आलेख-
“ गीत का रथ चल रहा है”
# भारतेंदु मिश्र
काँपती लौ, ये स्याही, ये धुआँ, ये काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी गीत थी पर जिल्द बंधाने में कटी|
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी गीत थी पर जिल्द बंधाने में कटी|
(गोपालदास सक्सेना 'नीरज')
हमारी काव्य परंपरा में कवि अक्सर कविताई के माध्यम से अपना परिचय भी देते थे |यहाँ ये मुक्तक ही नीरज जी का वास्तविक परिचय देता है|इन चार पंक्तियों में प्रेम, सौन्दर्य और जीवन संघर्ष का स्वर है| कवि के मन में जीवन सौन्दर्य से उपजी जो बिरही मन की पीड़ा है वही उसके लिए गीत है | असल में कवि के सामने कोई स्त्री विशेष नहीं है बल्कि सूक्ष्म संवेदनाओं की भरीपुरी दुनिया है |सार्थक गीत लिखने वाले कवि को एक सलीके का गीत रचने में पूरी जिन्दगी लगानी पड़ती है| नीरज के मन का कवि उसी जिन्दगी के गीत पर जिल्द बंधवाने की कोशिश करता है| ये जो जिल्द बंधवाना है वही जिन्दगी को समग्रता में सहेजने की कोशिश भी है| आँखों की नमी का मतलब,आम आदमी के दुख के साए हैं| अर्थात नीरज जी के लिए गीत ही उनकी भरपूर जिन्दगी है|उस गीत में ही उनकी समूची दुनिया है| जिसे सहेजने की कोशिश में वो आज भी सजग हैं |
भारतीय समाज में पुनर्जागरण काल जिसे हम स्वातंत्रयोत्तर काल भी कह सकते हैं उसमे अनेक तरह के बदलाव हुए |परिणाम स्वरूप साहित्य में भी स्वाभाविक रूप से अनेक तरह के वेग और धाराएं समय समय पर उठती गिरती हुई देखी जा सकती हैं | हिंदी कविता का स्वरूप भी इस बदलाव का साक्षी बना| नीरज या नीरज जैसे मंचीय गीतकार हिन्दी की लोकवादी वाचिक कविता के स्वरूप को लगातार निखारते रहे हैं| असल में यही हमारी कविता की वाचिक परंपरा की खूबी भी रही है|
उत्तर प्रदेश के इटावा में 4 जनवरी सन 1925 को जन्मे कविवर गोपालदास नीरज जी हिन्दी की वाचिक कविता परंपरा की धरोहर हैं|नीरज को उनके जीवन संघर्षो ने ही गीतकार बना दिया | अल्पायु में पितृविहीन हुए,घर छूटा नौकरियों के लिए एटा ,फिर दिल्ली और दिल्ली से कानपुर तक भटकना पडा | टाइपिस्ट या क्लर्की की नौकरी करते हुए नीरज कब किशोर से जवान हुए पता ही नहीं चला| लेकिन इस जीवन संघर्ष ने नीरज को कवि बना दिया था| उन्होंने कानपुर में रह कर अपनी पढाई भी जारी रखी| कानपुर ही ज्यादातर उनके युवा मन के संघर्षो और सपनों का साक्षी बना| अध्यापन के लिए मेरठ गए | मेरठ के बाद अलीगढ़ के धर्म समाज महाविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हुए| यह सब होने के साथ ही नीरज ने कभी कविता कामिनी का साथ नहीं छोड़ा| उनकी ख्याति विशेष रूप से देश के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतकारो में कई दशक पहले बन चुकी थी | वे मानवतावादी विचारों साथ ही श्रंगार प्रेम आस्था और ओज के गीतकार के रूप में हिन्दी कवियों के समाज में चर्चित रहे हैं |
