>मूक सरस्वती के साधक : देवेन्द्र शर्मा इंद्र
डाँ भारतेन्दु मिश्र
कविवर देवेन्द्र शर्मा इन्द्र समकालीन कविता मे गीत नवगीत के केन्द्रीय स्वर के रूप मे प्रतिष्ठित वह नाम हैं जिन्होने शताधिक कवियो की भूमिकाएँ लिखकर उनका पथ प्रदर्शन किया है। नवगीत दशक 1 के यशस्वी कवि के रूप मे उनका आदर साहित्य के सभी छन्दधर्मा कवि कई दशकों से करते आए है।उन्होने विपुल मात्रा मे नवगीत दोहे और गजले कहीं हैं।अभी लगातार वे लिख रहे हैं।सैकडो की सख्या मे उनके गीत/गजले और हजारो दोहे अभी अप्रकाशित हैं इस सबके बावजूद वे सतत लेखन रत हैं।कुछ और नए कीर्तिमान बन जाने की सहज आशा बनती है।उनकी यह कविताई ही उनकी जीवनी शक्ति है।हिन्दी कविता के आलोचक उनकी कविताई को किस तरह से देखते हैं और उनके विषय मे क्या टिप्पणी करते हैं यह तो समय ही बताएगा।अभी उनका अधिकांश कविकर्म प्राय: असमीक्षित ही है।यद्यपि उनके कविकर्म को केन्द्र मे रखकर देश भर के विभिन्न विश्वविद्यालयो से एक दर्जन से अधिक शोध कार्य हो चुका है। समकालीन हिन्दी कविता में गीत/नवगीत/दोहा और गजल की जो छटा दर्शनीय है उसका एक हिस्सा कविवर देवेन्द्र शर्मा इन्द्र की सतत छन्द साधना पर केन्द्रित है।जैसे जैसे यह दुनिया तकनीकि के ढब से विश्वग्राम मे तब्दील हुई है उत्तर आधुनिकता के दौर में हिन्दी कविता के क्षेत्र मे एक खास तरह का इजाफा भी हुआ है।हालाँकि कविता के कई खेमे कई आन्दोलन और पडाव हमे देखने को मिलते हैं,लेकिन छन्दोबद्ध कविता की बात ही और है।जबकि एक ओर कुछ तथाकथित विचारक कहते पाए गए कि कविता मर चुकी है,कुछ चुके हुए गीतकारो ने इसी सुर मे कहा कि नवगीत मर चुका है।दूसरी ओर सबसे अधिक कविता की किताबें ही प्रकाशित होने की सूचना प्रकाशको से मिलती है। प्रकाशक कवियो से ही पैसा लेकर कवियो को ही वो किताबे बेच भी रहे हैं,परंतु कविता की रचनात्मक विकास यात्रा अवरुद्ध नही हुई।यह कहा जा सकता है कि यह गद्य का युग है लेकिन इस युग मे भी गैर मंचीय सार्थक छन्दोबद्ध कविता की ध्वजा को फहराते रहने का का कठिन कार्य आदरणीय इन्द्र जी कर रहे हैं।इसी बीच इन्द्र जी के व्यक्तित्व की परिधि का भी विस्तार हुआ है।अपनी सतत रचनाशीलता के अलावा उनके द्वारा संपादित-यात्रा मे साथ साथ-(समवेत -नवगीतसंकलन )हरियर धान रुपहरे चावल(समवेत नवगीतसंकलन)और सप्तपदी (दोहा संकलन) के सात खण्डों की व्यापक योजनाओ का साहित्य मे अलग महत्व है। श्रेष्ठ छन्दोबद्ध कविता की पहचान और कवि के चयन को लेकर उनकी प्रतिभा और क्षमता पर कोई सन्देह नही कर सकता। अपने मित्रो और प्रिय कनिष्ठो को लेकर उन्होने कभी कभी समझौते जरूर किए लेकिन उनका निर्वाह भी किया।इन्द्र जी छह दशको से लगातार छन्दप्रसंग की धूनी रमाते आ रहे हैं।इस नितांत वैयक्तिक काव्य यात्रा मे वे अकेले नही हैं उनकी एक बेटी है जो मूक सरस्वती की तरह लगातार उनकी इस काव्ययात्रा की प्रेरक और सहभागी है।इन्द्र जी उसे गोले कहकर संबोधित करते हैं,आयु के आठ दशक पूरे करने जा रहे इन्द्र जी के सृजन कर्म की वह प्रतिपल साक्षी है।