सोमवार, जुलाई 29, 2013

माहेश्वर तिवारी की नवगीत चेतना


(चौहत्तरवें सावन पर विशेष)

भारतेन्दु मिश्र

कैद हुए हैं जब से बुने हुए घेरे में
गर्म-गर्म साँसों के शब्द हैं अँधेरे में
बहुत बहुत दिन हुए
कन्धों को सौंपते जुए।

अब इस समय यह पूरा गीत तो याद नही है लेकिन मेरी दृष्टि में माहेश्वर तिवारी जी के एक नवगीत की ये अत्यंत महत्वपूर्ण और चर्चित पंक्तियाँ हैं।इस केन्द्रीय भावना वाले नवगीत कवि के पास निम्नमध्यवर्ग के श्रमजीवी -आम आदमी की मार्मिक संवेदना है इस बात का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है।यहाँ कन्धों को जुए सौंपने का जो बिम्ब है, वह हमारी जातीय या कहें कि मूल किसान चेतना की अवधारणा से सीधे तौर पर जुडा हुआ है।इसे हम यथास्थितिवाद से भी जोडकर नहीं देख सकते । काव्य हो कोई अन्य कला माध्यम कलाकार अपने समय से ऊबकर या अपनी परिस्थिति मे डूबकर भी अपने समाज को आइना दिखाने का काम करता है। यहाँ माहेश्वर जी नवगीत के माध्यम से जीवन की जडता से संघर्ष का रास्ता खोजते हुए नजर आते हैं।अपने समय के मनोविज्ञान को चित्रित करते सकारात्मक सूक्ष्म संवेदना वाले ऐसे उनके अनेक गीत हैं।
पाँच जोड बाँसुरी के बाद विशेषत: नवगीत दशक -2 से नवगीत की चर्चा मे आए नवगीतकार माहेश्वर तिवारी उन नवगीतकारो मे है जिन्होने नवगीत की विशाल भूमिका तैयार करने मे सतत योगदान भी किया। हरसिंगार कोई तो हो,नदी का अकेलापन,सच की कोई शर्त नही,और फूल आए हैं कनेरो पर शीर्षक से उनके कई नवगीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। हिन्दी नवगीत की दीर्घ सेवा मे माहेश्वर तिवारी जी का नाम बडे आदर से लिया जाता है। असल मे नवगीत आन्दोलन जिन कुछ कवियो की सतत रचनाशीलता के कारण स्थिर हुआ है माहेश्वर तिवारी उनमे से एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। डाँ शम्भुनाथ सिंह ने जिन प्रमुख नवगीतकारों को लेकर नवगीत दशकों की योजना बनाई थी उनमे माहेश्वर तिवारी जी की एक खास भूमिका रही है।
बीती सदी के सातवें दशक के उत्तरार्ध और आठवें दशक के मध्य तक नवगीत दशक और नवगीत अर्धशती का प्रकाशन हो पाया। यह नवगीत के व्याकरण को स्थापित करने और नवगीतकारों की रचनाशीलता को रेखांकित करने की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ समय था। इसी बीच माहेश्वरजी के नवगीत भी पत्र पत्रिकाओ मे प्रकाशित होने लगे थे।लेकिन उनकी पहला नवगीत संग्रह सन 1981 मे हरसिंगार कोई तो हो-शीर्षक से प्रकाशित हुआ।संकलन समय पर छप जाना या बाद मे छपना कोई विशेष अर्थ नही रखता किंतु रचनाकार के बारे मे मुकम्मल धारणा बनाने मे संग्रह का अपना महत्त्व होता है,यह तो निर्विवाद है। यहाँ मै यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ कि नवगीत दशको की योजना मे कुछ नाम शम्भुनाथ जी ने भर्ती के भी शामिल किए लेकिन माहेश्वर जी का नाम उस योजना मे चार चाँद लगाता है। उनकी रचनाएँ अपनी अलग छवि के कारण नवगीत दशको के कई कवियो की तुलना मे अधिक चर्चित हुईं।माहेश्वर जी के गीतो मे संवेदना की सूक्ष्मता के अनेक बिम्ब बहुत आकर्षित करते हैं।यह दृष्टि बहुत साधना के बाद निखरती है –
उंगलियों से कभी
