शुक्रवार, फ़रवरी 15, 2013



आज भी प्रासंगिक हैं
गीत निराला के

भारतेन्दु मिश्र

युग बीत गया,निराला की कविता नही रीती। वो आज भी प्रासंगिक हैं उनके गीत कालजयी हैं। छन्दोबद्ध कवियों को निराला से बहुत कुछ सीखना है। सन-1923 में निराला का पहला कविता संग्रह –अनामिका- प्रकाशित हुआ। अनामिका में ही अधिवास शीर्षक एक कविता है जिसमें निराला कहते हैं-
मैने मै शैली अपनायी
देखा दुखी एक निज भाई
दुख की छाया पडी हृदय में झट उमड वेदना आयी।
यह कविता सन 1923 या उससे कुछ पहले की ही होनी चाहिए,बहरहाल निराला की कविता का प्रयोजन उनकी इन्ही पंक्तियों से साफ झलकता है कि निराला दुखदग्ध मनुष्य की वेदना के कवि हैं। असल में निराला करुणा के कवि हैं। सरोज स्मृति हिन्दी का पहला शोक गीत है। घनघोर शोक की दशा में भी निराला छन्द नही तोडते। वे दुख को गरल समझकर पी जाने वाले सिद्ध कवि हैं। वे असहाय दीन दुखियों के दुखों के गीतकार हैं। यह वह समय था जब अधिकांश रचनाकार स्वतंत्रता की लडाई के गीत लिख रहे थे। हालाँकि कुछ कवि धर्म और दर्शन की पहेलियाँ सुलझाने में भी लगे थे।निराला की इसी जमीन पर पढीस और बंशीधर शुक्ल जैसे किसान चेतना के कवि भी इसी समय में हुए। यह वह समय था जब भारतीय जीवन मे बहुत तेजी से बदलाव हो रहे थे,लेकिन निराला ने छन्द नही छोडा बल्कि वो तो नए से नए छन्दविधान को स्वर देने मे लगे थे। अत: निराला छन्द साधना के कवि हैं। जब वो कहते हैं -मैने मैं शैली अपनायी- तो इसका अर्थ यही है कि वो अपने समय के छायावादी कवियों से हटकर अपना मार्ग बना रहे थे। यहीं से उनकी मौलिकता का अन्दाज लगाया जा सकता है। निराला के इसी वाक्य को लेकर कुछ आलोचको ने उन्हे छन्दमुक्त कविता का प्रवर्तक और स्वच्छन्दतावादी कवि सिद्ध करने की कोशिश की है,जबकि यह पूरा सच नही था। यदि ऐसा होता तो निराला छन्दहीन कविताएँ ही रचते रहते। निराला तो संवाद धर्मी गीत लिख रहे थे।
-बाँधों न नाव इस ठाँव बन्धु /पूँछेगा सारा गाँव बन्धु। जैसे अनेक गीत निराला ने रचे हैं।किसान चेतना और ग्राम्य जीवन के बहुत से चित्र निराला के गीतों की शक्ति बनकर उभरते हैं ।
निराला की रचनावली में जो कविताएँ संकलित हैं उन्हे देखकर यह साफ हो जाता है कि वे अंततक छन्दोबद्ध कविताएँ ही लिखते रहे,बल्कि निराला नए छन्दो का सृजन भी करते रहे। कविता की अखण्ड लय ही निराला की साधना का मूल है। वे उन विरल कवियो में से हैं जिन्हे संगीत का भी पूरा ज्ञान है। वे राग रागनियों में निबद्ध गीतो की रचना भी करते हैं। उनके अनेक गीतों का सुर ताल सधा हुआ है। वे पक्के राग मे भी गाये जाते हैं। वे सहज रूप मे ही नवगीत की परिभाषा देते हुए चलते हैं-
नवगति नव लय ताल छन्द नव
नवल कंठ नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृन्द को
नव पर नव स्वर दे।..वरदे वीणावादिनि वर दे।
