भारतेन्दु मिश्र
कैद हुए हैं जब से बुने हुए घेरे में
गर्म-गर्म साँसों के शब्द हैं अँधेरे में
बहुत बहुत दिन हुए
कन्धों को सौंपते जुए।
अब इस समय यह पूरा गीत तो याद नही है लेकिन मेरी दृष्टि में माहेश्वर तिवारी जी के एक नवगीत की ये अत्यंत महत्वपूर्ण और चर्चित पंक्तियाँ हैं।इस केन्द्रीय भावना वाले नवगीत कवि के पास निम्नमध्यवर्ग के श्रमजीवी -आम आदमी की मार्मिक संवेदना है इस बात का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है।यहाँ कन्धों को जुए सौंपने का जो बिम्ब है, वह हमारी जातीय या कहें कि मूल किसान चेतना की अवधारणा से सीधे तौर पर जुडा हुआ है।इसे हम यथास्थितिवाद से भी जोडकर नहीं देख सकते । काव्य हो कोई अन्य कला माध्यम कलाकार अपने समय से ऊबकर या अपनी परिस्थिति मे डूबकर भी अपने समाज को आइना दिखाने का काम करता है। यहाँ माहेश्वर जी नवगीत के माध्यम से जीवन की जडता से संघर्ष का रास्ता खोजते हुए नजर आते हैं।अपने समय के मनोविज्ञान को चित्रित करते सकारात्मक सूक्ष्म संवेदना वाले ऐसे उनके अनेक गीत हैं।
पाँच जोड बाँसुरी के बाद विशेषत: नवगीत दशक -2 से नवगीत की चर्चा मे आए नवगीतकार माहेश्वर तिवारी उन नवगीतकारो मे है जिन्होने नवगीत की विशाल भूमिका तैयार करने मे सतत योगदान भी किया। हरसिंगार कोई तो हो,नदी का अकेलापन,सच की कोई शर्त नही,और फूल आए हैं कनेरो पर शीर्षक से उनके कई नवगीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। हिन्दी नवगीत की दीर्घ सेवा मे माहेश्वर तिवारी जी का नाम बडे आदर से लिया जाता है। असल मे नवगीत आन्दोलन जिन कुछ कवियो की सतत रचनाशीलता के कारण स्थिर हुआ है माहेश्वर तिवारी उनमे से एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। डाँ शम्भुनाथ सिंह ने जिन प्रमुख नवगीतकारों को लेकर नवगीत दशकों की योजना बनाई थी उनमे माहेश्वर तिवारी जी की एक खास भूमिका रही है।
बीती सदी के सातवें दशक के उत्तरार्ध और आठवें दशक के मध्य तक नवगीत दशक और नवगीत अर्धशती का प्रकाशन हो पाया। यह नवगीत के व्याकरण को स्थापित करने और नवगीतकारों की रचनाशीलता को रेखांकित करने की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ समय था। इसी बीच माहेश्वरजी के नवगीत भी पत्र पत्रिकाओ मे प्रकाशित होने लगे थे।लेकिन उनकी पहला नवगीत संग्रह सन 1981 मे हरसिंगार कोई तो हो-शीर्षक से प्रकाशित हुआ।संकलन समय पर छप जाना या बाद मे छपना कोई विशेष अर्थ नही रखता किंतु रचनाकार के बारे मे मुकम्मल धारणा बनाने मे संग्रह का अपना महत्त्व होता है,यह तो निर्विवाद है। यहाँ मै यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ कि नवगीत दशको की योजना मे कुछ नाम शम्भुनाथ जी ने भर्ती के भी शामिल किए लेकिन माहेश्वर जी का नाम उस योजना मे चार चाँद लगाता है। उनकी रचनाएँ अपनी अलग छवि के कारण नवगीत दशको के कई कवियो की तुलना मे अधिक चर्चित हुईं।माहेश्वर जी के गीतो मे संवेदना की सूक्ष्मता के अनेक बिम्ब बहुत आकर्षित करते हैं।यह दृष्टि बहुत साधना के बाद निखरती है –
उंगलियों से कभी
हल्का-सा छुएँ भी तो
झील का ठहरा हुआ जल
