बुधवार, सितंबर 06, 2017


  समीक्षा 
                        उपेन्द्र और इन्द्रप्रस्थ
                         # भारतेंदु मिश्र
उपेन्द्र जी हमारे समय के वरिष्ठ हिन्दी कवि हैं| इन्द्रप्रस्थ से पहले उनके अनेक कविता सग्रह प्रकाशित हो चुके हैं|उनकी गजलें और कवितायेँ लगातार पढी,सुनी और सराही भी जाती रही हैं|परन्तु उपेन्द्र जी का पिछले दिनों जो ‘इन्द्रप्रस्थ ‘ शीर्षक से बारह कविताओं का संग्रह प्रकाशित हुआ है वह इनदिनों चर्चा में है|कुछ लोगों ने इसे महाकाव्य और कुछ्लोगों ने इसे प्रबंध काव्य कहा है मैं उनसे सहमत नहीं हूँ| यह इन्द्रप्रस्थ विषय से जुडी बारह कविताओं का समूह भर है| ये बारहों कवितायेँ प्रबंध काव्य के पारंपरिक शिल्प में नहीं रची गयी हैं|दूसरी बात कि प्रबंध काव्य या महाकाव्य की अपनी निश्चित कथावस्तु होती है | कवि ने जो प्रबंधन किया है उसमें महाभारत के विराट कथासंसार में वर्णित इन्द्रप्रस्थ नगर वहां के सभी राजा और राज्य परंपरा आदि का भी विशेष चित्रण नहीं है| कोई एक नायक/नायिका/ पात्र विशेष भी नहीं है|इसलिए इसे काव्यशास्त्रीय शैली में महाकाव्य या खंडकाव्य कहना उचित नहीं लगता |इसके बावजूद कवि द्वारा बारह कविताओं के माध्यम से प्रतीकात्मक रूप में इन्द्रप्रस्थ की सामाजिक पतन गाथा की करुण कथा का संयोजन किया गया है वह न केवल चकित करता है अपितु बेहद पठनीय भी है|मेरी नजर में इन्द्रप्रस्थ एक फैंटेसी है जिसमें हमारे वर्त्तमान जीवन और नारी अस्मिता का यथार्थ भी झलकता है|जिसे हम आज का स्त्रीविमर्श और दाम्पत्य जीवन के मनोभावों और विचलनों से भी जोड़कर देख सकते हैं|
उपेन्द्र और इन्द्रप्रस्थ दोनों का गहरा संबंध रहा है| उपेन्द्र का एक अर्थ है विष्णु और दूसरा अर्थ है देवराज  इंद्र का छोटा भाई| पौराणिक सन्दर्भ के अनुसार इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण और इसकी स्थापना कराने वाले श्रीकृष्ण ही थे| जब ध्रतराष्ट्र  ने आधा राज्य देने के नाम पर पांडवों को हस्तिनापुर से बाहर किया था तब कहा था-‘खांडवप्रस्थ के वन को साफ़ करके उसे समतल बनाकर नया शहर बनाओ और आधाराज्य भोगो|’ पांडवों ने उस चुनौती को स्वीकार किया तब श्रीकृष्ण जी ने मयदानव की सहायता से यमुना के तट पर इन्द्रप्रस्थ की रचना करवाई थी| पहले यह दैत्यों और सर्पों की भूमि थी|लेकिन कृष्ण के सामने किसी की एक न चली,कृष्ण कालिया नाग का दमन कर चुके थे इसलिए उनके सामने किसी प्रकार की बाधा यमुना तट के सर्पों ने नहीं उत्पन्न की| तभी उन्होंने मयदानव को अपने वश में किया फिर उसकी सहायता से इस भव्य नगर की स्थापना करवाई | वह पौराणिक इतिहास है| यहाँ उपेन्द्र का कवि अपनी पुस्तक इन्द्रप्रस्थ में भी हमारे समय में कविता के जंगल में उगे हुए पठार और कठिन यथार्थ से टकराता है,वह इन्द्रप्रस्थ के बहाने आजके युग की संवेदना खासकर स्त्री पुरुष संबंधों को अतीत से वर्त्तमान तक जोड़कर ले आता है और इन कविताओं के माध्यम से नए समय के यथार्थ को पाठक के सामने रखता है| या कहें कि कवि इन्द्रप्रस्थ रूपी बारादरी के सभी दरवाजे नए पाठक के लिए खोलने का काम करता है|