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने अपनी पुस्तक –अनकहा निराला- मे इस बात पर विशेष बल दिया है और निराला के गीतों मे प्रयुक्त रागों की विस्तार से चर्चा करते हुए वे कहते हैं-‘वैसे तो निराला जी ने चित्र और संगीत हीन एक पंक्ति भी नही लिखी ,किंतु कभी कभी उनमें कुछ ऐसा लोकोत्तर अनोखापन आ गया है कि देखते ही बनता है। पृ.194(अनकहा निराला) निराला महाप्राण हैं क्योकि उनके गीतो में दीन जन के प्राण बजते हुए सुने जा सकते हैं। निर्धन लाचार लोगों की पीडा का स्वर उनके गीतो मे सुना जा सकता है। वे छायावाद के निरे सुकुमार कवि नही हैं,वे रहस्यवाद के चमत्कारी कवि भी नही हैं।वे तो प्रगतिशील चेतना के गीतकार हैं।छायावादोत्तर -नवगीत,जनगीत आदि अनेक प्रगतिशील आन्दोलनो को उर्वर भूमि निराला के गीतों से ही मिलती है। संवेदना का जो मार्मिक विस्तार निराला अपने गीतों द्वारा कर चुके हैं उससे बहुत कुछ आगे हमारे गीतकार नही बढ पाये हैं।वैचारिक स्तर पर निराला समाज के अतिदीन दुखी दलित और अंतिम पंक्ति मे खडे व्यक्ति के दुखों की समीक्षा ही नही करते बल्कि सामंतों को टोकते हुए चलते हैं।सन 1929 के आसपास लिखे गये गीत का अंश देखिए-
छोड दो जीवन यों न मलो
ऐठ अकड उसके पथ से तुम रथ पर यों न चलो।
यह पूरा गीत उस समय के सामंतवादी ठाठ के खिलाफ आम आदमी के साथ खडे हुए निराला की गवाही देता है।यह है निराला की काव्य चेतना सामंतवादी ऐठ अकड के खिलाफ दलित जन का समर्थन करती है। निराला यहाँ सच्चे समाजवादी दिखाई देते हैं।दीन दुखी जन के हित में निराला किसी हठयोगी की तरह डटे हुए दिखाई देते हैं तो कहीं ईश्वर से प्रार्थना करते हुए तुलसी जैसे संत कवियों के समीप खडे मिलते हैं- दलित जन पर करो करुणा दीनता पर उतर आये प्रभु तुम्हारी शक्ति अरुणा। ध्यान देने की बात यह है कि निराला का भक्तिभाव स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करने वाला नही है। वे तो अपने सब संचित फल लुटाने वाले हैं।भिक्षुक शीर्षक कविता भी उनकी प्रारम्भिक कविताओ में है। भिक्षुक की लाचारी का इतना सजीव चित्रण सम्भवत:हिन्दी कविता में निराला से पहले अन्यत्र नही मिलता। कलेजे के दो टुकडे करने वाला मार्मिक डृश्य अपना कलेजा चीर कर निराला देखते हैं और दिखाते हैं। करुणा ही चीत्कार करती है निराला की कविता में। इस पूरी कविता को पढने के बाद उनके समय की भुखमरी से उत्पन्न लाचारी का स्पष्ट आकलन किया जा सकता है। निराला का भिक्षुक आजकल जैसा पेशेवर भिखारी नही है-
वह आता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता
पथ पर आता।
भीख माँगने वाले आज भी कम नही हुए हैं बल्कि पेशेवर हो गये हैं। विचारधाराएँ और सरकारें दमतोड चुकी हैं। निराला के भिक्षुक के मन में पश्चात्ताप है। यह बोध ही उसे पेशेवर भिखारियो से अलग करता है। शायद इसीलिए निराला की करुणा फूटकर बह निकली है। निराला कल्पना की कोई गुलाबी उडान के कवि नही हैं। वे असल मे जनकवि भी हैं,महाप्राणत्व की प्रतिष्ठा भी उन्ही में है। यह कविता निराला के श्रेष्ठ प्रगीतो में से एक है। निराला अपने समय में छायावादी रोमानियत को फलाँग कर आगे बढे हैं। अपने समय मे वैचारिक स्तर पर आगे बढना ही तो प्रगतिशीलता है। किसी दल की सदस्यता लेकर किसी खेमे मे शामिल होकर निराला प्रगतिशील नही बने, बल्कि वे तो प्रगति शीलता के अग्रदूत हैं। इसी क्रम में पत्थर तोडती महिला बिम्ब देखें-
