रविवार, जून 14, 2020


कुलीन कवियों की राजनीति
@ भारतेंदु मिश्र

हमारे समय के संघर्षशील कवि वरवर राव जी की एक कविता से कविता की राजनीति पर बात कर रहा हूँ|वो अपनी कविता और विचार के लिए यातना गृह में हैं और हमारे कुलीन कवि कविता की राजनीति पर चर्चा कर रहे हैं|ग्रीष्म ऋतु के आते ही/कोकिलआम्र वॄक्षों में छिपी हुईवसन्त ऋतु के गीत गाती है ।
अपने हज़ार पंखों को/खोल कर मोरजंगल के अंधकार मेंसावन को टेरते और नाचते हैं ।
शस्त्रों को छिपाने वाले/शमी वॄक्ष कोशरद ऋतु के बारे में बताता हुआ/नील पक्षीहमारे सामने आसमान में खो जाता है ।
जंगल में वृक्षों पर पक्षीचीखते चिल्लाते हुएघास चरती गाय कोऔर खेलते-कूदते बच्चों कोआने वाले शेर के बारे मेंआगाह करते हैं ।
पानी में मछली कोबिछे हुए काँटों के बारे मेंलहरें बताती हैं औरकबूतर को जाल के बारे मेंहवा वाकिफ़ कराती है ।हाथ, पाँव और पेट वालेबेज़ुबान मनुष्य कोसही ग़लत कौन बताए ।@ वरवर राव (साहस गाथा)ये कविता प्रसिद्द तेलगू कवि वरवर राव की है |वे अभी जेल में हैं|वो कई बार पहले भी सामाजिक संघर्ष करते हुए जेल में रह चुके हैं| हिन्दी का कोई क्रांतिकारी कवि अपने सामाजिक संघर्ष और विचार के लिए अभी जेल में नहीं है| प्रतिरोध के कई स्तर होते हैं कोई बिना जेल जाए भी सामाजिक न्याय के लिए प्रतिरोध किया जा सकता है| प्रतिरोध का गांधीवादी तरीका भी हमारे समाज में बहुत सक्रिय ढंग से आजमाया गया है| ये जो सुविधा भोगी कुलीन कवि हिन्दी में कविता की राजनीति पर सक्रिय हुए हैं उनकी स्थिति बहुत हास्यास्पद होती जा रही है|वरवर राव के पास तेलगू भाषा की लय है तेलगू की लोक धुन और संवाद शैली भी है|यह इसलिए कह पा रहा हूँ क्योकि दिल्ली प्रवास के दौरान मुझे दो तीन बार उन्हें निकट से सुनने जानने और उनका काव्य पाठ सुनने का अवसर मिला है|अब देखें ज़रा हिन्दी के तथाकथित कुलीन कवि के पास उसकी लोकभाषा नहीं है ,लोक छंद या धुन तो भूल ही जाइए| वह अनुवादित हो जाने के लिए बेहद लालायित है| जो समर्थ हिन्दी के कवि छांदस  शिल्प में कविता कर रहे हैं उनके लिए कुलीन कवियों ने द्वार बंद कर लिए हैं|कुलीन कवियों के आभा मंडल से घिरी पत्रिकाओं में लोक भाषा के लिए और छंदोबद्ध कवियों और उनकी कविताओं पर चर्चा के लिए दरवाजे बंद हैं|इसी का अनुसरण करते हुए विश्वविद्यालयों में पाठ्यचर्या आदि में उनका प्रवेश वर्जित है| विभागीय शोध समितियों के आचार्यों ने ऐसे कवियों की चर्चा पर एक प्रतिबन्ध जैसा लगा रखा है|एक सिद्ध छंदोबद्ध कवि दो पंक्तियों में जिस बात को कह सकता है वह कुलीन छंद विरोधी कवि कई पन्नों के वाग्जाल  में कहने की कोशिश करता है|इसके बावजूद अनेक कुलीन कवियों का पूरा नरेशन प्रतिरोध की पोस्टर बाजी के अलावा कुछ नही दिखाई देता|उनकी कवितायेँ कोठरियों में इस्ट मित्रों के बीच ‘अहो रूपम अहो ध्वनि:’ तक सीमित रह जाती हैं|हिन्दी कविता का कैनन बदलना कभी किसी समय शायद आवश्यक भी रहा हो लेकिन आज यह छंद- लय- विहीन कविता निरर्थक हो चुकी है| विद्यार्थी क्या प्राध्यापक भी घनाक्षरी,दोहा,बरवै नही पढ़ पाते| तो मुक्तिबोध ‘तारसप्तक’ के शायद पहले कवि हैं उनकी ‘कालदेवता’ कविता तो छंद और लय में है| इसके आगे नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल,त्रिलोचन,शमशेर,केदारनाथ सिंह जिन्हें सबने प्रगतिशील कवि कहा वो भी इन कुलीन कवियों को नजर नहीं आते| ये सब कवि अपने लोक से अपनी लोकभाषा से अपने लोक की धुन से सदैव जुड़े रहे हैं|हिन्दी के प्रोफेसरों द्वारा पिछले कुछ दो तीन दशकों में लोक भाषाओं को बोली कहा जाने लगा है | और ये कहा जाने लगा है कि अवधी,ब्रज,बुन्देली को मातृभाषा  न मान कर सब हिन्दीपट्टी  वाले हिन्दी  को ही अपनी मातृभाषा मान लें| ताकि लोक चेतना को छोटा किया जाए और हिन्दी की कुलीनता परवान चढ़े| हिन्दी का बाजार बढ़े हिन्दी के बाजार से ही इन तथाकथित कुलीन कवियों और इनके प्रकाशकों/संपादकों की दूकान चल सकेगी|मजदूर किसान के नाम पर प्रतिरोध तो एक बहाना है| इसी राजनीति से इन्हें लोकभाषाओं को लोक धुनों को सर्वहारा की बोली बानी को मिटाना है|