हल्का-सा छुएँ भी तो
झील का ठहरा हुआ जल
काँप जाता है।
एक हल्की सी क्रिया की गहरी प्रतिक्रिया सुनी तो जाती है लेकिन उसे इतने सादे ढंग से सूक्ति बद्ध करना सबके बस की बात नही है। एक हल्के स्पर्श द्वारा मन की गहरी झील को कँपा देनी की संवेदना का पता हमे इस दौर के बहुत कम नवगीतकारों मे मिलता है,यह माहेश्वर जी की खूबी है। एक और ऐसा ही सुकुमार मन वाले पेड का चित्र देखिए- जंगल का घर छूटा
कुछ कुछ भीतर टूटा
शहरों में
बेघर होकर जीते
सपनों में खोये हैं पेड़/कोहरे मे सोए हैं पेड.।
जंगल से बिछुडकर शहरों में पेडों का जीवन कवि मनुष्य की संवेदना से ।देखता है।लगता है कि मनुष्य भी सपनो मे खो जाने और कोहरे मे सो जाने के लिए विवश है।आजकल शहरो मे बार बार पुनर्वास की पीडा हम सभी को भोगनी पड रही है।बार बार बेघर होने की संवेदना पूरब के अधिकांश लोगो की निजता मे शामिल हो गयी है। पुरानी घर गाँव की यादों की संवेदना जिसे व्यापक रूप मे गृहरति से जोडकर देखा जाता है,-का व्यापक चित्रण माहेश्वर जी के अनेक नवगीतों मे देखने को मिलता है।जैसे-
याद तुम्हारी जैसे कोई/कंचन-कलश भरे।/जैसे कोई किरन अकेली/पर्वत पार करे।
यह माहेश्वर जी की अपनी भूमि या कहें कि उनकी निजता है।किरन का अकेले पर्वत पार करना तो मानो सूक्षम संवेदना की सघन सौन्दर्य चेतना है।यहाँ जो याद के कारण उपजी चिंता और उस चिंता से उपजा एक अनजाना भय हम सबको गहरे तक मथ जाता है,वह देखने योग्य है।अपने घर परिवार गाँव जवार की याद को नास्टेल्जिया के तौर पर भारतीय कविता के मानस मे नही देखा जा सकता। यह पलायन वाद भी नही है।मै तो इसे गृहरति की व्यापक व्यंजना के तौर पर ही गृहण करता हूँ,और कमोबेश हर संवेदन शील कवि मे यह व्यंजना होती है-
हँसी के झरने,
नदी की गति,
वनस्पति का
हरापन
ढूँढ़ते है फिर
शहर-दर-शहर
यह भटका हुआ मन
छोड़ आए हम हिमानी
घाटियों में
धार की चंचल, सयानी छाँह।
बल्कि यही गीत नवगीत चेतना का मूल बिन्दु है ।अपनी निजता की खोज हम सभी अपने तौर पर करते ही रहते हैं। यह मनुष्य का स्वभाव है।कंकरीट के शहरी जंगल में हँसी का एक पल,एक बालिश्त हरापन,एक अदत सयानी छाँह जब तक अपने लिए मनुष्य खोजता है तभी तक वह सच्चे अर्थ मे संवेदनशील मनुष्य है।देखी भोगी हुई प्रकृति की चाह किसे नही होती।
दूसरी ओर नगर बोध एक डरावनी बिल्ली की तरह हमे हर वक्त सजग रहने के लिए विवश करता है। यहाँ शातिर लोग हमारी मनुष्यता को नोचते जा रहे हैं और हम उनके चालाक पंजो मे अपनी चेतना को फँसा हुआ देख रहे हैं।हमारी अपनी मनुष्यता भी छीज रही है। माहेश्वर जी का अनुभव हम सबका अनुभव है देखिए-
हम पसरती आग में
जलते शहर हैं
एक बिल्ली
रात-भर
चक्कर लगाती है
बात यहीं खत्म होने वाली नही है। यह दुनिया नदी की धार की तरह सदैव चलायमान है कुछ भी स्थिर नही है।इस समय की नश्वरता का बिम्ब देखें कितना मार्मिक है-
न मछली
न बादल
न गहरा अतल-तल
थिर नहीं होता कहीं कुछ
नदी के जल में
मार्मिकता तब और बढ जाती है जब माहेश्वर जी अपने वर्तमान को सहज व्यंजना शक्ति के माद्धयम से महानगर बोध को ऐतिहासिक दृष्टि से देखते हैं।–
इतिहासों के
कूड़ाघर में
पड़ी आम्रपाली .
बुद्धं शरणम को
अगोरती
स्मृतियाँ काली ,