वह तोडती पत्थर
देखते देखा उसे मैने इलाहाबाद के पथ पर।
हिन्दी में इस तरह की छान्दसिक कविताएँ निराला से पहले नही लिखी गयीं जिनमें मज्दूर महिला का श्रम सौन्दर्य अंकित हो। ऐसे प्रगीत लिखना तो बहुत बडी साधना की बात है। उनके गीतो मे बिम्बो और प्रतीको के भटकाऊ जंगल नही हैं। उनकी कविताओ में अंत:सलिला की तरह लय धडकती है। वे सीधी सादी भाषा में सुकोमल और भीषण संवेदना के मर्मस्पर्शी कवि हैं। इसी लिए जानकीवल्लभ शास्त्री उन्हे विरोधो के सामंजस्य का कवि कहते हैं। सुकोमल संवेदना की सहज अभिव्यक्ति की दृष्टि से प्रणय और दाम्पत्य के विरल गीत अपने समय में निराला ने रचे हैं,गृहरति व्यंजना का स्वर देखें-
सुख का दिन डूबे डूब जाय
तुमसे न सहज मन ऊब जाय।
खुल जाय न गाँठ मिली मन की
लुट जाय न राशि उठी धन की
सारा जग रूठे रूठ जाय।
जहाँ सहज सौन्दर्य की उन्नत राशि है और जिस दाम्पत्य में एक मन के साथ दूसरे मन की गाँठ कसी है वह बना रहे बेशक काल्पनिक या अनिर्वचनीय सुख का दिन डूबता है तो डूब जाये। फिर तो निराला सारी दुनिया की भी बात नही मानते। दाम्पत्य बोध का ऐसा सुन्दर गीत अन्यत्र हिन्दी मैने नही पढा। इसी प्रकार एक और गीत में दाम्पत्य बोध का निराला का यही स्वर दृष्टव्य है निराला यहाँ भी अपने समकालीनों से अलग अपनी पहचान के साथ खडे हैं-
जैसे हम हैं वैसे ही रहें लिए हाथ एक दूसरे का अतिशय सुख के सागर में बहें।
एक और चित्र देखें-
पिय के हाथ जागाये जागी
ऐसी मैं सो गयी अभागी।
सहयोग साहचर्य और बहुत कुछ संत मत के निकट के सुन्दर चित्र निराला की कविता मे साफ तौर से दिखाई देते हैं जो अपनी सहजता और अनुभूति के कारण आकर्षक लगते हैं। निराला बहुआयामी कवि हैं उनकी कविता के अनेक स्तर हैं उनकी कविता के अनेक स्वर हैं। वो किसी एक विचार या विचारधारा में बँधकर नही चलते। जो नई राह बनाते हैं वो बनी बनायी राह पर कैसे चल सकते हैं। हम कह सकते हैं कि निराला वसुधैव कुटुम्बकं के कवि हैं। जानकीवल्लभ शास्त्री के अनुसार-“ निराला अद्वैतवादी भी हैं,द्वैतवादी भी हैं,भक्त भी हैं और ज्ञानी भी और क्रांतिकारी भी,लौह प्रहार तथा ललकार भी और और आत्म परमात्म मिलन की मधुर झंकार भी।वह वैयक्तिक अनुभूतियों के स्वर्ग में विचरने वाला मुक्त विहग भी हैऔर पतनोन्मुख रूढ प्रिय संस्कृति की विहग बालिका के लिए भयंकर बाज भी,उसमें लौकिक प्रेम की ललक भी है और आध्यात्मिक भूमि पर अनुभूति का आत्मपुलक भी,निराला विरोधों का स्वयं सामंजस्य और सामंजस्यो का विरोध हैं।“ (पृ.117 अनकहा निराला)
