लोकचेतना के
नवगीतकार :अवधबिहारी श्रीवास्तव
# डॉ. भारतेंदु मिश्र
वर्ष 2010 में भाई देवेन्द्र सफल के गीत संग्रह लेख लिखे माटी
ने के लोकार्पण के बहाने कानपुर जाने का सुयोग बना। वहाँ की दो दिवसीय गीत गोष्ठी
देवेन्द्र सफल ने ही आयोजित की थी। इस कार्यक्रम में प्रो.रमेशकुंतल मेघ चंडीगढ से
पधारे थे,वरिष्ठ गीतकार नचिकेता पटना से पधारे थे।
प्रो.रामस्वरूप सिन्दूर इस समारोह के अध्यक्ष थे।मुझे भी समकालीन गीत की दिशा और
नवगीत के प्रयोग पर बोलना था|मैंने अपनी बात रखी और इसी
विषय पर लोगों से संवाद भी हुआ| मेघ जी ने नवगीत की
सौन्दर्य चेतना और लोक रंग पर बहुत महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किये |बहरहाल यह दो दिवसीय
गोष्ठी समकालीन हिन्दी कविता मे गीत नवगीत के रचना विधान और गीत के विविध आयामों
को समझने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण रही। बहुत बडा कोई सरकारी मंच नही था। इसे
व्यक्तिगत तौर पर गीतकार देवेन्द्र सफल ने अपने प्रयास से आयोजित किया था। यही इस
कार्यक्रम की सीमा भी थी कि वह किसी एक कवि द्वारा आयोजित किया गया था,और यही इस कार्यक्रम की शक्ति भी । बहरहाल इसी बहाने यहाँ
अवधबिहारी श्रीवास्तव, वीरेन्द्र आस्तिक,शैलेन्द्र शर्मा,विनोद श्रीवास्तव
जैसे कानपुर के कवियों से इस अवसर पर मिलने का मौका मिला जो मेरे लिए बहुत सुखद
रहा। कानपुर से लौटकर श्रेष्ठ नवगीतकार कवि अवधबिहारी श्रीवास्तव की जो छवि मन पर
अंकित हुई वह अविस्मरणीय है। उनकी पुस्तक ‘हल्दी के छापे’
को दुबारा पढते हुए सचमुच बहुत संतोष मिला।आमतौर पर कुछ ही
ऐसी पुस्तकें होती हैं जिन्हे आप दुबारा या बार बार पढना चाहते हैं ‘हल्दी के छापे’ वैसी ही पुस्तक है।
समकालीन कविता के रचनात्मक अभियान को सबल बनाते पुस्तक के कुछ गीत कवि के
व्यक्तित्व और कृतित्व की सुगन्ध बिखेरते हैं।हालाँकि ‘हल्दी के छापे’ का प्रकाशन 1993 मे हुआ था किंतु अभी इन गीतों की चमक तमाम कवियों को चकित
करती है।ये गीत कवि के आसपडोस की लोकधर्मी जीवन शैली से सीधे तौर पर जुडे हैं।
अवधबिहारी जी ने बहुत अधिक गीत नही लिखे लेकिन जो गीत उनकी सधी हुई लेखनी से जनमें
है वो बडे महत्वपूर्ण हैं। उनकी इस पुस्तक में गीत नवगीत प्रगीत और आख्यान धर्मी
लम्बी कविताएँ भी संकलित हैं। ठाकुर प्रसाद सिंह ,अमरनाथ श्रीवास्तव,शतदल आदि ने अवधबिहारी के
इन गीतों पर टिप्पणी की है।ठाकुर प्रसाद जी कहते हैं-‘हल्दी के छापे’ में ऐसे गीतों की संख्या
बहुत बडी है जो अवधबिहारी के अत्यंत अंतरंग क्षणो के साक्षी हैं।’ यह अंतरंगता ही कवि के निजीपन का साक्ष्य बनती है और कविता
में सौन्दर्य की चमक पैदा करती है। अवधबिहारी जी के कुछ गीत अंश देखिये-
‘भाभी की चपल ठिठोली
है/माँ के आँचल की छाया है/ दादी की परी कथाओं का/वह जादू है वह टोना है हम हँसते
थे घर हँसता था/फिर यादों में खो जाता था/ मैने देखा है कभी कभी/घर भूखा ही सो
जाता था/ मुझको तीजों त्योहारों पर,दरवाजे पास बुलाते थे/