काँप जाता है।
एक हल्की सी क्रिया की गहरी प्रतिक्रिया सुनी तो जाती है लेकिन उसे इतने सादे ढंग से सूक्ति बद्ध करना सबके बस की बात नही है। एक हल्के स्पर्श द्वारा मन की गहरी झील को कँपा देनी की संवेदना का पता हमे इस दौर के बहुत कम नवगीतकारों मे मिलता है,यह माहेश्वर जी की खूबी है। एक और ऐसा ही सुकुमार मन वाले पेड का चित्र देखिए- जंगल का घर छूटा
कुछ कुछ भीतर टूटा
शहरों में
बेघर होकर जीते
सपनों में खोये हैं पेड़/कोहरे मे सोए हैं पेड.।
जंगल से बिछुडकर शहरों में पेडों का जीवन कवि मनुष्य की संवेदना से ।देखता है।लगता है कि मनुष्य भी सपनो मे खो जाने और कोहरे मे सो जाने के लिए विवश है।आजकल शहरो मे बार बार पुनर्वास की पीडा हम सभी को भोगनी पड रही है।बार बार बेघर होने की संवेदना पूरब के अधिकांश लोगो की निजता मे शामिल हो गयी है। पुरानी घर गाँव की यादों की संवेदना जिसे व्यापक रूप मे गृहरति से जोडकर देखा जाता है,-का व्यापक चित्रण माहेश्वर जी के अनेक नवगीतों मे देखने को मिलता है।जैसे-
याद तुम्हारी जैसे कोई/कंचन-कलश भरे।/जैसे कोई किरन अकेली/पर्वत पार करे।
यह माहेश्वर जी की अपनी भूमि या कहें कि उनकी निजता है।किरन का अकेले पर्वत पार करना तो मानो सूक्षम संवेदना की सघन सौन्दर्य चेतना है।यहाँ जो याद के कारण उपजी चिंता और उस चिंता से उपजा एक अनजाना भय हम सबको गहरे तक मथ जाता है,वह देखने योग्य है।अपने घर परिवार गाँव जवार की याद को नास्टेल्जिया के तौर पर भारतीय कविता के मानस मे नही देखा जा सकता। यह पलायन वाद भी नही है।मै तो इसे गृहरति की व्यापक व्यंजना के तौर पर ही गृहण करता हूँ,और कमोबेश हर संवेदन शील कवि मे यह व्यंजना होती है-
हँसी के झरने,
नदी की गति,
वनस्पति का
हरापन
ढूँढ़ते है फिर
शहर-दर-शहर
यह भटका हुआ मन
छोड़ आए हम हिमानी
घाटियों में
धार की चंचल, सयानी छाँह।
बल्कि यही गीत नवगीत चेतना का मूल बिन्दु है ।अपनी निजता की खोज हम सभी अपने तौर पर करते ही रहते हैं। यह मनुष्य का स्वभाव है।कंकरीट के शहरी जंगल में हँसी का एक पल,एक बालिश्त हरापन,एक अदत सयानी छाँह जब तक अपने लिए मनुष्य खोजता है तभी तक वह सच्चे अर्थ मे संवेदनशील मनुष्य है।देखी भोगी हुई प्रकृति की चाह किसे नही होती।
दूसरी ओर नगर बोध एक डरावनी बिल्ली की तरह हमे हर वक्त सजग रहने के लिए विवश करता है। यहाँ शातिर लोग हमारी मनुष्यता को नोचते जा रहे हैं और हम उनके चालाक पंजो मे अपनी चेतना को फँसा हुआ देख रहे हैं।हमारी अपनी मनुष्यता भी छीज रही है। माहेश्वर जी का अनुभव हम सबका अनुभव है देखिए-
हम पसरती आग में
जलते शहर हैं
एक बिल्ली
रात-भर
चक्कर लगाती है
बात यहीं खत्म होने वाली नही है। यह दुनिया नदी की धार की तरह सदैव चलायमान है कुछ भी स्थिर नही है।इस समय की नश्वरता का बिम्ब देखें कितना मार्मिक है-
न मछली
न बादल
न गहरा अतल-तल
थिर नहीं होता कहीं कुछ
नदी के जल में
मार्मिकता तब और बढ जाती है जब माहेश्वर जी अपने वर्तमान को सहज व्यंजना शक्ति के माद्धयम से महानगर बोध को ऐतिहासिक दृष्टि से देखते हैं।–
इतिहासों के
कूड़ाघर में
पड़ी आम्रपाली .
