समीक्षा
भारतेन्दु मिश्र
तारसप्तक के बाद हिन्दी कविता मे पता नही कब और कैसे छन्दोबद्ध कविता और छन्दमुक्त कविता के दो खेमे बने और लगातार यह अनावश्यक विभाजन की रेखा और गाढी होती गई।कुछ समीक्षको और कवियों ने नया प्रयोग और विचारधारा के नाम पर इस विभाजन रेखा को और आगे बढाया।अन्य अधिकांश भाषाओ मे कविता का अर्थ समग्र कविता से होता है,नकि कविता की एक कोई विधा विशेष से।निराला, नागार्जुन ,केदारनाथ अग्रवाल,त्रिलोचन,आदि के यहां कविता समग्र रूप मे उपस्थित होती है।दुष्यंत ने गजल के अलावा अन्य विधाओ मे भी कविताएं लिखी हैं।अब जहां तक दुष्यंत के बाद हिन्दी गजल की बात करें तो भाई ज्ञानप्रकाश विवेक की यह किताब निस्सन्देह सराहनीय प्रयास है।सचमुच यह किताब हिन्दी गजल के मिजाज की रंगत पेश करती है।ये सही है कि हिन्दी गजल का मुहावरा नए समय मे बदला है।जैसा कि ज्ञानप्रकाश विवेक कहते हैं—प्रश्न केवल अभिव्यक्ति को जादुई अन्दाज मे व्यक्त करने का नही है।प्रश्न समकाल और उसके यथार्थ का भी है।समकालीन गजल मुग्धकारी छवियों के विपरीत यथार्थ को भेदती हुई नजर आती है। (पृ.65) तो ऐसा माना जा सकता है कि हिन्दी गजल भी आज के नए कवियों के नए अनुभवो की यथार्थ दृष्टि से भरी पुरी है।लेकिन यथार्थ का भेदन जैसा प्रयोग काव्यात्मक हो गया है ।समीक्षा करते समय समीक्षा की भाषा यानी तर्को की अभिधा अपनानी चाहिए लेकिन कभी कभी ऐसा हो जाता है। सवाल ये है कि यथार्थ को भेदकर हम कहां पहुंचते हैं या गजले हमे किधर ले जाती हैं,यह स्पष्ट नही है।जहां तक कथ्य और यथार्थवादी रचनात्मक विस्तार की बात है तो वो साहित्य की सभी विधाओ मे समानांतर रूप से हुआ है।वो हरेक कवि कथाकार और सजग शायर के यहां देखने को मिलेगा।नवगीत मे, दोहे मे सभी काव्य विधाओ मे नित नूतन अभिव्यक्ति भंगिमाएं देखने को मिलती हैं।बात ये है कि दुष्यंत के बाद हिन्दी गजल को सही परिप्रेक्ष्य मे पढा और सराहा नही गया।मुझे तो लगता है कि दुष्यंत को ही सही रूप मे अभी तक नही प्रस्तुत किया गया।उनकी गजलो को मैने किसी पाठ्यक्रम मे पाठ के रूप मे नहीं देखा,हो सकता है यह मेरे अल्प ज्ञान की सीमा हो । हिन्दी की छन्दोबद्ध कविता ही पाठ्यक्रम से बहिष्कृत हो चुकी है।अधिकांश हिन्दी के पाठ्यक्रम निर्माताओ की नजर मे छन्दोबद्ध कविताएं पिछडे और बचकाने लोग लिखते हैं उनमे वैचारिकता नही होती। किंतु समस्या ये भी है कि जो साहित्य नई पीढी के नए विद्यार्थी के सामने नही आता या नही रखा जाता, उसका भविष्य अनिश्चित होता है।नवगीतकारो ने लंबे संघर्ष के बाद कहीं कहीं हिन्दी नवगीत को पाठ्यक्रम मे शामिल कराया है।हिन्दी गजल ने अपने आलोचक तैयार ही नही किए। जबकि कुछ लोगो का यह भी मानना है कि अभी हिन्दी गजल की शक्ल ही नही उभरी है।