गोले उनके सृजन कार्य मे बाधक भी है और साधक भी है।यही तो जीवन है ,बाधाओ मे साधना खण्डित होती दिखाई देती है पर वह खण्डित हो नही पाती ।लेकिन यदि साधना मे बाधा न आए तो फिर साधना का क्या आनन्द ? बाधाएँ सबके जीवन मे हैं लेकिन उनकी यह बाधा कुछ अलग किस्म की है। इसीलिए उनकी छन्दसाधना भी कुछ अलग किस्म की है। यह बालिका अब उम्र के 50 से अधिक वर्ष पूरे कर चुकी है किंतु छह माह के शिशु सा आचरण उनके सृजन क्षणो मे अक्सर बाधक बन जाता है।उसे खाना खिलाने से लेकर शौच आदि कराने तक प्राय: सभी कार्य वे सहज रूप से अपना दायित्व समझ कर करते हैं।वह उनसे इतना हिली हुई है कि परिवार के अन्य सदस्यो की अपेक्षा इन्द्र जी से ही प्रत्येक सेवा की अपेक्षा करती है।गोले निर्द्वन्द्व भाव से उनके पैरो पर झूलती है।जिन मित्रो का उनके घर आना जाना है वे सब प्राय: इस तथ्य से और उनके जीवन के इस कटु सत्य से परिचित हैं। मेरी दृष्टि मे यही उनकी तपश्चर्या है।वे सिद्ध है ,वे शब्द योगी हैं वे छन्दप्रसंग की अखंड धूनी रमाए हुए हैं।उनके विशाल काव्य वितान को गंभीर होकर पढने/समझने की आवश्यकता है।ऐसी मनोदशा मे जीने वाला कवि कह सकता है- घाटियों मे खोजिए मत
मैं शिखर पर हूँ।
धुँए की पगडण्डियों को बहुत पीछे छोड आया हूँ रोशनी के राजपथ पर
गीत का रथ मोड आया हूँ
मै नही भटका रहा चलता निरंतर हूँ।
यह सच बात है इन्द्र जी ने समकालीन छन्दोबद्ध कविता के रथ को बहुत आगे तक पहुँचाने का प्रयत्न किया है।इस रथ पर अनेक नए पुराने गीतकार सवार हैं इन्द्र जी ने कुशल सारथी की तरह इस रथ को राजपथ की ओर मोड दिया है। अब आगे के गीतकार उस रथ को कहाँ ले जाएँगे यह तो समय ही बताएगा।
इन्द्र जी के व्यक्तित्व की एक और खास बात है कि वे जिसे अपनाते हैं उसे पूरे मन से जोड लेते हैं और ऐसा जोडते हैं कि वो चाह कर भी उनसे विलग नही हो पाता।हालाँकि शातिर मंचीय गवैयों और आत्मसम्मोहन के नशे मे बौखलाए कवियो से वे स्वयं को बचा पाने मे सफल हुए हैं, तथापि कुछ मंचीय घुसपैठिए भी उनके दरबार मे आते जाते रहते हैं लेकिन उन्होने छन्दोबद्ध कविता को और अपने आपको भी अभी तक बचाया हुआ है।
इन्द्र जी का पूरा का पूरा कविकर्म देखें तो उनके अंतरमन की सघन गीतोन्मुखी संवेदना कैसे उनकी स्थायी मित्र और आत्मजा गोले के साथ अनंत व्यापी होकर चक्राकार लेकर घूमती है।देखिए जरा ध्यान दीजिए अनादि संवेदन पर- मै रचता,तोडता रहा/देश काल की सीमाएँ/लयवंती मुझसे होतीं/सर्जन की गीताभाएँ/मै अनादि संवेदन हूँ/मै अनंत हूँ/अपने एकांत पीठ का /मै महंत हूँ।
ऐसा स्वर उनकी कविताई को ही शोभा देता है। वे निरंतर सर्जन की नई गीत प्रतिभाएँ और गीत छवियो की तलाश की ओर अग्रसर हैं।कुछ मित्रो को लग सकता है कि वे कहीं कहीं स्वयं को दुहरा रहे हैं,लेकिन अक्सर वैसा होता नही।अपने जीवन और कवि कर्म के प्रति ईमानदारी उनकी खास पहचान है। वे पुरस्कार सम्मान आदि के प्रति सदैव उदासीन रहे।उत्तर प्रदेश सरकार से जब उन्हे साहित्यकार सम्मान मिला तब वे उसे गृहण करने लखनऊ नही जा पाए।