रविवार, दिसंबर 04, 2016

आलेख-
“ गीत का रथ चल रहा है”


# भारतेंदु मिश्र 

काँपती लौये स्याहीये धुआँये काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी गीत थी पर जिल्द बंधाने में कटी| 
(गोपालदास सक्सेना 'नीरज'

                                                                                       हमारी काव्य परंपरा में कवि अक्सर कविताई के माध्यम से अपना परिचय भी देते थे |यहाँ ये मुक्तक ही नीरज जी का वास्तविक परिचय देता है|इन चार पंक्तियों में प्रेम, सौन्दर्य और जीवन संघर्ष का स्वर है|  कवि के मन में जीवन सौन्दर्य से उपजी जो बिरही मन की पीड़ा है वही उसके लिए गीत है | असल में कवि  के सामने कोई स्त्री विशेष नहीं है बल्कि सूक्ष्म संवेदनाओं की भरीपुरी दुनिया है |सार्थक गीत लिखने वाले कवि को एक सलीके का गीत रचने में पूरी जिन्दगी लगानी पड़ती है| नीरज के मन का कवि उसी जिन्दगी के गीत पर जिल्द  बंधवाने की कोशिश करता है| ये जो जिल्द बंधवाना है वही जिन्दगी को समग्रता में सहेजने की कोशिश भी है| आँखों की नमी का मतलब,आम आदमी के दुख के साए हैं| अर्थात नीरज जी के लिए गीत ही उनकी भरपूर जिन्दगी है|उस गीत में ही उनकी समूची दुनिया है| जिसे सहेजने की कोशिश में वो आज भी सजग हैं |
 भारतीय समाज में पुनर्जागरण काल जिसे हम स्वातंत्रयोत्तर काल भी कह सकते हैं उसमे अनेक तरह के बदलाव हुए |परिणाम स्वरूप साहित्य में भी स्वाभाविक रूप से अनेक तरह के वेग और धाराएं समय समय पर उठती गिरती हुई देखी जा सकती हैं | हिंदी  कविता का स्वरूप भी इस बदलाव का साक्षी बना| नीरज या नीरज जैसे मंचीय गीतकार हिन्दी की लोकवादी वाचिक कविता के स्वरूप को लगातार निखारते रहे हैं| असल में यही हमारी कविता की वाचिक परंपरा की खूबी भी रही है|
उत्तर प्रदेश के इटावा में 4 जनवरी सन 1925 को जन्मे कविवर गोपालदास नीरज जी हिन्दी की वाचिक कविता परंपरा की धरोहर हैं|नीरज को उनके जीवन संघर्षो ने ही गीतकार बना दिया | अल्पायु में पितृविहीन हुए,घर छूटा नौकरियों के लिए एटा ,फिर दिल्ली और दिल्ली से कानपुर  तक भटकना पडा | टाइपिस्ट या क्लर्की की नौकरी करते हुए नीरज कब किशोर से जवान हुए पता ही नहीं चला| लेकिन इस जीवन संघर्ष ने नीरज को कवि बना दिया था| उन्होंने  कानपुर में रह कर अपनी पढाई भी जारी रखी| कानपुर ही ज्यादातर उनके युवा मन के संघर्षो और सपनों का साक्षी बना| अध्यापन के लिए मेरठ गए | मेरठ के बाद अलीगढ़ के धर्म समाज महाविद्यालय में प्राध्यापक  नियुक्त हुए| यह सब होने के साथ ही नीरज ने कभी कविता कामिनी का साथ नहीं छोड़ा| उनकी ख्याति विशेष रूप से देश के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतकारो में कई दशक पहले बन चुकी थी | वे मानवतावादी विचारों साथ ही श्रंगार प्रेम आस्था और ओज के गीतकार के रूप में हिन्दी कवियों के समाज में चर्चित रहे हैं |
एक समय राष्ट्रकवि दिनकर जी ने उनकी काव्यपाठ शैली को लेकर उन्हें –‘हिन्दी की वीणा’ कहा था| भारत सरकार के पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे अलंकरणों  से अलंकृत गोपालदास नीरज हिन्दी की वाचिक काव्य परंपरा और उसके आध्यात्मिक,सांस्कृतिक सरोकारों एवं रसवादी रुचियों को अपनी कविताओं से परिमार्जित करने वाले जनता के कवि हैं| कई दशको से हिन्दी कविसम्मेलनो का अत्यंत सुपरिचित स्वर नीरज जी ही रहे हैं| आपने हिन्दी सिनेमा में भी अनेक फिल्मो के लिए बेहतरीन गीत लिखे हैं | नीरज जी के गीत गीतिका और दोहो के संग्रह काफी समय से बाजार में उपलब्ध हैं |  अत्यंत सुख संतोष का विषय यह भी है कि आज लगभग 92 वर्ष की आयु में भी नीरज जी साहित्य के प्रति पूर्णतया सजग हैं|   
 नीरज जी से हिन्दी संसार अच्छी तरह परिचित है| उनका काव्यात्मक व्यक्तित्व समाजवादी विचारों के ऊहा पोह और अमीर गरीब सबको एक सामान एक स्तर पर समझने वाली चेतना का प्रतीक है|कुछ लोगो की नजर में यह विवादास्पद भी हो सकता है, लेकिन ‘बस यही अपराध मै हर बार करता हूँ /आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ |’जैसी अमर पंक्तिया लिखने वाले नीरज जी जन समाज की दृष्टि में मानवीय  प्रेम के अन्यतम गायक हैं। 'भदन्त आनन्द कौसल्याननके शब्दों में- “उनमें हिन्दी का अश्वघोष बनने की क्षमता है।“ अर्थात जिस प्रकार अश्वघोष ने ‘बुद्धचरित’ नाटक लिखकर सामाजिक चिंतन करते हुए अपने समय में भगवान बुद्ध को अपना चरित नायक बनाया था उसी प्रकार नीरज जी में भारतीय दार्शनिक सांस्कृतिक समझ विद्यमान है|वे मानवीय करुणा के कवि  हैं|  वे समाजवादी चिंतन को व्यापक रूप दे सकते हैं |भदंत कौसल्यायन की यह भविष्यवाणी पूर्ण रूप से सत्य नहीं हो पायी,परन्तु उनमें अश्वघोष बनने की क्षमता सदैव बनी रही| दूसरी ओर राष्ट्रकवि दिनकर के अनुसार वे ‘हिन्दी की वीणा’ हैं। यह बात ज्यादा सही साबित हुई|अन्य भाषा-भाषियों के विचार में वे 'सन्त-कविहैं और कुछ आलोचक उन्हें 'निराश-मृत्युवादीकवि भी कह सकते हैं। इस सबके बावजूद नीरज जी वर्तमान समय में हिन्दी जगत के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं, जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी काव्यानुभूति तथा सरल भाषा द्वारा हिन्दी की वाचिक कविता को एक नया मोड़ दिया है |वे स्वयं बच्चन जी की कृति  ‘निशा निमन्त्रण’ से प्रभावित हुए किन्तु बाद में उन्होंने नयी पीढी के मंचीय गीत कवियों को सर्वाधिक प्रभावित किया है। आज अनेक नए गीतकारों के कण्ठों में उन्हीं की अनुगूँज है । करोड़ों कंठो में अपनी व्याप्ति बना लेने वाले कवि नीरज ने अपनी ख्याति अपनी काव्य पाठ शैली से ही अर्जित की है| उनका स्वर उनकी आत्मा की गहराई से फूटकर बाहर आता है| उनकी प्रांरम्भिक चर्चित रचनाएं –‘कारवाँ गुजर गया’ और ‘नीरज की पाती’  है जो हिन्द पाकेट बुक्स से प्रकाशित हुई | उसके बाद के अनेक संग्रह आत्माराम एंड संस ,पेंग्विन आदि से भी प्रकाशित हुए| उनके काव्य संग्रहों में –
