
नागार्जुन की छान्दस चेतना
भारतेन्दु मिश्र
नागार्जुन बडे रचनाकार है क्योंकि वे छन्द साधना के कवि हैं। वे अनेक भाषाओं में कविता करते चलते हैं, संस्कृत-बांग्ला-मैथिली और हिन्दी मे उन्होने समान रूप से कविताएँ लिखी हैं। वो अपने जन को पहचानते हैं।अपने जन की समस्या को जानते हैं।वे जीवन की प्रतिस्पर्धा में संघर्षरत असफल दिखाई देने वाले आम आदमी के कवि हैं-सफल हुए लोगों के गीत तो सभी गाते हैं।नेताओ के दरबारों या लालाओं के कविसम्मेलनो की उन्हे कभी परवाह नही रही।ऐसा निरपेक्ष धरती का कवि ही इस प्रकार लिख सकता है-
जो नही हो सके पूर्णकाम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम।
जो छोटी सी नैया लेकर ,उतरे करने को उदधि पार
मन की मन में ही रही, स्वयं हो गये उसी मे निराकार
उनको प्रणाम।
जो उच्च शिखर की ओर बढे,रह-रह नव-नव उत्साह भरे
पर कुछ ने ले ली हिमसमाधि,कुछ असफल ही नीचे उतरे
उनको प्रणाम।
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके कर दिए मनोरथ चूर चूर
उनको प्रणाम।
इस प्रकार के गीत हिन्दी साहित्य मे बहुत कम हैं। यहाँ नागार्जुन का लक्ष्य तमाम वो असफल से दीखने वाले लोग हैं जिनका कीर्तिगायन समय ने नही किया जबकि वे सब अपने संघर्ष के लिए उल्लेखनीय अवश्य थे।जो कवि संघर्ष की मूल चेतना को जानता है और संघर्षशीलता के बाद असफलता की पीडा को पहचानता है वही ऐसा लिख सकता है।
नागार्जुन की काव्यभाषा उनके चिंतन की तरह साफ सुथरी है।हालाँकि नागार्जुन के काव्य समय पर छायावद का गहरा प्रभाव था किंतु बाबा के गीत छायावादी गीतो के प्रभाव से न केवल मुक्त हैं बल्कि प्रगतिशील चेतना की ध्वजा फहराते चलते हैं।वे प्रतीको के माध्यम से कल्पना के बहुअर्थी सूक्ष्म बिम्ब कभी नही रचते।यह विशेषता तुलसी की कविताई मे स्पष्ट परिलक्षित होती है।तुलसीदास लोकजीवन के महान कवि हैं उसी प्रकार नागार्जुन अपने समय के –अपने लोक के बडे कवि हैं। बाबा के गीत संस्कृत निष्ठ भाषा के बावजूद प्रसाद की तरह गूढ नही होते-
इन्दुमती के मृत्यु शोक से ,अज रोया या तुम रोये थे?
कालिदास सच-सच बतलाना
शिव जी की तीसरी आँख से, निकली हुई महा ज्वाला में
घृतमिश्रित सूखी समिधा सम, कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रन्दन सुन आँसू से, तुमने ही तो दृग धोये थे।
वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका,प्रथम दिवस आषाढ मास का
देख गगन में श्याम घन घटा,विधुर यक्ष का मन था उचटा
खडे-खडे तब हाँथ जोडकर,चित्रकूट के सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था ,जिनके ही द्वारा सन्देशा
उन पुष्करावर्त मेघों का -साथी बनकर उडने वाले
कालिदास सच-सच बतलाना, पर पीडा से पूर-पूर हो
थक-थक कर औ चूर चूर हो, प्रियवर तुम कब तक सोये थे?