मंत्रि परिषदें ,गणाध्यक्ष
बस खुशहाली में हैं |
............................ श्रेष्ठिजनों ,भूखों में
बस्ती का है
बंटा समाज
सड़कों -गलियों में
शव रखकर
भाग रहे सब
आज |

पहले जैसा अब
काशी का नहीं समाज रहा |
इन उदाहरणो मे इतिहास बोध तो है लेकिन इतिहास की शव साधना नही है।जैसा कि आजकल तमाम गीतकार /कवि इतिहास बोध के रूप मे सांस्कृतिक उद्धार की दृष्टि से अपना कुछ खास एजेण्डा लेकर चल रहे हैं।माहेश्वर जी के पास संवाद करती हुई भाषा का जादू है,और संवेदनशील लोगो के बीच संवादहीनता की चिंता भी है।हम बढती भीड मे कितने अकेले हो गए हैं यह महानगरीय जीवन का दैनन्दिन स्वर है जो हमारी संवेदना को लगातार झकझोरता है ।बहरहाल यह तो सच है कि हम महानगर के लोग अपने मे इतना खो गये हैं कि सहज बतकही तक का अवकाश अब किसी के पास नही रहा-
खुद से खुद की
बतियाहट हम
लगता भूल गए। माहेश्वर जी के पास नवगीत की सशक्त भाषा है-सधा हुआ छन्द है-नित नूतन युगबोध का मुहावरा है और सूक्ष्म सहज अभिव्यक्ति है की संवेदना है ।आम आदमी के दुखदर्द का पता इन नवगीतों मे साफ दिखाई देता है।रमेश रंजक,वीरेन्द्र मिश्र,देवेन्द्र शर्मा इन्द्र,उमाकांत मालवीय आदि नवगीतकारो की श्रेष्ठ काव्य परंपरा को कुमार रवीन्द्र और माहेश्वर तिवारी जी आगे ले जाते हैं।देखें समय की विडम्बना ढोते दिन का चित्र- सूखे मे बाढ में फँसे हैं दिन/अजगर की दाढ मे फँसे हैं दिन/आसमान से टपके थे भविष्य बनकर जो/सुनते हैं ताड. में फँसे हैं दिन।
असल में दिन नहीं हमारा पूरा जीवन आसमान से टपक कर ताड मे फँसा हुआ सा नजर आता है। कवि की सूक्ष्म चेतना दिन के कई हिस्सो तक जाती है और वहाँ से लौटकर क्षणवादी विसंगतियों के साथ यथास्थिति और निरर्थकता बोध को मानवीय सरोकारो के समक्ष रखकर उसकी समीक्षा करती है।कमोबेश यही स्थिति हम सभी संवेदनशील रचनाकारों/बुद्धिजीवियों की है-
धूप थे बादल हुए तिनके हुए/सैकडो हिस्से गये दिनके हुए/दफ्तरो से लौट आया है शहर/हम कभी इनके हुए उनके हुए।
अंतत:माहेश्वर तिवारी जी की नवगीत यात्रा हमें नवगीत के उस पडाव के रूप मे नजर आती है जहाँ से नए नवगीत कवियों के लिए अनुभव की सहस्र-धाराएँ फूटती हैं।मेरी दृष्टि में वे जनपक्ष के नवगीतकार हैं और श्रम सौन्दर्य के अनुपम चित्रकार भी हैं। किंतु वे जनवादी राजनीति के अनुरूप जनगीतकार नहीं हैं। वे अपने जन और लोक ,समय और समाज के लिए आज भी रच रहे हैं। हमें विश्वास है कि वे शतायु होकर भी अपनी रचना धर्मिता से हमे प्रेरित करते रहेंगे।

संपर्क:
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शुक्रवार, जुलाई 19, 2013

मूकसरस्वती के साधक :देवेन्द्रशर्मा इन्द्र (अस्सीवें वर्ष में प्रवेश पर विशेष)