यहाँ साफ शब्दों मे कहें तो निराला सिद्ध रचनाकार साबित होते हैं। वो कुशल रचनाकार की तरह सब विचार धाराओ मे से जन्नोन्मुखी संवेदना का चुनाव करते हैं। कुछ कबीर की तरह ‘ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर’ वाली मुद्रा में। अपनी इन्ही विशेषताओ के कारण निराला आधुनिक युग के विशिष्त और युग प्रवर्तक कवि हैं।उनके गीतो को भी मार्क्स,फ्रायड,लोहिया या विवेकानन्द ,अम्बेडकर अथवा गान्धी में से किसी एक की विचारधारा से जोडकर नही देखा जा सकता। निराला इन सभी अपने समय के महापुरुषों के विचारों को सुन समझकर अपनी राह बनाते हैं सम्भवत: इसी लिए वो कहते हैं-“मैने मैं शैली अपनायी”। निराला को जब जो अपने रचनासमय के लिए उपयुक्त जान पडा उसे गृहण किया और जो अनुपयुक्त जान पडा उसे छोड दिया।
निरला की रचनावली और विशेषकर आराधना में प्रकाशित गीतों को पढने से लगता है निराला भक्त कवि हैं।निराला के गीतों मे सूर तुलसी मीरा आदि भक्त कवियों की सी संवेदना की तडप विद्यमान है।यद्यपि वो धार्मिक कर्मकाण्ड वाली आस्था के कवि नही हैं जहाँ एक ओर कहीं वो अपने गीतों में नाम जपने का संकेत देते हैं तो वहीं दूसरी ताल ठोककर खडे होते हैं। राम की शक्ति पूजा में निराला की ओजस्विता और काव्य शक्ति की अनेक भंगिमाएँ स्पष्ट होती हैं तो दूसरी ओर उनके अनेक गीत सहजा भक्ति के मार्ग का अवलम्बन करते हैं। उदाहरणार्थ-

नाचो हे रुद्र ताल/आँचो जग ऋजु अराल।
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दुख के सुख पियो ज्वाला/शंकर के स्मर-शर की हाला।
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कामरूप हरो काम/जपूँ नाम राम-राम।
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वरदे वीणा वादिनि वर दे
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भारति जय विजय करे/कनक शस्य-कमल धरे।

यह अपने निजी सुख स्वार्थ पूर्ति या स्वर्ग सुख की कामना या ईस्वर से वरदान माँगने की निरी मानवीय मुद्रा नही है। यह निराला का युगधर्म भी है और व्यक्तिगत जीवन का सत्य भी। निराला के गीतो के पुनर्पाठ और नयी पाठचर्या की आवश्यकता है। उनकी छन्दसिक रचनाएँ ही उनके मनोभावो के भेद खोल सकती हैं। वे निरे
प्रयोगवादी भी नही हैं। निराला साफ करते हैं अपने भक्ति भाव को और कहते हैं-
नर जीवन के स्वार्थ सकल
बलि हों तेरे चरणो पर माँ
मेरे श्रम संचित सब फल।
आम तौर पर भक्ति और प्रगति दोनो पृथक मार्ग हैं किंतु निराला की भक्ति में उनकी प्रगतिशीलता साफ नजर आती है-जब वो कहते हैं नर जीवन के स्वार्थ सकल अर्थात मनुष्य जीवन के असंख्य छोटे बडे व्यक्तिगत स्वार्थ सबका बलिदान करता हूँ। इसके आगे कहते हैं–श्रम संचित सब फल-अर्थात अपने परिश्रम से अर्जित कर्मफल का ही अर्पण है। किसी अन्य पूर्वज या अनुज द्वारा अर्जित किसी फल या सम्पदा की बात नही कर रहे हैं निराला क्योकि मनुष्य का अपने श्रम द्वारा अर्जित फल पर ही नैतिक अधिकार होता है। इसके बदले में किसी फल की कामना तो है ही नही । हम इसे निराला की राष्ट्रीय चेतना के रूप