बुद्धं शरणम को
अगोरती
स्मृतियाँ काली ,
मंत्रि परिषदें ,गणाध्यक्ष
बस खुशहाली में हैं |
............................ श्रेष्ठिजनों ,भूखों में
बस्ती का है
बंटा समाज
सड़कों -गलियों में
शव रखकर
भाग रहे सब
आज |
पहले जैसा अब
काशी का नहीं समाज रहा |
इन उदाहरणो मे इतिहास बोध तो है लेकिन इतिहास की शव साधना नही है।जैसा कि आजकल तमाम गीतकार /कवि इतिहास बोध के रूप मे सांस्कृतिक उद्धार की दृष्टि से अपना कुछ खास एजेण्डा लेकर चल रहे हैं।माहेश्वर जी के पास संवाद करती हुई भाषा का जादू है,और संवेदनशील लोगो के बीच संवादहीनता की चिंता भी है।हम बढती भीड मे कितने अकेले हो गए हैं यह महानगरीय जीवन का दैनन्दिन स्वर है जो हमारी संवेदना को लगातार झकझोरता है ।बहरहाल यह तो सच है कि हम महानगर के लोग अपने मे इतना खो गये हैं कि सहज बतकही तक का अवकाश अब किसी के पास नही रहा-
खुद से खुद की
बतियाहट हम
लगता भूल गए। माहेश्वर जी के पास नवगीत की सशक्त भाषा है-सधा हुआ छन्द है-नित नूतन युगबोध का मुहावरा है और सूक्ष्म सहज अभिव्यक्ति है की संवेदना है ।आम आदमी के दुखदर्द का पता इन नवगीतों मे साफ दिखाई देता है।रमेश रंजक,वीरेन्द्र मिश्र,देवेन्द्र शर्मा इन्द्र,उमाकांत मालवीय आदि नवगीतकारो की श्रेष्ठ काव्य परंपरा को कुमार रवीन्द्र और माहेश्वर तिवारी जी आगे ले जाते हैं।देखें समय की विडम्बना ढोते दिन का चित्र- सूखे मे बाढ में फँसे हैं दिन/अजगर की दाढ मे फँसे हैं दिन/आसमान से टपके थे भविष्य बनकर जो/सुनते हैं ताड. में फँसे हैं दिन।
असल में दिन नहीं हमारा पूरा जीवन आसमान से टपक कर ताड मे फँसा हुआ सा नजर आता है। कवि की सूक्ष्म चेतना दिन के कई हिस्सो तक जाती है और वहाँ से लौटकर क्षणवादी विसंगतियों के साथ यथास्थिति और निरर्थकता बोध को मानवीय सरोकारो के समक्ष रखकर उसकी समीक्षा करती है।कमोबेश यही स्थिति हम सभी संवेदनशील रचनाकारों/बुद्धिजीवियों की है-
धूप थे बादल हुए तिनके हुए/सैकडो हिस्से गये दिनके हुए/दफ्तरो से लौट आया है शहर/हम कभी इनके हुए उनके हुए।
अंतत:माहेश्वर तिवारी जी की नवगीत यात्रा हमें नवगीत के उस पडाव के रूप मे नजर आती है जहाँ से नए नवगीत कवियों के लिए अनुभव की सहस्र-धाराएँ फूटती हैं।मेरी दृष्टि में वे जनपक्ष के नवगीतकार हैं और श्रम सौन्दर्य के अनुपम चित्रकार भी हैं। किंतु वे जनवादी राजनीति के अनुरूप जनगीतकार नहीं हैं। वे अपने जन और लोक ,समय और समाज के लिए आज भी रच रहे हैं। हमें विश्वास है कि वे शतायु होकर भी अपनी रचना धर्मिता से हमे प्रेरित करते रहेंगे।
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