संघर्ष (1944),अन्तर्ध्वनि (1946)विभावरी (1948)प्राणगीत (1951)दर्द दिया है (1956)बादर बरस गयो (1957)मुक्तकी (1958)दो गीत (1958)नीरज की पाती (1958)गीत भी अगीत भी (1959)आसावरी (1963)नदी किनारे (1963)लहर पुकारे (1963)कारवाँ गुजर गया (1964) फिर दीप जलेगा (1970)तुम्हारे लिये (1972)नीरज की गीतिकाएँ (1987) इसके बाद आये संग्रहों में  – ‘गीत जो गाये नहीं’,’बादलों से सलाम लेता हूँ’,और ‘पुष्प पारिजात के’  आदि प्रमुख हैं | ध्यान देने की बात यह भी है कि नीरज जी की ज्यादातर काव्य पुस्तके कई बार पुनर्प्रकाशित भी हुई | अब तो ‘नीरज रचनावली’ का भी प्रकाशन हो चुका है|
मूलत: नीरज गीत गजल और रूबाई के मुक्तक कवि है, प्रबंध कवि नहीं हैं | हालांकि वे प्रेम और सौन्दर्य के निरे श्रंगारी कवि भी नहीं हैं,कई बार उनका यही प्रेम नारी सौन्दर्य के साथ  ही देश प्रेम के रूप में हिलोरें  मारने लगता है| उनके गीतों में व्यष्टि से समष्टि तक की प्रणय यात्रा के असंख्य अमिट लक्षण दिखाई देते है|रुबाइयो और गजलो में उपस्थित उनके सूफियाना अंदाज को नजरंदाज नहीं किया जा सकता| जीवन में आस्था और विश्वास का भाव कभी समाप्त नहीं होता|कवि अपने समाज को खुली आँखों देखे जाने वाले सपनों की ओर लेकर आना चाहता है| ‘जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना/अन्धेरा धरा पर कही रह न जाए|’ जैसी अनेक अमर पंक्तियां देने वाले कवि के अवचेतना में सदैव ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ जैसी आर्ष वचनों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अवश्य विद्यमान रही है |  सहज शब्दों में गीता का उपदेश सुना सकने की क्षमता वाले कवि नीरज की निम्न पंक्तियाँ देखें| सामाजिक समरसता के प्रति आस्था और विश्वास का ये भाव सचमुच स्पृहणीय है  -
छिप-छिप अश्रु बहाने वालोंमोती व्यर्थ लुटाने  वालों
कुछ सपनों के मर जाने सेजीवन नहीं मरा करता है।
खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी 
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! जाने वालों चाल बदलकर !
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।
प्रसंगवश अभी हाल में ही जिस प्रकार वर्ष 2016 के लिए साहित्य के नोबल पुरस्कार से अमेरिकी गीतकार और संगीतकार  “बॉब डिलन” को सम्मानित किया गया है ,वह नोबल पुरस्कारों के इतिहास में बड़ी युगांतकारी सूचना है| इसका यह सन्देश भी मिलता है कि कविता या साहित्य की जो जनरुचि वाली  या लोकोन्मुखी रसधारा हमारे समाज में बौद्धिक विमर्श वाली प्रगतिकामी धारा के साथ समानांतर रूप से चलती रहती है, उसका महत्व कम करके नहीं आंका जा सकता| प्राय: देखा गया है कि जो बहुत पापुलर होता है वह सामाजिक सरोकारों की दृष्टि से उतना ही महत्वपूर्ण भी हो जाता है |लेकिन “बॉब डिलन” की प्रतिभा क्षमता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उन्हें उनकी पापुलरिटी ने ही महत्त्वपूर्ण भी बना दिया| यही अवधारणा हम चर्चित गीतकार कवि गोपालदास नीरज को लेकर भी विकसित कर सकते हैं | नीरज मानवीय संवेदना की दार्शनिक और सांस्कृतिक गूंज के कवि हैं | हिन्दी की जो छायावादोत्तर कविता धारा पुनर्जागरण के बाद छीजने लगी थी उसे गीत और नवगीत के कवियों ने सहेजने का काम किया|हालांकि गीतकारो में भी गीत और नवगीत के सरोकारों को लेकर एक राय नहीं बन सकी |
गीत को छायावादी प्रेम ,सौन्दर्य ,आध्यात्म जैसे  मूल्यों के प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता रहा और नवगीत को समकालीन जीवन के यथार्थवादी प्रगतिशील पक्ष से जोड़कर ही देखा गया| ‘नवगीत दशक-1,2,3’ की योजना के दिशावाहक डा.शंभुनाथ सिंह ने तो कविसम्मेलनों में जाने वाले कवियों को नवगीतकार भी नहीं स्वीकार किया था| हम इसे हिन्दी कविता में गीत और नवगीत की विभाजक रेखा के रूप में भी देख सकते हैं|अर्थात उत्सवधर्मी पारंपरिक विषयों की वे कवितायेँ जिन्हें सुर लय के साथ गाया जा सके उसे गीत और जिसे समकालीन कविता के समकक्ष पाठ्य रूप में और युगीन विमर्श में शामिल किया जा सके उसे नवगीत कहा समझा जाने लगा| कालान्तर में यह विभाजक रेखा गीतकारो ने तोड दी|बहुत सीमा तक स्वयं डा.शंभुनाथ सिंह ने अपने बनाए नियमो को ही नवगीत दशक -3 तक आते आते शिथिल कर दिया था|उनके अपने ही गीतकार मित्रो के अनेक तरह के दबाव उनपर थे| इसके बावजूद अपने दुराग्रहो के चलते शंभुनाथ सिंह ने वीरेन्द्र मिश्र,रमेश रंजक,रमानाथ अवस्थी ,गोपाल दास नीरज और कुंअर बेचैन जैसे गीत कवियों को ‘नवगीत दशक 1,2,3’ में शामिल नहीं किया|