में भी व्याख्यायित कर सकते हैं। तात्पर्य यह कि निराला के गीतो में कथ्य और संवेदना के जितने स्तर हैं कदाचित ही किसी दूसरे कवि के पास हों। अत: यह मान लेना कि केवल वैचारिकता के आग्रह में निराला ने छन्द तोड दिया,सही नही है। इस बात को स्वयं उनके गीत ही प्रमाणित करते हैं जहाँ वो नए शिल्प में नयी लय लेकर उपस्थित होते हैं। निराला अपनी सर्जना से तमाम छन्दविरोधियों को उत्तर देते है जैसे शक्ति पूजा में उन्होने राम को सन्देश दिलाया है-“आराधन का दृढ आराधन से दो उत्तर।“ वो सिद्धावस्था के जाग्रत कवि हैं। इसी लिए निराला नयी कविता ही नही नवगीत,जनगीत जैसे आन्दोलनो के प्रेरणा पुरुष के रूप में देखे जाते हैं। नवगीत जनगीत जैसे आन्दोलनो की जो पृष्ठभूमि सन 1950 के आसपास तैयार हो रही थी निराला उस दिशा में 1943 मे ही सार्थक प्रयोग कर चुके थे। बाद में अणिमा में संकलित उनका यह गीत देखिए-
चूँकि यहाँ दाना है इसीलिए दीन है ,दीवाना है। लोग हैं महफिल है नग्में हैं ,साज है,दिलदार है और दिल है शम्मा है,परवाना है। निराला अपने समाज के उपेक्षित जन के लिए अपनी कविता के औजार से लडते रहे। युगदृष्टा साहित्यकार हमेशा से ही अपने समय की समालोचना में उपेक्षा का शिकार रहा है। निराला भी शिकार हुए तब निराला ने अपने समय के आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सम्बोधित यह गीत लिखा-
जब से एफ.ए.फेल हुआ है/हमारे कालेज का बचुआ
नाक दबाकर सम्पुट साधै/महादेव जी को आराधै
भंग छानकर रोज रात को/ खाता माल पुआ
बाल्मीकि को बाबा मानै/नाना व्यासदेव को जानै
चाचा महिषासुर को,दुर्गा जी को सगी बुआ
हिन्दी का लिक्खाड बडा वह/जब देखो तब अडा पडा वह
छायावाद रहस्यवाद के/भावो का बटुआ
धीरे धीरे रगड-रगड कर/श्री गणेश से झगड झगड कर
नत्थाराम बन गया है अब /पहले का नथुआ।
जिस कवि मे आलोचक से आँख मिलाकर बात करने और ताल ठोककर दो हाथ करने की क्षमता होगी वही निराला के स्वाभिमान और उनके गीत की लय को पकड सकता है। बाद मे शुक्ल जी ने निराला जी को पढा भी और उनपर लिखा भी। समर्थ रचनाकार आलोचना की बैसाखी के सहारे खडा नही होता। निराला को अपनी रचना पर दृढ विस्वास था। यह आत्मविश्वास ही उनकी मैं शैली है। कहना न होगा कि निराला के गीत कहीं न कहीं कालिदास,जयदेव,तो कहीं तुलसी मीरा,तो कहीं गुरुदेव रवीन्द्र की गीत परम्परा को आगे बढाते हैं। निराला के गीत इस सीमा तक अपने कथ्य भाषिक-व्यंजना और सवेदना से नए हैं कि बाद के गीतोन्मुख तमाम आन्दोलन उनकी रचनाशीलता का परिविस्तार ही साबित होते हैं। निराला के परवर्ती प्रमुख कवियों में नागार्जुन,त्रिलोचन,केदारनाथ अग्रवाल आदि सभी प्रगतिशीलो ने भी गीत की शक्ति विस्तार ही दिया। निराला के नवगीतो की बानगी देखें- मानव जहाँ बैल घोडा है कैसा तन मन का जोडा है। तथा- बान कूटता है ऐसे बैठे ठाले सुख का राज लूटता है। मुक्तिबोध कविता में जिस मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र की चर्चा करते हैं और डाँ. रामविलास शर्मा जिस श्रम सौन्दर्य की बात करते हैं उसकी रूपरेखा हिन्दी नवगीत के शिल्प मे निराला की देन है।