रविवार, अप्रैल 28, 2019

आचार्य कवि का अवसान
देवेन्द्र शर्मा इंद्र (1/4/1934 --17/4/2019) 
# भारतेंदु मिश्र  
आज हिन्दी में अनेक तरह के कवि एक साथ सक्रिय हैं आभासी दुनिया के कवि  कवि ,मोबाइल कवि,मंचीय कवि, अकादमिक कवि आदि|हम देखते हैं कि इन विविध रूपों  में हिन्दी की कविता तरह तरह से फल फूल रही है|इसके बावजूद हिन्दी में आचार्य कवियों की एक शाश्वत परंपरा रही है| देवेन्द्र शर्मा इंद्र इसी आचार्य परंपरा के कवि थे| वे छंदोबद्ध कविता के केंद्र में रहकर भी कोने में पड़े व्यक्ति सा जीवन जीते रहे|छंदोबद्ध काव्य साधना की अविरल धारा उनके न रहने से लगभग सूख गयी है|उनका जन्म 1 अप्रैल सन 1934 में नगला अकबरा,आगरा,उत्तर प्रदेश  में हुआ और अपनी आयु के 86 वर्ष पूरे कर 17 अप्रैल 2019 को उनका स्वर्गवास हुआ| आगरा कालेज से संस्कृत और हिन्दी में एम. ए. करने के बाद इंद्र जी वहीं हिन्दी प्रवक्ता के रूप में अस्थायी तौर पर नियुक्त  हुए वहां उन्हें पंडित जगन्नाथ शर्मा आचार्य,और मार्क्सवादी चिन्तक डॉ.रामविलास शर्मा जैसे विद्वानों का भी स्नेह मिला| इसबीच वे आगरा और आसपास के मंडल में  गीतकार के रूप में स्थापित हो चुके थे और 'ताज की छायामें' शीर्षक गीत संकलन का संपादन भी कर चुके थे| |वर्ष 1966 में वे दिल्ली स्थित  श्याम लाल कालेज के  हिन्दी विभाग में स्थायी प्रवक्ता के रूप में नियुक्त होकर वे दिल्ली आ गए| यहाँ दिल्ली के शाहदरा स्थित श्याम लाल कालेज में वे ऐसा रमे कि रमते चले गए| शाहदरा उन दिनों पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय का गढ़ था| इंद्र जी मूलत: गीतकार थे,गीत और नवगीत की धुन इतनी समाई कि इसके अतिक्त उन्हें ज्यादा कुछ दिखाई भी न दिया| तात्पर्य यह कि उन्होंने पीएचडी भी नहीं की अन्यथा दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तो बन ही सकते थे|यहीं नवीन शाहदरा और बाबर पुर रोड स्थित किराए के घरों में क्रमश: उन्होंने अपना  आवास  बनाया| उस समय पुस्तक प्रकाशन के सिलसिले में अनेक छोटे बड़े साहित्यकार शाहदरा आते रहते थे|अजातशत्रु रचनाकार होने के नाते वे सबसे जुड़े रहते|लोगों के छंद सुधारते रहते प्रूफ भी ठीक कर दते|एक बेटी मानसिक रूप से विमंदित रह गयी|उसकी सेवा करना वे अपना धर्म मानते थे|इसके अलावा इंद्र जी को मैंने कभी पूजा पाठ करते या व्रत आदि करते नहीं देखा|अपनी बेटी को लेकर वे सदैव निराश रहते थे| उसकी सेवा को ही वे अपनी पूजा मानते थे| उसने भी अंतिम समय तक इंद्र जी का पीछा नहीं छोड़ा| मैं नौकरी के सिलसिले में 1986 में दिल्ली आया तब से उनके अनेक रचनात्मक प्रसंगों का साक्षी और सहभागी रहने का अवसर मिला| सन 1990 के दशक में इंद्र जी ने राजेन्द्र नगर गाजियाबाद में अपना स्थायी आवास बना लिया था|वर्ष 1994 में उनकी षष्ठिपूर्ति के अवसर पर जब ‘नवगीत एकादश’ का संपादन कर रहा था तो उनके अत्यंत निकट रहने का अवसर मिला|