2.
💐तुच्छ राजनीति ही कविता नहीं है😢

"साहित्य की राजनीति और कविता का वर्तमान"
विषय पर कवियों का संवाद चल रहा है। हिंदी कविता समूह द्वारा प्रायोजित इस व्याख्यान माला में ज्यादातर एकांगी अधूरे कवियों का व्याख्यान कराया जा रहा है। अधूरे इसीलिए कह रहा हूँ क्योंकि ये जनकवि नहीं हैं,जनवादी राजनीतिक विवेचना के कवि हैं।लोकभाषा से जुड़े लोक कवि भी नहीं हैं।उन्नीसवीं सदी के कवि काली की एक घनाक्षरी के अंश के हवाले से कहें तो-
छोटेन को बड़ो करै/बड़ेन महाबड़ो करै
तातें सबही कूँ राजनीति ही सिखाइए।।
राजनीति कवियों को संगठित होने का मंत्र देती है। छोटे को बड़ा और बड़े को बहुत बड़ा बनाती है।संगठित होकर वे जनहित का मंजीर बजाते हुए स्वहित का मार्ग अवश्य प्रशस्त कर लेते हैं। राजनीतिक वोटबैंक पक्ष और विपक्ष दोनो तरह से ऐसे कवियों के व्यक्तित्व को निखारने में कारगर भूमिका निभाता है।
नामवर जी ने साहित्य का कैनन बदलते हुए देश भर के हिंदी कवियों को जो आदर्श कविता का मार्ग सुझाया था।अपनी आत्मकथा में उन्होंने बेलौस ढंग से ये लिखा भी था।ये वो समय था जब हिंदी जगत में वे आलोचना सम्राट या अखिलेश के माध्यम से कहें तो आलोचना के अमिताभ बच्चन थे। अपनी तरह से अपने सहयोगियों मैनेजरों को जलाने में वो ले भी गए थे। इन नियुक्तियों को राजनीतिक न समझा जाए तो साहित्य की राजनीति का अनिवार्य अनिर्वचनीय भाग तो कहा ही जा सकता है।बाद में उन्हें सहारा प्रणाम भी कहने का मन हुआ।
पिछले पचास चालीस वर्षों में केवल लचर कवियों को विवेचित करने उन्हें शोध विषय बनाने उन्हें उल्लेखनीय साबित करने में संगठित भाव से पूरा जोर लगाया गया।मैंने जनवादी गोष्ठियों में रमेश रंजक को जूझते हुए देखा है।जिनके सामने लचर कवि छंदहीन टुकड़ेबाजी करते थे और उन्हें कविता नहीं पढ़ने दिया जाता था।अब सोशल मीडिया ने बहुतों का नशा उतार दिया है।अब पिछले तीन दशकों में नए कवियों को पुरस्कारों की गली में लाइन लगाने और कभी कभी प्रोफेसर बनने के लिए इस गिरोहबंदी में घुसते देखा गया। गिरोह सुरक्षा भी देते हैं।साहित्य में मनुष्य हो या न हो कविता हो या न हो कुछ स्वनाम धन्य कवि कविराज तो बन ही गए।
राजनीति तो इन कवियों के लिए प्राणवायु है। अब ये लोग सरोकारों की बात से भटक कर अपने सरवाइवल पर आ गए हैं।ये मनुष्य की संवेदना से भटक गए हैं, नकली इधर उधर से उड़ाई गई चीजें लपक कर उनपर पालिश फिराने के बाद अर्धसत्य के साथ खड़े नजर आते हैं। ये तो यह भी नहीं जानते कि ये कविता की शाश्वत परंपरा का कितना नुकसान कर चुके हैं। खुदा खैर करे।
#भारतेंदु मिश्र



1.