खिडकियाँ झाँकती रहती थीं,कमरे रिश्ते बतलाते थे/
आँगन में चलती हुई धूप,कल्पना लोक में चाँदी है/
दीवारों पर सूखती हुई,मक्के की बाली सोना है/
वैसे तो माटी माटी है,मेरे बाबा वाला वह घर,
लेकिन यादों का राजमहल/उस घर का कोना कोना है।‘ माता पिता और अपने सगे सम्बन्धियों पर अनेक कविताएँ हिन्दी
के कवियों ने लिखी हैं लेकिन अपने घर आँगन पर अवधी लोक का ऐसा मार्मिक चित्र नवगीतों
में मुझे इससे पहले कहीं पढने को नही
मिला। अवधबिहारी के पास ऐसे कई गीत हैं जो गृहरति की व्यंजना को व्यापक स्तर पर
सघन और सुसंवेद्य बनाते हैं। कवि के पास अपना घर आँगन है और अपनी कृषि संस्कृति
वाली प्राथमिकताएँ हैं-
‘लगता है बरसेगा
पानी/धूप भागकर गयी क्षितिज तक/वर्षा की करने अगवानी।‘ इसके अतिरिक्त- ‘चौक पूरते हाथ कलश जल,मन में उत्सव भरें/नयन में कितने चित्र तिरें/ गोबर लिपी
देहरी खिडकी मुझसे बातें करें/नयन में कितने चित्र तिरें।‘ अवधी लोक जीवन के ऐसे विरल चित्र अवधबिहारी के यहाँ कई रूपों मे उभरते हैं।व्यंग्य
और विसंगति का एक चित्र देखिए- ‘मै बरगद के पास गया था छाया
लेने/पर बरगद ने मुझसे मेरी छाया ले ली।‘ तथाकथित महान लोगों
पर कवि का यह व्यंग्य कितना सार्थक है कहने की आवश्यकता नही। हिन्दी गीत /नवगीत के
सन्दर्भ में अवध बिहारी श्रीवास्तव का नाम अत्यंत सार्थक है।‘हल्दी के छापे’ के लगभग दो दशक बाद “मंडी चले कबीर” नाम से अवधबिहारी जी
का दूसरा गीत संग्रह वर्ष 2012 प्रकाशित हुआ ।इस संग्रह मे कुल 77 गीत हैं।इन गीतों का स्वर अवध के किसानों के बदलते परिवेश
से हमें जोडता है।कवि अपने समाज की विडम्बनाओ को और आम गँवई मन को बडे मार्मिक ढंग
से प्रस्तुत करता है।गँवई मन का अर्थ है-किसान चेतना,गाँवों का बिखराव,आर्थिक सामाजिक असंतुलन,छीजती ग्राम्य संस्कृति और इस दौर की बाजारवादी प्रगति के
बीच में फँसा गँवई मन वाला आम आदमी। यद्यपि रीतिकालीन कविता मे सेनापति का
बारहमासा बहुत चर्चित रहा है किंतु अवधबिहारी जी ने नवगीतों के माध्यम से जो
समसामयिक बारहमासा प्रस्तुत किया है वह भी बहुत स्वागत योग्य है।जिस प्रकार कैलाश
गौतम और महेश अनघ जैसे नवगीतकारों ने नवगीत के ग्राम्य और आंचलिक पक्ष को हमारे
सामने उजागर किया है कदाचित उसी क्रम में अवधबिहारी जी समकालीन किसान चेतना की गीत
परम्परा को आगे ले जाते हुए दिखाई देते हैं,मगर वो जनवादी राजनीति के जन गीतकार नही हैं।
प्रगतिशील चेतना के
गीत को ही नवगीत कहा जाता है।‘मंडी चले कबीर’ के अधिकांश गीत हमारी गँवई चेतना की मर्मव्यथा को बहुत सहज
ढंग से झकझोरते हैं।अवध के गाँवों की बोली और लोक जीवन की विविध छवियाँ तथा उन
छवियों में से झाँकता सजग कवि मन सबको आकर्षित करता है।भाषा शिल्प और छन्द तो कमाल
का है ही।अनेक गीतों मे तुलसीबाबा वाला चौपाई छन्द कवि की कविताई मे चार चाँद लगा
देता है- मुझे सुखी रखता है मेरा/अपना गँवई मन।/सीखा नही व्याकरण कोई/पहना नही
आभरण कोई/कविता मे सच कहना सीखा/तुलसी बाबा से/गाँधी बाबा से सीखा है/सादा रहन