वे सांस्कृतिक बोध के नवगीत कवि  हैं| शम्भुनाथ सिंह जी ने नवगीत पर काम करते हुए ‘नवगीत दशक’ 1 में उन्हें ‘इंद्र’ उपनाम हटाकर शामिल किया|नवगीत संबंधी अपनी यात्राओं में शंभुनाथ जी,वीरेन्द्र मिश्र ,रमेश रंजक,कुमार रवीन्द्र,राजेन्द्र गौतम,योगेन्द्र दत्त शर्मा ,कुंवर बेचैन,विज्ञान व्रत  आदि  उनके दिल्ली स्थित आवास पर चर्चा हेतु आया करते थे|शाहदरा स्थित अनेक साहित्यकारों डॉ.हरदयाल,डॉ.बाबूलाल गोस्वामी,बाबू राम शुक्ल,डॉ.विन्दु माधव मिश्र,पाल भसीन  आदि से भी उन्ही दिनों उनके सानिध्य में मुलाकातें हुईं| डॉ. शंभुनाथ जी ने अन्य नवगीत दशकों की योजना भी इंद्र जी के सहयोग से बनायी  कुछ नए नवगीतकारों को इंद्र जी ने इस योजना में शामिल भी करवाया | अस्सी के दशक में एक ओर छन्दोबद्ध और मुक्त छंद वाली नई कविता धारा के बीच तलवारें खिंची हुई थीं|दूसरी ओर बाद में डॉ.शंभुनाथ जी से उनकी  कुछ अनबन भी हुई और दोनों ने अपने रास्ते अलग अलग कर लिए,हालांकि संवाद बना रहा|
इंद्र जी का पहला नवगीत संग्रह –‘पथरीले शोर में’ 1972  में प्रकाशित हुआ था उसके बाद से अभी तक उनके 15 नवगीत संग्रह ,चार दोहा संग्रह और छः ग़जल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| निराला पर तुलसीदास छंद में लिखा उनका खंडकाव्य ‘कालजयी’ बेहद चर्चित रहा और कई वर्षों तक यह आगरा वि.वि. के पाठ्यक्रम में भी शामिल रहा|इंद्र जी द्वारा रचित साहित्य विपुल मात्रा में है जिसमें  हजारों नवगीत,25 हजार से अधिक दोहे,कई सौ ग़ज़लें “मैं साक्षी हूँ” (प्रबंध काव्य) आदि शामिल है| उनका बहुत सा काव्य साहित्य अप्रकाशित भी रहा गया|
जब 1990 के दशक में नवदोहा लेखन की बाढ़ सी आयी थी तो उनदिनों इंद्र जी ने ‘सप्तपदी’ शीर्षक से समवेत दोहा सतसई योजना को क्रियान्वित किया|इस प्रकार ‘सप्तपदी’ सात खण्डों में प्रकाशित हुई|उनके द्वारा अन्य संपादित कविता संग्रहों में – ताज की छाया में ,यात्रा में साथ साथ,वसंत का अग्रदूत,हरियर धान आदि बहुत चर्चित रहे| उनके विपुल साहित्यिक कार्य के लिए उन्हें सम्मान आदि भी मिले जिनमें उत्तर प्रदेश हि.सं. का ‘साहित्य भूषण’ अम्बेडकर वि.वि.आगरा का ‘ब्रज वैभव’,गाजियाबाद नगर का –‘काव्य पुरुष’ अदि प्रमुख हैं|