मूल मे थी गोले –लखनऊ वे गोले की चिंता से मुक्त हुए बिना नही जा सकते थे,उसके साथ तो बिल्कुल ही नही जा सकते थे।तो गत पचास वर्षो मे इन्द्र जी के व्यक्तित्व की निर्मिति का मूल कारण गोले को कहा जा सकता है।गोले के प्रति वात्सल्य का भाव उनके मन मे स्पष्ट तौर से देखा जा सकता है।गोले उनके लिए मूक सरस्वती है और वो उस सरस्वती के मुखर कवि।जरा उनकी अधिकांश काव्य कृतियो के नाम देखिए- पथरीले शोर में,पंखकटीमेहराबें,दिन पाटलिपुत्र हुए,कुहरे की प्रत्यंचा,चुप्पियो की पेंजनी,आँखों मे रेत प्यास,पहनी हैं चूडियाँ नदी ने, हम शहर मे लापता हैं,धुँए के पुल,आँखों खिले पलाश,एक दीपक देहरी पर -आदि शीर्षकों को जरा इन्द्र जी की गोले के प्रति संवेदना को जोडकर देखिए तो इन अनेक गीत गजल और दोहा संग्रहो की रचनाओ के वास्तविक अर्थ खुलने लगते हैं।सतही तौर से लगता है कि एक अनवरत शांति और निराशा की अनंत काव्य राशि अनेक छवियो मे यहाँ बिखरी पडी है,परंतु वैसा है नही।वे समग्र जीवन की संवेदना के बडे गीतकार हैं।जैसा कि हमारे आसपास जीवन की विसंगतियाँ और विडम्बनाएँ चतुर्दिक पसरी हुई हैं वह सब भी इन्द्र जी के काव्य मे सतत स्वाभाविक रूप मे विद्यमान है।अर्थात युगबोध के बडे नवगीतकार तो वे हैं ही।इस अस्सी की उम्र मे उनका तेवर तो देखिए-
अस्तमित होते समय के
सूर्य है हम/जिसे जितनी चाहिए वह रोशनी ले ले।
ये जो सूर्य मुखी चेतना के गीत हैं वो उनकी प्रिय भूमि है क्योकि जहाँ तक मुझे याद है नवगीतदशक -1 मे भी कवि के सूर्यमुखी गीत संकलित हैं।उल्लास के स्वर प्राय: इन्द्र जी के गीतो मे कम ही देखने को मिलते हैं।इसका प्रमुख कारण उत्सवधर्मी उल्लास से उनकी वितृष्णा ही है। यह उत्सवधर्मी उल्लास के प्रति वितृष्णा का बोध उनकी अनेक रचनाओ मे साफ तौर पर देखा जा सकता है।निराला उनके आदर्श कवि हैं,लेकिन तमाम साहित्यकारों की तरह वे केवल निराला का नाम नहीं जपते वरन वे निराला को गहरे तक हृदयंगम करते हैं।इसका प्रमाण उनका कालजयी (खण्डकाव्य) है,जो निराला के प्रिय तुलसीदास वाले छन्द मे ही रचा गया है।देखें मनोहरा की छवि- सम्भ्रांत विप्र कुल की कन्या गुणवंती यथा नाम धन्या नागरी लता पर स्मित-वन्या-कलिका सी। अपरा-सरस्वती-ऋतंवरा सिद्धार्थमना ज्यों यशोधरा नव सूर्यकांत की मनोहरा-अलिका सी॥
निराला के अतिरिक्त इन्द्र जी ने डाँ.रामविलास शर्मा जी की आगरा कालेज वाली छवि बहुत करीब से देखी सुनी है।तात्पर्य यह कि उनके मन मे सचमुच निराला के प्रति अगाध श्रद्धा का भाव जीवंत है। इसके अतिरिक्त कई गीत निराला को स्मरण करते हुए इन्द्र जी लिखे हैं। जैसे निराला अपनी पुत्री को लेकर सरोज स्मृति जैसी शोक की महान कविता हिन्दी साहित्य को दे गये उसी परम्परा मे इन्द्र जी अघोषित रूप से गोले को लेकर सृजन रत हैं।अभी कुछ दिन हुए उन्होने निराला पर लिखी रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल,नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह,धर्मवीर भारती,हरिवंशराय बच्चन,शील,नरेन्द्र शर्मा और आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जैसे तमाम नए पुराने कवियो की कविताओ का संकलन वसंत का अग्रदूत शीर्षक से किया है जो हिन्दी साहित्य मे एक सन्दर्भ पुस्तक के रूप मे आदर पा रही है।