एक समय राष्ट्रकवि दिनकर जी ने उनकी काव्यपाठ शैली को लेकर उन्हें –‘हिन्दी की वीणा’ कहा था| भारत सरकार के पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे अलंकरणों से अलंकृत गोपालदास नीरज हिन्दी की वाचिक काव्य परंपरा और उसके आध्यात्मिक,सांस्कृतिक सरोकारों एवं रसवादी रुचियों को अपनी कविताओं से परिमार्जित करने वाले जनता के कवि हैं| कई दशको से हिन्दी कविसम्मेलनो का अत्यंत सुपरिचित स्वर नीरज जी ही रहे हैं| आपने हिन्दी सिनेमा में भी अनेक फिल्मो के लिए बेहतरीन गीत लिखे हैं | नीरज जी के गीत गीतिका और दोहो के संग्रह काफी समय से बाजार में उपलब्ध हैं | अत्यंत सुख संतोष का विषय यह भी है कि आज लगभग 92 वर्ष की आयु में भी नीरज जी साहित्य के प्रति पूर्णतया सजग हैं|
नीरज जी से हिन्दी संसार अच्छी तरह परिचित है| उनका काव्यात्मक व्यक्तित्व समाजवादी विचारों के ऊहा पोह और अमीर गरीब सबको एक सामान एक स्तर पर समझने वाली चेतना का प्रतीक है|कुछ लोगो की नजर में यह विवादास्पद भी हो सकता है, लेकिन ‘बस यही अपराध मै हर बार करता हूँ /आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ |’जैसी अमर पंक्तिया लिखने वाले नीरज जी जन समाज की दृष्टि में मानवीय प्रेम के अन्यतम गायक हैं। 'भदन्त आनन्द कौसल्यानन' के शब्दों में- “उनमें हिन्दी का अश्वघोष बनने की क्षमता है।“ अर्थात जिस प्रकार अश्वघोष ने ‘बुद्धचरित’ नाटक लिखकर सामाजिक चिंतन करते हुए अपने समय में भगवान बुद्ध को अपना चरित नायक बनाया था उसी प्रकार नीरज जी में भारतीय दार्शनिक सांस्कृतिक समझ विद्यमान है|वे मानवीय करुणा के कवि हैं| वे समाजवादी चिंतन को व्यापक रूप दे सकते हैं |भदंत कौसल्यायन की यह भविष्यवाणी पूर्ण रूप से सत्य नहीं हो पायी,परन्तु उनमें अश्वघोष बनने की क्षमता सदैव बनी रही| दूसरी ओर राष्ट्रकवि दिनकर के अनुसार वे ‘हिन्दी की वीणा’ हैं। यह बात ज्यादा सही साबित हुई|अन्य भाषा-भाषियों के विचार में वे 'सन्त-कवि' हैं और कुछ आलोचक उन्हें 'निराश-मृत्युवादी' कवि भी कह सकते हैं। इस सबके बावजूद नीरज जी वर्तमान समय में हिन्दी जगत के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं, जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी काव्यानुभूति तथा सरल भाषा द्वारा हिन्दी की वाचिक कविता को एक नया मोड़ दिया है |वे स्वयं बच्चन जी की कृति ‘निशा निमन्त्रण’ से प्रभावित हुए किन्तु बाद में उन्होंने नयी पीढी के मंचीय गीत कवियों को सर्वाधिक प्रभावित किया है। आज अनेक नए गीतकारों के कण्ठों में उन्हीं की अनुगूँज है । करोड़ों कंठो में अपनी व्याप्ति बना लेने वाले कवि नीरज ने अपनी ख्याति अपनी काव्य पाठ शैली से ही अर्जित की है| उनका स्वर उनकी आत्मा की गहराई से फूटकर बाहर आता है| उनकी प्रांरम्भिक चर्चित रचनाएं –‘कारवाँ गुजर गया’ और ‘नीरज की पाती’ है जो हिन्द पाकेट बुक्स से प्रकाशित हुई | उसके बाद के अनेक संग्रह आत्माराम एंड संस ,पेंग्विन आदि से भी प्रकाशित हुए| उनके काव्य संग्रहों में –