>मूक सरस्वती के साधक : देवेन्द्र शर्मा इंद्र
डाँ भारतेन्दु मिश्र

कविवर देवेन्द्र शर्मा इन्द्र समकालीन कविता मे गीत नवगीत के केन्द्रीय स्वर के रूप मे प्रतिष्ठित वह नाम हैं जिन्होने शताधिक कवियो की भूमिकाएँ लिखकर उनका पथ प्रदर्शन किया है। नवगीत दशक 1 के यशस्वी कवि के रूप मे उनका आदर साहित्य के सभी छन्दधर्मा कवि कई दशकों से करते आए है।उन्होने विपुल मात्रा मे नवगीत दोहे और गजले कहीं हैं।अभी लगातार वे लिख रहे हैं।सैकडो की सख्या मे उनके गीत/गजले और हजारो दोहे अभी अप्रकाशित हैं इस सबके बावजूद वे सतत लेखन रत हैं।कुछ और नए कीर्तिमान बन जाने की सहज आशा बनती है।उनकी यह कविताई ही उनकी जीवनी शक्ति है।हिन्दी कविता के आलोचक उनकी कविताई को किस तरह से देखते हैं और उनके विषय मे क्या टिप्पणी करते हैं यह तो समय ही बताएगा।अभी उनका अधिकांश कविकर्म प्राय: असमीक्षित ही है।यद्यपि उनके कविकर्म को केन्द्र मे रखकर देश भर के विभिन्न विश्वविद्यालयो से एक दर्जन से अधिक शोध कार्य हो चुका है। समकालीन हिन्दी कविता में गीत/नवगीत/दोहा और गजल की जो छटा दर्शनीय है उसका एक हिस्सा कविवर देवेन्द्र शर्मा इन्द्र की सतत छन्द साधना पर केन्द्रित है।जैसे जैसे यह दुनिया तकनीकि के ढब से विश्वग्राम मे तब्दील हुई है उत्तर आधुनिकता के दौर में हिन्दी कविता के क्षेत्र मे एक खास तरह का इजाफा भी हुआ है।हालाँकि कविता के कई खेमे कई आन्दोलन और पडाव हमे देखने को मिलते हैं,लेकिन छन्दोबद्ध कविता की बात ही और है।जबकि एक ओर कुछ तथाकथित विचारक कहते पाए गए कि कविता मर चुकी है,कुछ चुके हुए गीतकारो ने इसी सुर मे कहा कि नवगीत मर चुका है।दूसरी ओर सबसे अधिक कविता की किताबें ही प्रकाशित होने की सूचना प्रकाशको से मिलती है। प्रकाशक कवियो से ही पैसा लेकर कवियो को ही वो किताबे बेच भी रहे हैं,परंतु कविता की रचनात्मक विकास यात्रा अवरुद्ध नही हुई।यह कहा जा सकता है कि यह गद्य का युग है लेकिन इस युग मे भी गैर मंचीय सार्थक छन्दोबद्ध कविता की ध्वजा को फहराते रहने का का कठिन कार्य आदरणीय इन्द्र जी कर रहे हैं।इसी बीच इन्द्र जी के व्यक्तित्व की परिधि का भी विस्तार हुआ है।अपनी सतत रचनाशीलता के अलावा उनके द्वारा संपादित-यात्रा मे साथ साथ-(समवेत -नवगीतसंकलन )हरियर धान रुपहरे चावल(समवेत नवगीतसंकलन)और सप्तपदी (दोहा संकलन) के सात खण्डों की व्यापक योजनाओ का साहित्य मे अलग महत्व है। श्रेष्ठ छन्दोबद्ध कविता की पहचान और कवि के चयन को लेकर उनकी प्रतिभा और क्षमता पर कोई सन्देह नही कर सकता। अपने मित्रो और प्रिय कनिष्ठो को लेकर उन्होने कभी कभी समझौते जरूर किए लेकिन उनका निर्वाह भी किया।इन्द्र जी छह दशको से लगातार छन्दप्रसंग की धूनी रमाते आ रहे हैं।इस नितांत वैयक्तिक काव्य यात्रा मे वे अकेले नही हैं उनकी एक बेटी है जो मूक सरस्वती की तरह लगातार उनकी इस काव्ययात्रा की प्रेरक और सहभागी है।इन्द्र जी उसे गोले कहकर संबोधित करते हैं,आयु के आठ दशक पूरे करने जा रहे इन्द्र जी के सृजन कर्म की वह प्रतिपल साक्षी है।गोले उनके सृजन कार्य मे बाधक भी है और साधक भी है।यही तो जीवन है ,बाधाओ मे साधना खण्डित होती दिखाई देती है पर वह खण्डित हो नही पाती ।लेकिन यदि साधना मे बाधा न आए तो फिर साधना का क्या आनन्द ? बाधाएँ सबके जीवन मे हैं लेकिन उनकी यह बाधा कुछ अलग किस्म की है। इसीलिए उनकी छन्दसाधना भी कुछ अलग किस्म की है। यह बालिका अब उम्र के 50 से अधिक वर्ष पूरे कर चुकी है किंतु छह माह के शिशु सा आचरण उनके सृजन क्षणो मे अक्सर बाधक बन जाता है।उसे खाना खिलाने से लेकर शौच आदि कराने तक प्राय: सभी कार्य वे सहज रूप से अपना दायित्व समझ कर करते हैं।वह उनसे इतना हिली हुई है कि परिवार के अन्य सदस्यो की अपेक्षा इन्द्र जी से ही प्रत्येक सेवा की अपेक्षा करती है।गोले निर्द्वन्द्व भाव से उनके पैरो पर झूलती है।जिन मित्रो का उनके घर आना जाना है वे सब प्राय: इस तथ्य से और उनके जीवन के इस कटु सत्य से परिचित हैं। मेरी दृष्टि मे यही उनकी तपश्चर्या है।वे सिद्ध है ,वे शब्द योगी हैं वे छन्दप्रसंग की अखंड धूनी रमाए हुए हैं।उनके विशाल काव्य वितान को गंभीर होकर पढने/समझने की आवश्यकता है।ऐसी मनोदशा मे जीने वाला कवि कह सकता है- घाटियों मे खोजिए मत