बहरहाल नीरज जी बालकृष्ण शर्मा नवीन,गोपाल सिंह नेपाली,दिनकर ,हरिवंशराय बच्चन,भवानी प्रसाद मिश्र,बलबीरसिंह रंग,शिवमंगल सिंह सुमन,रमानाथ अवस्थी आदि गीत कवियों की विराट सांस्कृतिक आध्यात्मिक  मानवीय परंपरा के गीतकार हैं | वे दशको से पाठ्यक्रमो में भी शामिल रहे और मंचो पर भी बने रहे| हिन्दी गीतकारो की यह वाचिक परंपरा आज मंचीय कविता से कविता के क्षीण होने के साथ ही नष्ट हो रही है| अब कविसम्मेलनो में फूहड़ हास्यकवियों और मसखरों का जमावड़ा हो गया है| अब  मंचीय कवियों में द्विअर्थी अश्लील तुकबन्दियाँ जोड़ने वाले अथवा नकली वीरता भाव जगाने वाले कवियों का ही बोलबाला रह गया है| मंचो पर अब अच्छे गीतकार भी कविता पढ़ने से कतराने लगे हैं |पारिश्रमिक तो हास्य कवियों की तुलना में उनका आधा भी नहीं रहा| अत: मंच से कविता को या अच्छे गीतकार को जोड़कर देखना आज के समय में उचित नहीं है| नीरज जी को कई बार सुनने और एक बार साथ कविता पढने का  अवसर मुझे भी मिला| प्रसंगवश यह संयोग ही है कि मैंने सन – 1982 में नीरज जी की अध्यक्षता में संपन्न हुए चौक लखनऊ के एक कविसम्मेलन में कविता पाठ किया | उस कविसम्मेलन में प्रख्यात कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा जी भी थी| तब उस कवि सम्मेलन में मुझे 20/ पारिश्रमिक मिला था| बेरोजगारी के दिनों में वह मेरे लिए बड़ी धनराशि थी| मुझे बहुत तालियां भी मिली थीं,लेकिन वो तालियाँ ज्यादातर मेरे प्रस्तुतीकरण पर बजी थीं | खैर ,उस दिन पहली बार मुझे नीरज जी और सुमित्रा जी का बहुत स्नेह भी मिला| किन्तु कुछ मस्खरो के बेहूदा आचरण के कारण उसके बाद दुबारा ऐसे  मंचो पर कविता न पढने का मैंने निर्णय लिया |बाद में फिर कभी मैने अपने को वहाँ फिट नहीं समझा और मैं नवगीत की ओर मुड़ गया| लेकिन नीरज जी का तब का आटोग्राफ अभी तक संभाल कर रखा है|     
बहरहाल,जो नवगीत की यथार्थवादी प्रगतिशील कविता धारा शंभुनाथ सिंह के अलावा रमेश रंजक,वीरेन्द्र मिश्र ,माहेश्वर तिवारी,शान्ति सुमन,ठाकुर प्रसाद सिंह ,शिवबहादुर सिह भदौरिया,नईम ,देवेन्द्र शर्मा इंद्र ,उमाकांत मालवीय, सत्यनारायण,महेश अनघ,कैलाश गौतम,इसाक अश्क,गुलाब सिंह,नचिकेता जैसे नवगीतकारो द्वारा एक समय में चलाई गयी वह प्रगतिशील गीत कविता के पाठ्य स्वरूप और जन सरोकारों पर केन्द्रित थी| नीरज जी कभी  नवगीत के इस विमर्श वाले पक्ष को लेकर बहुत सजग नहीं रहे|हालांकि उन्होंने जाने अनजाने नवगीत आन्दोलन का समर्थन ही किया है| उनका एक गीत देखने योग्य है –‘ए भाई ! ज़रा देख के चलो/आगे ही नहीं पीछे भी /दाएं ही नहीं बाएँ भी|’ ऐसे जनपक्ष वाले मार्मिक यथार्थवादी कई नवगीत भी उनके खजाने मिलते हैं |  उनके सामने हजारो हजार श्रोताओं की भीड़ सदैव रही और  उन्होंने श्रोताओं को ध्यान में रखकर जनरुचि की कविता की| उन्होंने अपनी रसवादी काव्यपाठ शैली से जनता के व्यापक सरोकारों के साथ अनुरंजन करते हुए कविता कामिनी को सजाया संवारा है |स्वयं ही उन्होंने अपने गीतों और गजलो का रचना विधान बनाया, वे अपनी संवादधर्मी मौलिक काव्य चेतना के ज्योतिपुंज हैं | नीरज जी अपनी रचनाशीलता से हिन्दी कविता के मंच पर लगभग पांच दशको से केन्द्रीय भूमिका में विद्यमान रहे हैं | उनके नाम से हिन्दी काव्य प्रेमी श्रोताओं की भीड़ का जमावड़ा हम सबने देखा ही नहीं महसूस भी किया है| एक दोहे में वे कहते हैं-
गीत वही है सुन जिसेझूमे सब संसार
वर्ना गाना गीत काबिलकुल है बेकार। 
नीरज जी लगातार कविता से आनंद वितरित करने का काम करते रहने के लिए जाने जाते है|हालांकि उनकी कविता का प्रयोजन-यशसे और अर्थकृते के रूप में ही लक्षित किया जाना चाहिए|एक तरफ वे कविता के आनंदमार्ग के समर्थक दिखाई देते हैं दूसरी ओर वे गंभीर दार्शनिक चेतना के प्रतिनिधि भी नजर आते हैं | निम्न दोहों में अपनी चिर परिचित दार्शनिक बोध की मुद्रा में वे कहते हैं-
बड़े जतन के बाद रे ! मिले मनुज की देह
इसको गन्दा कर नहींहै ये प्रभु का गेह।      
अन्तिम घर संसार मेंहै सबका शमशान
फिर इस माटी महल परक्यों इतना अभिमान।
हर एक समाज में मनुष्यता को परिमार्जित करने  की लगातार आवश्यकता रहती है|मंचीय कवियों ने सामान्य जन को इस प्रकार की पंक्तियों से लगातार जगाने का काम किया है| नीरज जी इस रूप में वाचिक कविता के आदर्श हैं| ‘नीरज की पाती ’में उनके अनेक प्रगीत है जो बेहद मार्मिक बन गए हैं| सैनिक की ओर  से लिखे गए पत्र की भाषा और संवेदना देखिए  -
आज की रात तुझे आख़िरी ख़त और लिख दूँ
कौन जाने यह दिया सुबह तक जले न जले ?
बम्ब बारुद के इस दौर में मालूम नहीं 
ऐसी रंगीन हवा फिर कभी चले न चले।
नीरज जी के पास ऐसे अनेक गीत है जो प्रेम और समर्पण के विभिन्न कोणों  के हिसाब से मनुष्य की शाश्वत संवेदना और जीवन की मर्म वेदना का पता बताते हैं | ‘नीरज की पाती’ में एक और चर्चित प्रगीत कानपुर को लेकर संकलित है इस गीत में कवि की अपनी निजता का विस्तार दिखाई देता है| कानपुर से नीरज जी का गहरा संबंध रहा है| कवि ने कानपुर में अपने संघर्ष के दिन बिताये थे| उनकी  जवानी यही परवान चढी और उनकी शिक्षा भी यही हुई| इंटरमीडिएट ,बी.ए. और एम्.ए. की शिक्षा भी कानपुर में ही हुई | प्रेम और सौन्दर्य की पहचान इसी उम्र में यही विकसित हुई|यह स्वतंत्रता के बाद का समय था सन 1952- 53 का हिन्दुस्तान और उस दौर का कानपुर देखिए कवि की स्मृतियों में कवि के संघर्ष का साक्षी बना उसका अपना शहर किस तरह आता है-
कानपुरआह!आज याद तेरी आई फिर
स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती है,
आँख पहले भी यह रोई थी बहुत तेरे लिए
अब तो लगता है कि बरसात हुई जाती है.|
इसी कविता में आगे नीरज लिखते हैं --
करती टाईप किसी ऑफिस की किसी टेबिल पर 
आज भी बैठी कहीं होगी थकावट मेरी,
खोई-खोई-सी परेशान किसी उलझन में
किसी फाइल पै झुकी होगी लिखावट मेरी.|
कानपुर में छोडी हुई अपनी थकावट और लिखावट को दिल से लगाकर रखने वाले संवेदनशील  कवि नीरज जी विशेष रूप से अपनी काव्यपाठ शैली और प्रस्तुतियों के लिए जाने जाते हैं | लेकिन जबतक कविताई में दम नहीं होगा तब तक केवल प्रस्तुतीकरण से काम नहीं चलेगा| दीर्घकाल तक मंच की सिद्धि कविताई और प्रस्तुतीकरण दोनों के संतुलन से ही संभव है| इसीलिए लोग नीरज जी को मंच सिद्ध कवि मानते है | उनको जिस चर्चित गीत ने सबसे अधिक सम्मान दिलाया वह तो ‘कारवाँ गुजर गया’ ही है | कहते है कि कविसम्मेलनो की अपार सफलता के बाद नीरज जी को फिल्मो के लिए गीत लिखने का निमत्रण मिला जिसे स्वीकार कर नीरज जी ने ‘नई उमर की नई फसल ’ से फ़िल्मी गीत लिखने शुरू किए-
