैं उनसे काटकर गीत को नही देखा जा सकता।अंतत: कुमार रवीन्द्र के नवगीत और उनका पाठ्य हमें नए आस्वाद के प्रति आश्वस्त तो करता ही है।  
शीर्षक:रखो खुला यह द्वार/कुमार रवीन्द्र/उत्तरायण प्रकाशन ,लखनऊ/वर्ष: 2013/मूल्य:295/


शुक्रवार, अप्रैल 11, 2014

मित्रो के लिए दो गीत

1.सूरज हूं मैं
(मजदूर दिवस पर )
जब मै थककर बुझ जाता हूं
तब घर का चूल्हा जलता है
सूरज हूं मैं अन्धियारे से
मेरा पेट नही पलता है।

छाए हैं नफरत के बादल
फिर भी मैं चलता जाता हूं
धूमकेतु जब मुझे घेरते
तब हिम्मत से टकराता हूं
छतरी की छया मे सुख से
कुछ लोगों का दिन ढलता है।


मुझे पता है इस धरती पर
कोई मेरा मित्र नही है
कौन सुने कबिरा की भाषा
किसका मन अपवित्र नही है
सच्चाई की इस गर्मी में
मोम सरीखा मन गलता है।

बडा कठिन है इस बस्ती में
सच कहना सच को सह पाना
लोगों ने सीखा है केवल
शक्ल देखकर बात बनाना
जब सब थम जाता है तो भी
कुछ मेरे भीतर चलता है।

2.गीत होंगे

हम न होंगे गीत होंगे
क्योकि ये हमसे बडे हैं
ये समय की सीढियों पर
रत्न मणियों से जडे हैं।


ये नदी हैं ये हिमालय
ये समन्दर की लहर हैं
ये सुबह हैं -शाम हैं ये
रात दिन ये दोपहर हैं
मृत्य से भी हर कदम पर
शक्ति भर अपनी लडे हैं।

सूर्य की किरणो सरीखे ये
हवा के विमल झोंके
आग हैं ये बाढ हैं ये
शब्द रथ को कौन रोके
ये स्वयंभू बरगदों की भांति
धरती में गडे हैं।

इन्द्र्धनुषीमेघ हैं ये
छन्दमय आकाश हैं ये
ये समर के शंख अनहद
ये सृजन हैं नाश हैं ये
वेद हैं ये नीति हैं ये
कर्म बनकर ये खडे हैं।

कोकिला हैं हंस हैं ये
मोर हैं ये बुलबुले हैं
कहीं तीखे कहीं मीठे
कंठ में सबके घुले हैं
ये अजंता की गुफाएं
ये सुधारस के घडे हैं।(जुगलबन्दी से)

