समीक्षा
" हो गए बेशर्म नेता” // डॉ भारतेंदु मिश्र
ये नेताओं की बेशर्मी केवल राजनीति में ही नही बढी है, बल्कि जाति बिरादरी, साहित्यिक,सांस्कृतिक संगठनों,बाजारों और मजदूर किसान संगठनों के नेताओं में भी लगातार ख़ास किस्म का उन्माद, कमीनापन, निजी स्वार्थ वगैरह के लक्षण साफ दिखाई देने लगे हैं|आचार्य भागवत दुबे का नाम हिन्दी की छंदोबद्ध कविता के लिए नया नहीं है| मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी जबलपुर में उनका निवास है लेकिन उनकी कविता नर्वदा की जलधारा के सामान बहुत दूर तक प्रसरित हो चुकी है| कवि के पास पूरी सांस्कृतिक परंपरा आँखों के सामने जीवंत है| कंदमूल फल की सुगंध की तरह उनकी धरती आदिवासियों से लेकर वैश्विक पर्यटन तीर्थ तक फ़ैली हुई है | | छांदस स्वर के कवि हैं| गीत, गजल, दोहा, नवगीत सब कुछ उनकी कविताई का अंग बना है| वे लगातार सहज मन से सक्रिय हैं| हालांकि अब किसी भी रचनाकार की कविताओं में विषयवस्तु की एक रूपता सामान्य बात है| तात्पर्य यह कि लोग एक जैसी समस्याओं और वंचनाओं का शिकार हो रहे हैं| इन एक जैसी विसंगतियों को एक साथ जीते हुए वे अपनी कठिनाइयों का चित्रण भी अपनी भाषा और अपनी काव्य सामर्थ्य से कर रहे हैं| इसके बावजूद केवल काव्य सामर्थ्य और भाषा ही कविता नहीं है| केवल छंद ही कविता नहीं है,कविताई तो जीवन के अनुभव से आती है| भाषा का लालित्य और काव्य शिल्प तो अभ्यास से चमक जाते हैं| जीवन का अनुभव परिस्थितियों से जूझने और जूझकर बाहर निकलने से मिलता है | भगवत दुबे इस दृष्टि से भी अनुभव संपन्न कवि प्रतीत होते हैं| आपने दधीचि पर महाकाव्य भी लिखा है गीत नवगीत गजल के तो अनेक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं
“भूखे भील गए’ शीर्षक उनका नया नवगीत संग्रह देखने को मिला| इसमें एक सौ पांच गीत हैं|कवि जब भीलों की भूख का जिक्र करता है और उन्हें अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ले जाने वाले स्वार्थी सरकारी गैरसरकारी संगठनों द्वारा चलाये जा रहे विकास कार्यक्रमों की सच्चाई व्यक्त करता है तो उनके दुख को मांजता हुआ दिखाई देता है | किसी असमर्थ या अक्षम के दुख को समझना उसे मांजना और फिर समाज के सामने रेखांकित करना कविताई का परम प्रयोजन है | कवि के शब्दों में देखिये -
कभी न छंट पाया
जीवन से विपदा का कुहरा
राजनीति का इन्हें
बनाया गया सदा मुहरा
दिल्ली लोक कला दिखलाने
भूखे भील गए |
ऐसे अनेक बिम्ब इस संग्रह के गीतों में देखने को मिलते हैं| हम दलालों, ठेकेदारों, भ्रष्ट नेताओं लुटेरे सुरक्षा कर्मियों और महाझूठ की सौदेबाजी करने वाले समाज सुधारकों से घिरे हुए हैं| समझना मुश्किल है कि कौन कब किस रूप में किसी को भी लूट सकता है,और अब तो कम्पनियां मोबाइल में घुसकर ऐसे लूटती हैं कि लुटने वाले को पता भी नहीं चलता | ये आपदाओं का समय है| सर्वत्र विपदाओं का कोलाहल है| असल में आम आदमी की किसी को चिंता नहीं है कवि के शब्दों में -
बुद्धिवादियों की कविता है
नीरस और उबाऊ
मात्र मंच की चुहलबाजियाँ
औ मसखरी बिकाऊ
नैतिकता औ राष्ट्रवाद से
वंचित हुआ सृजन |
ये सही है कि कविता आम आदमी से दूर हो गयी है|लेकिन ये नैतिकता और राष्ट्रवाद की भी दूकानदारी हो रही है |इस लिए हमने सच्ची जन सामान्य की नैतिकता और सच्चे किसान मजदूर वाले राष्ट्रवाद को समझने की आवश्यकता है| हम एक संगठन विशेष से जोड़कर नैतिकता और राष्टवाद को परिभाषित नहीं कर सकते | आम आदमी से पार्टियों का चिंतन विमुख हो गया है इसमें दो राय नहीं है| सब कुर्सी की और भाग रहे हैं| लेकिन कवि की नैतिकता कुछ अलग होती है | कवि सत्ता के सामने खडा होता है सत्ता के आगे पीछे नहीं चलता| सवर्णों की और से कवि आरक्षण पर कटाक्ष करता है-
’कौए,बगुले आरक्षण के मोती पाते हैं
राजहंस अपनी सवर्णता पर पछताते हैं
राजनीति ने लगा दिए किस्मत पर ताले हैं"|
यहाँ सवर्ण को राजहंस और अन्य आरक्षित जातियों को कौए बगुले न कहा जाता तो अच्छा होता | जातियां तो हमने ही बनाई हैं| अरक्ष्ण भी संविधान ने दिया है तो सवर्णवादी होना बुरा नहीं है लेकिन दूसरों पर अनुचित कटाक्ष करना उचित नहीं है| असल में कविता मनुष्यता की भाषा है | जाति बिरादरी से ऊपर मनुष्यता की प्रतिष्ठा करती है |पुस्तक में कवि के गीतों पर मधुकर अस्थाना जी ने मुग्धभाव से लम्बी भूमिका लिखी है| और गहन विश्लेषण किया भी है | दुबे जी की कविताई उनके छान्दस शिल्प और विषय वस्तु में कहीं कोई कमी नहीं है | कहीं कहीं उनके विचार नई सदी के जीवनमूल्यों से मेल नहीं खाते | हालांकि भाषा बिम्ब प्रतीक आदि की द्रष्टि से उनके इन गीतों में भी आचार्य भागवत दुबे का आचार्यत्व प्रतिष्ठित हुआ है |
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भूखे भील गए/ (गीत नवगीत ) / आचार्य भागवत दुबे /पाथेय प्रकाशन जबलपुर ,म.प्र.
फोन-9300 613975
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