बुधवार, नवंबर 21, 2018


समीक्षा

‘नई सदी के नवगीत की भूमिका’

डॉ.भारतेंदु मिश्र

‘होटल वाले लड़के दिनभर /पुडिया पान चबाते हैं|’ -(राम नारायण रमण -पृ.67 खंड 4,नई सदी के नवगीत) ‘अधनंगे अधभूखे /बचपन की गिनती/जाने किस रेखा के ऊपर नीचे है’| -(जगदीश पंकज-पृ.119 वही)‘कुछ अपनों को कुहनी मारी/कुछ रिश्तों पर पाँव धरे/यो हमने सोपान चढ़े |’(संध्या सिंह,पृ.170 –वही)
इसी प्रकार नई सदी के और भी अनेक नवगीतकारों की रचनाशीलता नई सदी के नवगीत की भूमिका रच रही है,जिनमें कुछ के नाम क्रमश:- राम किशोर दहिया,रामचरन राग,रामशंकर वर्मा,मालिनी गौतम,योगेन्द्र वर्मा व्योम ,आनंद तिवारी,संजय शुक्ल,शशिपुरवार,कल्पना मनोरमा,राजा अवस्थी,रोहित रसिया,भावना तिवारी अवनीश सिंह चौहान,अवनीश त्रिपाठी,चित्रांश बाघमारे तक सब नवगीत के नए मुहावरे और नयी भाषा चेतना को लेकर आगे बढ रहे हैं इन सभी से नवगीत को बहुत आशाएं हैं| जो पहले से ही चर्चित और विख्यात हो चुके हैं उनका नाम लेना मैं बहुत आवश्यक नहीं समझता,उनकी रचनाशीलता से नवगीत की धारा यहाँ तक प्रवाहित होकर आयी है| नई संचेतना वाले नवगीत आज लिखे जा रहे हैं जिनका स्वागत है| इस दिशा में डॉ.ओमप्रकाश सिंह द्वारा संपादित और आयोजित ये पांच खण्डों वाली श्रंखला नवगीत की अविकल रचनाशीलता के संकलन की दृष्टि से अपने आप में महत्वपूर्ण है परन्तु किन्ही कारणों से संपादन और संपादकीयों को पढ़कर शोध दृष्टि से जितना आश्वस्त होना चाहिए उतना इसका महत्त्व नहीं बन पाया | इसमें मंचीय गीतकार और नवगीतकार सब एक साथ शामिल किये गए हैं| तात्पर्य यह कि जिनके सरोकार और जिनकी निष्ठा पूरी तरह से नवगीत की परिवर्तन कामी चेतना से नहीं जुडी है उन्हें भी नवगीतकारों में शामिल कर लिया गया है | यह चेष्टा मेरी दृष्टि में न तो डॉ.शंभुनाथ सिंह जी को ही मंजूर थी और न नवगीत के हित में है,क्योकि मंचीय गीतकारों की मंच लपकने के अलावा अन्य कोई निष्ठा नहीं होती| दूसरी ओर बहुत से नई सदी के प्रतिनिधि नवगीतकार इस श्रंखला में नहीं शामिल हैं|समवेत संकलनों की नवगीत में एक लम्बी परंपरा है लेकिन ‘नवगीत दशकों’ के प्रकाशन के बाद से ही नवगीतकारों ने उसे विवादित बना दिया था|फिर उसमें मंचीय गैर मंचीय तथा पूरब पश्चिम और मुजफ्फरपुर स्कूल,बनारस स्कूल तथा दिल्ली स्कूल जैसे खेमों के अलावा तरह तरह की जाति बिरादरी वाली घटिया खेमेबाजी के चलते नवगीत आन्दोलन को नवगीतकारों ने ही क्षति पंहुचाई है| प्राय: नवगीतकारों ने ही इस प्रकार के संग्रह भी तैयार किये हैं इसलिए उनके अपने जातीय और स्थानीय संकोच और सीमाएं भी रह जाती हैं| नवगीत दशक,1,2,3 में जो नियम और शर्तें तब शंभुनाथ जी ने रखी थीं|वे किसी हद तक बहुत काम की हैं,उनपर अभी विस्तार से विचार किया जाना चाहिए| आदरणीय  इन्दीवर जी ने डॉ.शंभुनाथ सिंह जी पर और नवगीत दशकों को लेकर जो महत्वपूर्ण कार्य किया है वह कदाचित इस दिशा में महत्त्व का होगा|