शनिवार, अप्रैल 05, 2014

  नचिकेता जी की
गीत वसुधा : दस अनसुलझे सवाल


# भारतेन्दु मिश्र

हिन्दी गीत नवगीत के लिहाज से नचिकेता जी एक बडे हस्ताक्षर के रूप मे जाने जाते हैं।यह भी सच है कि रमेश रंजक और शांतिसुमन के बाद सत्यनारायण के समकक्ष खडे नचिकेता का कविमन पिछले दस वर्षों  से गीत वसुधा पर काम भी कर रहा था।लेकिन अब उनकी दस वर्षो की मेहनत को देखकर जो निराशा हुई उसका वर्णन करना मेरे लिए नितांत दुखद अनिवार्यता है।अनिवार्यता इस लिए कि मैं नवगीत/गीत से किसी भी रूप में जुडे मित्रों को गीत वसुधा के इन पक्षो का ज्ञान कराना जरूरी समझता हूं।और दुखद इस लिए कि नचिकेता जी जैसे  वरिष्ठ रचनाकार के दस वर्षो के श्रम की  निरर्थकता से और व्यापारिक लाभ (साहित्येतर )से  पाठकों को अवगत कराना पड रहा है । घोषित और अघोषित रूप से जनवादी माने जाने वाले नवगीतकार जो स्वयं को जनगीतकार के रूप प्रतिष्ठित देखना चाहते हैं। उनके द्वारा संपादित यह ग्रंथ (कथनी करनी में भेद के कारण )बहुत चकित करने वाला और भ्रम मे डालने वाला है। कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं-
1. जब दस वर्ष पहले नचिकेता जी  ने गीत भेजने के लिए आग्रह  किया था तब वे अकेले ही इस योजना के संपादक थे।परंतु प्रकाशित रूप में इसमे अवधेश नारायण मिश्र और यशोधरा राठौर जी का नाम जाने कैसे जुड गया।शायद इस प्रयोग से उन्हे कुछ बल(धनबल/आत्मबल ) अवश्य मिला होगा।वर्ना इसकी कोई उपयोगिता पुस्तक में नजर नही आती।यदि उनकी उपयोगिता होती तो कुछ नजर  भी आनी चाहिए ?
2.मेरे पास नचिकेता जी के पत्र सुरक्षित हैं जिनसे मेरे गीत आमंत्रित किए गए थे।तब आर्थिक सहयोग 500/रुपए था जो मैने भेजने के लिए मना किया था।परंतु बिना सहयोग के ही गीत भेजने का फोन पर भी बार बार आग्रह  किया जाता रहा और मैने अंतत: गीत भेज दिए तब मुझे यह नही मालूम हो पाया था कि यह उनकी कैसी योजना है ? उनकी यह योजना किस स्तर पर नवगीत के अन्य समवेत संकलनों से भिन्न है ?तबतक मेरी उनसे मुलाकात भी नही हुई थी,बस पत्राचार ही हुआ था ।कोई वरिष्ठ रचनाकार जब बार बार आग्रह  करता है तो सामाजिक मर्यादा के अनुरूप उसे निभाना पडता है,फिर नचिकेता जी तो उम्र में और गीत -रचनाधर्मिता में भी  वरिष्ठ हैं ।
3.इस 580 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य नचिकेता जी ने रु.2000/ रखा है। इस मूल्य निर्धारण में बेचारे प्रकाशक की कोई भूमिका नही है। क्योकि वो प्रकाशक नचिकेता जी का नाम लेकर ही किताब बेच रहा है।शायद किसान चेतना और मजदूरों से जुडे जनवादी कवियों कलाकारों के लिए यह सामंतजनोचित मूल्य उनकी दृष्टि मे उचित होगा।क्या इसी पुस्तक का पेपरबैक 200/ में भी सुलभ नहीं हो सकता था ?
4.विशेष बात यह है कि नचिकेता जी ने सभी गीतकारों के गीतों का कापीराइट भी प्रकाशक से मिलकर अपने नाम करा लिया है। अब वे पिछले छह महीने से इस पुस्तक को बिकवाने के लिए संकलित रचनाकारों से आग्रह  कर रहे हैं।पहले प्रकाशक ने किताब खरीदने के लिए मुझे सीधे फोन किया फिर नचिकेता जी ने  मुझे आधे मूल्य पर किताब खरीदने के लिए फोन भी किया था।किंतु मैने मना कर दिया ,क्योकि मूर्खतावश मुझे लगता है कि   रचनाकार होने के नाते यह किताब मुझे ही नहीं सभी रचनाकारों को संपादक द्वारा लेखकीय प्रति के रूप में धन्यवाद सहित क्यों नहीं मिलनी चाहिए ? इस पर केन्द्रित संगोष्ठी करने की बात कहीं सुनाई नही दी।मैने तो उन्हे अपने गीतो का लिखित या मौखिक रूप से स्वत्वाधिकार नही दिया /बेचा था और कोई गीतकार मुझे मिला भी नही जिसने अपने गीतों का स्वत्वाधिकार नचिकेता जी को लिखित रूप में दिया हो।
5.हैरानी की बात यह भी है कि कई 1000/रुपये अग्रिम धनराशि देकर भी  नए गीतकार  इसमें इसलिए शामिल कर लिए गये ।ऐसे कई गीतकारों का संकेत नचिकेता जी ने संपादकीय में आदर भाव से किया भी है।
6.अब जरा इस ग्रंथ के  समर्पण पृष्ठ के बेनामी गीत का मुखडा पढिए-
उनको/ जिनके लिए/गीत पसीने की परिभाषा है/जीवन जीने की अभिलाषा है।
अर्थात जो गीत को पसीने की परिभाषा में लिख रहे हैं और जी रहे हैं यह पुस्तक उनके लिए तो है लेकिन इसका मूल्य केवल -2000/रुपये है।..माने संपादक के लिए गीत जीने मरने का प्रश्न नही है ?
7. और देखिए चकित मत हो जाइए-आपन मुख तुम आपन करनी /बार अनेक भांति बहु बरनी।–जैसा कि तुलसी बाबा कह गए हैं उसी तर्ज पर नचिकेता जी अपने ही गीतों की प्रशस्ति अपनी  ही कलम से गीतवसुधा की भूमिका मे देते हुए चलते हैं-देखें पृष्ठ 49 और 50 (संपादकीय:समकालीन गीत का आत्मसंघर्ष )तो क्या यह संपादक का न्याय हो सकता है? जरा गौर करने की बात है। रामचन्द्र शुक्ल,रामविलास शर्मा,आदि ने अपनी आलोचना पुस्तकों में अपने ही आलेखों /कविताओं की प्रशस्ति क्यों नहीं की ? हां नचिकेता जी के आदर्श यदि राधेश्याम बन्धु हैं जिन्होने नवगीत के नए प्रतिमान में हर आलेख में अपनी कविताओं के उद्धरण स्वयं ही भर लिए हैं,तो यह उचित कहा जा सकता है।
8.सोचने और विचार करने की बात यह भी हो सकती है कि गीत वसुधा मे संकलित रचनाएं भारतीय मानस और समाज की हैं या कि किसी अन्य देश की  ? यदि भारतीय कविता हमारे समाज से निकली है तो उसकी समीक्षा के औजार भी तो भारतीय काव्यशास्त्र से निकलने चाहिए। जबकि नचिकेता जी अपने संपादकीय की शुरुआत जार्ज लुकाच के उद्धरण से करते हैं। बहरहाल उद्धरणीय विचारों का एक कालक्रम  होता है जिसका यहां निर्वाह नही दिखाई दिया।
9.इतने बडे बहुआयामी संपादकीय को देखकर कहीं कहीं तो यह भी लगता है कि नचिकेता जी पर राधेश्याम बन्धु की मूर्खता पूर्ण कृति (नवगीत के नए प्रतिमान ) का गहरा प्रभाव पडा है।जबकि राजेन्द्र गौतम की पुस्तक विख्यात पुस्तक हिन्दी नवगीत उद्भव और विकास  का जानबूझकर  नामोल्लेख तक नही  किया गया है। राजेन्द्र गौतम के गीतों के साथ प्रस्तुत परिचय तक में नहीं।
10. अब अंतत: यदि इसमें अवधेश नारायण मिश्र और यशोधरा राठौर के श्रम को भी जोड लें या जोडकर देखें तो नचिकेता जी के दस वर्षों की कमाई केवल इस पुस्तक का नाजायज कापीराइट ही बचता है।
इसके बावजूद उन्हे बधाई जिन्हे पहलीबार नचिकेता जी जैसे किसी वरिष्ठ कवि द्वारा संकलित गीत संकलन मे येन केन प्रकारेण रचनाकार के रूप में स्थान मिला। प्रकाशक को बधाई कि उसे इतनी बढिया कमाई वाली पुस्तक मिली।
गीत वसुधा/संपादक:नचिकेता+अवधेश नारायण मिश्र+यशोधरा राठौर /पृ.580/मूल्य-2000/=/प्र्काशक:युगांतर प्रकाशन ,दिल्ली/वर्ष:2013