स्वप्न झरे फूल सेमीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे|
और
देखती ही रहो आज दर्पण न तुम/प्यार का ये मुहूरत निकल जाएगा|
 फिल्म ‘नई उमर की नई फसल’ तो उतना नहीं चली लेकिन नीरज  जी के इन दोनों गीतों ने जनता के मन में ही नहीं बल्कि फिल्म इंडस्ट्री में भी धूम मचा दी थी| ये गाने आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं |इसके बाद तो फिर उन्हें राजकपूर जैसे कई बड़े फिल्म निर्माताओ ने भी अपनी फिल्मो में गाने लिखने के लिए निमंत्रण दिया|यह सिलसिला काफी दिनों तक चला| उन्होंने ‘मेरा नाम जोकर, शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक गीत लिखे| ये आजकल के  जैसे नृत्य पर केन्द्रित गीत नहीं थे| उनमे कविता की पूरी सुन्दरता अपने वर्चस्व के साथ विद्यमान थी दो अन्य उदाहरण दृष्टव्य हैं --
लिखे जो ख़त तुझे/वो तेरी याद में
हज़ारों रंग के/नज़ारे बन गए
सवेरा जब हुआ/तो फूल बन गए
जो रात आई तो/सितारे बन गए|
और-
कहता है जोकर सारा ज़माना
आधी हक़ीक़त आधा फ़साना
चश्मा उठाओफिर देखो यारो
दुनिया नयी हैचेहरा पुराना
कहता है जोकर........|
  असल में जिन्दगी तो हकीकत और फ़साने के बीच में ही अटकी है| न पूरी तरह से हकीकत से ही काम चलता है और न केवल फ़साना बन जाने से ही जिन्दगी चल सकती है|ये अधूरापन हम सबके जीवन का अहम हिस्सा है| इसे तो सभी को स्वीकार करना ही होता है| नीरज जी अपने समय के पुरस्कृत फ़िल्मी गीतकार भी हैं | उन्हें  फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्नीस सौ सत्तर के दशक में लगातार तीन बार पुरस्कार दिया गया। उनके द्वारा लिखे गये पुरस्कृत कृत गीत हैं-
वर्ष -1970: काल का पहिया घूमे रे भइया! (फ़िल्म: चन्दा और बिजली)
वर्ष -1971: बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ (फ़िल्म: पहचान)
वर्ष -1972: ए भाईज़रा देख के चलो (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर)
आज भी उनके ये गीत उतनी ही तन्मयता से सुने सराहे जाते हैं| लेकिन बम्बई की ज़िन्दगी से भी उनका मन  बहुत जल्द उचट गया और वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर फिर अलीगढ़ वापस लौट आये। जैसा कि नीरज ने अपने एक मुक्तक में कहा है कि –
ख़ुशी जिस ने खोजी वो धन ले के लौटा
हँसी जिस ने खोजी चमन ले के लौटा
मगर प्यार को खोजने जो गया वो
न तन ले के लौटा न मन ले के लौटा|
तो कवि अपने ही शब्दों को जीते हुए प्यार की खोज में मुम्बई से फिर अपने शहर अलीगढ़ वापस लौट आया | अब उसका तन और मन संपूर्ण कवितामय हो चुका था| कविता की साधना में ही कवि को जीवन का सर्वस्व दिखाई देने लगा| तब से अलीगढ़ में ही अपना स्थायी निवास बना लिया | नीरज जी ने सामाजिक सद्भाव के कई रंगो पर गजले भी कही हैं | कुछ गजलो के शेर देखने योग्य हैं-
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए। 
जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए। 
आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए।
आज भी ये कश्मीर समस्या वैसी ही बनी हुई है|धर्म के नाम पर संघर्ष हो रहे हैं |इंसानी मोहब्बत और खुलूस की बात लगातार दुहराने की आवश्यकता बनी हुई है| गंगा और झेलम दोनों में इस समय भी आग लगी हुई है|ऐसे संकट के समय हमारा जीवन कितना दूभर हो चुका है|पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों की सीमाओं पर लगातार आग बरस रही है| नीरज जी की एक और दार्शनिक बोध की गजल के कुछ शेर देखें -   
तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा । 
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा ।
वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में, 
हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा ।
गजल की मार्मिकता उसके उक्तिवैचित्र्य में निहित होती है| नीरज जी के खजाने में ऐसी तमाम गजले हैं जिनमे भारतीय दर्शन की आत्मा फड़कती है| वे हिन्दी गजल को गीतिका कहते हैं | इसी प्रकार की एक और गजल अपनी भंगिमा के कारण बेहतरीन बन गयी है-  
जितना कम सामान रहेगा/उतना सफ़र आसान रहेगा
जितनी भारी गठरी होगी/उतना तू हैरान रहेगा
उससे मिलना नामुमक़िन है/जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा
हाथ मिलें और दिल न मिलें/ऐसे में नुक़सान रहेगा
जब तक मन्दिर और मस्जिद हैं/मुश्क़िल में इन्सान रहेगा
नीरज’ तो कल यहाँ न होगा/उसका गीत-विधान रहेगा |
अंतत: यही कहा जा सकता है कि कवि कभी मरता नहीं|उसके शब्द सदैव जीवित रहते हैं | उन शब्दों में अभिव्यक्त संवेदनाएं अपने समकाल में मानवीय सरोकारों को अपनी तरह से प्रेरित भी करती रहती हैं| नीरज की संवेदनाओं में सुर भी है ताल भी है लय भी है| अनंत काल से गीत का रथ चल रहा है,अविराम है यह गीत की शाश्वत यात्रा | फिलहाल  ऐसे शब्द साधक, रस साधक और मंच साधक कवि को दीर्घायु होने की अशेष शुभकामनाएं|
# संपर्क :--- सी-45/वाई-4,दिलशाद गार्डन,दिल्ली-110095


गुरुवार, अक्तूबर 27, 2016

शोध लेख 

# नवगीत की युगीन चेतना और भारतेंदु मिश्र के नवगीत

# रमाशंकर सिंह

(अनुभव की सीढी--1980-2010 तक के गीतों का संग्रह : 
सं. रश्मिशील,)