मैं शिखर पर हूँ।
धुँए की पगडण्डियों को बहुत पीछे छोड आया हूँ रोशनी के राजपथ पर
गीत का रथ मोड आया हूँ
मै नही भटका रहा चलता निरंतर हूँ।
यह सच बात है इन्द्र जी ने समकालीन छन्दोबद्ध कविता के रथ को बहुत आगे तक पहुँचाने का प्रयत्न किया है।इस रथ पर अनेक नए पुराने गीतकार सवार हैं इन्द्र जी ने कुशल सारथी की तरह इस रथ को राजपथ की ओर मोड दिया है। अब आगे के गीतकार उस रथ को कहाँ ले जाएँगे यह तो समय ही बताएगा।
इन्द्र जी के व्यक्तित्व की एक और खास बात है कि वे जिसे अपनाते हैं उसे पूरे मन से जोड लेते हैं और ऐसा जोडते हैं कि वो चाह कर भी उनसे विलग नही हो पाता।हालाँकि शातिर मंचीय गवैयों और आत्मसम्मोहन के नशे मे बौखलाए कवियो से वे स्वयं को बचा पाने मे सफल हुए हैं, तथापि कुछ मंचीय घुसपैठिए भी उनके दरबार मे आते जाते रहते हैं लेकिन उन्होने छन्दोबद्ध कविता को और अपने आपको भी अभी तक बचाया हुआ है।
इन्द्र जी का पूरा का पूरा कविकर्म देखें तो उनके अंतरमन की सघन गीतोन्मुखी संवेदना कैसे उनकी स्थायी मित्र और आत्मजा गोले के साथ अनंत व्यापी होकर चक्राकार लेकर घूमती है।देखिए जरा ध्यान दीजिए अनादि संवेदन पर- मै रचता,तोडता रहा/देश काल की सीमाएँ/लयवंती मुझसे होतीं/सर्जन की गीताभाएँ/मै अनादि संवेदन हूँ/मै अनंत हूँ/अपने एकांत पीठ का /मै महंत हूँ।
ऐसा स्वर उनकी कविताई को ही शोभा देता है। वे निरंतर सर्जन की नई गीत प्रतिभाएँ और गीत छवियो की तलाश की ओर अग्रसर हैं।कुछ मित्रो को लग सकता है कि वे कहीं कहीं स्वयं को दुहरा रहे हैं,लेकिन अक्सर वैसा होता नही।अपने जीवन और कवि कर्म के प्रति ईमानदारी उनकी खास पहचान है। वे पुरस्कार सम्मान आदि के प्रति सदैव उदासीन रहे।उत्तर प्रदेश सरकार से जब उन्हे साहित्यकार सम्मान मिला तब वे उसे गृहण करने लखनऊ नही जा पाए।मूल मे थी गोले –लखनऊ वे गोले की चिंता से मुक्त हुए बिना नही जा सकते थे,उसके साथ तो बिल्कुल ही नही जा सकते थे।तो गत पचास वर्षो मे इन्द्र जी के व्यक्तित्व की निर्मिति का मूल कारण गोले को कहा जा सकता है।गोले के प्रति वात्सल्य का भाव उनके मन मे स्पष्ट तौर से देखा जा सकता है।गोले उनके लिए मूक सरस्वती है और वो उस सरस्वती के मुखर कवि।जरा उनकी अधिकांश काव्य कृतियो के नाम देखिए- पथरीले शोर में,पंखकटीमेहराबें,दिन पाटलिपुत्र हुए,कुहरे की प्रत्यंचा,चुप्पियो की पेंजनी,आँखों मे रेत प्यास,पहनी हैं चूडियाँ नदी ने, हम शहर मे लापता हैं,धुँए के पुल,आँखों खिले पलाश,एक दीपक देहरी पर -आदि शीर्षकों को जरा इन्द्र जी की गोले के प्रति संवेदना को जोडकर देखिए तो इन अनेक गीत गजल और दोहा संग्रहो की रचनाओ के वास्तविक अर्थ खुलने लगते हैं।सतही तौर से लगता है कि एक अनवरत शांति और निराशा की अनंत काव्य राशि अनेक छवियो मे यहाँ बिखरी पडी है,परंतु वैसा है नही।वे समग्र जीवन की संवेदना के बडे गीतकार हैं।जैसा कि हमारे आसपास जीवन की विसंगतियाँ और विडम्बनाएँ चतुर्दिक पसरी हुई हैं वह सब भी इन्द्र जी के काव्य मे सतत स्वाभाविक रूप मे विद्यमान है।अर्थात युगबोध के बडे नवगीतकार तो वे हैं ही।इस अस्सी की उम्र मे उनका तेवर तो देखिए-
अस्तमित होते समय के
सूर्य है हम/जिसे जितनी चाहिए वह रोशनी ले ले।