अंतत: उनके इस अनवरत अप्रतिम सृजन संसार के प्रति शुभकामनाएँ।ईश्वर से प्रार्थना है कि उन्हे शतायु करे तथा उनके सृजन को और भी दीर्घायु करे।
संपर्क:बी-235/एफ-1,शालीमार गार्डन,मेन,गाजियाबाद-5
फोन-9868031384
डाँ भारतेन्दु मिश्र
कविवर देवेन्द्र शर्मा इन्द्र समकालीन कविता मे गीत नवगीत के केन्द्रीय स्वर के रूप मे प्रतिष्ठित वह नाम हैं जिन्होने शताधिक कवियो की भूमिकाएँ लिखकर उनका पथ प्रदर्शन किया है। नवगीत दशक 1 के यशस्वी कवि के रूप मे उनका आदर साहित्य के सभी छन्दधर्मा कवि कई दशकों से करते आए है।उन्होने विपुल मात्रा मे नवगीत दोहे और गजले कहीं हैं।अभी लगातार वे लिख रहे हैं।सैकडो की सख्या मे उनके गीत/गजले और हजारो दोहे अभी अप्रकाशित हैं इस सबके बावजूद वे सतत लेखन रत हैं।कुछ और नए कीर्तिमान बन जाने की सहज आशा बनती है।उनकी यह कविताई ही उनकी जीवनी शक्ति है।हिन्दी कविता के आलोचक उनकी कविताई को किस तरह से देखते हैं और उनके विषय मे क्या टिप्पणी करते हैं यह तो समय ही बताएगा।अभी उनका अधिकांश कविकर्म प्राय: असमीक्षित ही है।यद्यपि उनके कविकर्म को केन्द्र मे रखकर देश भर के विभिन्न विश्वविद्यालयो से एक दर्जन से अधिक शोध कार्य हो चुका है। समकालीन हिन्दी कविता में गीत/नवगीत/दोहा और गजल की जो छटा दर्शनीय है उसका एक हिस्सा कविवर देवेन्द्र शर्मा इन्द्र की सतत छन्द साधना पर केन्द्रित है।जैसे जैसे यह दुनिया तकनीकि के ढब से विश्वग्राम मे तब्दील हुई है उत्तर आधुनिकता के दौर में हिन्दी कविता के क्षेत्र मे एक खास तरह का इजाफा भी हुआ है।हालाँकि कविता के कई खेमे कई आन्दोलन और पडाव हमे देखने को मिलते हैं,लेकिन छन्दोबद्ध कविता की बात ही और है।जबकि एक ओर कुछ तथाकथित विचारक कहते पाए गए कि कविता मर चुकी है,कुछ चुके हुए गीतकारो ने इसी सुर मे कहा कि नवगीत मर चुका है।दूसरी ओर सबसे अधिक कविता की किताबें ही प्रकाशित होने की सूचना प्रकाशको से मिलती है। प्रकाशक कवियो से ही पैसा लेकर कवियो को ही वो किताबे बेच भी रहे हैं,परंतु कविता की रचनात्मक विकास यात्रा अवरुद्ध नही हुई।यह कहा जा सकता है कि यह गद्य का युग है लेकिन इस युग मे भी गैर मंचीय सार्थक छन्दोबद्ध कविता की ध्वजा को फहराते रहने का का कठिन कार्य आदरणीय इन्द्र जी कर रहे हैं।इसी बीच इन्द्र जी के व्यक्तित्व की परिधि का भी विस्तार हुआ है।अपनी सतत रचनाशीलता के अलावा उनके द्वारा संपादित-यात्रा मे साथ साथ-(समवेत -नवगीतसंकलन )हरियर धान रुपहरे चावल(समवेत नवगीतसंकलन)और सप्तपदी (दोहा संकलन) के सात खण्डों की व्यापक योजनाओ का साहित्य मे अलग महत्व है। श्रेष्ठ छन्दोबद्ध कविता की पहचान और कवि के चयन को लेकर उनकी प्रतिभा और क्षमता पर कोई सन्देह नही कर सकता। अपने मित्रो और प्रिय कनिष्ठो को लेकर उन्होने कभी कभी समझौते जरूर किए लेकिन उनका निर्वाह भी किया।