आधुनिक हिन्दी साहित्य में ‘आधुनिकता’ आधुनिक युगबोध का उल्लेख होता रहा है,अत; आधुनिक युगबोध की अवधारणा पर विचार करना युक्ति -संगत प्रतीत होता है| रमेशकुंतल मेघ अपनी पुस्तक ‘आधुनिकताबोध और आधुनिकीकरण ’में आधुनिक युगबोध की चर्चा करते हुए कहते हैं कि- ‘आज के युग में ज्ञान विज्ञान ,टेक्नोलाजी ,सूचना प्रोद्योगिकी के परिणामस्वरूप जो परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई है,उनका बोध अथवा उनसे साक्षात्कार आधुनिक युगबोध है| इस नए बोध में प्राचीन और मध्यकालीन लालित्य और रोमांस का अभाव है|आधुनिक युगबोध औद्योगिकीकरण ,महानगरो में अपसंस्कृति ,बौद्धिकता,तार्किकता ,प्रतिस्पर्धा,उपभोक्तावाद और वैश्वीकरण आदि तत्वों से युक्त है| आधुनिक युगबोध पर पाश्चात्य -दर्शन,विज्ञान,संस्कृति का प्रचुर प्रभाव है| पुनर्जागरण (र्रिनेसां) से आधुनिक युग की शुरुआत होती है और औद्योगिक क्रान्ति तथा फ्रांसीसी क्रान्ति से आधुनिक युग का आविर्भाव होता है  |...वर्त्तमान युग समानता से शुरू हुआ और उसमे स्वच्छंदता का अभिषेक हुआ |आधुनिक युग नवजागरण और क्रांतियो का युग है –रूस की समाजवादी क्रान्ति(1917), उपनिवेशवाद से भारत की आजादी (1947 ),चीन की कृषक क्रान्ति (1948 ),इन तीन क्रांतियो ने विश्व की धारा ही बदल दी|’-( पृ -62 -आधुनिकताबोध और आधुनिकीकरण)
इसके पश्चात विश्व राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन -1989 में आया जब सोवियत संघ का विखंडन हुआ और साम्यवाद को गहरा धक्का लगा| अब तक विश्व अमेरिका और एवं रूस जैसी दो महाशक्तियो के बीच वर्चस्व को लेकर चलने वाले शीतयुद्ध से त्रस्त था| सोवियत संघ के बिखराव से साम्यवादी  देश एक सशक्त  नेतृत्व से वंचित रह गए तथापि चीन,उत्तर कोरिया,क्यूबा जैसे देशो में अब भी साम्यवादी अर्थव्यवस्था चलती रही| आधुनिक युग में आकर हम पहली बार दो सामाजिक शासन व्यवस्थाओं को देखते हैं- पूंजीवादी व्यवस्था एवं साम्यवादी व्यवस्था |इन दोनों ही व्यवस्थाओं के अपने अपने गुण दोष हैं | इन दोनों विरोधी व्यवस्थाओं के कारण आज तक विश्व विभाजित आशंकित और त्रस्त है- कई दशको से युद्ध की विभीषिका को भी झेल रहा है| दो विश्व युद्धों में हुए महाविनाश ने मानवता को जो घाव दिए हैं वे अभी तक रिस रहे हैं | ‘नई कविता के प्रतिमान’ में लक्ष्मीकांत वर्मा जी कहते हैं –‘अपनी प्रकृति में आधुनिकता मानव प्रगति द्वारा जोड़े गए जीवन के नए अर्थ और नए परिवेश की स्वीकृति है| आधुनिकता वस्तु की अनुभूति को देश काल की सापेक्षता प्रदान करती है-आधुनिकता पूर्वाग्रह से मुक्त बौद्धिक चेतना को प्रत्येक अनुभूति का अविभाज्य अंग मानती है|’(पृ.248 --नई कविता के प्रतिमान)
   दूसरी तरफ भूमंडलीकरण से प्रभावित लोग यह घोषणा करने लगे थे कि दुनिया एकध्रुवीय हो गयी है| वह एक ग्लोबल गाँव बन गयी है| उसमे अब हमेशा पूंजीवाद चलेगा और उस पर अमेरिका शासन करेगा|भूमंडलीकरण के प्रभाव से शासकीय नीतियों की आत्मनिर्भरता और गुटनिर्पेक्षता की सारी  बाते हवा हो गयीं |निजीकरण तथा उदारीकरण की नीतियों वाले ‘आर्थिक सुधार’ शुरू हो गए|जनता के खून पसीने की कमाई से बनी सार्वजनिक चीजें पूंजीपतियों के हाथों माटी के मोल बेची जाने लागीं| सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में काम करने वालो की छटनी होने लगी| निजी क्षेत्र के बहुत से उद्योग धंधे बंद हो जाने से मजदूर बेरोजगार होने लगे|कृषि संबंधी अनुदार नीतियों के कारण किसान तबाह होकर आत्महत्या करने लगे |केंद्र और राज्यों की सरकारें विदेशी निवेश को आमंत्रित करने के लिए अपने देश के हितो की अनदेखी करने लगीं | बहुराष्ट्रीय कंपनियां  देश की धन संपदा लूट लूट कर ले जाने लगीं और सरकारें ‘बाजार की शक्तियों’ के आगे असहाय होने का राग अलापते हुए जनहित के कार्यो से मुंह मोड़कर देशी विदेशी पूंजीपतियों के हित में काम करने लगीं | ऐसे में सांप्रदायिक शक्तियों को उभरने का खूब मौक़ा मिला और भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की बाते ही नहीं कार्रवाइया  भी होने लगीं|
सचमुच देखते ही देखते दुनिया बदल गयी थी और जब दुनिया ही बदल गयी थी तो हमारा साहित्य भी बदला |उसमे यथार्थवाद  की जगह जादुई यथार्थवाद  आ गया| आधुनिकता की जगह उत्तर आधुनिकता आ गयी|भक्ति आंदोलन से लेकर जनवादी आन्दोलन,स्त्री आन्दोलन ,और दलित आन्दोलन तक हिन्दी साहित्य में ‘आंदोलनों ’ की जो परंपरा रही थी उसकी जगह विमर्शो की परंपरा शुरू हो गयी| प्रगतिशीलता की जगह भारतीयता की बात होने लगी| धर्मनिरपेक्षता की जगह धर्मपरायणता की बात होने लगी | वर्ग संघर्ष की जगह वर्ण संघर्ष की बात होने लगी|दलितों की मुक्ति के लिए जाति  प्रथा को समाप्त करने की जगह आरक्षण पाते रहने के लिए जाति  को बनाये रखने की बात होने लगी| स्त्रियों की मुक्ति के लिए शोषण की व्यवस्था को समाप्त करने के लिए लैंगिक स्वच्छंदता की बात की जाने लगी| प्रगतिशील और जनवादी लेखको को मार्क्सवादी शब्दावली में बात करते हुए शर्म आने लगी और उनमे से कई खुद ही बढ़ चढ़ कर ऐसी आत्मालोचना करने लगे जैसी मार्क्सवाद के विरोधियो ने भी कभी नहीं की थी|इसका असर प्रगतिशील और जनवादी लेखन पर ही नहीं लेखक संगठनो पर भी पडा| वे निस्तेज और निष्क्रिय होते गए|