  डॉ.ओमप्रकाश सिंह जी की इस योजना में संकलित होने के लिए जो कुछ नवगीतकार इस प्रकार के सभी आयोजनों में शामिल होने के लिए तत्पर रहते हैं, वे यहाँ भी स्वत: प्रस्तुत हैं | नई सदी के पिछले सात आठ वर्षों में नवगीत के अनेक समवेत संकलन प्रकाशित हुए हैं परन्तु एक बात जो सब जगह दिखाई देती है वह यह कि संपादन चाहे  देवेन्द्र शर्मा इंद्र जी कर रहे हों,निर्मल शुक्ल कर रहे हों,नचिकेता, राधेश्याम बंधु ,योगेन्द्र दत्त शर्मा कर रहे हों या ओमप्रकाश सिंह कर रहे हों,एक जैसे ही रचनाकार और अधिकाँश एक जैसे ही नवगीत हैं,किन्तु एक  समय था कि डॉ.शंभुनाथ सिंह जी ने अनेक नवगीतकारों को सकारण शामिल नहीं किया था| इसलिए उनका संचयन अधिक प्रामाणिक और नवगीत की दिशा को आगे तक ले जाने वाला साबित हुआ| बहुत समय से इस प्रकार के समवेत संकलन नवगीत कवि निकालते आ रहे हैं|यह कोई नया उपक्रम नहीं है लेकिन इस बहाने कुछ नए नवगीतकारों को क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुत किया गया है यह इस योजना की शक्ति है| इन पचहत्तर नवगीतकारों के अलावा भी कुछ नवगीतकार हैं जो किसी कारण से इस योजना में शामिल नहीं हो सके लेकिन उनकी रचनाशीलता नई सदी को और नवगीत की समग्र चेतना को प्रभावित करती है| संपादक ने जिन्हें शामिल नहीं किया या जो स्वत: शामिल नहीं हुए उनकी सूची के साथ ही उनके रचनात्मक अवदान पर सकारात्मक टिप्पणी दी जाती तो शोधार्थियों के लिए सुविधा होती|
 अपनी ओर से तमाम नए रचनाकारों को नवगीत की दृष्टि से संग्रहीत करने का महत्वपूर्ण कार्य डॉ.ओमप्रकाश सिंह जी ने किया है इसके लिए उन्हें बधाई|यह कतई सहज कार्य नहीं है,तथापि यह संग्रह है ये संचयन नहीं बन सका, जबकि डॉ.शंभुनाथ सिंह जी की ‘नवगीत दशक योजना’ संचयन के अंतर्गत आती है| नवगीत संग्रह तो बहुत से आ चुके हैं- तीनो दशकों के बाद ‘नवगीत अर्धशती’ ‘यात्रा में साथ साथ’,नवगीत एकादश,जैसे संकलन आये जिनमें रचना संचयन की एक पद्धति अपनाई गयी थी|जिनमे संचयन को लेकर एक तर्क दिया गया था| बाद में कन्हैयालाल नंदन जी ने साहित्य अकादमी के मंच से ‘श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन’ निकाला ’गीतों के सार्थवाह’ -श्याम निर्मम,,गीत शती-रामस्वरूप सिन्दूर,और निर्मल शुक्ल द्वारा संपादित –शब्दायन,नचिकेता का-गीतवसुधा आदि संकलन मात्र हैं| नंदन जी ने संचयन शब्द मात्र का प्रयोग किया था संचयन की प्रक्रिया उनके पास भी नहीं थी| हमें संकलन और संचयन का अर्थ और अंतर भी समझना होगा|संकलन में सभी प्रकार की रचनाएं संग्रहीत कर ली जाती हैं लेकिन संचयन में संपादक को रचनाएँ चुनकर उन्हें विषयवस्तु के अनुरूप विश्लेषित करना होता है और  तार्किक विवेचन द्वारा कुछ रचनाओं को खारिज भी करना पड़ता है| प्रामाणिकता की दृष्टि से बहुधा संचयन के लिए एक टीम बनाकर कार्य करना होता है| अब इस योजना में देवेन्द्र शर्मा इंद्र,नचिकेता,सुधांशु उपाध्याय, महेश कटारे सुगम,शैलेन्द्र शर्मा ,मनोज जैन मधुर,देवेन्द्र सफल, के अलावा रायबरेली के ही भाई विनय भदौरिया और ‘रमाकांत’ आदि की रचनाओं का संकलन नहीं किया गया है, हो सकता है मेरी तरह इनमें से कई कवि  स्वत: शामिल न हुए हों| तथापि मैं इन्हें भी नई सदी का प्रतिनिधि नवगीतकार मानता हूँ,इन सब में नई सदी के प्रतिनिधि नवगीतकार होने की भरपूर संभावना भी  हैं| मेरा यह मानना है कि अक्सर जो रचनाएँ सहज रूप से सतह पर तैरती हुई मिल जाती हैं विमर्श की दृष्टि से वे ज्यादा महत्त्व की नहीं होतीं| हमारी चिंता नवगीत के विमर्श को आगे बढाने की है,कौन शामिल है कौन नहीं यह गौण  विषय है|इस कार्य को समीचीन ढंग से किया जाता तो इस योजना की उपयोगिता और बढ़ जाती|मुझे डॉ.साहब ने दो खंड क्रमश: चार और पांच समीक्षार्थ भेजे हैं| उनके इस भागीरथ प्रयास का स्वागत है परन्तु मेरी दृष्टि में इस योजना में संपादन संबंधी कुछ  कमियाँ हैं जो रचनाकारों की ओर से नहीं बल्कि संपादन में परिलक्षित होती हैं-उनका उल्लेख अनुचित न होगा|
 नई सदी के सामाजिक मूल्यों पर संपादकीय टिप्पणी में जिस प्रकार विस्तार से सोदाहरण  चर्चा होनी चाहिए थी उसकी झलक चौथे और पांचवें खंड की भूमिकाओं में नहीं दिखती है|हालांकि पहले के खंड मैंने नहीं देखे| तथापि नई सदी के सामाजिक –सांस्कृतिक-राजनीतिक –वैज्ञानिक-आर्थिक और मनोवैज्ञानिक मूल्य केवल विक्सित ही नहीं हुए बल्कि पिछली सदी से पर्याप्त भिन्न भी हैं,विकास की इस भिन्नता को लेकर उत्तर आधुनिकता के बाद की समकालीनता पर चर्चा की जानी चाहिए| समग्र कविता ही नहीं जीवन के रूपाकार भी बदले हैं| स्त्री विमर्श दलित विमर्श और हमारे समय की किसान चेतना आदि जो नए समय की चुनौतियाँ है उनपर भी संपादकीय में सोदाहरण विचार नहीं किया गया|
 कुछ रचनाकार पिछली सदी में ही अपनी सर्वस्व अर्थात रचानात्मक ऊर्जा नवगीत को देकर विख्यात हो चुके हैं,वे न शामिल किये जाते तो  इसका महत्त्व अतिक्त बढ़ जाता| यदि शामिल करना ही था तो नई सदी के नए मुहाबरे और समकालीन मूल्यों के आधार पर विश्लेशित करके उनकी रचनाओं का चयन किया जाना चाहिए था|पचहत्तर के बजाय पन्द्रह नवगीतकार ही चुने जाते और नई सदी की रचनाशीलता के मूल्य व्याख्यायित किये जाते तो नवगीत विधा का विशेष लाभ होता| नए नवगीतकार जो नई सदी यानी वर्ष 2000 के बाद नवगीत में आये उनका उल्लेख या उनकी रचनाशीलता का उल्लेख ही इस योजना का अभिप्रेत होता तो उचित होता| नए पुराने सब को शामिल करने से नई सदी के  नवगीत की रचनात्मक भूमि अस्पष्ट हो गयी है| नई सदी की विषय वस्तु और रचाव में पर्याप्त नवाता है जो कहीं कहीं दिखाई देती है और संकलित कई नवगीतकारों में नजर नहीं आती|