संघर्ष (1944),अन्तर्ध्वनि ( 1946)विभावरी (1948)प्राणगीत ( 1951)दर्द दिया है (1956)बादर बरस गयो (1957)मुक्तकी (1958)दो गीत (1958)नीरज की पाती (1958)गीत भी अगीत भी (1959)आसावरी (1963)नदी किनारे (1963)लहर पुकारे (1963)कारवाँ गुजर गया (1964) फिर दीप जलेगा (1970)तुम्हारे लिये (1972)नीरज की गीतिकाएँ (1987) इसके बाद आये संग्रहों में – ‘गीत जो गाये नहीं’,’बादलों से सलाम लेता हूँ’,और ‘पुष्प पारिजात के’ आदि प्रमुख हैं | ध्यान देने की बात यह भी है कि नीरज जी की ज्यादातर काव्य पुस्तके कई बार पुनर्प्रकाशित भी हुई | अब तो ‘नीरज रचनावली’ का भी प्रकाशन हो चुका है|
मूलत: नीरज गीत गजल और रूबाई के मुक्तक कवि है, प्रबंध कवि नहीं हैं | हालांकि वे प्रेम और सौन्दर्य के निरे श्रंगारी कवि भी नहीं हैं,कई बार उनका यही प्रेम नारी सौन्दर्य के साथ ही देश प्रेम के रूप में हिलोरें मारने लगता है| उनके गीतों में व्यष्टि से समष्टि तक की प्रणय यात्रा के असंख्य अमिट लक्षण दिखाई देते है|रुबाइयो और गजलो में उपस्थित उनके सूफियाना अंदाज को नजरंदाज नहीं किया जा सकता| जीवन में आस्था और विश्वास का भाव कभी समाप्त नहीं होता|कवि अपने समाज को खुली आँखों देखे जाने वाले सपनों की ओर लेकर आना चाहता है| ‘जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना/अन्धेरा धरा पर कही रह न जाए|’ जैसी अनेक अमर पंक्तियां देने वाले कवि के अवचेतना में सदैव ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ जैसी आर्ष वचनों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अवश्य विद्यमान रही है | सहज शब्दों में गीता का उपदेश सुना सकने की क्षमता वाले कवि नीरज की निम्न पंक्तियाँ देखें| सामाजिक समरसता के प्रति आस्था और विश्वास का ये भाव सचमुच स्पृहणीय है -
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ लुटाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।
खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! जाने वालों चाल बदलकर !
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! जाने वालों चाल बदलकर !
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।
प्रसंगवश अभी हाल में ही जिस प्रकार वर्ष 2016 के लिए साहित्य के नोबल पुरस्कार से अमेरिकी गीतकार और संगीतकार “बॉब डिलन” को सम्मानित किया गया है ,वह नोबल पुरस्कारों के इतिहास में बड़ी युगांतकारी सूचना है| इसका यह सन्देश भी मिलता है कि कविता या साहित्य की जो जनरुचि वाली या लोकोन्मुखी रसधारा हमारे समाज में बौद्धिक विमर्श वाली प्रगतिकामी धारा के साथ समानांतर रूप से चलती रहती है, उसका महत्व कम करके नहीं आंका जा सकता| प्राय: देखा गया है कि जो बहुत पापुलर होता है वह सामाजिक सरोकारों की दृष्टि से उतना ही महत्वपूर्ण भी हो जाता है |लेकिन “बॉब डिलन” की प्रतिभा क्षमता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उन्हें उनकी पापुलरिटी ने ही महत्त्वपूर्ण भी बना दिया| यही अवधारणा हम चर्चित गीतकार कवि गोपालदास नीरज को लेकर भी विकसित कर सकते हैं | नीरज मानवीय संवेदना की दार्शनिक और सांस्कृतिक गूंज के कवि हैं | हिन्दी की जो छायावादोत्तर कविता धारा पुनर्जागरण के बाद छीजने लगी थी उसे गीत और नवगीत के कवियों ने सहेजने का काम किया|हालांकि गीतकारो में भी गीत और नवगीत के सरोकारों को लेकर एक राय नहीं बन सकी |