इन्ही सब हालातो को देखते हुए वरिष्ठ नवगीतकार श्री देवेन्द्र शर्मा इंद्र ‘अनुभव की सीढी’ की भूमिका में ‘हम न होंगे गीत होंगे’ शीर्षक लेख में कहते है-“समय की भयावहता ,दारुणता,दुसह्यता,प्रतिकूलता,विसंगति और कदाचार के व्यूह से जूझते हुए व्यक्ति की विडम्बनाओ में पहले से अधिक वृद्धि हुई है| आतंकवाद और शोषण का शिकंजा और भी मजबूत तथा कडा हुआ है|विश्वग्राम की परिकल्पना के अंतर्गत बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फैलते हुए मकड़जाल में आर्थिक स्तर से विपन्न व्यक्ति और भी अधिक दुर्दशा तथा दरिद्रता से ग्रस्त हुआ है| कोढ  में पैदा खाज की तरह  सांप्रदायिक विद्वेष, जातिवाद ,क्षेत्रीयता और अंतर्देशीय भाषिक सूत्रों की विच्छिन्नता जैसे अभिशापो के विषाक्त धुंध में समर्पित ,जागरूक और संवेदनशील गीत ,नवगीत ने अपने चतुर्दिक परिवेश में और विश्व स्तर पर घटित होते हुए परिवर्तन चक्र के घर्घर घोष को न केवल सुना प्रत्युत अपनी छांदस लय भंगिमा में मुखरित और अभिव्यंजित किया है|”(पृ.v,भूमिका ,अनुभव की सीढी )
साहित्य में युगीन चेतना के विविध आयाम प्रतिबिम्बित होते हैं |कोई  साहित्यकार किसी एक आयाम को केंद्रबिंदु बनाता है तो कोई अनेक आयामों को |समाज की यथार्थ स्थिति साहित्यकार की कल्पना के साथ साहित्य में प्रतिबिंबित होती रहती है|साहित्य में युगीन परिवेश ,युगीन चेतना और युगबोध का सजीव चित्रांकन होना स्वाभाविक है|सच्चा कवि या साहित्यकार अपने युग की कहानी को ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दुहराता है| भले ही अतीत की कथा क्यों न हो कवि की समसामयिक दृष्टि और युगबोध की छाया उस रचना में किसी न किसी रूप में प्रतिबिंबित होकर ही रहती है| यदि कवि  या साहित्यकार अपने युग की अनदेखी करके कुछ लिखेगा तो उसकी रचना सजीव नहीं हो पायेगी| कवि बाह्यजगत से ही प्रेरणा और संवेदना ग्रहण करता है और उनसे प्रभावित होकर उन्हें अपने अनुभवों के साथ समाज को लौटा देता है|इस तरह समाज से प्राप्त संवेदनाएं कवि  की कल्पना और अनुभूति से अनुप्राणित होकर समाज की धारा में पुन: आ मिलती हैं |कवि  युगीन परिस्थिति और परिवेश से कैसे उदासीन रह सकता है ? अधिकाँश नवगीतकारो ने वर्त्तमान राजनीति और राजनेताओं को उनके कदाचार के लिए धिक्कृत किया| इस संबंध में श्री देवेन्द्र शर्मा इंद्र जी लिखते हैं कि-“वर्त्तमान जीवन के विविध आयाम राजनीति के पैने नुकीले दांतों और नाखूनों से आज बेतरह दंशित और आहात होकर रक्तरंजित हो चुके है, नवगीत उनके रिसते वृणों पर एक तरह से मरहम पट्टी करने  की भूमिका अदा करता है|”(पृ.45,नवगीत दशक 1-स.शंभुनाथ सिंह )
भ्रष्ट नेताओं के दुराचरण की कहानियां मीडिया में सुर्खियों के साथ समाज को आंदोलित करती रहती है|युगबोध के प्रति नवगीत की जागरूकता को कही अधिक स्पष्ट शब्दों में सोमठाकुर ने इन पक्तियों में व्यक्त किया है-
नवगीत सामाजिक पलायन के विरुद्ध है|वह व्यवस्था से जूझता हुआ भीड़ की हर इकाई को सुनता है और उसकी आवाज पर पूरे दायित्व के साथ क्रियाशील रहता है| वह युद्ध स्थितियों से त्रस्त होता है|अंतरिक्ष की उपलाब्धियों को अनुभूति का धरोहर मानता है|सांस्कृतिक संबंधो का सहभागी होता है |तीज त्योहारों की प्रतीक्षा करता है|मांगलिक संस्कारों के क्षणों में आह्लादित होता है और अवसाद के क्षण में आर्दचक्षु भी| यदि उसमे कही आवेश भी है तो वह बहुत पचा हुआ है|उसमे वाष्पन मात्र नहीं है, बस प्रगाढ़ संतृप्तता ही है| ”(पृ.29 ,नवगीत दशक 1- वही)
युगबोध की चर्चा करते हुए सोमठाकुर अपने नवगीत का उल्लेख करते हुए लिखते हैं –
“टूटे धनु/बाण नहीं छूटे/कोहरे के पर्तो में लक्ष्यबिंदु खोए
डूब गयी पीछे की भीड़ कहीं/लहरों ने चीडवन भिगोए/
पहचाने ताड़ लग रहे छोटे / धरती पर बैठ गयी  ऊचाई/
जग गयी हवा गहरी खाईं में /रेखा रेखा होकर बिखरी काई/
मोती के सीप नहीं दोहराए लहरों ने/हंसो ने पंख नहीं धोए| ” (-पृ.35,नवगीत दशक 1-वही )
नवगीत के विविध आयामों का उल्लेख करते हुए ओम प्रभाकर लिखते हैं –“नवगीत न तो लोकागीतात्मक रचना है और न केवल नगरबोध की कविता, बल्कि वह कविता है जो आज का संपूर्ण जीवन है|उसके कथ्य और शिल्प का आस्वाद एक कठोर और खुरदरे हाथ के स्नेहमय स्पर्श का आस्वाद है| वह संगीत ,लय ,छंद,तुक और ताल की समस्त पारंपरिक रूढियो से मुक्त होता हुआ भी उनकी मूल धारा से जुड़ा हुआ है| वह एक ऐसा काव्य रूप है जो वास्तविक रचना के आतंरिक अनुशासन से अनुशासित है|” (पृ.57 –नवगीत दशक 2 ,वही )
चर्चित नवगीतकार भारतेंदु मिश्र के समस्त गीतों और नवगीतो को कालक्रम के अनुसार एकत्र करके डा.रश्मिशील ने ‘अनुभव की सीढी ’ नामक पुस्तक के रूप में संपादित किया है|इस पुस्तक में भारतेंदु मिश्र के तीन दशको (1980-2010 तक ) के गीतों नवगीतों को  संकलित किया गया है| प्रवृत्ति और हिन्दी नवगीत का अटूट संबंध है| युगीन प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए ही नवगीतकार नवगीत की रचना करते हैं |भारतेंदु मिश्र के नवगीत हिन्दी नवगीत की परंपरा को आगे बढाते हुए समाज की  तथा उसमे रहने वाली प्रवृत्तियों की झांकी को प्रतिबिंबित करते हैं |उनके गीतों नवगीतो का वर्गीकरण इस प्रकार है-
(क) बांसुरी की देह(राग विराग और गृह रति के नवगीत)
(ख)बाकी सब ठीक है (नगरबोध,विसंगतिया और आस्था के गीत नवगीत )
(ग)  मौत के कुए में (स्त्री मजदूर,और किसान चेतना ,श्रम सौन्दर्य के गीत नवगीत )
(घ)  जुगलबंदी  (राजनीति ,धर्म,दर्शन,और बाजारवादी समय के गीत नवगीत )
(ङ)   शब्दों की दुनिया (कुछ मुक्तक ,कुछ अनुभव गीत )
इस संग्रह को पढ़ते हुए मुझे यहाँ आभास होता है कि कवि  के नवगीत विषय की विविधता को अपने अंतस में समेटे हुए समसामयिक यथार्थबोध से गहरे रूप से जुड़े हुए हैं | ‘नवगीत के अक्षर’  नामक गीत में भारतेंदु मिश्र इस बात को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं –
‘समय ने तीखी छुरी से/आग पानी हवा धरती पर/लिखे है नवगीत के अक्षर|’(पृ.60-अनुभव की सीढी)|