सहन।कवि ने चैत-बैसाख-असाढ-सावन से लेकर फागुन तक जो ऋतु परिवर्तन के ब्याज से
गँवई मन की संवेदना के अनेक गीत रचे हैं,उनका अलग ही महत्व
है।ये गीत- नवगीत के खाते में अवध के गाँव को देखने समझने की एक नई दृष्टि से हमें
जोडते हैं।जैसे-
‘उतरा बहुत कुँओं का
पानी/जेठ तप रहा गाँव में।‘ पूस माह का एक चित्र देखें-
‘गन्ने के रस पर दिन बीता/रात बिताएँगे
नारायण/काकी कथरी ओढे चुप है/काका बाँच रहे रामायण/हाँथ पसारें कैसे ?जकडी मर्यादाएँ पाँव में/काँधे पर अभाव की लाठी/पूस घूमता
गाँव में।‘ क्वार का एक चित्र इस प्रकार है-
‘पकने लगी धान की
बाली /थिरने लगा ताल का पानी/दिखने लगीं मछलियाँ जल में/फसलें अब हो गयीं
सयानी/कच्चे दूधो वाले दाने/भुने नीम की छाँव में/नए अन्न की गमक उड रही/क्वाँर आ
गया गाँव में।‘ हालाँकि गाँव मे लगातार
बदलाव हो रहे हैं बिखराव के बावजूद अभी तक प्राकृतिक रूप में बहुत कुछ बचा हुआ
है।वहाँ लोग अक्सर बैठते बतियाते हैं।कवि ने बारहों महीने मे आने वाले बदलाओ की
सुन्दर प्रस्तुति यहाँ की है।इसके अतिरिक्त सत्यनाराण की कथा,नदी का घाट,बाबा की
उदासी-बहू-कोठरी-लडकी के कई बिम्ब इस संग्रह में हैं।‘मंडी चले कबीर’ शीर्षक गीत का अंश देखिए- ‘कपडा बुनकर थैला लेकर/मंडी चले कबीर/कोई नहीं तिजोरी खोले
/होती जाती शाम/उन्हे पता है कब बेचेंगे/औने-पौने दाम/रोटी और नमक थैलों को/
बाजारों को खीर।‘ कामगर को वाजिब दाम कभी नही
मिला हमारे देश में।व्यापारी कामगर के हिस्से की सारी मलाई सदैव उडाते रहे आज भी
यही कुछ चल रहा है।ये गीत अवधबिहारी जी की ही तरह बहुत सहज सरल हैं।यह अनगढ सहजता
उनकी कविताई की सीमा भी है।लाक्षणिकता और जटिल बिम्बो की ओर कवि नही जाता।प्रतीको
वाली भाषा यहाँ कवि नही अपनाता।अर्थात कवि अपनी और अपने पाठको की तमाम काव्य
क्षमताओ को भी जानता है।देश काल बोध के गीत तो यहाँ हैं ही।उडीसा की सुमित्रा
बेहरा का पता भी अवधबिहारी जी को मालूम है जिसने भुखमरी के चलते अपनी लडकी को बेच
दिया था।उस मार्मिक संवेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति देखिए- मैं उडीसा की सुमित्रा
बेहरा हूँ/माँ नहीं/रोटियों के लिए मैने/ बेच दी हैं लडकियाँ।‘
इसके बाद अब 2017
में उनका नया नवगीत संग्रह ‘बस्ती के भीतर’ प्रकाशित हुआ है| कवि की ख़ास बात यह
है कि वे किसी त्वरा में नहीं हैं बल्कि पूरी तैयारी से अपने मौलिक रचाव के साथ
गीतों के शिल्प भाषा और कथ्य पर काम करते हैं|इस संग्रह में उनके लगभग 60 गीत और कुछ दोहे संकलित हैं|इन सब गीतों को पढ़ने के बाद यह मुकम्मल तौर से कह सकता हूँ कि अवधबिहारी के
गीतों का स्वर आंचलिक है जिनमें पारंपरिक गीत और नवगीत दोनों की सुन्दर छवि भास्वर
होती है| गृहरति की व्यापकता और अवधी समाज के जीवन का
जितना अच्छा चित्रण अवधबिहारी के गीतों में मिलता है वैसा चित्रण हमारे अन्य किसी
समकालीन नवगीतकार के पास मुझे देखने को
नहीं मिला |अवध की बेटियों के लिए कवि
कहता है-
मैं तो जन्मी थी पंख