गीत को छायावादी प्रेम ,सौन्दर्य ,आध्यात्म जैसे मूल्यों के प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता रहा और नवगीत को समकालीन जीवन के यथार्थवादी प्रगतिशील पक्ष से जोड़कर ही देखा गया| ‘नवगीत दशक-1,2,3’ की योजना के दिशावाहक डा.शंभुनाथ सिंह ने तो कविसम्मेलनों में जाने वाले कवियों को नवगीतकार भी नहीं स्वीकार किया था| हम इसे हिन्दी कविता में गीत और नवगीत की विभाजक रेखा के रूप में भी देख सकते हैं|अर्थात उत्सवधर्मी पारंपरिक विषयों की वे कवितायेँ जिन्हें सुर लय के साथ गाया जा सके उसे गीत और जिसे समकालीन कविता के समकक्ष पाठ्य रूप में और युगीन विमर्श में शामिल किया जा सके उसे नवगीत कहा समझा जाने लगा| कालान्तर में यह विभाजक रेखा गीतकारो ने तोड दी|बहुत सीमा तक स्वयं डा.शंभुनाथ सिंह ने अपने बनाए नियमो को ही नवगीत दशक -3 तक आते आते शिथिल कर दिया था|उनके अपने ही गीतकार मित्रो के अनेक तरह के दबाव उनपर थे| इसके बावजूद अपने दुराग्रहो के चलते शंभुनाथ सिंह ने वीरेन्द्र मिश्र,रमेश रंजक,रमानाथ अवस्थी ,गोपाल दास नीरज और कुंअर बेचैन जैसे गीत कवियों को ‘नवगीत दशक 1,2,3’ में शामिल नहीं किया|
बहरहाल नीरज जी बालकृष्ण शर्मा नवीन,गोपाल सिंह नेपाली,दिनकर ,हरिवंशराय बच्चन,भवानी प्रसाद मिश्र,बलबीरसिंह रंग,शिवमंगल सिंह सुमन,रमानाथ अवस्थी आदि गीत कवियों की विराट सांस्कृतिक आध्यात्मिक मानवीय परंपरा के गीतकार हैं | वे दशको से पाठ्यक्रमो में भी शामिल रहे और मंचो पर भी बने रहे| हिन्दी गीतकारो की यह वाचिक परंपरा आज मंचीय कविता से कविता के क्षीण होने के साथ ही नष्ट हो रही है| अब कविसम्मेलनो में फूहड़ हास्यकवियों और मसखरों का जमावड़ा हो गया है| अब मंचीय कवियों में द्विअर्थी अश्लील तुकबन्दियाँ जोड़ने वाले अथवा नकली वीरता भाव जगाने वाले कवियों का ही बोलबाला रह गया है| मंचो पर अब अच्छे गीतकार भी कविता पढ़ने से कतराने लगे हैं |पारिश्रमिक तो हास्य कवियों की तुलना में उनका आधा भी नहीं रहा| अत: मंच से कविता को या अच्छे गीतकार को जोड़कर देखना आज के समय में उचित नहीं है| नीरज जी को कई बार सुनने और एक बार साथ कविता पढने का अवसर मुझे भी मिला| प्रसंगवश यह संयोग ही है कि मैंने सन – 1982 में नीरज जी की अध्यक्षता में संपन्न हुए चौक लखनऊ के एक कविसम्मेलन में कविता पाठ किया | उस कविसम्मेलन में प्रख्यात कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा जी भी थी| तब उस कवि सम्मेलन में मुझे 20/ पारिश्रमिक मिला था| बेरोजगारी के दिनों में वह मेरे लिए बड़ी धनराशि थी| मुझे बहुत तालियां भी मिली थीं,लेकिन वो तालियाँ ज्यादातर मेरे प्रस्तुतीकरण पर बजी थीं | खैर ,उस दिन पहली बार मुझे नीरज जी और सुमित्रा जी का बहुत स्नेह भी मिला| किन्तु कुछ मस्खरो के बेहूदा आचरण के कारण उसके बाद दुबारा ऐसे मंचो पर कविता न पढने का मैंने निर्णय लिया |बाद में फिर कभी मैने अपने को वहाँ फिट नहीं समझा और मैं नवगीत की ओर मुड़ गया| लेकिन नीरज जी का तब का आटोग्राफ अभी तक संभाल कर रखा है|