इन्द्र जी छह दशको से लगातार छन्दप्रसंग की धूनी रमाते आ रहे हैं।इस नितांत वैयक्तिक काव्य यात्रा मे वे अकेले नही हैं उनकी एक बेटी है जो मूक सरस्वती की तरह लगातार उनकी इस काव्ययात्रा की प्रेरक और सहभागी है।इन्द्र जी उसे गोले कहकर संबोधित करते हैं,आयु के आठ दशक पूरे करने जा रहे इन्द्र जी के सृजन कर्म की वह प्रतिपल साक्षी है।गोले उनके सृजन कार्य मे बाधक भी है और साधक भी है।यही तो जीवन है ,बाधाओ मे साधना खण्डित होती दिखाई देती है पर वह खण्डित हो नही पाती ।लेकिन यदि साधना मे बाधा न आए तो फिर साधना का क्या आनन्द ? बाधाएँ सबके जीवन मे हैं लेकिन उनकी यह बाधा कुछ अलग किस्म की है। इसीलिए उनकी छन्दसाधना भी कुछ अलग किस्म की है। यह बालिका अब उम्र के 50 से अधिक वर्ष पूरे कर चुकी है किंतु छह माह के शिशु सा आचरण उनके सृजन क्षणो मे अक्सर बाधक बन जाता है।उसे खाना खिलाने से लेकर शौच आदि कराने तक प्राय: सभी कार्य वे सहज रूप से अपना दायित्व समझ कर करते हैं।वह उनसे इतना हिली हुई है कि परिवार के अन्य सदस्यो की अपेक्षा इन्द्र जी से ही प्रत्येक सेवा की अपेक्षा करती है।गोले निर्द्वन्द्व भाव से उनके पैरो पर झूलती है।जिन मित्रो का उनके घर आना जाना है वे सब प्राय: इस तथ्य से और उनके जीवन के इस कटु सत्य से परिचित हैं। मेरी दृष्टि मे यही उनकी तपश्चर्या है।वे सिद्ध है ,वे शब्द योगी हैं वे छन्दप्रसंग की अखंड धूनी रमाए हुए हैं।उनके विशाल काव्य वितान को गंभीर होकर पढने/समझने की आवश्यकता है।ऐसी मनोदशा मे जीने वाला कवि कह सकता है- घाटियों मे खोजिए मत
मैं शिखर पर हूँ।
धुँए की पगडण्डियों को बहुत पीछे छोड आया हूँ रोशनी के राजपथ पर
गीत का रथ मोड आया हूँ
मै नही भटका रहा चलता निरंतर हूँ।
यह सच बात है इन्द्र जी ने समकालीन छन्दोबद्ध कविता के रथ को बहुत आगे तक पहुँचाने का प्रयत्न किया है।इस रथ पर अनेक नए पुराने गीतकार सवार हैं इन्द्र जी ने कुशल सारथी की तरह इस रथ को राजपथ की ओर मोड दिया है। अब आगे के गीतकार उस रथ को कहाँ ले जाएँगे यह तो समय ही बताएगा।
इन्द्र जी के व्यक्तित्व की एक और खास बात है कि वे जिसे अपनाते हैं उसे पूरे मन से जोड लेते हैं और ऐसा जोडते हैं कि वो चाह कर भी उनसे विलग नही हो पाता।हालाँकि शातिर मंचीय गवैयों और आत्मसम्मोहन के नशे मे बौखलाए कवियो से वे स्वयं को बचा पाने मे सफल हुए हैं, तथापि कुछ मंचीय घुसपैठिए भी उनके दरबार मे आते जाते रहते हैं लेकिन उन्होने छन्दोबद्ध कविता को और अपने आपको भी अभी तक बचाया हुआ है।
इन्द्र जी का पूरा का पूरा कविकर्म देखें तो उनके अंतरमन की सघन गीतोन्मुखी संवेदना कैसे उनकी स्थायी मित्र और आत्मजा गोले के साथ अनंत व्यापी होकर चक्राकार लेकर घूमती है।देखिए जरा ध्यान दीजिए अनादि संवेदन पर- मै रचता,तोडता रहा/देश काल की सीमाएँ/लयवंती मुझसे होतीं/सर्जन की गीताभाएँ/मै अनादि संवेदन हूँ/मै अनंत हूँ/अपने एकांत पीठ का /मै महंत हूँ।
