रविवार, जून 20, 2010

जेठ की दुपहरी  
दो घनाक्षरी

(डाँ श्याम गुप्त)

दहन सी दहकै, द्वार देहरी दगर दगर ,

कली कुञ्ज कुञ्ज क्यारी क्यारी कुम्हिलाई है।

पावक प्रतीति पवन , परसि पुष्प पात पात ,

जरै तरु गात , डारी डारी मुरिझाई है ।

जेठ की दुपहरी सखि, तपाय रही अंग अंग ,

मलय बयार मन मार अलसाई है।

तपैं नगर गाँव ,छावं ढूंढ रही शीतल ठावं ,

धरती गगन 'श्याम' आगि सी लगाई है।1।


सुनसान गलियाँ वन बाग़ बाज़ार पड़े ,

जीभ को निकाल श्वान हांफते से जारहे।

कोई पड़े ऐसी कक्ष कोई लेटे तरु छाँह ,

कोई झलें पंखा कोई कूलर चलारहे

जब कहीं आवश्यक कार्य से है जाना पड़े ,

पोंछते पसीना तेज कदमों से जारहे।

ऐनक लगाए ,श्याम छतरी लिए हैं हाथ,

नर नारी सब ही पसीने से नहा रहे॥2।

( श्याम गुप्त के मेल द्वारा प्रकाशनार्थ प्राप्त)





गुरुवार, जून 17, 2010


धार पर हम -2 : लोकार्पण और विमर्श


(प्रस्तुति:विनोद श्रीवास्तव,कानपुर)



11 मई,कानपुर,जुहारीदेवी महिला महाविद्यालय के प्रांगण में गीतकार वीरेन्द्र आस्तिक द्वारा सम्पादित धार पर हम-2 का लोकार्पण सम्पन्न हुआ। इस समारोह का आयोजन काव्यायन ,जनसंवाद तथा बैसवारा शोध संस्थान के सहयोग से किया गया। समारोह की अध्यक्षता हैदराबाद से पधारे विचारक डाँ विजेन्द्र नारायण सिंह ने की। इस अवसर पर डाँ विमल,राजेन्द्र राव,दिनेश प्रियमन आदि ने धार पर हम के बहाने इस गीत चर्चा मे भाग लिया। बीज भाषण डाँ विमल ने प्रस्तुत किया।उनका कहना था कि गीत नवगीत को कविता से अलग करके देखने की जरूरत नही है। कानपुर के कथाकार पत्रकार राजेन्द्र राव ने आस्तिक जी द्वारा लिखी पुस्तक की भूमिका पर विचार व्यक्त किये। दिनेश प्रियमन ने भी इस अवसर पर सम्पादक आस्तिक जी को बधाई दी और कहा कि यह संकलन धार पर हम -1 की तुलना मे अधिक पोटेंशियल वाला है। अपने अध्यक्षीय भाषण मे डाँ.विजेन्द्र नारायण सिंह ने पुस्तक के सम्पादकीय पर बोलते हुए अनेक ऐतिहासिक समवेत संकलनों पल्लव,तारसप्तक आदि की परम्परा से धार पर हम-2 को जोडते हुए इस संकलन के महत्व की विस्तार से चर्चा की। विषय को आगे बढाते हुए उन्होने डोमन साहू समीर,ठाकुर प्रसाद सिंह के गीतों पर भी टिप्पणी की तथा पुस्तक में संकलित मधुसूदन साहा,ओमप्रकाश सिंह,भारतेन्दु मिश्र आदि के गीतों को सन्दर्भित करते हुए अपने विचार व्यक्त किए। और अंत मे बैसवारा शोध संस्थान के अध्यक्ष डाँ ओमप्रकाश सिंह ने सभी के प्रति आभार व्यक्त किया। गीत विमर्श की दृष्टि से चर्चित इस समारोह का संचालन गीतकार विनोद श्रीवास्तव ने किया। यह समाचार दैनिक जागरण,राष्ट्रीय सहारा ,हिन्दुस्तान ,अमर उजाला जैसे अनेक प्रतिष्ठित अखबारों मे भी प्रमुखता से प्रकाशित हुआ।

बुधवार, जून 09, 2010

गीत के विविध आयाम :



                                       (चित्र में प्रो.सिदूर भाषण देते हुए,मंच पर अवधबिहारी श्रीवास्तव,नचिकेता,प्रो.रमेशकुंतल मेघ,भारतेन्दु मिश्र,  देवेन्द्र सफल और संचालक)