अपनी बेटी के कारण इंद्र जी प्राय: यात्राएं नहीं कर पाते थे| रिटायर होने के बाद उनका अधिकाँश समय चारपाई पर गोले(विशेष बेटी नीहारिका) के साथ बीता| पत्नी का देहांत पहले ही हो चुका था इसलिए गोले उनपर ही आश्रित थी|अक्सर उसे नहलाने धुलाने शौच आदि कराने से लेकर अधिकाँश कार्य वही करते थे,अब उनकी मंझली बहू गोले की सेवा करती है| इन परिस्थितयों में उन्हें अपनी अधिकाँश यात्राएं स्थगित ही करनी पडीं| इसके बावजूद एकबार उन्होंने मुम्बई और संभवत: दूसरी बार कुल्लू की यात्रा की थी| संयोगवश मैं भी उनकी कुल्लू यात्रा में साथ रहा|उस साहित्यिक यात्रा में वेदप्रकाश दीक्षित वटुक,त्रिलोचन शास्त्री,राजेन्द्र गौतम,पाल भसीन आदि भी सम्मिलित थे|       
उनका संघर्ष बहु आयामी था|चारपाई पर लेटी बेटी से लेकर रचनाशीलता के नए आयाम तक वे चारपाई पर पेट के बल लेटकर नवगीत,दोहा ग़जल आदि का सृजन करते रहे |सैकड़ों छंदोबद्ध कवियों की किताबों की भूमिकाएं तथा अपने निकटवर्ती रचनाकारों पर भी लगातार लिखते पढ़ते रहने के कारण उन्होंने अपना शरीर बेडौल कर लिया था|पिछले कुछ वर्षों से वे लगातार अपने इष्ट मित्रों के लिए काम करते जा रहे थे लेकिन उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था| देहावसान से कुछ दिन पहले तक वे ब्रजकुमार वर्मा शैदी –पर केन्द्रित अभिनन्दन ग्रन्थ संपादित कर रहे थे जो संभवत: अभी प्रकाशित नहीं हो सका| युवा कवियों का छन्दोबद्ध कविता की ओर रुझान कम होता देखकर इंद्र जी ने वरिष्ठ उम्र में कविताई शुरू करने वाले अनेक नए कवियों को बहुत आगे बढाया|
छंदोबद्ध कविता के इस आचार्य के पास लिखने पढ़ने और गोले की सेवा करते रहने के अलावा मानो और कुछ काम न था| उनकी अनेक कविताओं में सांस्कृतिक क्षय के प्रति निराशा का स्थायी भाव साफ़ तौर पर देखा जा सकता है|हालांकि उन्हें लेकर अनेक विश्वविद्यालयों में दर्जनों शोध भी संपन्न हो चुके हैं तथापि उनका बहुत कुछ अभी बाकी है जो अप्रकाशित है ,जो अनकहा और अविवेचित है| भारतीय हिन्दी कविता की शास्त्रीय परंपरा  के प्रयोक्ता और व्याख्याता आचार्य देवेन्द्र शर्मा इंद्र जैसा अब हिन्दी में कोई अन्य कवि मुझे दिखाई नहीं देता| अनेक वर्षों तक वे दिल्ली वि.वि. की एम.ए. की कक्षा में प्राकृत और अपभ्रंश पढ़ाते रहे|उनसे हमारे जैसे कितने लोगों ने बहुत कुछ सीखा ,अब वह स्रोत छिन्न हो गया है| साहित्य- इतिहास काव्यशास्त्र और प्राचीन कवियों को लेकर जब कहीं कोई शंका मन में आती थी तो  उसका समाधान  अक्सर उनसे पूछ लिया करता था|अब उनके बाद वैसा कोई दूर दूर तक दिखाई नहीं देता| हिन्दी की सांस्कृतिक कविता धारा के लिए यह एक अपूरणीय क्षति है| इन्ही शब्दों के साथ उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि|