विशेषता यह भी है कि निराला का चिंतन भारतीय काव्यमूल्यो से अनुप्राणित है। अत: उनके गीतों की विवेचना भी भारतीय परिवेष मे विकसित मूल्यों के आधार पर ही की जा सकती है। निराला की कविता में वाक्य और अर्थ कहीं लँगडाता नही है। विराम और अर्धविराम चिन्हों तक का प्रयोग निराला करते चलते हैं।
तात्पर्य यह कि वो अपने पाठ्य को लेकर पूरी तरह सजग हैं।यही कारण है कि निराला के गीत पाठ्य और श्रव्य दोनो रूपों मे सहृदयो को मंत्रमुग्ध करने की क्षमता रखते हैं। निराला ने अपनी कविता के जो मानदण्ड बनाये वो निभाये। इसे ही उन्होने मैं शैली कहा है।घनघोर निराशा की स्थिति में भी वह आशा की किरण खोज ही लेते हैं।आसन्न मृत्यु की स्थिति में संकट की स्थिति में भी निराला गीत का साथ नही छोडते।अपनी अंतिम गीत रचना में वो कहते हैं-
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है
आशा का प्रदीप जलता है हृदय कुंज में
अन्धकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है
दिंड्निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र –पुंज में।
सम्भवत;यही निराला की अंतिम रचना है जो अगस्त 1961 के आसपास रची गयी और सान्ध्यकाकली में संकलित है। इस कविता में भी दिंड्निर्णय ध्रुव से कहकर अपने अटल विश्वास को दृढ करते हैं। निराला अपनी रचनाशीलता की आग को अपनी मुट्ठी में जीवन पर्यंत कसे रहे। तात्पर्य यह है कि निराला की स्वच्छन्दता को छन्दहीनता से जोडकर देखना अनुचित है। निराला के यहाँ छन्द कमजोरी नही है। वह तो सहृदय को आच्छादित करने या हृदयव्यापी बनाने के अर्थ में है। छन्दो के अनंत रूप हैं निराला की कविता में-कहीं लयांविति के रूप में कहीं सांगीतिक लय के रूप में कहीं संवाद धर्मिता के रूप में वो प्रकट होते चलते हैं। डाँ रामविलास शर्मा से बेहतर शायद ही कोई निराला को जान पाया हो।शर्मा जी ने भी निराला की प्रशस्ति अपने एक गीत से ही की थी-
यह कवि अपराजेय निराला जिसको मिला गरल का प्याला
ढहा और तन टूट चुका है पर जिसका माथा न झुका है
शिथिल त्वचा ढलढल है छाती लेकिन अभी सँभाले थाती
और उठाये विजय पताका यह कवि है अपनी जनता का।
निराला अपराजेय हैं क्योकि वह अपनी रचनाशीलता से लगातार जनता से जुडे रहे हैं। निराला समर्थ गीतकार हैं जो टूटकर भी लगातार आत्मस्वाभिमान से उन्नत मस्तक होकर अपनी जनता के दुखों को अपने गीतों से माँजते रहे।