रोया यक्ष कि तुम रोये थे।
इस महान गीत में कालिदास जैसे कवि की समग्रकविता का काव्यप्रयोजन सहज रूप मे समझा जा सकता है। कुमारसम्भव,रघुवंश और मेघदूत तीनो काव्यग्रंथों में व्यंजित काव्य हेतु की ओर साफ संकेत नागार्जुन देते हैं। कालिदास की कविता की प्रमुख विशेषता वैदर्भी रीति और प्रसाद गुण है वहीं बाबा की कविता में प्रगतिवादी चेतना का सहज सौन्दर्य प्रातिफलित और परिलक्षित होता है।इस गीत मे भी वे जिस करुणा की बात करते हैं वह आम आदमी की करुणा का ही प्रतिफलन है। कालिदास बाबा के प्रिय कवि हैं ऐसा प्रतीत होता है।विद्यापति-जयदेव-तुलसी आदि नागार्जुन के आदर्श रहे होंगे।कुछ और ध्यान से देखें तो निराला से भी बाबा सीखते हुए आगे बढते हैं।नागार्जुन और जानकीवल्लभ शास्त्री एक समय मे संस्कृत के कवि के रूप मे प्रसिद्ध हुए।किंतु आगे चलकर दोनो ही हिन्दी के क्षेत्र मे आ गये। नागार्जुन की एक संस्कृत कविता देखें-
लक्ष्मी:प्रतीक्षते विष्णुं बहिरागंतुमुद्यतम।
सागरे चुलके कृत्वा सुखं शेते महामुनि:।
अर्थात जिस समुद्रमंथन से बाहर आने को तत्पर लक्ष्मी की प्रतीक्षा विष्णु करते हैं,उसी समुद्र को अपने चुल्लू मे भरकर महामुनि सुख से निश्चिंत होकर सोते हैं। तात्पर्य यह कि बाबा नागार्जुन सिधियों के कवि हैं उनका मार्ग मुनियों वाला हैं।वे सत्ता की चमक दमक से दूर हैं। यही लोक परम्परा हैं-यही ऋषि परम्परा है जहाँ लक्ष्मी के पीछे भागने वाले सत्ताधारियों को कोपीन लगाने वाले ऋषियों ने सदैव तिरस्कृत किया है। नागार्जुन मे सर्वहार के संघर्ष और उसके जीवन के प्रति अटूट विश्वास है।देखें इस प्रगीत में-
बस थोडी और उमस
बस थोडी और धूप
बस थोडा और पानी
बस थोडी और हवा
-क्या देर है भला बाहर आने में।
आज मैं बीज हूँ
कल रहूँगा अंकुर
बटुर-बटुर आयेगी दुनिया
मुझे देखने को आतुर
आज मै बीज हूँ
अलक्षित नाचीज हूँ
गर्क हूँ धरती की जादुई कोख में।
कवि को अपने भविष्य पर हमेशा से विश्वास रहा है। वह अलक्षित बीज की तरह उमस-धूप-पानी और हवा को सहने के साथ ही बीज से नवांकुर की तरह नई पहचान से खडा होना जानता है।यह नैसर्गिक आस्था बोध नागार्जुन को बडा कवि बनाता है।नागार्जुन विशाल धरती के कवि हैं-
नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें।
नागार्जुन की कविताई की सबसे शक्ति उनकी अभिनव छान्दस चेतना और प्रगतिशीलता है।वे विशाल प्रकृति के कवि प्रतीत होते हैं,किंतु मनुष्य जीवन के छोटे बडे सरोकारों के आरपार देखने की आँख उनके पास है। इसी लिए तो वे जनकवि हैं,इसी लिए वे लोक के गायक हैं। वे नयी छन्दसचेतना के कवि हैं। बाद के जो कवि छान्दस कविता को मुह बिराने लगे उनकी कविताओं मे निराला,नागार्जुन,त्रिलोचन,केदा
जनगणमन के जाग्रत शिल्पी
धरती के तुम पुत्र गगन के तुम जामाता
नक्षत्रों के स्वजन कुटुम्बी
सगे बन्धु तुम नद नदियों के
झरी ऋचा पर ऋचा तुम्हारे सबल कण्ठ से
स्वर लहरी पर थिरक रही है युग की गंगा