लिए /पर उड़ने का अवसर न मिला
खिड़कियाँ खोलना नहीं,
बंद करना सिखलाया गया मुझे
जो रस्ता भीतर खुलता
था वह पथ दिखलाया गया मुझे
जा उड़कर आसमान छू ले
यह कहने वाला घर न मिला|
दकियानूसी मर्दवादी
समाज में रहते हुए ,जाहिर है कि दरवाजे के पीछे
धकेली गयी कनपुरिया लड़की की मनोव्यथा अवधबिहारी जैसा कवि ही इतनी मार्मिकता से
व्यक्त कर सकता है|मंडी,कबीर,गाँव के मेले ठेले,माँ,घर, किसान ग्रामीण स्त्रियाँ आदि कवि के प्रिय विषय हैं|उपेक्षित, शोषित, दलित और ग्रामीण स्त्री के प्रति कवि की चेतना हमारे सामने
लगातार नवगीत का एक नया पाठ प्रस्तुत करती है|सयानी हुई लड़की के ब्याह को लेकर उसके परिजनों की चिंता कितनी विकट है और वह
लड़की केवल अपना सर झुकाए बैठी है|अवधी में इसे मूड गड़ाकर
बैठना कहते है- ‘मूडी गाड़े बैठी लड़की /झगड
रहे हैं बाबू भाई|’ ऐसे चित्र नवगीत के खाते
में नयापन भरने के लिए पर्याप्त हैं लेकिन यह नयापन अवधीभाषा और अवधी लोक के ब्याज
से ही प्रकट होता है|इसी क्रम में समकालीन अवधी किसान का चित्र देखिये-
माथे हाँथ धरे बैठा
है /थका थका चंदर
सूखा आया बीज खा
गया/बाढ़ खा गयी घर|
यहाँ न तो प्रतीकों
का घटाटोप है ,न अलंकारों की योजना है,न लाक्षणिकता का गुरुतर भार इसीलिए इस गीत की व्यंजना
मार्मिक बन गयी है| यह सहजता ही कवि की पूंजी
है|’नइकी दुलहिन’ जैसे लोकचित्र नवगीत में विरल हैं| इन गीतों को पढ़कर
अक्सर कैलाश गौतम की याद आ जाती है|सहजता में उक्ति वैचित्र्य
और अर्थगाम्भीर्य प्रकट कर पाना आसान काम
नहीं होता| कबीर तुलसी और बाद में निराला और त्रिलोचन
शास्त्री की कविताई इस बात का प्रमाण है कि श्रेष्ठ कविताएं सहजता के साथ ही प्रकट
होती हैं|अवधी लोक जीवन और सहजता के सौन्दर्य से संपृक्त
होने के कारण ही अवधबिहारी जी मेरे प्रिय नवगीतकार हैं|ये चलनी में जल ढो लेने का हुनर अवधबिहारी जी ने अपनी माँ से ही सीखा है जिसको
ये हुनर आता है वही नवगीत को नई दिशा दे सकता है-‘बाबू के गुस्से पर करती /धीरज का कोमल आलेपन/बहनोने के संग हंसती थी माँ /खिल
उठता था सारा आँगन /घर के सभी अभावों में माँ /ढो लेटी थी चलानी में जल|’ गीत की इस तीसरी पुस्तक में कुछ दोहे भी हैं ओशो पर एक
मुक्तछंद कविता भी है जो अपनी भंगिमा से आकर्षित करते है|किन्तु इस में कुछ दुमदार दोहे भी कवि ने संकलित किये हैं जो यहाँ न संकलित
किये जाते तो अच्छा होता|एक दोहा देखें-
एक पिरामिड सा खडा
/अपना सारा देश
लक्ष्मी जी ऊपर चढीं
/नीचे पड़े गणेश|
अंतत: गीतकार भाई
वेदप्रकाश शर्मा वेद अवधबिहारी जी पर केन्द्रित कोई पुस्तक निकाल रहे हैं यह जानकर
मुझे प्रसन्नता हुई| इस टिप्पणी के साथ ही
अवधबिहारी जी की कविताई का मैं स्वागत करता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि
वे दीर्घायु हों स्वस्थ और सानंद रहें|
संपर्क:
45/वाई -4 ब्लांक सी,दिलशाद गार्डन,दिल्ली-110095
Ph-9868031384, email-b.mishra 59@gmail.com
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