चूंकि महाभारत मूल्यों के पतन की गाथा है इसलिए इन्द्रप्रस्थ में भी मातृत्व से लेकर स्त्री पुरुष संबंध और उनमें व्याप्त ह्रासोन्मुखी विसंगतियों का समीचीन ढंग से निरूपण कवि  ने किया है| पुरुरवा,ययाति,और नहुष जैसे राजा सभी काम वासना के ही प्रतीक बनाकर प्रकट होते हैं|इन्द्रप्रस्थ पितृसत्ता के घृणित यथार्थ की गाथा है| उपेन्द्र जी ने इन मार्मिक प्रसंगों को गहरी संवेदना से व्याख्यायित किया है| पहली कविता ‘शायद यही इन्द्रप्रस्थ है’ में -कवि अतीत में खोये हुए इन्द्रप्रस्थ को खोजने की कोशिश करता है|जैसे मानो कोई स्वप्न कथा या फैंटेसी हो|पुरुरवा विरह में व्याकुल है उर्वशी इंद्र के श्राप से मुक्त होकर उसे खोजती हुई मिलती है|यहाँ स्वप्न कथा में उर्वशी के आने जाने के बीच का घटनाक्रम टूटा हुआ है|जैसे स्वप्न टूटकर पुन: आगे पीछे जुड़ जाता है उसी तरह कविता भी जुड़कर आगे बढ़ जाती है-‘विस्मृत कथाओं और इतिहास के धुंधलके में कुछ छुपा ,कुछ दीखता /शायद यही है इन्द्रप्रस्थ|’(पृष्ठ-11 )
दूसरी कविता ‘याज्ञसेनी’ में द्रुपद द्वारा यज्ञ करते समय वेदी से याज्ञसेनी अर्थात द्रोपदी के आविर्भाव की कथा है|वह अयोनिजा है|वह अपने समय की अनिद्य सुन्दरी भी है|वह युवा ही जन्मी है, वह पिता द्रुपद के प्रतिशोध की ज्वाला स्वरूप है |यही कारण है कि उसका पूरा जीवन प्रतिशोध की ज्वाला ही बनकर रह गया|वह कृष्ण के अलावा किसी से अपने मन की बात कर भी कहाँ पायी|तीसरी कविता ‘स्वयंवर’ में कवि की कल्पना और काल का घोड़ा दोनों दौड़तें हैं|वह द्रोपदी एक है लेकिन उसके रूप अनेक हैं नाम अनेक है-‘किसी के लिए कृष्णा/किसी के लिए याज्ञसेनी/किसी के लिए पांचाली/तो किसी के लिए द्रोपदी|’(पृष्ठ-21 ) ये अनेक नाम द्रोपदी के रूप गुण और आचरण के परिचायक भी हैं|वही एक है जिसके कारण इन्द्रप्रस्थ की रचना होती है और उसी के कारण इन्द्रप्रस्थ स्वाहा भी हो जाता है|
चौथी कविता का शीर्षक है-‘आवश्यक है इन्द्रप्रस्थ’ यह कविता इन्द्रप्रस्थ के आंशिक ऐतिहासिक विवरण से संपन्न है| कवि कहता है-‘कैसा विचित्र संयोग/पुरुरवा,नहुष,ययाति/जैसे महाप्रतापी परन्तु कामांध/नृपों की कहानी /बारबार दुहराता रहा इन्द्रप्रस्थ|’(पृष्ठ-26) अगली पांचवीं कविता ‘चुम्बन ही चुम्बन ’द्रोपदी के स्वप्न की कथा है जिसमें उसके प्रेम और पांच पतियों में देह बांटने की अभूतपूर्व कथा का वर्णन है| उपेन्द्र जी पूछते हैं-‘कैसे हुआ होगा संभव /उन पाँचों के बीच/अपने को साझा करना सामान रूप से/अपनी भावनाएं अपना अनुराग|’ (पृष्ठ-30 )