इस पंक्ति से यह बात साफ़ हो जाती है कि नवगीत अपने उद्भव काल से ही समसामयिक युगबोध से तटस्थ होकर जुडा है| मध्यकाल की प्रबल भक्तिधारा जिस तरह साहित्य,संगीत,कला  में उमड़  रही थी वह छायावाद के पड़ाव  को पार कर  नवगीतो तक आते आते अपना वेग खो चुकी है| उसके स्थान पर प्रतिस्पर्धा ,लालसा,संघर्ष ,हिंसा,भोग,सुख की आसक्ति और धनलिप्सा ने अधिकार जमा लिया है| परन्तु इसके साथ ही वैज्ञानिक प्रगति, प्रौद्योगिकी,यांत्रिकी,जन साधारण की महत्ता,लोकतंत्र,नारी शिक्षा,सामाजिक चेतना,दलितोद्धार,बौद्धिकता,उदारता ,धार्मिक सहिष्णुता ,कृषि वाणिज्य में उन्नति,शिक्षा के प्रचार प्रसार जैसी सकारात्मक स्थितिया भी आयी हैं |यहाँ परिवर्तन क्यों और किस प्रकार आया है? इसका उत्तर भारतेंदु मिश्र के नवगीतो में अभिव्यक्त युगबोध का विश्लेषण ही दे सकता है|
राष्ट्र(नेशन ) और राज्य(स्टेट ) के वास्तविक अर्थ को समझना आवश्यक है|राष्ट्र एक विशेष भूभाग में रहने वाले लोगो का वह समूह होता है जिसमे भावात्मक एकता होती है|इसी भावात्मक एकता के आधार पर वे परस्पर घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं|राज्य का अभिप्राय है एक निश्चित भू भाग पर बसने वाला वह समूह जो राजनीतिक रूप से संगठित हो तथा आतंरिक और वाह्य नियंत्रण से मुक्त हो|राष्ट्र राज्य से बृहत्तर भूभाग पर संगठित रहता है| राष्ट्र निर्माण के अनेक तत्व हैं जैसे सामान्य भाषा,सामान्य धर्म,सामान्य रीति रिवाज,सामान्य इतिहास ,सामान्य संस्कृति आदि |राष्ट्र निर्माण के लिए एक साथ रहने की प्रवृत्ति तथा भावात्मक एकता का होना अनिवार्य है| इसप्रकार राष्ट्र मनोवैज्ञानिक ,सांस्कृतिक आध्यात्मिक तथा वैचारिक एकता है –जो एक राज्य के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है|
प्रो.राजेन्द्र गौतम के अनुसार –“आज राष्ट्रीयता का अर्थ मात्र राजभक्ति नहीं है|यह व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है| नवगीत राष्ट्रीय भावना से भरपूर काव्य है|कवियों ने संपूर्ण भारत राष्ट्र में अपने राज्यों के गौरव का गायन बड़ी श्रद्धा के साथ किया है|इस तरह राष्ट्र प्रेम नवगीत का विशेष आयाम है|यह राष्ट्र प्रेम या देश भक्ति  विविध रूपों,आयामों में प्रस्फुटित होकर पाठक और श्रोता के मन को स्वाभिमान,बलिदान और त्याग की भावना से ओत प्रोत कर देती है| राष्ट्रीय  गौरव से ओतप्रोत ये रचनाए अधिकाँश नवगीतकारो के संकलनो में उपलब्ध होती हैं|” डा.भारतेंदु मिश्र की रचना ‘देश यह हमारा है ’ की ये पंक्तिया दृष्टव्य हैं –
हिमगिरि  से सागर तक देश यह हमारा है
एक एक रजकण  भी प्राणों से प्यारा है|
वंशी के स्वर डूबी यमुना मनभावन है
सतत सुधा छलकाती देवनदी पावन है
एक बूँद गंगाजल अंत का सहारा है| (पृ.73,अनुभव की सीढी )
भारत जैसे राष्ट्र की वर्त्तमान स्थिति का राजनीतिक परिदृश्य आज बहुत शोचनीय है|सत्ता लोलुपता के कारण राजनीति बहुत कलुषित एवं दूषित हो गयी है|सभी नवगीतकारो ने एक स्वर से इस भयावह परिदृश्य की निंदा की है| भले ही राष्ट्र में कहने को लोकतंत्र ,गणतंत्र और प्रजातंत्र है पर सच्चाई यह है कि ये अब भीड़तंत्र बनकर रह गया है| जाति , धर्म, संप्रदाय,वर्ग,भाषा और क्षेत्रीयता के आधार पर सब वोट माँगते हैं |मतदान केन्द्रों पर बाहुबली कब्जा कर लेते हैं |इस स्थिति का भयावह वर्णन कवि  इन शब्दों में करता है-
अच्छा सेवक समझा जिसको ,वोट और सम्मान दिया था
भस्मासुर को जैसे शिव ने मनचाहा वरदान दिया था
मन का शंकर भाग रहा है ,कैसे इससे प्राण छुडाऊँ |
अत्याचारी आज देश में धीरे धीरे जाग रहा है
मोह मुग्ध होकर के अर्जुन युद्धभूमि से भाग रहा है
बैठो पास हमारे क्षण भर गीता का उपदेश सुनाऊं|| (पृ.156 –अनुभव की सीढी )
अत्याचारियों और बाहुबलियों का जैसे जैसे बोलबाला होता जा रहा है इस भयावह परिवेश में सीधे सादे शालीन लोगो की स्थिति आज के समय में ठीक नहीं है| अर्थात आज का सच्चा नायक युद्ध भूमि में खडा होकर इन लोगो से लड़ नहीं पा रहा है|अराजकता के समय में क़ानून का भय समाप्त हो जाता है| नेक शरीफ शिष्ट लोग सड़को पर उतरे हिंसक दलो द्वारा की जा रही लूटमार ,आगजनी,हिंसा,अपहरण,बलात्कार का चीत्कार सुनते हुए घरो में छुपे रहते है और क़ानून व्यवस्था का चीरहरण होते देखते हैं-
देश की हर राह खूनी हो गयी है
वासना की प्यास दूनी हो गयी है
प्रेम,सच,उपदेश बनकर रह गया है
व्यक्ति अपनी आत्मा को छल रहा है
जड़ तिमिर की और गहरी हो गयी है| (पृ,151 –वही )
आज के समय की विकृति जैसे भूमंडलीकरण,विदेशियों के पर्यटन,पंचसितारा होटलों के रहन सहन ,आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति आदि के प्रभाव से जो युगीन चेतना बन रही है - भारतेंदु मिश्र अपने नवगीतो में इन सभी का चित्रण करते हैं | भारतीय संस्कृति के अधोपतन के लिए भ्रष्ट राजनेता, नौकरशाह ,मुनाफाखोर व्यापारी,पश्चिमी रंग में रंगे नवधनाड्य ही अधिक उत्तरदायी हैं|कालाधन कमाकर धनकुबेर बने अपराधी भी स्वयं संस्कारहीन,चरित्रहीन,नैतिकताविहीन होने से संस्कृति को नष्ट करने में अग्रणी रहे हैं |