बहरहाल,जो नवगीत की यथार्थवादी प्रगतिशील कविता धारा शंभुनाथ सिंह के अलावा रमेश रंजक,वीरेन्द्र मिश्र ,माहेश्वर तिवारी,शान्ति सुमन,ठाकुर प्रसाद सिंह ,शिवबहादुर सिह भदौरिया,नईम ,देवेन्द्र शर्मा इंद्र ,उमाकांत मालवीय, सत्यनारायण,महेश अनघ,कैलाश गौतम,इसाक अश्क,गुलाब सिंह,नचिकेता जैसे नवगीतकारो द्वारा एक समय में चलाई गयी वह प्रगतिशील गीत कविता के पाठ्य स्वरूप और जन सरोकारों पर केन्द्रित थी| नीरज जी कभी नवगीत के इस विमर्श वाले पक्ष को लेकर बहुत सजग नहीं रहे|हालांकि उन्होंने जाने अनजाने नवगीत आन्दोलन का समर्थन ही किया है| उनका एक गीत देखने योग्य है –‘ए भाई ! ज़रा देख के चलो/आगे ही नहीं पीछे भी /दाएं ही नहीं बाएँ भी|’ ऐसे जनपक्ष वाले मार्मिक यथार्थवादी कई नवगीत भी उनके खजाने मिलते हैं | उनके सामने हजारो हजार श्रोताओं की भीड़ सदैव रही और उन्होंने श्रोताओं को ध्यान में रखकर जनरुचि की कविता की| उन्होंने अपनी रसवादी काव्यपाठ शैली से जनता के व्यापक सरोकारों के साथ अनुरंजन करते हुए कविता कामिनी को सजाया संवारा है |स्वयं ही उन्होंने अपने गीतों और गजलो का रचना विधान बनाया, वे अपनी संवादधर्मी मौलिक काव्य चेतना के ज्योतिपुंज हैं | नीरज जी अपनी रचनाशीलता से हिन्दी कविता के मंच पर लगभग पांच दशको से केन्द्रीय भूमिका में विद्यमान रहे हैं | उनके नाम से हिन्दी काव्य प्रेमी श्रोताओं की भीड़ का जमावड़ा हम सबने देखा ही नहीं महसूस भी किया है| एक दोहे में वे कहते हैं-
गीत वही है सुन जिसे, झूमे सब संसार
वर्ना गाना गीत का, बिलकुल है बेकार।
वर्ना गाना गीत का, बिलकुल है बेकार।
नीरज जी लगातार कविता से आनंद वितरित करने का काम करते रहने के लिए जाने जाते है|हालांकि उनकी कविता का प्रयोजन-यशसे और अर्थकृते के रूप में ही लक्षित किया जाना चाहिए|एक तरफ वे कविता के आनंदमार्ग के समर्थक दिखाई देते हैं दूसरी ओर वे गंभीर दार्शनिक चेतना के प्रतिनिधि भी नजर आते हैं | निम्न दोहों में अपनी चिर परिचित दार्शनिक बोध की मुद्रा में वे कहते हैं-
बड़े जतन के बाद रे ! मिले मनुज की देह
इसको गन्दा कर नहीं, है ये प्रभु का गेह।
इसको गन्दा कर नहीं, है ये प्रभु का गेह।
अन्तिम घर संसार में, है सबका शमशान
फिर इस माटी महल पर, क्यों इतना अभिमान।
फिर इस माटी महल पर, क्यों इतना अभिमान।
हर एक समाज में मनुष्यता को परिमार्जित करने की लगातार आवश्यकता रहती है|मंचीय कवियों ने सामान्य जन को इस प्रकार की पंक्तियों से लगातार जगाने का काम किया है| नीरज जी इस रूप में वाचिक कविता के आदर्श हैं| ‘नीरज की पाती ’में उनके अनेक प्रगीत है जो बेहद मार्मिक बन गए हैं| सैनिक की ओर से लिखे गए पत्र की भाषा और संवेदना देखिए -
आज की रात तुझे आख़िरी ख़त और लिख दूँ
कौन जाने यह दिया सुबह तक जले न जले ?
बम्ब बारुद के इस दौर में मालूम नहीं
ऐसी रंगीन हवा फिर कभी चले न चले।
कौन जाने यह दिया सुबह तक जले न जले ?