ऐसा स्वर उनकी कविताई को ही शोभा देता है। वे निरंतर सर्जन की नई गीत प्रतिभाएँ और गीत छवियो की तलाश की ओर अग्रसर हैं।कुछ मित्रो को लग सकता है कि वे कहीं कहीं स्वयं को दुहरा रहे हैं,लेकिन अक्सर वैसा होता नही।अपने जीवन और कवि कर्म के प्रति ईमानदारी उनकी खास पहचान है। वे पुरस्कार सम्मान आदि के प्रति सदैव उदासीन रहे।उत्तर प्रदेश सरकार से जब उन्हे साहित्यकार सम्मान मिला तब वे उसे गृहण करने लखनऊ नही जा पाए।मूल मे थी गोले –लखनऊ वे गोले की चिंता से मुक्त हुए बिना नही जा सकते थे,उसके साथ तो बिल्कुल ही नही जा सकते थे।तो गत पचास वर्षो मे इन्द्र जी के व्यक्तित्व की निर्मिति का मूल कारण गोले को कहा जा सकता है।गोले के प्रति वात्सल्य का भाव उनके मन मे स्पष्ट तौर से देखा जा सकता है।गोले उनके लिए मूक सरस्वती है और वो उस सरस्वती के मुखर कवि।जरा उनकी अधिकांश काव्य कृतियो के नाम देखिए- पथरीले शोर में,पंखकटीमेहराबें,दिन पाटलिपुत्र हुए,कुहरे की प्रत्यंचा,चुप्पियो की पेंजनी,आँखों मे रेत प्यास,पहनी हैं चूडियाँ नदी ने, हम शहर मे लापता हैं,धुँए के पुल,आँखों खिले पलाश,एक दीपक देहरी पर -आदि शीर्षकों को जरा इन्द्र जी की गोले के प्रति संवेदना को जोडकर देखिए तो इन अनेक गीत गजल और दोहा संग्रहो की रचनाओ के वास्तविक अर्थ खुलने लगते हैं।सतही तौर से लगता है कि एक अनवरत शांति और निराशा की अनंत काव्य राशि अनेक छवियो मे यहाँ बिखरी पडी है,परंतु वैसा है नही।वे समग्र जीवन की संवेदना के बडे गीतकार हैं।जैसा कि हमारे आसपास जीवन की विसंगतियाँ और विडम्बनाएँ चतुर्दिक पसरी हुई हैं वह सब भी इन्द्र जी के काव्य मे सतत स्वाभाविक रूप मे विद्यमान है।अर्थात युगबोध के बडे नवगीतकार तो वे हैं ही।इस अस्सी की उम्र मे उनका तेवर तो देखिए-
अस्तमित होते समय के
सूर्य है हम/जिसे जितनी चाहिए वह रोशनी ले ले।
ये जो सूर्य मुखी चेतना के गीत हैं वो उनकी प्रिय भूमि है क्योकि जहाँ तक मुझे याद है नवगीतदशक -1 मे भी कवि के सूर्यमुखी गीत संकलित हैं।उल्लास के स्वर प्राय: इन्द्र जी के गीतो मे कम ही देखने को मिलते हैं।इसका प्रमुख कारण उत्सवधर्मी उल्लास से उनकी वितृष्णा ही है। यह उत्सवधर्मी उल्लास के प्रति वितृष्णा का बोध उनकी अनेक रचनाओ मे साफ तौर पर देखा जा सकता है।निराला उनके आदर्श कवि हैं,लेकिन तमाम साहित्यकारों की तरह वे केवल निराला का नाम नहीं जपते वरन वे निराला को गहरे तक हृदयंगम करते हैं।इसका प्रमाण उनका कालजयी (खण्डकाव्य) है,जो निराला के प्रिय तुलसीदास वाले छन्द मे ही रचा गया है।देखें मनोहरा की छवि- सम्भ्रांत विप्र कुल की कन्या गुणवंती यथा नाम धन्या नागरी लता पर स्मित-वन्या-कलिका सी। अपरा-सरस्वती-ऋतंवरा सिद्धार्थमना ज्यों यशोधरा नव सूर्यकांत की मनोहरा-अलिका सी॥