☺️कुलीन कवियों की आत्ममुग्धता😊1.
# भारतेंदु मिश्र

कविता की राजनीति पर चर्चा हो रही है।कुछ कुलीन कवि उस चर्चा को आगे बढ़ा रहे हैं।उन्हें मालूम है कि उनके सजातीय, संगोत्रीय संगोष्ठी में बुलाए जा चुके हैं। कुछ भक्त पत्रकार ,कुछ उनकी कृपा से नौकरी पाए हुए अघाए हुए कवि नुमा लोग उनकी चर्चा को चर्चित करने के लिए आतुर बैठे हैं।प्रकाशक ने बैनर देकर दरी बिछा दी है।उसे अपना धंधा चलना है।अचर्चित कम चर्चित पुस्तकें बेचनी हैं उसकी भी अपनी राजनीति है। कविता की राजनीति पर कुलीन कवि ही बोल सकते हैं।ये कुलीनता उन्होंने लगातार हिंदी की जनोन्मुख छंदोबद्ध कविताओं और ऐसे कवियों को उपेक्षित करके,उनकी लोकोन्मुख कविताओं को लतिया कर अर्जित की है। प्रकशित होने के लिए आयी ऐसी कविताओं को तब उन्होंने बहुत जतन से फाड़ कर कचरापेटी में फेंका था।उन्होंने बन्द कमरे में शपथ ली थी कि कुछ खास पत्र और पत्रिकाओं में न ये कविताएं छपेंगी और न कभी छंदोबद्ध कवियों की चर्चा होगी।और यह भी कि हिंदी के नाम से जो सम्मान और पुरस्कार सुलभ हैं उन्हें किस आधार पर मिलकर बाँट लिया जाए। ये कुलीन कवियों की सेवा से हुए लाभ पर भी विमर्श करते हैं। बड़ा कुलीन नामवरी दांव से युवा कुलीन को अपने तौर सिखाता गया।इन्होंने लोक कवियों का दम घोट दिया।लेनिन और मॉर्क्स ने ब्रज, अवधी, बुंदेली कविताओं और उनकी संवेदना पर कभी विचार नहीं किया था तो ये कैसे समझ पाते।संघियों ने राष्ट्रवाद और धार्मिक हेरा फेरी के अलावा मनुष्य को देखा ही नहीं।विचार विमर्श तो बहाने हैं।कविता के इन कुलीन कारीगरों ने जनता के सामने कई परदे लगा दिए। विद्यार्थियों के सामने झूठ मूठ के तर्कों से स्वयं को सबसे बड़ा जनवादी सबसे बड़ा वाला प्रगतिशील साबित करने में कामयाब हुए। घटिया कवियों की घटिया कविताएं पाठ्यक्रमों में घुसा दीं।मार्क्सवादी कुलीनता का संबंध सांध्य संगोष्ठियों के बाद होने वाली तदुपरांत सुरा गोष्ठी में पर्यवसित होकर फलदायी होता है। इसी रास्ते पर चलकर सिद्ध प्रसिद्द कवि से कविराज बना जा सकता है।पत्रिकाओं में अपने ऊपर विमर्श कैसे प्रायोजित कराया जाए ये सब कुलीनता की राजनीति का हिस्सा है।
इनकी कविताओं में इनका दम फूल चुका है।लेकिन कविता की राजनीति को तो जिंदा रखना है।इस लिए ये इस प्रकार के आयोजनों के माध्यम से खुद को मीडिया में जिंदा रखे हैं।छपास और पुरस्कारास का लोभ इन नए मुमूर्ष कवियों को इन बचे खुचे कुलीन कवियों से जोड़े है। प्रगतिशील कुलीन कवि मौके पर चौका लगाने की राजनीति में निपुण हो चुके हैं।लेकिन अब सोशल मीडिया इन्हें परास्त कर चुका है।
अब "जनसत्ता" में ,या फिर "तद्भव" "हंस" में कविता और कहानी न छपे तो भी कवि बनने का मार्ग सोशल मीडिया ने खोल दिया है।अब अकुलीन कच्चे कवियों को कब तक रोका जा सकता है।आलोचक तो हैं भी नहीं, जो एक दो हैं भी वो नए कवियों पर बात नहीं करते।अब आत्ममुग्धता केवल कुलीन कवि में ही नहीं बल्कि तमाम दलित,स्त्रियां, और नए अकुलीन कवियों की जमात में कोरोना वायरस की तरह आत्ममुग्धता ने संक्रमण कर लिया है।इनकी कुलीन चेतना का मोहभंग होने में अब देर नहीं है।

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