ये जो सूर्य मुखी चेतना के गीत हैं वो उनकी प्रिय भूमि है क्योकि जहाँ तक मुझे याद है नवगीतदशक -1 मे भी कवि के सूर्यमुखी गीत संकलित हैं।उल्लास के स्वर प्राय: इन्द्र जी के गीतो मे कम ही देखने को मिलते हैं।इसका प्रमुख कारण उत्सवधर्मी उल्लास से उनकी वितृष्णा ही है। यह उत्सवधर्मी उल्लास के प्रति वितृष्णा का बोध उनकी अनेक रचनाओ मे साफ तौर पर देखा जा सकता है।निराला उनके आदर्श कवि हैं,लेकिन तमाम साहित्यकारों की तरह वे केवल निराला का नाम नहीं जपते वरन वे निराला को गहरे तक हृदयंगम करते हैं।इसका प्रमाण उनका कालजयी (खण्डकाव्य) है,जो निराला के प्रिय तुलसीदास वाले छन्द मे ही रचा गया है।देखें मनोहरा की छवि- सम्भ्रांत विप्र कुल की कन्या गुणवंती यथा नाम धन्या नागरी लता पर स्मित-वन्या-कलिका सी। अपरा-सरस्वती-ऋतंवरा सिद्धार्थमना ज्यों यशोधरा नव सूर्यकांत की मनोहरा-अलिका सी॥
निराला के अतिरिक्त इन्द्र जी ने डाँ.रामविलास शर्मा जी की आगरा कालेज वाली छवि बहुत करीब से देखी सुनी है।तात्पर्य यह कि उनके मन मे सचमुच निराला के प्रति अगाध श्रद्धा का भाव जीवंत है। इसके अतिरिक्त कई गीत निराला को स्मरण करते हुए इन्द्र जी लिखे हैं। जैसे निराला अपनी पुत्री को लेकर सरोज स्मृति जैसी शोक की महान कविता हिन्दी साहित्य को दे गये उसी परम्परा मे इन्द्र जी अघोषित रूप से गोले को लेकर सृजन रत हैं।अभी कुछ दिन हुए उन्होने निराला पर लिखी रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल,नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह,धर्मवीर भारती,हरिवंशराय बच्चन,शील,नरेन्द्र शर्मा और आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जैसे तमाम नए पुराने कवियो की कविताओ का संकलन वसंत का अग्रदूत शीर्षक से किया है जो हिन्दी साहित्य मे एक सन्दर्भ पुस्तक के रूप मे आदर पा रही है।
अंतत: उनके इस अनवरत अप्रतिम सृजन संसार के प्रति शुभकामनाएँ।ईश्वर से प्रार्थना है कि उन्हे शतायु करे तथा उनके सृजन को और भी दीर्घायु करे।