दूसरी ओर जिस विपुल मात्रा मे साहित्य का सृजन हो रहा है उसकी तुलना मे समीक्षा नगण्य है।आलोचक के पास विचारधारा नही है जिनके पास कुछ मुट्ठियो मे रेत बची भी थी वह अब धीरे धीरे झर गई है। साहित्य केवल कला की वस्तु बनकर रह गया है।कहने का मतलब जिसको भी रदीफ और काफिया मिलाना आगया वो मिसरे जोडने लगता है और उसका लक्ष्य लालकिले का मुशायरा हासिल करना हो जाता है।सच ये भी है कि दुष्यंत की तरह गजल की पुरानी जमीन को तोडकर नई जमीन बनाने वाले हिन्दी शायर बहुत कम हुए। हुआ ये भी कि लोगो को छन्द सध गया और एक ही भाव साम्य की हजारो गजले दिखाई देने लगीं।ये हो सकता है कि दुष्यंत के बाद हिन्दी गजल मे जो नए प्रयोग हुए है उनमे से कुछ उल्लेखनीय हों।इस पुस्तक मे अनेक कवियो के उद्धरण देते हुए भाई ज्ञानप्रकाश विवेक ने अपनी बात रखी है ,उनका उद्धरणो का चयन भी निर्विवाद हो सकता है जैसे -अदम गोंडवी और नार्वी का उल्लेख व्यवस्था विरोध के स्वर को आगे बढाने के लिए किया गया है। तो जहां तक हम सभी जानते हैं कि इन दोनो कवियो का जीवन ही अव्यवस्था अभाव और संघर्ष मे कटा है। ये दोनो हिन्दी गजल को नई शक्ल देने मे अपनी भूमिका भी निभाते रहे हैं, लेकिन जो तमाम शायर लालकिले से लेकर देश विदेश तक की दूरी अपनी शायरी से नाप रहे हैं और कुमार विश्वास जैसे गलेबाजो की तरह कविता से कमाई करने मे लगे हैं।तात्पर्य यह कि जब गजलकार ही अपनी विधा को लेकर संजीदा नही हैं तो फिर दूसरो को क्या पडी है।
दुष्यंत के बाद जो सर्वाधिक चर्चित नाम सामने आता है वो अदम गोण्डवी का है।
काजू भुने प्लेट मे ह्विस्की गिलास मे/आया है राम राज विधायक निवास में ।–इस तरह की मार्मिक यथार्थवादी अभिव्यक्ति के स्वर को मुकम्मल हिंदी गजल मे रखा जाना चाहिए।दूसरा नाम नार्वी का है-सरफरोशी के इरादे कल भी यू ही थे जवां/कल भी बस बीडी जली थी आज भी बीडी जला। लेकिन जब हम हिन्दी गजल कहते हैं तो हिन्दी के छन्दो और अवधी,ब्रज,बुदेली जैसी भाषाओ की संवेदनात्मक सघनता और एक तरह की लोच की भी बात होनी चाहिए।पुस्तक के पहले अध्याय मे त्रिलोचन शास्त्री,महेश अनघ, सहित अन्य कुछ साहित्यकारो की टिप्पणियो का आशय भी यही है।हिन्दी मे हजारो छन्द हैं उनमे भी गजल कही जा सकती है।सूर्यभानु गुप्त,देवेन्द्र आर्य,चन्द्रसेन विराट,जहीर कुरैशी,बाल स्वरूप राही,शेरजंग गर्ग,रामकुमार कृषक,कुंअर बेचैन,हरे राम समीप,अनंतराम मिश्र,शिवओम अम्बर ,कमलेश भट्ट कमल,योगेन्द्रदत्त शर्मा,राजेश रेड्डी,लक्ष्मीशंकर बाजपेयी,मयंक श्रीवास्तव,सलीम खां फरीद और इस पुस्तक के लेखक ज्ञानप्रकाश विवेक जैसे कुछ लोग कह भी रहे हैं।लेकिन वो कैसी गजले कह रहे हैं ये समीक्षा के बाद तय होगा।कई गजलकारो ने दोहा छन्द मे गजले कही हैं।दोहा अवध के लोक जीवन का जातीय छन्द है।