अजी तुम्हारी शब्दशक्ति ने बाँध लिया है
भुवनदीप कवि नेरूदा को
मैं बडभागी, क्योकि प्राप्त है मुझे तुम्हारा
निश्छल निर्मल भाईचारा
मैं बडभागी, तुम जैसे कल्याण मित्र का
जिसे सहारा
मैं बडभागी, क्योंकि चारदिन
बुन्देलों के साथ रहा हूँ।
मैं बडभागी,क्योंकि केन की
लहरों मे कुछ देर बहा हूँ।
बडभागी हूँ बाँट दिया करते हो
हर्ष –विषाद
बडभागी हूँ बार-बार करते
रहते हो याद।
तात्पर्य यह है कि अंत में तो वही कविताएँ शेष रह जाती हैं जिनमे अपने पाठकों से लम्बे समय तक जुडाव रहता है। जो कविताएँ गायी जा सकती हैं-वे याद रहती हैं।जो याद रहती हैं उनकी ही प्रासंगिकता को रेखांकित किया जाता है। अब पावस को ही ले तो बाबा का बहुत चर्चित गीत याद आता है
अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे उसके शीतल तुहिन कणों को
मानसरोवर के उन स्वर्णिम कमलों पर गिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है।
इस पूरे गीत मे नैसर्गिकता का सौन्दर्य सहज रूप मे आकर्षित करता है। यह गीत भी कालिदास के मेघदूत की याद दिलाता है। बडा कवि वह होता है जिसकी कविता मे अपने परवर्ती कालजयी कवियों की महान रचनाओ का पता भी मिलता है।छन्द साधना ऐसी कि कहीं से भी एक शब्द इधर का उधर हो जाये तो अर्थ का पता नही मिलेगा। मेघ को लेकर बाबा का एक और गीत है-
धिन-धिन-धा धमक-धमक /मेघ बजे
दामिनि यह गयी दमक/मेघ बजे
दादुर का कण्ठ खुला/मेघ बजे
धरती का हृदय धुला/ मेघ बजे
पंक बना हरिचन्दन /मेघ बजे
हल का है अभिनन्दन/मेघ बजे
धिन-धिन-धा।
इस पूरे गीत मे वर्षा के विविध रंग नागार्जुन लेकर चलते हैं। धरती कैसे मेघों क स्वागत करती है,और किसान कैसे हल का आषाढ मे अभिनन्दन करता है।पानी बरसेगा तभी तो धरती पर खुशहाली आयेगी।मनुष्य और जीव जगत सब प्रसन्न होकर गा रहे हैं।इस गीत का नाद सौन्दर्य वर्षागम के लिए उत्सुक हमारे गाँवों मे मेघ-मल्हार गाने वाले किसान परिवारों से हमे जोडता है। दूसरी ओर नागार्जुन ईश्वरवादी बेतुकी आस्था की सोच को नकारते हुए आम आदमी को केवल संघर्ष की प्रेरणा देते हैं।हम सब जानते हैं कि संसार का कोई काम बिना सार्थक प्रयत्न और संघर्ष के सम्भव नही है फिर अपनी असफलता के लिए अपराधी बन कर मन्दिरों मे पश्चात्ताप करने से क्या होगा? नागार्जुन का यह असली मार्क्सवादी स्वरूप है इसे हम अपने भारतीय दार्शनिक परिप्रेक्ष्य मे कहें तो चार्वाकवादी या लोकायतवादी पक्ष है-
कल्पना के पुत्र हे भगवान/चाहिए मुझको नही वरदान
दे सको तो दो मुझे अभिशाप/प्रिय मुझे है जलन, प्रिय संताप
चाहिए मुझको नही यह शांति/चाहिए सन्देह, उलझन ,भ्रांति
रहूँ मैं दिन रात ही बेचैन/आग बरसाते रहें ये नैन
करूँ मैं उद्दण्ता के काम/लूँ न भ्रम से भी तुम्हारा नाम
करूँ जो कुछ सो निडर निश्शंक/हो नही यमदूत का आतंक
घोर अपराधी सदृश हो नत वदन निर्वाक/बाप दादो की तरह रगडूँ न मैं निज नाक
मन्दिरों की देहरी पर पकड दोनो कान/हे हमारी कल्पना के पुत्र हे भगवान।