संपर्क:बी-235/एफ-1,शालीमार गार्डन,मेन,गाजियाबाद-5
फोन-9868031384

शनिवार, जुलाई 13, 2013


एक महत्वपूर्ण पुस्तक
गद्यकार आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री
लेखक:पाल भसीन/प्रकाशक:प्रकाशन संस्थान,नई दिल्ली-110002/मूल्य-500/
पुस्तक परिचय
भसीन ने आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के गद्य साहित्य की गुत्थियों को स्वयं आचार्य के साथ “प्रहर दिवस मास” का उपनिषद करके ही सुलझाया है।यह ग्र्ंथ आत्मीय तटस्थता का परिणाम है।संस्मरण,आलोचना,कहानी,उपन्यास आदि को आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने अपनी ही मान्यताओं के आलोक में सिरजा है।इस ग्रंथ के माद्ध्यम से पाल भसीन ने शास्त्री जी के गरिष्ठ गद्य साहित्य का संवेदनात्मक विश्लेषण कर ऐतिहासिक महत्व का कार्य किया है।शास्त्री जी के साहित्य कानन मे प्रवेश के इच्छुक के लिए यह एक उपयोगी ही नही अनिवार्य ग्रंथ है।
-डाँ राजेन्द्र गौतम (पुस्तक के फ्लैप से)