उनकी कविताई के कुछ अंश -
महाप्राण निराला जी की पत्नी मनोहरा के रूप सौन्दर्य का चित्रण एक छंद में-
संभ्रांत विप्रकुल की कन्या
गुणवती यथा नाम धन्या
नागरी लता पर स्मित वन्या अलिका सी|
अपरा-सरस्वती –ऋतंभरा
सिद्धार्थमना ज्यों यशोधरा
नव सूर्यकांत की मनोहरा कालिका सी||( 60/कालजयी -खंड काव्य से )
# अपनी विशेष पुत्री नीहारिका के लिए लिखी कविता का एक अंश-
वह सबसे दूर एक सूने कोने में
ज्यों आत्मलीन विस्मृत जादू टोने में
नीहारिका न कुछ मुख से कह पाती
जिसकी हर व्यथा अनकही ही रह जाती
उसके मीठे दो बोल कभी सुन पाता
त्रिभुवन का वैभव भी पाकर ठुकराता
वह परम हंसिनी मेरे ही मानस की
कोकिला मूक जो पल भर भी गा न सकी
हो गए निरर्थक सुकृत सभी चिर संचित
कुछ कर न सका तेरे हित सुविधा वंचित||(‘मैं साक्षी हूँ’- से )
 दो नवगीत-
1.      फिर उगूंगा
मैं फिर उगूंगा सांझ के आकाश में
मुझको विदा दो भोर का नक्षत्र हूँ|
हिमप्रांत  के नीले गगन में रात भर
धूनी रमाये ज्योति का करता हवन
गन्धर्व किन्नर किरातों के यज्ञ में
मैंने किया आलोक मंडित स्वस्त्ययन
मधुपर्व के आरम्भ का अवसान हूँ  
उल्लास का अवसादधर्मी सत्र हूँ|
अलकापुरी के शिखर पर मैं हूँ खड़ा
वह जलद वलयित कल्पवृक्ष विशाल हूँ
मैं पीन कन्धों पर बिठाए झूमता
नर्तित शिखी सारंग मंजु -मराल हूँ
समिधा बनूगा एक दिन ,अब हो चला
निश्छाय मैं फलहीन औ निष्पत्र हूँ||
2.      नामधारी रामनामी
दीप की लौ हुई मद्धिम झुकीं पलकें
कोयलों की राख पर सोयी अंगीठी
रोशनी की निम्न मुख सोनल ध्वजाएं
अब कहाँ वे सुयोधा कुंडल किरीटी
शैल देही पड़ा है निष्प्राण कुंजर
सूंड में जिसकी घुसी है एक चींटी
सिंह की मृत दन्त-दंष्ट्र विशीर्ण काया
वन्य पथ पर जम्बुकों ने है घसीटी
बांस वन की बहुप्रसूता मेदिनी में
उग रही फिर दीमकों की एक भीटी
स्वप्न पंखी नींद में डूबे कथानक
रात घिरते पहरुओं की बजी सीटी
कौन सा किसने नया अध्याय जोड़ा
नई कह कह कर पुरानी  लीक पीटी
जिसे ओढ़े नामधारी रामधारी
वस्तुत: थी कांच में चादर पछींटी || 
एक ग़जल 
आस्ताँ सो गए खिड़कियाँ सो गईं
चश्म-स-नम सो गए, सिसकियाँ सो गईं|
रातभर बम बरसते रहे मौत के
सरहदों पर बसी बस्तियाँ सो गईं|
कुछ हवा ज़ह्र में डूबी ऐसी चली
पेड़ पर जागती पत्तियाँ सो गईं|
फ़ैसलों के अभी मुन्तज़िर लोग हैं
फ़ाइलों में बँधी अर्ज़ियाँ सो गईं|
जाल लहरों से करते रहे गुफ़्तगू
ताल में बेख़बर मछलियाँ सो गईं||
 # संपर्क- सी 45/वाई -4 दिलशाद गार्डन,दिल्ली-95
 9868031384