द्रोपदी निसंदेह अर्जुन से प्रेम करती है और वह उसकी सुधि में खोयी रहती है|कवि ने अपनी कल्पना से विपरीत रति करने वाली स्त्री के रूप में भी द्रोपदी को दिखाया है|प्रणयातुर विक्षुब्ध स्त्रियाँ शायद इस प्रकार भी अपने प्रेम अथवा प्रणय कोप को प्रकट करती हों|बहरहाल यह फैंटेसी बीच बीच में टूटती और फिर नई तरह से जुड़ती हुई चलती है जैसे इन्द्रप्रस्थ बार बार बिखरता और जुड़ता रहा|
छठी कविता का शीर्षक है-‘जब तक जीवन है’ द्रोपदी के साथ ही युधिष्ठिर अर्जुन जैसे अन्य पात्रो का भी द्वंद्व धर्म -अधर्म, नैतिकता – अनैतिकता,प्रणय –वासना ,जय-पराजय सब कुछ एक साथ चलता है |जब तक जीवन है तब तक काम क्रोध,लोभ मोह सब रहेगा ही| ये भी सच है कि पांच पतियों का न्याय केवल द्रोपदी के ही लिए हुआ|महाभारत की अन्य स्त्रियों के साथ वैसा नहीं हुआ|वही जुए में दांव पर लगाई और हारी गयी |वही महाभारत के अभूतपूर्व युद्ध और इन्द्रप्रस्थ का मूल भी है| सातवीं कविता ‘माँ जानती थी ’में उपेन्द्र जी ने जो पाँचों भाईयों के साथ सहवास की कल्पना की है वह विलक्षण है| यह भी कि कुंती ने जानबूझकर द्रोपदी को सभी भाइयों में बराबर से बाँट लेने का आदेश दिया|जब हम इस मिथ को यथार्थ के स्त्री विमर्श के पाठ के साथ रखकर देखते हैं तो नई विसंगति के रूप में कविता फूटती है|उपेन्द्र जी की यही सफलता है| किसी विह्वल कामी की तरह अर्जुन सोचता है –‘अपनी अवधि तो अपनी ही है/बाकी में वर्जित केवल/पांचाली के शयन कक्ष में जाना/परन्तु कहाँ है वर्जित पांचाली से मिलना/उसके शयन कक्ष से बाहर|(पृष्ठ-48 ) ’
आठवीं कविता ‘मोर नाचतें है ’ इस कविता में द्रोपदी का आत्मविमर्श बहुत मार्मिक ढंग से कवि  ने प्रस्तुत किया है| वह अर्जुन की स्वयंवरा पत्नी है और अब उसे पांच पतियों को बारी बारी संतुष्ट करना है,यह विकट परिस्थिति उसके सामने और उसके बाद के इतिहास में भी किसी स्त्री के सामने नहीं आयी| अब वह अर्जुन से दिन में भी मिलने का रास्ता खोज लेती है| पितृसत्ता की रक्षा के लिए पंचभोग्या बनकर भी वह खुश रहने का मार्ग खोज लेती है यह विडम्बना है|उपेन्द्र जी ने इस मार्मिक स्थल को बहुत निपुणता से चुनकर बुना है-
‘बारी वाले पति रात को असंतुष्ट चले गए/कुछ भी नहीं हुआ/द्रोपदी सोलह श्रृंगार कर /पथ पर आँख टिकाये बैठी रही/बाग़ में सफ़ेद मोर नाचते रहे/शुभ संकेत देते रहे/तभी अर्जुन पधारे/द्रोपदी अर्जुन से लिपट गयी/तय हो गया कि दिन उनके हैं/रात चाहे बारी वाले किसी भी पति की हो|’  (पृष्ठ-54 ) नवी कविता का शीर्षक ‘लहरों में खडी ’ कुंती के जीवन से जुड़ी है|कुंती पहले कुंआरी माँ बनी फिर नपुंसक पति से विवाह के कारण कुंती और माद्री दोनों को पितृसत्ता बचाए रखने के लिए देवताओं का आवाहन करना पडा| तात्पर्य