   

गुरुवार, अप्रैल 03, 2014

टिप्पणी

एक सार्थक उम्मीद:
भारतेन्दु मिश्र
 
भाई जयकृष्ण राय तुषार का गीत संग्रह सदी को सुन रहा हूं मैं   को
देखने का मौका मिला।सचमुच जयकृष्ण राय तुषार  यश मालवीय और सुधांशु उपाध्याय की परंपरा में इलाहाबाद की गीत नवगीत यात्रा का नया स्टेशन है। जहां थोडी देर रुक कर गीत का आनन्द लिया जा सकता है।यह तुषार का पहला नवगीत संग्रह है।वे गजलें भी कहते हैं और अच्छी कहते हैं।बस आशंका है कि कहीं वो कुंअर बेचैन की तरह मंच के प्रपंच में डूबकर विलुप्त न हो जाएं। खुदा उन्हे मंच की नजर से बचाए रखे।जैसे वो अपने पिता को याद करते हुए कहते हैं-
पिता/घर की खिडकियों /दालान में रहना/यज्ञ की आहुति /कथा के पान में रहना।
-तो कथा के पान में रहने का मर्म इलाहाबाद की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में रचा बसा कोई गीतकार ही जानता है।इसी प्रकार एक और निराला को समर्पित गीत भी बहुत सुन्दर बन पडा है।कवि सदानीरा से प्रार्थना करता है और निराला के सुनहरे गीत गाने की बात करता है-
आज भी /वह तोडती पत्थर/पसीने में नहाए/सर्वहारा /केलिए अब /कौन ऐसा गीत गाए/एक फक्कड /कवि हुआ था/ पीढियों को तुम बताना।

तुषार भाई के ये गीत नवगीत की परंपरा में ही अपना स्थान बनाते हुए आगे बढते हैं।यद्यपि एक अट्पटापन शिल्प के स्तर पर कहीं कहीं नजर आता है।यह अटपटापन उर्दू और हिन्दी छन्दों के एकसाथ प्रयोग के कारण भी सहज रूप मे आ सकता है।बहरहाल तुषार के पास समकालीन जनवादी भाषा,कथ्य,सामयिक मुहावरे आदि का अभाव नही है।निसन्देह वरिष्ठ नवगीतकार चाहें तो तुषार के रूप में नवगीत की नई संभावनाएं अवश्य देख सकते हैं।तुषार की रचनाशीलता से एक सार्थक उम्मीद तो बन ही रही है |             
शीर्षक:सदी को सुन रहा हूं मैं /
कवि:जयकृष्ण राय तुषार /
प्रकाशक:साहित्य भण्डार,इलाहाबाद
/वर्ष:2014/मूल्य:रु.50/