  रचनात्मक कालक्रम का भी ध्यान संपादक को रखना चाहिए था जो नहीं रखा गया है| इस दृष्टि से समीक्षक की कठिनाई बढ़ गयी है| मेरी दृष्टि में आयु की वरिष्ठता के हिसाब से रचनात्मकता की वरिष्ठता उल्लेखनीय होती है| बहुत से नवगीतकार 60 वर्ष की आयु के बाद नवगीत में सक्रिय  हुए तो उन्हें हम यश मालवीय से पहले क्रम पर कैसे रख सकते हैं ? अर्थात वास्तविक आयु और नवगीत सृजन की आयु में अंतर दिखाई देना चाहिए था| यह क्रम निर्णय कवियों के प्रकाशित नवगीत संग्रहों अथवा उनकी रचनाओं की प्रकाशन तिथि के कालक्रम के आधार पर तय किया जाना चाहिये,न कि उनकी वास्तविक आयु से|इस रचनात्मकता के कालक्रम से  यदि कवियों को प्रस्तुत किया जाता तो यह संकलन अधिक महत्वपूर्ण हो जाता | उदाहरण के लिए अभिनेता आमिर खान की उम्र से ज्यादा उम्र का कोई  व्यक्ति बाद में अभिनय के क्षेत्र  में आ जाता है तो अभिनय की बात करते समय क्या उसे हम आमिर खान से पहले रखेंगे ? और यदि कोई रख भी दे तो उसकी रचानात्मक वरिष्ठता स्वीकार कौन करेगा ? इसीप्रकार सभी अन्य कलाओं के क्षेत्र में समझना चाहिए| रचनात्मक अनुभव की उम्र और वास्तविक उम्र दो अलग अलग चीजें हैं| मुझे लगता है इस विषय पर हम सबको और विचार करना चाहिए|
 चौथे खंड में नई सदी के मूल्यों पर विचार करते समय बिना नवगीत के उद्धरणों के ही नवगीत संबंधी विचारों को प्रमुखता से रेखांकित किया गया है लेकिन वहीं संपादक जी ने पृष्ठ 28 पर अपना ही एक नवगीत अंश उद्धरण के रूप में प्रस्तुत किया है इसके स्थान पर अन्य 74 नवगीतकारों में से कुछ अन्य  उद्धरण होते  तो बात और प्रामाणिक लगती| दूसरी ओर कुछ मंचीय कवियों द्वारा गीत नवगीत के अंतर पर बहस जारी रखने का भी अब महत्त्व नहीं रहा गया है| ज्यादातर आत्मकथ्यों में नवगीत क्या है यही बात स्पष्ट करने की ललक दिखाई देती है| यह समझाने के लिए बार बार जो तमाम तर्क दिए गए हैं उनका भी अब बहुत महत्त्व नहीं रह गया है| इसके अलावा चौथे खंड की भूमिका में पृ-14 पर डॉ.राजेश सिंह के कथन का उद्धरण दिया गया है| यद्यपि उनकी नवगीत आलोचना की पुस्तक – ‘समकालीन नवगीत का विकास’ मैंने नहीं देखी|इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष और प्रकाशक आदि का विवरण भी दिया जाता तो अच्छा होता|
अधिक अच्छा होता कि इस योजना में न शामिल होने वाले जिन रचनाकारों का उल्लेख पाचवें खंड में पृ-38 पर किया गया है,उन पर भी सोदाहरण बात की जाती| यदि उनकी रचनाशीलता भी नई सदी के नवगीत को प्रभावित करती है तो उनपर केन्द्रित एक अलग से टिप्पणी तो होनी चाहिए थी| ताकि शोधार्थियों को स्पष्ट हो जाता कि जो कुछ श्रेष्ठ या अश्रेष्ठ नवगीतकार इस योजना में शामिल नहीं हुए वो भी नई सदी के मूल्यों के नवगीत रच रहे हैं|
 .आज की तारीख में या वर्ष 2018 में  लिखा प्रत्येक नवगीत नई सदी का नवगीत कैसे हो सकता है ?इस बात पर जो विचार किया जाना चाहिए वह भी समुचित ढंग से नहीं हो पाया है|सोशल मीडिया पर नवगीत को लेकर बहुत काम किया जा चुका है और किया जा रहा है उसे नजरअंदाज करना कतई उचित नहीं है| उसका भी उल्लेख संपादकीयों में नहीं है| | पूर्णिमा वर्मन जी की इंटरनेट पत्रिका अनुभूति में हजारों नवगीत और अनेक नवगीत विषयक समीक्षात्मक  आलेख भी प्रकाशित  हो चुके हैं| ‘नवगीत की पाठशाला’ ‘नवगीत विमर्श’ जैसे अन्य इंटरनेट पर बने नवगीत समूह नवगीत की रचनाशीलता को गहरे तक प्रभावित कर रहे हैं| महात्मागांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी वि.