सोमवार, जुलाई 08, 2013

समीक्षा : गँवई मन के गीत


भारतेन्दु मिश्र
हिन्दी गीत /नवगीत के सन्दर्भ में अत्यंत सार्थक नाम अवध बिहारी श्रीवास्तव का है।हल्दी के छापे के लगभग दो दशक बाद पिछले दिनों “मंडी चले कबीर” नाम से अवधबिहारी जी का दूसरा गीत संग्रह प्रकाशित हुआ है।इस संग्रह मे कुल 77 गीत हैं।इन गीतों का स्वर अवध के किसानों के बदलते परिवेश से हमें जोडता है।कवि अपने समाज की विडम्बनाओ को और आम गँवई मन को बडे मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करता है।गँवई मन का अर्थ है-किसान चेतना,गाँवों का बिखराव,आर्थिक सामाजिक असंतुलन,छीजती ग्राम्य संस्कृति और इस दौर की बाजारवादी प्रगति के बीच में फँसा गँवई मन वाला आम आदमी।रीतिकालीन कविता मे सेनापति का बारहमासा बहुत चर्चित रहा है किंतु अवधबिहारी जी ने नवगीतों के माध्यम से जो समसामयिक बारहमासा प्रस्तुत किया है वह भी बहुत स्वागत योग्य है।जिस प्रकार कैलाश गौतम और महेश अनघ जैसे नवगीतकारों ने नवगीत के ग्राम्य और आंचलिक पक्ष को हमारे सामने उजागर किया है कदाचित उसी क्रम में अवधबिहारी जी समकालीन किसान चेतना की गीत परम्परा को आगे ले जाते हुए दिखाई देते हैं,मगर वो जनवादी राजनीति के जन गीतकार नही हैं।
प्रगतिशील चेतना के गीत को ही नवगीत कहा जाता है।मंडी चले कबीर के अधिकांश गीत हमारी गँवई चेतना की मर्मव्यथा को बहुत सहज ढंग से झकझोरते हैं।अवध के गाँवों की बोली और लोक जीवन की विविध छवियाँ तथा उन छवियों में से झाँकता सजग कवि मन सबको आकर्षित करता है।भाषा शिल्प और छन्द तो कमाल का है ही।अनेक गीतों मे तुलसीबाबा वाला चौपाई छन्द कवि की कविताई मे चार चाँद लगा देता है- मुझे सुखी रखता है मेरा/अपना गँवई मन।/सीखा नही व्याकरण कोई/पहना नही आभरण कोई/कविता मे सच कहना सीखा/तुलसी बाबा से/गाँधी बाबा से सीखा है/सादा रहन सहन।कवि ने चैत-बैसाख-असाढ-सावन से लेकर फागुन तक जो ऋतु परिवर्तन के ब्याज से गँवई मन की संवेदना के अनेक गीत रचे हैं,उनका अलग ही महत्व है।ये गीत- नवगीत के खाते में अवध के गाँव को देखने समझने की एक नई दृष्टि से हमें जोडते हैं।जैसे-
उतरा बहुत कुँओं का पानी/जेठ तप रहा गाँव में। पूस माह का एक चित्र देखें- गन्ने के रस पर दिन बीता/रात बिताएँगे नारायण/काकी कठरी ओढे चुप है/काका बाँच रहे रामायण/हाँथ पसारें कैसे ?जकडी मर्यादाएँ पाँव में/काँधे पर अभाव की लाठी/पूस घूमता गाँव में। क्वार का एक चित्र इस प्रकार है-
पकने लगी धान की बाली /थिरने लगा ताल का पानी/दिखने लगीं मछलियाँ जल में/फसलें अब हो गयीं सयानी/कच्चे दूधो वाले दाने/भुने नीम की छाँव में/नए अन्न की गमक उड रही/क्वाँर आ गया गाँव में। हालाँकि गाँव मे लगातार बदलाव हो रहे हैं बिखराव के बावजूद अभी तक प्राकृतिक रूप में बहुत कुछ बचा हुआ है।वहाँ लोग अक्सर बैठते बतियाते हैं।कवि ने बारहों महीने मे आने वाले बदलाओ की सुन्दर प्रस्तुति यहाँ की है।इसके अतिरिक्त सत्यनाराण की कथा,नदी का घाट,बाबा की उदासी-बहू-कोठरी-लडकी के कई बिम्ब इस संग्रह में हैं।शीर्षक गीत का अंश देखिए- कपडा बुनकर थैला लेकर/मंडी चले कबीर/कोई नहीं तिजोरी खोले /होती जाती शाम/उन्हे पता हिअ कब बेचेंगे/औने-पौने दाम/रोटी और नमक थैलों को/ बाजारों को खीर। कामगर को वाजिब दाम कभी नही मिला हमारे देश में।व्यापारी कामगर के हिस्से की सारी मलाई सदैव उडाते रहे आज भी यही कुछ चल रहा है।ये गीत अवधबिहारी जी की ही तरह बहुत सहज सरल हैं।यह अनगढ सहजता उनकी कविताई की सीमा भी है।लाक्षणिकता और जटिल बिम्बो की ओर कवि नही जाता।प्रतीको वाली भाषा यहाँ कवि नही अपनाता।अर्थात कवि अपनी और अपने पाठको की तमाम काव्य क्षमताओ को भी जानता है।देश काल बोध के गीत तो यहाँ हैं ही।उडीसा की सुमित्रा बेहरा का पता भी अवधबिहारी जी को मालूम है जिसने भुखमरी के चलते अपनी लडकी को बेच दिया था।उस मार्मिक संवेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति देखिए- मैं उडीसा की सुमित्रा बेहरा हूँ/माँ नहीं/रोटियों के लिए मैने/ बेच दी हैं लडकियाँ।
अंतत: सभी गीत प्रेमियो को अवधबिहारी जी के इस गीत संग्रह का स्वागत करना चाहिए।
शीर्षक:मंडी चले कबीर/कवि:अवधबिहारी श्रीवास्तव/संस्करण;2012/मूल्य:200/
प्रकाशक:मानसरोवर प्रकाशन248/12,
शास्त्री नगर,कानपुर