निराला के अतिरिक्त इन्द्र जी ने डाँ.रामविलास शर्मा जी की आगरा कालेज वाली छवि बहुत करीब से देखी सुनी है।तात्पर्य यह कि उनके मन मे सचमुच निराला के प्रति अगाध श्रद्धा का भाव जीवंत है। इसके अतिरिक्त कई गीत निराला को स्मरण करते हुए इन्द्र जी लिखे हैं। जैसे निराला अपनी पुत्री को लेकर सरोज स्मृति जैसी शोक की महान कविता हिन्दी साहित्य को दे गये उसी परम्परा मे इन्द्र जी अघोषित रूप से गोले को लेकर सृजन रत हैं।अभी कुछ दिन हुए उन्होने निराला पर लिखी रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल,नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह,धर्मवीर भारती,हरिवंशराय बच्चन,शील,नरेन्द्र शर्मा और आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जैसे तमाम नए पुराने कवियो की कविताओ का संकलन वसंत का अग्रदूत शीर्षक से किया है जो हिन्दी साहित्य मे एक सन्दर्भ पुस्तक के रूप मे आदर पा रही है।
अंतत: उनके इस अनवरत अप्रतिम सृजन संसार के प्रति शुभकामनाएँ।ईश्वर से प्रार्थना है कि उन्हे शतायु करे तथा उनके सृजन को और भी दीर्घायु करे।
संपर्क:बी-235/एफ-1,शालीमार गार्डन,मेन,गाजियाबाद-5
फोन-9868031384
भारतेंदु भाई,
जवाब देंहटाएंआदरणीय 'इन्द्र' जी पर आपका यह ब्लॉग-आलेख, सच में, कई दृष्टियों से अनूठा बन पड़ा है| इसमें उनके व्यक्ति की सभी गरिमाएँ बड़े ही सार्थक रूप में प्रस्तुत हुई हैं - कवि के रूप में वे जितने वरेण्य हैं, उतने ही व्यक्ति के रूप में प्रेय भी हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है| मैं व्यक्तिगत रूप में उनके अहैतुक स्नेह का भाजन एवं साक्षी रहा हूँ| मेरी दृष्टि में, उनके माध्यम से नवगीत का जो अनन्य विस्तार हुआ है, उसका अन्य कोई जोड़ नहीं है - एक सर्जक के रूप में तो वे अनन्य हैं ही, तमाम नवगीत-संग्रहों की शताधिक भूमिकाओं, समीक्षा-टिप्पणियों एवं नवगीत पर उनके आलेखों ने नवगीत एवं अन्य नवगीतकारों को निश्चित ही एक सकारात्मक दिशा दी है - इस दृष्टि से भी उनके अवदान का आकलन ज़रूरी है| उनके द्वारा सम्पादित 'यात्रा में साथ-साथ' एवं 'हरियर धान रुपहरे चावल' जैसे समवेत नवगीत-संकलनों की नवगीत विधा के विस्तार में महती भूमिका रही है| आपने इस आलेख के माध्यम से मेरी तमाम पुरा-स्मृतियों को जगा दिया है, जिसके लिए मैं आपका अत्यंत आभारी हूँ| मेरा हार्दिक अभिनंदन स्वीकारें इस ब्लॉग-प्रस्तुति के लिए|
कुमार रवीन्द्र
आदरणीय ,आपकी इस टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।यह लेख उनके अस्सीवें वर्ष पर आने वाली पुस्तक के लिए लिखा है।भाई योगेन्द्र जी इस पर काम कर रहे हैं।
हटाएंभारतेंदु भाई,
जवाब देंहटाएंआदरणीय 'इन्द्र' जी पर आपका यह ब्लॉग-आलेख, सच में, कई दृष्टियों से अनूठा बन पड़ा है| इसमें उनके व्यक्ति की सभी गरिमाएँ बड़े ही सार्थक रूप में प्रस्तुत हुई हैं - कवि के रूप में वे जितने वरेण्य हैं, उतने ही व्यक्ति के रूप में प्रेय भी हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है| मैं व्यक्तिगत रूप में उनके अहैतुक स्नेह का भाजन एवं साक्षी रहा हूँ| मेरी दृष्टि में, उनके माध्यम से नवगीत का जो अनन्य विस्तार हुआ है, उसका अन्य कोई जोड़ नहीं है - एक सर्जक के रूप में तो वे अनन्य हैं ही, तमाम नवगीत-संग्रहों की शताधिक भूमिकाओं, समीक्षा-टिप्पणियों एवं नवगीत पर उनके आलेखों ने नवगीत एवं अन्य नवगीतकारों को निश्चित ही एक सकारात्मक दिशा दी है - इस दृष्टि से भी उनके अवदान का आकलन ज़रूरी है| उनके द्वारा सम्पादित 'यात्रा में साथ-साथ' एवं 'हरियर धान रुपहरे चावल' जैसे समवेत नवगीत-संकलनों की नवगीत विधा के विस्तार में महती भूमिका रही है| आपने इस आलेख के माध्यम से मेरी तमाम पुरा-स्मृतियों को जगा दिया है, जिसके लिए मैं आपका अत्यंत आभारी हूँ| मेरा हार्दिक अभिनंदन स्वीकारें इस ब्लॉग-प्रस्तुति के लिए|