वि. की वेब साईट ‘हिन्दी समय’ पर भी नवगीत  और नवगीतकारों का संचयन संकलन प्रकाशित किया गया है| ‘हिन्दी विकीपीडिया’ आदि मंचों से पूरी दुनिया में नवगीत की पहचान बनी है| इसीप्रकार अभी दो वर्षों से भाई रामकिशोर दहिया का व्हाट्सेप ग्रुप –‘संवेदनात्मक आलोक’ जैसे आयोजन नवगीत के लिए किये गए तो इस प्रकार के सकारात्मक परिश्रम को संपादकीयों में एकदम नजरअंदाज कर दिया गया है| मैंने पहली बार कई नए युवा नवगीतकारों को इसी सोशल मीडिया के माध्यम से पढ़ा और जाना| वास्तव में ये फेसबुक,ब्लॉग,नेट पत्रिकाएँ आदि सब सोशल मीडिया के उपादान भी नई सदी के नवगीत की रचनाशीलता को गहरे तक प्रभावित कर रहे हैं| अच्छी, कम अच्छी कवितायेँ कहीं भी हो सकती हैं| वर्ष 2009 से लगातार मैं भी ‘छन्दप्रसंग’ ब्लॉग पर अनेक समीक्षात्मक आलेख और समीक्षाएं प्रकाशित करता आ रहा हूँ|
अंतत: मेरा मानना है कि जब हम ‘नयी सदी के नवगीत’  पर बात कर रहे हैं तो संपादन में सम्मिलित नवगीतकारों पर भी विस्तार से टिप्पणी करना अवश्यक था| बिना समुचित कारण के कुछ लोगों को शामिल कर लिया जाएगा तो एक भ्रम की स्थिति बन ही जाती है| उदाहरण के लिए नब्बे के दशक में देवेन्द्र शर्मा इंद्र जी ने ‘सप्तपदी ’  योजना बनायी हममें से अधिकाँश छंदोबद्ध कवि उसमें शामिल भी थे| हर खंड में सात दोहाकार शामिल किये गए लेकिन उसे विस्तार देने के चक्कर में ऐसे कई नए पुराने कवियों से दोहे लिखवाकर संख्या पूरी करनी पडी| परिणाम ये हुआ कि सप्तपदी जैसी नए दोहों की महत्वपूर्ण योजना से जिससे दोहे की नई रचनाशीलता का श्रीगणेश हुआ था, वह अनावश्यक विस्तार देने के चक्कर में असंतुलित हो गयी | इसप्रकार  दोहों की सर्जना भूमि विक्सित होने के साथ ही छिन्न भिन्न भी होने लगी| संपादक का कार्य वास्तविक रूप में यश देने वाला तभी  हो सकता है जब संपादक तटस्थ होकर विषय के साथ न्याय करे|मुझे लगता है कि ‘नई सदी के नवगीत’ को लेकर नवगीतकारों का जमावड़ा खडा कर लेने से काम नहीं चलेगा| संपादक को बताना होगा कि जिन लोगों ने कई दशक पूर्व नवगीत की परंपरा विकसित और  पल्लवित की थी नई सदी के दौर में भी वे किस प्रकार नवगीत के प्रतिनिधि हैं ?  इनमें संकलित अधिकाँश नवगीतकारों को मैं उन्हें नवगीत की गौरवशाली परंपरा में देखता हूँ| इसीलिए मुझे लगता है कि यदि रचनाओं के भीतर घुस कर देखा जाय तो इन ७५ नवगीतकारों में से अनेक मंचीय गीतकार,पारंपरिक गीतकार और पुराने ढंग की गीत चेतना दुहराने वाले नवगीतकार भी मिलेंगे|
