बुधवार, अगस्त 26, 2020

 

 

‘ये भी क्या बात बनी’

# डॉ भारतेंदु मिश्र 

अक्सर आदमी अपने सपने के लिए जो बोता है फसल के रूप में वो उसे काटने खाने को नही मिलता, इस जीवन की यही विसंगति है| गुलाब बोने वालों को अक्सर नागफनी की फसल दिखाई देती है| ये समाज और मानव व्यवहार कुछ ऐसा ही है| कवि इस तथ्य को जानता है इस पंक्ति के अपने निहितार्थ  भी हैं |

भाई आवारा नवीन के साथ युवा रचानाकार मंच,लखनऊ में काम करते हुए बहुत से साहित्यकारों कवियों से मुलाक़ातें होती रहीं| उनदिनों साहित्य को लेकर एक दीवानगी होती थी| अस्सी के दशक में खासकर आठवें दशक के पूर्वार्ध में हमारा ये युवा रचनाकार मंच बहुत सक्रिय रहा| सीखने, पढ़ने, जानने के दिन थे| जो मिल जाता उसको सुनते ,भाषा संस्कृति और कविता के सरोकार पर बात होती थी|उन्ही दिनों नवीन जी से सेंवढ़ा (दतिया) के साहित्यकारों की भी बात होती थी| सेंवढ़ा मध्यप्रदेश का वह स्थान है जिसमें हिन्दी कविता के आदिकाल की व्याख्या विवेचना होती रही है| उन्ही दिनों गीतकार कवि रामस्वरूप स्वरूप से भी एकाधिक मुलाकातें हुईं | फोन पर भी अनेक बातें हुईं हैं , किन्तु उन्हें और उनके गीतों को तभी सूना भी था | वे  नवीन जी के संबंधी हैं और अक्सर लखनऊ आते जाते रहते थे | सन 1986 में मैं नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आ गया तो लखनऊ और अपने मंच से बहुत हद तक कट गया|

सेंवढ़ा तभी से मेरे लिए आकर्षण का केंद्र बना रहा| वहां स्थित कालेज के हिन्दी विभाग में उनदिनों प्रो.सीता किशोर जी थे,उनसे भी उन्ही दिनों से पत्राचार शुरू हुआ था|प्राचीन कविता खासकर आल्हखंड की पाठ्यचर्या की दृष्टि से उनके व्याख्यान बहुत महत्वपूर्ण होते थे| उनसे जो मेरा पत्राचार शुरू हुआ था वो यहाँ दिल्ली कार भी जारी रहा| धीरे धीरे पता लगा कि सीता किशोर जी और रामस्वरूप स्वरूप जी एक ही कालेज में कार्यरत हैं | रामस्वरूप जी कार्यालय में और सीता किशोर जी हिन्दी विभाग में प्राध्यापक थे| बहुत मन हुआ कि सेंवढ़ा जाकर वहां के कालेज और वहां के हिन्दी आचार्य सीता किशोर जी के निकट से दर्शन करूं लेकिन वह  संयोग नही बना सका| मैं सात महीने ललितपुर रहा ओरछा,बरुआ सागर, मऊरानी पुर देखा तब भी कोशिश की सेंवढ़ा पहुँचने की लेकिन संभव न हुआ |