उनका छन्दसौष्ठव और वाक्य विन्यास देखकर उनकी काव्य प्रतिभा का अनुमान लगाया जा सकता है। निराला की गीत परम्परा का विस्तार प्रगतिशील कवियो ने भी किया। बाद में यही परम्परा आगे जाकर नवगीत और जनगीत के रूप में प्रतिफलित हुई जिसके परिणाम स्वरूप राजेन्द्रप्रसाद सिंह,शम्भुनाथ सिंह,मुकुट बिहारी सरोज,रमेश रंजक,ठाकुर प्रसाद सिंह,वीरेन्द्र मिश्र,नईम,उमाकांत मालवीय,देवेन्द्रशर्मा इन्द्र,माहेश्वर तिवारी जैसे अनेक नवगीतकार जनगीतकार उभरे। नवगीत आन्दोलन के बाद छायावादी गीत परम्परा का लगभग अवसान हो गया। निराला की समर्थ गीत प्रतिभा कहीं न कहीं नवगीतकारो को लागातार प्रेरणा देती रही।नई पीढी के नवगीतकारो मे संवेदना के स्तर पर और नई जमीन देखने को मिलती है किंतु छन्दहीन कवितावादियो ने काव्यं गीतेन हन्यते की गलत व्याख्या करके अपनी सुविधा के आधार पर हिन्दी कविता का बहुत आहित किया। दूसरी ओर नये कवियो मे जो नवगीत लिख रहे हैं उनमे वाक्य गठन,भाषिक रचना,तथा सहज सरल जीवन को मुखरित करने वाली समर्थ छन्द रचना का अभाव दिखता है। नये कवि के पास समय नही है।साधना और अभ्यास की कमी इसका मूल कारण है। किसी भी संवेदना को छन्द मे प्रस्तुत किया जा सकता है बशर्ते साधना और अभ्यास किया जाये। निराला अपनी रचनाओ को बार बार माँजते हुए आगे बढते हैं वो कहीं स्वयं को दुहराते नहीं,विचार- भाव- भाषा-शिल्प आदि के प्रयोग उनके यहाँ नए हैं। निराला के बहुत से गीत हैं जिनकी गहन विवेचना होनी चाहिए। यहाँ इस लेख में निराला के गीतो की शक्ति की ओर ध्यान आकर्षित करना भर ही मेरा उद्देश्य है।निराला के यहाँ जीवन और कविता में फर्क नही है।यही कारण है कि निराला के गीत आज के समय में भी प्रासंगिक हैं उनकी छन्दसिकता और जनपक्षधरता की दृष्टि से भी उनके पुनर्पाठ की आवश्यकता बनी हुई है।

फोन-09868031384
e.mail: b.mishra59@gmail.com



रविवार, फ़रवरी 03, 2013


समीक्षा:
                       कुछ और बात होती
                           डाँ.भारतेन्दु मिश्र
 बना रह जख्म तू ताजा-सुभाष वसिष्ठ का पहला गीत संग्रह है। हालाँकि सुभाष वसिष्ठ जी पिछले कई दशको से साहित्य और रंगमंच पर अनेक भूमिकाओ मे सक्रिय रहे हैं। कवि के इन 46 गीतो की रचना बीती सदी के सातवे दशक और आठवे दशक मे हुई  है।अर्थात इस पुस्तक का प्रकाशन दो दशक पूर्व हो जाना चाहिए था जो किन्ही कारणो से अब हो पाया है।बहरहाल कवि गीत की संवेदना को जख्म की तरह गाता रहा है और उसका शायद यह भी मानना है कि यह संवेदना का जख्म सदैव ताजा बना रहे तभी कविता हो सकती है।
रंगमंच से गहरा जुडाव कवि की प्राय: इन अधिकांश गीत रचनाओ मे साफ तौर पर देखने को मिलता है। अनेक गीत -नाट्य संवाद या ड्रमेटिक मोनोलाँग जैसे भी दिखाई देते हैं यदि इन गीतो के साथ पात्रो का रूपक भी शामिल होता तो सम्भवत: इन गीतो की छवि और भी भास्वर हो जाती। दूसरी विशेष बात यह भी है कि इन गीतो को एक बैठकी मे पढ समझ लेना सहज नही है।ये गीत पाठक से तनिक सजगता की माँग करते हैं।भाषिक संरचना की दृष्टि से कवि ने संवेदना के आवेग को नई शब्द व्यंजना दी है।यह भी कह सकते हैं कि कई बार शब्दो का कान उमेठकर अभीप्सित व्यंजना अर्जित की गई है।उदाहरणार्थ-संस्तुतिया-कागज,ध्वस्तेंगी,स्याहिया-जहर,ढिलियाईशासित सहेलियाँ,अतलाए सरगम मधुमासित हो सब-इत्यादि शब्द और वाक्यांश कवि की अनगढ संवेदना का पता बताते हैं तो किसी सामान्य पाठक को ये प्रयोग अटपटे लग सकते हैं।