हल्दी के छापे का पुनर्पाठ

पिछले दिनों 17-18 अप्रैल कानपुर, भाई देवेन्द्र सफल के गीत संग्रह लेख लिखे माटी ने के लोकार्पण के बहाने कानपुर जाने का सुयोग बना। वहाँ की दो दिवसीय गीत गोष्ठी देवेन्द्र सफल ने ही आयोजित की थी। इस कार्यक्रम में प्रो.रमेशकुंतल मेघ चंडीगढ से पधारे थे,वरिष्ठ गीतकार नचिकेता पटना से पधारे थे। प्रो.रामस्वरूप सिन्दूर इस समारोह के अध्यक्ष थे। यह दो दिवसीय गोष्ठी समकालीन हिन्दी कविता मे गीत नवगीत के रचना विधान और गीत के विविध आयामों को समझने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण रही। बहुत बडा कोई सरकारी मंच नही था। इसे व्यक्तिगत तौर पर गीतकार देवेन्द्र सफल ने अपने प्रयास से आयोजित किया था। यही इस कार्यक्रम की सीमा भी थी कि वह किसी एक कवि द्वारा आयोजित किया गया था,और यही इस कार्यक्रम की शक्ति भी । बहरहाल इसी बहाने यहाँ अवधबिहारी श्रीवास्तव, वीरेन्द्र आस्तिक,शैलेन्द्र शर्मा,विनोद श्रीवास्तव जैसे कानपुर के कवियों से इस अवसर पर मिलने का मौका मिला जो मेरे लिए बहुत सुखद रहा। कानपुर से लौटकर श्रेष्ठ नवगीतकार कवि अवधबिहारी श्रीवास्तव की जो छवि मन पर अंकित हुई वह अविस्मरणीय है। उनकी पुस्तक हल्दी के छापे को दुबारा पढते हुए सचमुच बहुत संतोष मिला।आमतौर पर कुछ ही ऐसी पुस्तकें होती हैं जिन्हे आप दुबारा या बार बार पढना चाहते हैं हल्दी के छापे वैसी ही पुस्तक है। समकालीन कविता के रचनात्मक अभियान को सबल बनाते पुस्तक के कुछ गीत कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व की सुगन्ध बिखेरते हैं।हालाँकि हल्दी के छापे का प्रकाशन 1993 मे हुआ था किंतु अभी इन गीतों की चमक तमाम कवियों को चकित करती है।ये गीत कवि के आसपडोस की लोकधर्मी जीवन शैली से सीधे तौर पर जुडे हैं। अवधबिहारी जी ने बहुत अधिक गीत नही लिखे लेकिन जो गीत उनकी सधी हुई लेखनी से जनमें है वो बडे महत्वपूर्ण हैं। उनकी इस पुस्तक में गीत नवगीत प्रगीत और आख्यान धर्मी लम्बी कविताएँ भी संकलित हैं। ठाकुर प्रसाद सिंह ,अमरनाथ श्रीवास्तव,शतदल आदि ने अवधबिहारी के इन गीतों पर टिप्पणी की है।ठाकुर प्रसाद जी कहते हैं-‘हल्दी के छापे में ऐसे गीतों की संख्या बहुत बडी है जो अवधबिहारी के अत्यंत अंतरंग क्षणो के साक्षी हैं।’ यह अंतरंगता ही कवि के निजीपन का साक्ष्य बनती है और कविता में सौन्दर्य की चमक पैदा करती है। अवधबिहारी जी के कुछ गीत अंश देखिये-

भाभी की चपल ठिठोली है/माँ के आँचल की छाया है दादी की परी कथाओं का/वह जादू है वह टोना है हम हँसते थे घर हँसता था/फिर यादों में खो जाता था मैने देखा है कभी कभी/घर भूखा ही सो जाता था मुझको तीजों त्योहारों पर/दरवाजे पास बुलाते थे खिडकियाँ झाँकती रहती थीं/कमरे रिश्ते बतलाते थे आँगन में चलती हुई धूप/कल्पना लोक में चाँदी है दीवारों पर सूखती हुई/मक्के की बाली सोना है वैसे तो माटी माटी है/मेरे बाबा वाला वह घर लेकिन यादों का राजमहल/उस घर का कोना कोना है। माता पिता और अपने सगे सम्बन्धियों पर अनेक कविताएँ हिन्दी के कवियों ने लिखी हैं लेकिन अपने घर आँगन पर ऐसा मार्मिक मुझे इससे पहले कहीं पढने को नही मिला। अवधबिहारी के पास ऐसे कई गीत हैं जो गृहरति की व्यंजना को व्यापक स्तर पर सघन और सुसंवेद्य बनाते हैं। कवि के पास अपना घर आँगन है और अपनी कृषि संस्कृति वाली प्राथमिकताएँ हैं-

लगता है बरसेगा पानी/धूप भागकर गयी क्षितिज तक/वर्षा की करने अगवानी। इसके अतिरिक्त- चौक पूरते हाथ कलश जल,मन में उत्सव भरें/नयन में कितने चित्र तिरें गोबर लिपी देहरी खिडकी मुझसे बातें करें/नयन में कितने चित्र तिरें।

लोक जीवन के ऐसे विरल चित्र अवधबिहारी के यहाँ कई रूपों मे उभरते हैं।व्यंग्य और विसंगति का एक चित्र देखिए- मै बरगद के पास गया था छाया लेने

पर बरगद ने मुझसे मेरी छाया ले ली।

तथाकथित महान लोगों पर कवि का यह व्यंग्य कितना सार्थक है कहने की आवश्यकता नही। कानपुर की इस साहित्यिक यात्रा में मेघ जी का सानिध्य सिन्दूर और नचिकेता जी का स्नेह तथा वीरेन्द्र आस्तिक,अवधबिहारी श्रीवास्तव,शैलेन्द्र शर्मा ,विनोद श्रीवास्तव और देवेन्द्र सफल जैसे कानपुर के गीतकारों की कविताई का साक्षी बनने का अवसर मिला। भाई देवेन्द्र सफल को धन्यवाद कि उन्होने मुझे इस गोष्ठी में आमंत्रित किया।