‘अनुभव की सीढी ’नामक पुस्तक में अंतिम तीन दशको से बदल रहे गाँवों की अभिव्यक्ति –भूख ,गरीबी,शोषण,आर्थिक सामाजिक,राजनीतिक,और सांस्कृतिक असंगतियो और विसंगति के रूप में चित्रण मिलता है|भूमंडलीकृत ग्रामीण व्यवस्था से पहले गाँवों का सामाजिक संगठन सौहार्दपूर्ण था |सभी जातियों धर्मो के लोग शान्ति प्रेम और सद्भावपूर्वक रहते थे| परन्तु आज वोटो के तुष्टीकरण की वजह से पहले जैसा भाईचारा नहीं रहा| पंचायती चुनावों में कई बार जातीय द्वेष इतना बढ़ जाता है कि हिंसा भी भड़क जाती है| गाँवों की सबसे बड़ी समस्या अशिक्षा गरीबी और बेरोजगारी है, भले ही जमीदारी प्रथा समाप्त हो गयी है पर उच्चकुलीन जातियों के पास अभी भी बड़े खेत हैं |निम्न जाति के लोगो के पास कृषि योग्य भूमि कम है |अत: वे खेत में मजदूरी करके अपना गुजारा करते हैं |किसानो को अपनी फसल का पूरा मूल्य नहीं मिल पाता ,आढ़ती या दलाल उसके लाभ को हड़प लेते हैं |इसी बात को ‘जमीदार की डोली ’ नामक नवगीत में भारतेंदु मिश्र जी कहते हैं-
सीटी बजती /पूरा गाँव मौन हो जाता था
पेशी में अधमरे /खड़े हो जाते बनकर टोली|
गाली देते चपत मारते /उनके चेले चापर
जीवित थे फिर भी किसान /उस शोषण की सुविधा पर|(पृ-119,वही )
गाँवों में खेतिहर मजदूरों को आज भी बहुत कम मजदूरी मिलती है|मंहगाई और लागत  दर  की बढ़ोत्तरी की वजह से जिस रूप में किसानो के अनाज का समर्थन मूल्य बढ़ना चाहिए था ,वह नहीं बढ़ा और न ही मजदूरी बढी| इस तरह गाँवों में दोनों की हालत बद से बदतर होती जा रही है|संसाधनों के अभाव में गाँव की युवा पीढी शहरो की और भाग रही है –वह चाहे सूचना के लिए,रोजगार के लिए या फिर उच्च शिक्षा के लिए पलायन जारी है| उनका जीवन आज भी गोदान के होरी की तरह अभावग्रस्त और समस्यापूर्ण है|सामान्य जीवनयापन के लिए आज भी सड़क  ,पानी,बिजली जैसी आवश्यक सुविधाएं बहुत से गाँवों में नहीं हैं | कुछ पंक्तियां देखें—
रोटियों सी गोल है दुनिया
और हम मजदूर होते हैं
देह अपनी बाँटते है हम
और थककर चूर होते हैं |
पढ़ न पाए हम गरीबी में
बढ न पाए बदनसीबी में
शोषकों की दृष्टि में तो हम
नाक का नासूर होते हैं | (पृ.126-वही )
इन अभावो के होते हुए भी गाँव के लोगों का सादा जीवन ,निष्कपट प्रेमपूर्ण व्यवहार,प्राकृतिक सौन्दर्य और प्रदूषण रहित स्वच्छ वातावरण अभी तक बना हुआ है|सरकार ने शहरों के विकास पर जितना ध्यान दिया है जितना धन व्यय किया है उसका शतांश भी गाँवों के विकास के लिए सुलभ नहीं हुआ है| फलस्वरूप गाँव पिछड़ते गए और शहर फलते फूलते गए| जीविका की तलाश में युवा पीढी ने शहरों की ओर पलायन किया तो दिल्ली,मुम्बई,कोलकाता,चेन्नई जैसे महानगर जनसंख्या के दबाव में गंदी बस्तियों से घिर गए|इस तरह राष्ट्र की दोहरी हानि होने लगी| एक ओर गाँव युवको से रहित हो गए , दूसरी ओर बुढापा काट रहे लोगो की पीढ़ियां ही गाँवों में ज्यादातर बची हैं| गाँवों से युवाओं के आने पर  शहरों महानगरों का वातावरण भीड़ तथा झुग्गी बस्तियों के कारण प्रदूषित हो रहा है| ऐसी नारकीय परिस्थिति में गंभीर अपराध तो पनपेंगे ही | बड़े शहरों की ऐसी बस्तियों में कहीं बलात्कार ,अपहरण तो कही ह्त्या की वारदातें करने वाले लोग भी छिपने लगे हैं|इस अविवेक पूर्ण नीति की भारी कीमत राष्ट्र चुका रहा है| भारतेंदु मिश्र  के शब्दों में गाँव से शहर तक गयाप्रसाद की स्थिति कैसी बदल रही है—
गाँव में अकाल पड़ा , तो शहर में आ गया था
पेट पालना ही सीखता रहा गयाप्रसाद
खोमचा लगाया कभी पान बेचने लगा वो
जिन्दगी का खेत सींचता रहा गयाप्रसाद
टी.बी. जो हुई तो रिक्शा खींचना मोहाल हुआ
खून से ही गाड़ी  खींचता रहा गयाप्रसाद
इन्कलाब की अटूट आस्था संजोये हुए
भीड़ में अकेले चीखता रहा गयाप्रसाद| (पृ-134-वही  )
गयाप्रसाद गाँव छोड़कर शहर में कभी खोमचा लगाकर , कभी पान बेचकर तो कभी रिक्शा खींचकर जिन्दगी का खेत सींचता है| तब उसे अहसास होता है कि शहरी मजदूरों की स्थिति गाँव के मजदूरों से भी ज्यादा बदतर है|
भारत में स्त्री असमानता को लेकर जब भी बात की जाती है तो अक्सर स्त्रीविमर्शकारों के द्वारा ग्रामीण स्त्री की चर्चा नदारद जैसी प्रतीत होती है| चाहे  सत्ता द्वारा फैलाया जा रहा भ्रमजाल हो, चाहे सशक्तीकरण का मसला हो या मुक्ति के मिथक की बात हो स्त्री उसी में घिरती नजर आती है|ग्रामीण स्त्री का चित्रण जिस रूप में हिन्दी नवगीत में आया है उस रूप में स्त्री विमर्शकारों के यहाँ नहीं है | भारतेंदु मिश्र ‘लड़की ’ शीर्षक नवगीत में गाँव की उस लड़की की चर्चा करते हैं जो सपने तो बड़े रखती है लेकिन अभावों की वजह से वह अपना सपना पूरा नहीं कर पाती| बल्कि जीवन भर घुटन की जिन्दगी जीती है—
सपनों की किरचो पर नाच रही लड़की
अपने ही झोक रहे चूल्हे की आग में
रोटी पानी ही तो है इसके भाग में
संबंधो के अलाव ताप रही लड़की |
ड्योढी की सीमाए लांघ नहीं पायी है
आज भी मदारी से बहुत मार खाई है
ताने हुए तारों पर काँप रही लड़की| (पृ.139-वही )
 इस नवगीत में गाँव की लड़की का चित्रण देखकर ऐसा लगता है मानो नवगीतकार ने गाँव की जिन्दगी को संजीदगी के साथ जिया ही नहीं बल्कि भोगा हुआ है या बहुत करीब से देखा है| भारतेंदु मिश्र अपने नवगीत में बाजार के ग्लेमर से प्रभावित स्त्री की बात न करके उस स्त्री की बात करते हैं जो परंपरा की धूल में लिपटी है और स्वाभाविक रूप में दिखती है|इस प्रकार की स्त्री पर नवगीतो मे गंभीर विमर्श हुआ है|
अंतत: ‘अनुभव की सीढी’ के नवगीत पढ़ते हुए निष्कर्ष रूप में यह तथ्य सामने आया कि नवगीत में राजनीतिक ,सामाजिक,परंपरागत ,एवं वैश्विक,चिंतन से संबद्ध आयामों की जितनी व्यापक स्पष्ट और सजीव अभिव्यक्ति मिलती है उतनी अंतिम तीन दशकों के समानांतर चलने वाली कविता में नहीं दिखती| नवगीतो में युगीन परिस्थितियों के प्रति असंतोष भले ही हो पर उनमे आस्था ,विश्वास और दृढ संकल्प है| युगीन चेतना के संदर्भ में भारतेंदु मिश्र के गीतों में पर्याप्त समानता  और विषमता भी है|
शोधार्थी
रमाशंकर सिंह
दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली- 7
मो-9560827524