नागार्जुन जानते हैं कि अशांति और बेचैनी ही संघर्ष और क्रांति को जन्म देती है।ईश्वरवादी होकर हम केवल भाग्यवादी की तरह सोचने लगते हैं।सच तो यही है कि ईश्वर केवल मनुष्य की एक खूबसूरत कल्पना मात्र है। सामाजिक रूढियों को तोडकर नया रास्ता दिखाना भी बडे कवि का काम है। यही प्रगतिशीलता है कि हम अपनी परम्परा से क्या और कितना गृहण करें? किसी भी समाज मे सबकुछ ग्राह्य और सबकुछ त्याज्य कभी नही होता। सच्चे कवि के पास अपना विवेक होता है कि वह अपने समाज के लिए कितना ग्राह्य है यह रेखांकित करता चले। बाबा रूप –सौन्दर्य-माधुर्य और कल्पना के कवि नहीं हैं-वे तो यथार्थ और संघर्ष के कवि हैं।मिथिलांचल से सम्भवत:दिल्ली आते समय सन 1966 में नागार्जुन अंतिम मैथिली गीत लिखते हैं-
अहिबातक पातिल फोडि-फाडि/पहिलुक परिचय कें तोडि ताडि
पुरजन परिजन सबकें छोडि-छाडि/हम जाय रहल आन ठाम
माँ मिथिले ई अंतिम प्रणाम।
यहाँ कवि की अपने घर गाँव और परिजनों को छोडने की वेदना साफ तौर पर देखी जा सकती है। बाबा नागार्जुन अनेक भाषाओं और अनेक लोक संस्कृतियों के गायक हैं। यह हिन्दी के कवियों का सौभाग्य है हिन्दी मे ऐसा कवि है जो अनेक भाषासंस्कृतियों मे निर्बाध रूप से आवाजाही करता है। हिन्दी के अलावा संस्कृत, मैथिली और बाग्ला मे भी नागार्जुन कविता करते थे। नागार्जुन ने संख्या मे बहुत अधिक गीत भले ही न लिखे हों लेकिन जो लिखें हैं वे बेजोड हैं।खासकर अकाल पर सन 1952 में लिखा गया उनका यह गीत तो आज भी बिहार की बाढग्रस्त जनता का ताजा बिम्ब सा प्रतीत होता है-
कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गस्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आये घर के अन्दर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठीं घर-भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौओं ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
और इसी क्रम में देखें-अकाल के बाद के गीत का एक अंश-
बहुत दिनों के बाद /अबकी मैं जी भर सुन पाया
धान कूटती किशोरियों की कोकिल कंठी तान।
जिसने बाढ की त्रासदी को नही देखा वह उसकी भयावहता का आकलन नहीं कर सकता। आज भी दूर-दराज मे बाढ आने पर ऐसे दृश्य आम बात है।मेरा मानना कि नागार्जुन की कविता की सबसे बडी शक्ति उनकी लोकानुरूप छन्दधर्मिता और भाषाचेतना है जिसकी ओर प्राय: आलोचकों ने कम ध्यान दिया है। किसी कवि का लोकवादी होना और जनोन्मुख होना तभी सम्भव है जब उसकी कविताओं को लोक मे व्याप्त लोक धुनों मे गाया जाता है।विचारधारा कोई भी हो वह हमारी लोक चेतना को आत्मसात किए बिना आगे नही बढती। नागार्जुन की कविताई मे विचारधारा और लोकजीवन की संवेदना का वास्तविक प्रकटीकरण दिखाई देता है।वो कोरे मार्क्सवादी या जनवादी नही हैं,इसीलिए बडे हैं।ऐसे कवि आने वाली पीढी के लिए न केवल प्रेरणा देते हैं बल्कि संघर्ष करते समय परिस्थितियों का डट कर मुकाबला करने का आत्मबल भी प्रदान करते हैं।