बाद में नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आ चुका था| सेंवढ़ा फिर भी मन में बसा था| नवीन भाई के साथ अनेक अफलातूनी योजनाएं भी बनीं और असफल होती गयीं| उनदिनों मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध कर रहा था| कैम्पस में अक्सर बड़े बड़े विद्वान आते जाते रहते थे| एक दिन एक मित्र से सूचना मिली कि किरोड़ी मल कालेज में कोई आल्हखंड के बड़े विद्वान पधारे हैं| वे आदिकाल पर व्याख्यान देने वाले हैं | मेरा विषय तो संस्कृत रहा है लेकिन रिसर्च फ्लोर पर इस प्रकार की खबरें सुनकर हम कई मित्र ऐसे विद्वानों को सुनने पहुँच जाते थे| वो डॉ.नागेन्द्र और डॉ.विजयेन्द्र स्नातक का समय था, उन दिनों तक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग पर डॉ नामवर सिंह की छाया तब तक नहीं पड़ी थी |  दिल्ली वि.वि. के केन्द्रीय पुस्तकालय के सामने स्थित पार्क में भी अक्सर बैठकें होती थीं| उस दिन भी गोविन्द प्रसाद, हरीश नवल,विनय विश्वास,बली सिंह,जैसे और भी साथी थे | सीताकिशोर जी नाम सुनकर मन में बहुत रोमांच हो आया| ये सूचना कुछ देर से मिली थी| फिर भी हम लोग उन्हें सुनने किरोड़ी मल कालेज पहुँच गए| व्याख्यान के बाद सीता किशोर जी से अपना परिचय बताया उन्हें प्रणाम किया तो मेरे कंधे पर हाँथ धरकर वो बहुत देर तक मन से आशीर्वाद देते रहे, मेरी कुशल क्षेम पूछते रहे| तब भी उनसे डॉ. कामिनी जी और रामस्वरूप जी के बारे में चर्चा हुई|  विडम्बना देखिये अभी तक  सेंवढ़ा इस तरह मेरे मन में किसी कहानी के रूप में बसा है,हालांकि अभी जाना नहीं हो पाया |

अब कुछ रामस्वरूप जी के गीतों की बात भी करूंगा| असल में ग्वालियर और आसपास की धरती गीत की उर्वरा धरती रही है| सेंवढ़ा भी निकट ही है तो वीरेन्द्र मिश्र ,मुकुटबिहारी सरोज,महेश अनघ,राजेश शर्मा,विष्णुश्रीवास्तव आदि अनेक गीतकारों से तथा उनकी रचनाधर्मिता से थोड़ा बहुत परिचय रहा है| लेकिन रामस्वरूप जी मंच से जुड़े गीतकार हैं |

मंच पर श्रृंगार ज्यादा गया जाता है, शायद वही चलता भी है--

एक तो मौसम मोरपंखिया

उस पर तुम हो पास

शहद घोल दी दूध में जैसे

इतनी बढी मिठास|

ये श्रृंगार की मिठास सार्थक कवि मंच पर अभी गाई जाती है| गाँव गिरांव में कहीं कहीं बची भी हो शायद लेकिन अब जीवन में सहज नही रही| एक और बिम्ब देखिए -

सन्दर्भ महके रात भर तेरी कहानी के

आंजुरी भर फूल जैसे रात रानी के |

आज भी कविसम्मेलन के मंच पर ऐसे काजर आँचर और स्त्री प्रेम के रूप सौन्दर्य के गीत बड़े मन से सुने सराहे जाते हैं| लेकिन जब गीत  में दार्शनिक बोध का आस्वाद भी उजागर होता है तो कवि उल्लेखनीय हो जाता है-

बदले है रोज वस्त्र मैले से उजरे

तन से तो लगें मस्त,मन से हैं दूबरे

जाने कब टूट जाय ,साँसों की अरगनी

कैसी ये जिन्दगी सुबह शाम अनमनी |

कवि जानता है जीवन की हकीकत को और मन के अनमनेपन  को | ये अनमनापन  ही हम सबकी विसंगति है जो हमे कविता से जोड़ता है| यही अस्थिरता का दुःख गीत की जीवनी शक्ति है| एक और प्रयोग देखें -

ये भी क्या बात बनी

बोए गुलाब

उगा आयी नागफनी |

इस गीत में कवि नवगीत की संवेदना के बहुत निकट आ गया है| लेकिन मंचीय कविताई ही रामस्वरूप जी के गीतों का मूल स्वर है| उन्हें दीर्घायु होने की और स्वस्थ सानंद रहने की शुभकामनाएं |

 संपर्क:--- सी-45/वाई -4 ,दिलशाद गार्डन,दिल्ली -110095

फोन-9868031384 

 

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