बम्ब बारुद के इस दौर में मालूम नहीं
ऐसी रंगीन हवा फिर कभी चले न चले।
नीरज जी के पास ऐसे अनेक गीत है जो प्रेम और समर्पण के विभिन्न कोणों के हिसाब से मनुष्य की शाश्वत संवेदना और जीवन की मर्म वेदना का पता बताते हैं | ‘नीरज की पाती’ में एक और चर्चित प्रगीत कानपुर को लेकर संकलित है इस गीत में कवि की अपनी निजता का विस्तार दिखाई देता है| कानपुर से नीरज जी का गहरा संबंध रहा है| कवि ने कानपुर में अपने संघर्ष के दिन बिताये थे| उनकी जवानी यही परवान चढी और उनकी शिक्षा भी यही हुई| इंटरमीडिएट ,बी.ए. और एम्.ए. की शिक्षा भी कानपुर में ही हुई | प्रेम और सौन्दर्य की पहचान इसी उम्र में यही विकसित हुई|यह स्वतंत्रता के बाद का समय था सन 1952- 53 का हिन्दुस्तान और उस दौर का कानपुर देखिए कवि की स्मृतियों में कवि के संघर्ष का साक्षी बना उसका अपना शहर किस तरह आता है-
कानपुर! आह!आज याद तेरी आई फिर
स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती है,
आँख पहले भी यह रोई थी बहुत तेरे लिए
अब तो लगता है कि बरसात हुई जाती है.|
स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती है,
आँख पहले भी यह रोई थी बहुत तेरे लिए
अब तो लगता है कि बरसात हुई जाती है.|
इसी कविता में आगे नीरज लिखते हैं --
करती टाईप किसी ऑफिस की किसी टेबिल पर
आज भी बैठी कहीं होगी थकावट मेरी,
खोई-खोई-सी परेशान किसी उलझन में
किसी फाइल पै झुकी होगी लिखावट मेरी.|
आज भी बैठी कहीं होगी थकावट मेरी,
खोई-खोई-सी परेशान किसी उलझन में
किसी फाइल पै झुकी होगी लिखावट मेरी.|
कानपुर में छोडी हुई अपनी थकावट और लिखावट को दिल से लगाकर रखने वाले संवेदनशील कवि नीरज जी विशेष रूप से अपनी काव्यपाठ शैली और प्रस्तुतियों के लिए जाने जाते हैं | लेकिन जबतक कविताई में दम नहीं होगा तब तक केवल प्रस्तुतीकरण से काम नहीं चलेगा| दीर्घकाल तक मंच की सिद्धि कविताई और प्रस्तुतीकरण दोनों के संतुलन से ही संभव है| इसीलिए लोग नीरज जी को मंच सिद्ध कवि मानते है | उनको जिस चर्चित गीत ने सबसे अधिक सम्मान दिलाया वह तो ‘कारवाँ गुजर गया’ ही है | कहते है कि कविसम्मेलनो की अपार सफलता के बाद नीरज जी को फिल्मो के लिए गीत लिखने का निमत्रण मिला जिसे स्वीकार कर नीरज जी ने ‘नई उमर की नई फसल ’ से फ़िल्मी गीत लिखने शुरू किए-
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे|
और
देखती ही रहो आज दर्पण न तुम/प्यार का ये मुहूरत निकल जाएगा|
फिल्म ‘नई उमर की नई फसल’ तो उतना नहीं चली लेकिन नीरज जी के इन दोनों गीतों ने जनता के मन में ही नहीं बल्कि फिल्म इंडस्ट्री में भी धूम मचा दी थी| ये गाने आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं |इसके बाद तो फिर उन्हें राजकपूर जैसे कई बड़े फिल्म निर्माताओ ने भी अपनी फिल्मो में गाने लिखने के लिए निमंत्रण दिया|यह सिलसिला काफी दिनों तक चला| उन्होंने ‘मेरा नाम जोकर’, ‘शर्मीली’ और ‘प्रेम पुजारी’ जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक गीत लिखे| ये आजकल के जैसे नृत्य पर केन्द्रित गीत नहीं थे| उनमे कविता की पूरी सुन्दरता अपने वर्चस्व के साथ विद्यमान थी दो अन्य उदाहरण दृष्टव्य हैं --
लिखे जो ख़त तुझे/वो तेरी याद में
हज़ारों रंग के/नज़ारे बन गए
सवेरा जब हुआ/तो फूल बन गए
जो रात आई तो/सितारे बन गए|
हज़ारों रंग के/नज़ारे बन गए
सवेरा जब हुआ/तो फूल बन गए
जो रात आई तो/सितारे बन गए|
और-
कहता है जोकर सारा ज़माना
आधी हक़ीक़त आधा फ़साना
चश्मा उठाओ, फिर देखो यारो
दुनिया नयी है, चेहरा पुराना
कहता है जोकर........|
आधी हक़ीक़त आधा फ़साना
चश्मा उठाओ, फिर देखो यारो
दुनिया नयी है, चेहरा पुराना
कहता है जोकर........|
असल में जिन्दगी तो हकीकत और फ़साने के बीच में ही अटकी है| न पूरी तरह से हकीकत से ही काम चलता है और न केवल फ़साना बन जाने से ही जिन्दगी चल सकती है|ये अधूरापन हम सबके जीवन का अहम हिस्सा है| इसे तो सभी को स्वीकार करना ही होता है| नीरज जी अपने समय के पुरस्कृत फ़िल्मी गीतकार भी हैं | उन्हें फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्नीस सौ सत्तर के दशक में लगातार तीन बार पुरस्कार दिया गया। उनके द्वारा लिखे गये पुरस्कृत कृत गीत हैं-