इसके बावजूद सुभाष वसिष्ठ के इन गीतो मे जहाँ एक ओर सातवे आठवे दशक के नवगीत का भाषिक मुहावरा देखने को मिलता है वही समकालीन जीवन का गहन द्वन्द्व बखूबी उभरता है। इसीलिए मुझे लगता है कि ये गीत गम्भीरता से पढे जाने की माँग करते हैं।कवि के सामने कोई नया रूपक खोजने की छटपटाहट साफ तौर पर पहले गीत से ही दिखाई देती है-साँस ही मुश्किल/नियत आन्दोलनो आबद्ध/पारा कसमसाता है
धुन्ध के आगोश मे जकडा/ठिठुरता गीत अग्नि ले मुस्कराता है।
दिनभर मनुष्य कैसे वस्तु मे ढल कर श्रम करता है यह हम सभी जानते हैं देखिए कवि के शब्दो मे -शुरू हुई दिन की हलचल/गये सभी लोहे मे ढल।
कितनी मार्मिक है यह सहज अभिव्यक्ति।यह यांत्रिकता हमारे जीवन खासकर महानगरीय जीवन की तो कडुवी सच्चाई है।लगातार विभाजित जीवन की त्रासदी से उपजे मानसिक द्वन्द्व को कवि बेहतर ढंग से स्पष्ट करते हुए जो चित्र उपस्थित करता है वह अद्भुत है-
चटक धरती ने कहा /सब/बिन कहे जैसे/हम विभाजित जिन्दगी को जी रहे ऐसे
जुडेपन की प्यास टूटा मन सहे जैसे। इसी प्रकार आम आदमी की तरफ से सकारात्मक सार्थक सोच रखते हुए कवि एक अन्य गीत मे कहता है-एक खुशबू के लिए हम जी रहे हैं/जहर सारा जिन्दगी का पी रहे हैं। ये जो जिन्दगी का जहर है वह हर रचनाकार को पीना होता है यदि वह वास्तव मे कवि है तो उसे दुखो की संवेदना का अनुभव तो करना ही पडता है। सुख की एक क्षणिक सुगन्ध के लिए नमालूम कितने कष्ट सहने का नाम ही तो जीवन है।या सच है कि कवि के पास दुख को माँजने और सुख का पल खोज लाने वाली दृष्टि है। किसी भी रचनाकार के लिए इस दृष्टि का होना ही बडी बात है।जिन्दगी की तल्खियो से प्यार यू ही नही करने लगता है कवि ।सुभाष वसिष्ठ के पास मार्मिक संवेदना के अनेक अनुभव हैं देखिए-कागजी मुस्कान के मधुमास मे खोए/पर तुम्ही ने/सहीपन के बिन्दु कुछ बोए/फैलकर जो हो गये संसार/ओ दरकती जिन्दगी की तल्खियों!/सच/तुम्ही से प्यार। इसी क्रम मे कवि के मन मे आशा का स्वर भी प्रबल होकर उभरता है-
ओ रे मन/होता क्यो इस कदर अधीर/आकाशी पंखो को कभी तो किरन होगी
कभी तो मिटेगी यह स्याहिया लकीर।
संग्रह मे पिता को समर्पित गीत बहुत मार्मिक है।कवि ने पिता को संस्कार देने वाले और आदर्श का पाठ पढाने वाले व्यक्ति के रूप मे स्मरण किया है,सम्भवत: अब जीवन मे वैसा आदर्श नही रहा-ओ 
पिता /तुमने सदा ही सलवटे देखीं कमीजो की/और मेरी जिन्दगी जीवंतता को रही मरती।
ताजे जख्म की संवेदना को लगातार माँजते रहने की कोशिश करते हुए कवि सुभाष वसिष्ठ के ये गीत/नवगीत अपनी संवाद धर्मिता के कारण आकर्षक बन गये हैं।यह संग्रह दो दशक पूर्व आया होता तो कुछ और बात होती फिर भी इन गीतो द्वारा नए गीतकारो को सक्षेप मे और लघु फलक मे अपनी बात कहने का सलीका सीखने का अवसर अवश्य मिलेगा।
शीर्षक:बना रह जख्म तू ताजा
कवि:सुभाषवसिष्ठ
प्रकाशक:शब्दालोक,दिल्ली110094
मूल्य:120/,प्र.वर्ष:2012