भाषा की समस्या का भी कोई सर्वमान्य हल अभी तक नही निकला है।पहले अध्याय मे हिन्दी और गजल को लेकर दुष्यंत कुमार ,त्रिलोचन शास्त्री,जानकी प्रसाद शर्मा,रामदरस मिश्र,जहीर कुरैशी,सुलतान अहमद,महेश अनघ,डा.सादिक आदि जो विद्वानो की टिप्पणियां दी गई हैं उनमे भी हिन्दी गजल को लेकर एक राय नही है।फारसी स्क्रिप्ट मे पेश की गई तमाम गजले उर्दू की हो जाती हैं लेकिन उन्हे जब हम देवनागरी मे पेश करते हैं तो वे हिन्दी की दिखाई देने लगती हैं।क्या उन सबको भी हिन्दी गजलो मे शामिल किया जाना चाहिए। क्या लिप्यंतरण मात्र से हम हिन्दी गजल के खाते मे अपना नाम लिखवा रहे हैं? और उर्दू हिन्दी दोनो मुशायरो मे आवाजाही कर रहे हैं।उर्दू हिन्दी एक जैसी भाषाएं होते हुए भी समीक्षा और आलोचना की नजर से हमेशा अलग रहने वाली हैं।समीक्षा की नजर से यह गजल की खूबी भी है और ये उसकी सीमा भी है।हिन्दी गजल की जो प्रयोग परंपरा प्रसाद,निराला आदि ने शुरू की थी उस दिशा से वर्तमान हिन्दी गजल भटक गई है।तमाम कोशिश के बावजूद ज्ञानप्रकाश विवेक भाई ने हिन्दी और उर्दू के गजलकारो को अलग अलग रखने की कोशिश नही की।जब हम हिन्दी गजल की बात करते हैं तो गजल की भाषा और उसकी की समस्या पर भी विस्तार से बात करनी होगी।कम से कम हिन्दीगजल के लिए हिन्दी या हिन्दुस्तानी लोक का छन्द और देवनागरी लिपि तो अनिवार्य होनी चाहिए।हिन्दी मे संस्कृत और फारसी से आए शब्दो के बहुत ज्यादा शुद्धीकरण से भी बचना चाहिए।
मुझे लगता है विज्ञान व्रत ने हिन्दी गजल मे छोटी बहर के प्रयोग का नया सिलसिला शुरू किया है।लेकिन कथ्य और संवेदना मे सब लगभग एक जैसे ही हैं। जो कवि हिन्दी गजल के माध्यम से नई भाषा चेतना जागृत कर रहे हैं वे सचमुच अच्छा काम कर रहे हैं।बाकी तालीपिटाऊ मुशायरों और कवि सम्मेलनो मे एक साथ आने जाने वाले कलाकारों या गलेबाज और अदाकारी वाले कवियों की बात करना बेमानी है। अंतत: तारीफ करनी होगी भाई ज्ञान प्रकाश विवेक की कि उन्होने बहुत श्रम से इस किताब पर अपनी तरह से ये जोखिम भरा काम किया ।जिन तमाम श्रेष्ठ गजलकारो के उद्धरण इस पुस्तक मे दिए गए हैं ज्ञान जी की अपनी गजले किसी सूरत मे कम महत्वपूर्ण नही हैं ।वे खुद भी हिन्दी गजल को आगे बढाने वाले अग्रणी रचनाकार हैं ।यही उनकी इस पुस्तक मे व्यक्त की गई चिंता का कारण भी है।एक शेर देखिए-हौसला देखिए भिखारी का/शौक रखता है घुडसवारी का।
शीर्षक:हिन्दी गजल दुष्यंत के बाद
लेखक:ज्ञानप्रकाश विवेक
प्रकाशक :अयन प्रकाशन,मेहरौली,नई दिल्ली
वर्ष:2014,मूल्य:400/
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फोन-09868031384
यथार्थपरक समीक्षा। शुभ कामनाएँ
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