कुमार रवीन्द्र
आदरणीय भ्रातावर, नवगीत और छंद से सम्बन्धित आपके आलेख जहाँ कहीं भी मुझे मिलते हैं, एक नई दृष्टि,नई सोच प्रदान करते हैं. उम्र के अस्सीवें सोपान पर भी कविता/नवगीत के लिए प्रतिबद्ध होकर नये प्रतिमान रचना एक साधक कवि के बूते की ही बात है. नवगीत के सिलसिले में पिछले एक वर्ष में आपके लेखों ने बहुत सी अपरिचित बातों से साक्षात्कार कराया है,समकालीन नवगीतकारों की वैविध्यपूर्ण रचनाधर्मिता से परिचित हो सका हूँ, यह आलेख भी उसी की एक कड़ी है. छन्दबद्ध कविता और नवगीत के एकल तथा संकलन सभी में देवेन्द्र शर्मा'इन्द्र' का नाम आवश्यक रूप से अंकित देखकर सदैव सोचता रहा की अवश्य ही वे बड़े कवि होंगे. हालाँकि इसमें मेरी अल्पज्ञता का ही दोष है. यहाँ उनके बारे में पढ़कर जिज्ञासा का शमन भी हुआ और उनके नवगीत पढने की लालसा भी बलवती हुई है. आपको ह्रदय से आभार.
जवाब देंहटाएंसचमुच इन्द्र जी बडे कवि हैं।जैसा कि आपने स्वीकार भी किया कि उनका नाम अधिकांश संकलनो की भूमिका आदि मे दिखाई देता है वह सही है।
हटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंछंद प्रसंग में दो मूर्धन्य ,वरिष्ट ,शीर्षथ साहित्यकारों सम्माननीय श्री देवेन्द्र शर्मा इंद्र एवम माहेश्वर तिवारी के अतुलनीय नवगीत के अवदान तथा उनके स्रजन के प्रेरणाश्रोत [विशेष रूपसे ]इंद्र जीके सम्बन्ध मेंआपने अपने
जवाब देंहटाएंआत्मीयता के आधार पर जो प्रकाश डाला उससे अभिभूत हुआ यध्यपि बहुत पहले मेरे तथा उनके सहपाठी
सम्मानीय यतींद्रनाथ राही ने बातोंबातों में प्रकाश डालाथा उनकी बेटी के सम्बन्ध में ,आज उससे उनके स्नेह त्याग की कहानी से गुजरना अविश्मर्नीय होगया .सौभाग्य से उनकी जन्मतिथि ०१.०४ .१९३४ मेर्री भी है और उनकी
शुभकामनाएं/शुभाशीश मेरे साथ हैं जबसे उनसे दूरभाष से राही जी के माध्यम से परिचय हुआ .दोनों शतायु की
कामना के साथ ताकि साहित्य को उनके अमूल्य स्रजन की धरोहर अगली पीढ़ी सदियों लाभान्वित होती रहे .
इस सबका श्रेय डाक्टर भारतेंदु मिश्र जी को देना चाहूगा जिन्होंने अपने विदुतापूर्ण समसामयिक आलेखों से हम सब तक पहुँचाया .डाक्टर मिश्र जी से मेरा पहला परिचय स्व निर्मम जी से भोपाल में हुआ था उसके बाद उनके भोपाल के की प्रतिष्ठित साहित्य कार्यक्रमों की सहभागिता के समय तथा इंटरनेट पर हुआ उस सबकी यादें ताज़ा हो गईं .,शत शत बधाई.इस सबको आप अन्यथा न लें इन सबके साहित्यिक अवदान मेरे लिए प्रेरणा के श्रोत हैं
जय जय राम आनंद जी आपका आभार ,इस सुन्दर और प्रेरक टिप्पणी के लिए|
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