 चौथे और पांचवे खण्डों की भूमिका लिखते समय  संपादक जी ने नवगीत की आलोचना और समीक्षा से जुड़े लोगों के बारे में भी सही ढंग से विचार नहीं किया है| डॉ. राजेन्द्र गौतम की समीक्षा और उनकी विख्यात पुस्तक –‘नवगीत उद्भव और विकास’ या उनके बाद में लिखे गए आलेखों का जिक्र किया जाना चाहिए था जिसका शताधिक शोधग्रंथों और आलोचना पुस्तकों में  उल्लेख किया जा चुका है| मुझे लगता है कि नवगीत की आलोचना के क्षेत्र में नाम उल्लेखनीय हो चुका है| विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी के संपादन में ‘दस्तावेज’ का नवगीत अंक प्रकाशित हुआ था|इसके अलावा नई सदी में 2005 के बाद प्रकाशित माहेश्वर तिवारी जी के संपादन में –उ.प्र.हिन्दी संस्थान की पत्रिका-साहित्य भारती’ का नवगीत अंक,मधुकर अस्थाना जी के संपादन में आया - ‘अपरिहार्य’ का नवगीत विशेषांक भी संपादक को इस योजना को क्रियान्वित करने से पहले देखना चाहिए था | लगभग तीन दशकों से मैं भी गीत नवगीत की रचनाशीलता को देख रहा हूँ| अनेक संयोग मिले जब डॉ.ओमप्रकाश सिंह जी के साथ नवगीत पर विमर्श में शामिल भी रहा हूँ| उनकी किताब पर टिप्पणी भी की | बैसवारा से जुड़ा होने के नाते उनका स्नेह भी मिलता रहा|परन्तु प्रसन्नता इस बात की है कि मेरे भी अनेक तर्क उनके संपादकीय में बिना मेरे नाम के शामिल कर लिए गए हैं|
अंतत: चिंता है तो नई सदी के नवगीत की दिशा की है| शायद इसीलिए हम सब एकत्र हुए हैं|नई पीढी हमसे अधिक सजग और तार्किक है|आज भले ही लोग सामने खड़े होकर सवाल न करे लेकिन इस संग्रह की सार्थकता को लेकर ऐसे कई सवाल अवश्य उठ रहे हैं,उठेंगे और उठने भी चाहिए जो जाति धर्म और स्थानीय प्रश्नों से बहुत ऊपर हैं क्योकि आज नवगीत हिन्दी कविता की अन्तरराष्ट्रीय विधा है|संपादकीयों में अपनी ही पुस्तकों के सन्दर्भ देना और नवगीत दशकों की भूमिकाओं का सन्दर्भ अथवा अन्य आलोचकों का सन्दर्भ न दिया जाना भी मेरे लिए आश्चर्य की वस्तु है| काश यह जल्दबाजी में बनायी गयी महत्वाकांक्षी योजना नवगीत संग्रह के रूप में न होकर रचनाशीलता के आधार पर नए नवगीत की खोज और उसके संचयन पर केन्द्रित होती|कुछ कवियों के चित्र चिपकाए जाने के कारण वैचित्र्य भी प्रस्तुत करने लगे हैं| कवियों के चित्र न होते तो भी उनके नवगीतों में उनका चेहरा चमकता रहता| चाहे पचहत्तर की जगह पन्द्रह ही रह जाते तो उन्हें हम नई सदी के नवगीत की नयी पीढी का प्रतिनिधि मान लेते| बहरहाल मेरा मानना है कि नवगीत नवता की व्याकरण लेकर आगे बढ़ रहा है| चौथे और पांचवे खंड के अनेक नवगीतकार नई सदी की नवगीत चेतना का प्रतिनिधित्व ही नहीं करते बल्कि नए मुहावरे को लेकर आश्वस्त भी करते हैं पर इनका भी संपादकीय में समुचित विश्लेषण किया जाता तो और अच्छा होता| साहित्य हो या जीवन समय के अनुरूप उसकी आलोचना भी होनी चाहिए | इसी तथ्य को युवा नवगीतकार चित्रांश बाघमारे के शब्दों रख कर अपनी बात समाप्त कर रहा हूँ-
पिता से भी बड़ा ओहदा /पुत्र जब से पा गया है
एक पूरा युग खिसक कर/ हाशिये पर आ गया है|- (चित्रांश बाघमारे-पृ.229 खंड 5 ,न.सदी के नवगीत)
तो नवगीत के रचाव और संवेदना में भी पीढ़ियों का अंतर आया है कुछ लोग भले ही पचास वर्ष पहले  श्रेष्ठ नवगीतों के जनक रहे हों लेकिन आज उनमें से कुछ लोग हाशिये पर भी आ गए हैं| समीक्षा के लिए ये पड़ताल जरूरी है|

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