आज भी उनके ये गीत उतनी ही तन्मयता से सुने सराहे जाते हैं| लेकिन बम्बई की ज़िन्दगी से भी उनका मन बहुत जल्द उचट गया और वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर फिर अलीगढ़ वापस लौट आये। जैसा कि नीरज ने अपने एक मुक्तक में कहा है कि –
ख़ुशी जिस ने खोजी वो धन ले के लौटा
हँसी जिस ने खोजी चमन ले के लौटा
मगर प्यार को खोजने जो गया वो
न तन ले के लौटा न मन ले के लौटा|
हँसी जिस ने खोजी चमन ले के लौटा
मगर प्यार को खोजने जो गया वो
न तन ले के लौटा न मन ले के लौटा|
तो कवि अपने ही शब्दों को जीते हुए प्यार की खोज में मुम्बई से फिर अपने शहर अलीगढ़ वापस लौट आया | अब उसका तन और मन संपूर्ण कवितामय हो चुका था| कविता की साधना में ही कवि को जीवन का सर्वस्व दिखाई देने लगा| तब से अलीगढ़ में ही अपना स्थायी निवास बना लिया | नीरज जी ने सामाजिक सद्भाव के कई रंगो पर गजले भी कही हैं | कुछ गजलो के शेर देखने योग्य हैं-
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।
जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।
आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।
जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।
आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए।
आज भी ये कश्मीर समस्या वैसी ही बनी हुई है|धर्म के नाम पर संघर्ष हो रहे हैं |इंसानी मोहब्बत और खुलूस की बात लगातार दुहराने की आवश्यकता बनी हुई है| गंगा और झेलम दोनों में इस समय भी आग लगी हुई है|ऐसे संकट के समय हमारा जीवन कितना दूभर हो चुका है|पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों की सीमाओं पर लगातार आग बरस रही है| नीरज जी की एक और दार्शनिक बोध की गजल के कुछ शेर देखें -
तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा ।
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा ।
वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में,
हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा ।
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा ।
वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में,
हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा ।
गजल की मार्मिकता उसके उक्तिवैचित्र्य में निहित होती है| नीरज जी के खजाने में ऐसी तमाम गजले हैं जिनमे भारतीय दर्शन की आत्मा फड़कती है| वे हिन्दी गजल को गीतिका कहते हैं | इसी प्रकार की एक और गजल अपनी भंगिमा के कारण बेहतरीन बन गयी है-
जितना कम सामान रहेगा/उतना सफ़र आसान रहेगा
जितनी भारी गठरी होगी/उतना तू हैरान रहेगा
उससे मिलना नामुमक़िन है/जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा
हाथ मिलें और दिल न मिलें/ऐसे में नुक़सान रहेगा
जब तक मन्दिर और मस्जिद हैं/मुश्क़िल में इन्सान रहेगा
‘नीरज’ तो कल यहाँ न होगा/उसका गीत-विधान रहेगा |
जितनी भारी गठरी होगी/उतना तू हैरान रहेगा
उससे मिलना नामुमक़िन है/जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा
हाथ मिलें और दिल न मिलें/ऐसे में नुक़सान रहेगा
जब तक मन्दिर और मस्जिद हैं/मुश्क़िल में इन्सान रहेगा
‘नीरज’ तो कल यहाँ न होगा/उसका गीत-विधान रहेगा |
अंतत: यही कहा जा सकता है कि कवि कभी मरता नहीं|उसके शब्द सदैव जीवित रहते हैं | उन शब्दों में अभिव्यक्त संवेदनाएं अपने समकाल में मानवीय सरोकारों को अपनी तरह से प्रेरित भी करती रहती हैं| नीरज की संवेदनाओं में सुर भी है ताल भी है लय भी है| अनंत काल से गीत का रथ चल रहा है,अविराम है यह गीत की शाश्वत यात्रा | फिलहाल ऐसे शब्द साधक, रस साधक और मंच साधक कवि को दीर्घायु होने की अशेष शुभकामनाएं|
# संपर्क :--- सी-45/वाई-4,दिलशाद गार्डन,दिल्ली-110095