यह कि ये सभी पितृसत्ता और राज्य की रक्षा के लिए अपनी भावनाओं की बलि देती रहीं और अन्य पुरुषों के संसर्ग से पुत्र प्राप्त करने के लिए सहमत हुईं| सूर्य से प्राप्त पुत्र कर्ण को कुंती टोकरी में रखकर नदी में प्रवाहित कर देती है लेकिन उसका मन सदैव बेचैन रहता है|पुन: कौमार्य  मिल जाने का वरदान देकर सूर्यदेव अपने रास्ते चले गए|कुंती न अपने प्रेम को पा सकी न अपने सबसे तेजस्वी पुत्र कर्ण को बचा सकी|अब महारानी बनाने के बाद पति की नपुंसकता का पता लगाने के बाद उसे सत्ता की रक्षा के लिए प्रतापी पुत्रो की आवश्यकता थी इसलिए उसने वह सब किया जो उसका मन नहीं चाहता था-‘अगली समस्या थी संख्या की /कितने पुत्र /ताकि वे कम भी न पड़े/और आपस में लड़ भी न पड़ें|’ पूरे पांडव कुल को सुरक्षित रखने का दायित्व भी कुंती पर ही था| उसने ही द्रोपदी नाम के खूंटे से सब पुत्रों को बांधा ताकि परिवार बिखर न जाए|उपेन्द्र जी ने यह कविता विशेष रूप से स्त्री प्रश्न से टकराते हुए लिखी है| आज के समाज में भी स्त्री के कौमार्य और उसके दूसरे पुरुषों से संपर्क को लेकर तरह तरह का हंगामा मचा रहता है|
दसवीं कविता ‘कुल और गोत्र ’ है|स्वाभाविक है कुल, गोत्र और रक्त की शुद्धता आदि के प्रश्न उस समय भी रहे होंगे कर्ण को जीवन भर सूत पुत्र का दंश झेलना पडा|ये सवाल आज भी हमारे समाज में उसी तरह खड़े हैं|ग्यारहवीं कविता-‘देखे मैंने उन आँखों में’ कर्ण के एकालाप की भाँति  रची गयी है|वह सबके लिए पहेली बना रहा जीवन पर्यंत-‘मै जैसे रहा विद्यमान इन्द्रप्रस्थ में /कुंती के मन में ऊहापोह बन/द्रोपदी के मन में प्रेम-घृणा का द्वंद्व बन/पांडवों के मन में भय बन/और कृष्णा के मन में बना प्रश्नचिन्ह |(पृष्ठ-76 )’| अंतिम बारहवीं कविता का शीर्षक है-‘प्रत्येक स्त्री का इन्द्रप्रस्थ ’ यह कविता अन्य कविताओं के निष्कर्ष स्वरूप लिखी गयी है| प्राचीन काल की स्त्री और आज के समय की स्त्री के जीवन में भी पित्रसत्ता से प्रेरित सामाजिक समस्याएँ तकरीबन एक जैसी हैं|इसीलिए उपेन्द्र जी अंतिम पक्तियों में कहते है-‘चलता रहा मेरा इन्द्रप्रस्थ भी साथ साथ/होता रहा नष्ट बार बार/होता रहा पैदा बार बार /प्रत्येक स्त्री के साथ उसका इन्द्रप्रस्थ|’(पृष्ठ-87)
इन्द्रप्रस्थ की इन सभी कविताओं में एक दूसरे से सन्दर्भ जुड़ते हुए चलते हैं | पठनीयता कहीं बाधित नहीं होती|शाश्वत स्त्री अस्मिता के प्रश्न को कवि ने नए आख्यान के रूप  में हमारे सामने प्रस्तुत किया है| इस पुनराविष्कार के लिए उपेन्द्र जी को  बधाई|
शीर्षक: इन्द्रप्रस्थ/कवि :उपेन्द्र कुमार/प्रकाशक: अनुज्ञा बुक्स,दिल्ली-11 0 0 32  /वर्ष:2017/प्रथम संस्करण/मूल्य:100/ 

संपर्क: सी-45/वाई-4 ,दिलशाद गार्डन,दिल्ली-95




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