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गुरुवार, जुलाई 09, 2020
😢कुलीन कवि अब नहीं गाते
भारतेंदु मिश्र
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हिन्दी के कुलीन कवियों और कुलीनताबोध वाले संपादकों के लिए जिन्हें छन्दोबद्ध कविता पिछड़ी हुई,लोक भाषा की कविता जड़ और ठहरी हुई लगती है|जिन्होंने लोकभाषा को निष्ठापूर्वक बड़ी जतन से बोली में तब्दील कर दिया और छंदोबद्ध कविता लिखने वाले अकुलीन कवियों के लिए कुछ पत्र पत्रिकाओं में नो इंट्री का बोर्ड लगा रखा है|हिन्दी कविता की सत्ता पर बने रहने के लिए शायद ये अपरिहार्य हो --
वे गहरे पैठकर गढ़ते हैं खबरों का वाग्जाल भद्रभाषा में भद्रलोक के लिए कश खींचकर समस्याओं पर उछालते है गंभीरतम सवाल पिछड़ेपन पर विवादों और अनुवादों में लिप्त रहे सपने में भी हंसिया कभी पकड़ा नहीं हथौड़ा कभी उठाया नहीं समुद्र से पहाड़ तक लालटेन लेकर अडिग भाव से व्यस्त हैं दो पैग के अभ्यस्त हैं फिसलन भरी हवाई चर्चा में युयुत्सु की भांति डटे हैं पुराने खोखले बांसों में खोजते फिरते हैं सुदूर चर्च की घण्टियों के सुर इसलिए समूह के झुरमुट से सटे हैं और पथरा गए हैं पठार से टेसू वन के करुण गीत इन्हें नहीं लुभाते इकतारे पर बजती किसान मजदूर की अनगढ़ छंद लय धुनिया के धनुष की खोई हुई धुन जलते हुए बरगद के बिम्ब गेरू के छापे चीड़ों पर बिखरी चांदनी और नदी के गीत इन्हें नहीं सुहाते भद्र भाषा में इनका अनुवाद संभव नही हैं इसलिए कुलीन कवि अब नहीं गाते।
Pankaj Parimalऐसी ही स्थिति की मेरी एक नई कविता है--लड़कियों ने नहीं गाए गीत। कुलीन लोग जरूरत पड़ने पर गाना बजाना भी ठेके पर करवाते हैं। खुद गाना पिछड़ापन हैं।
Ranjit Patelलय साधते हुए कुछ कवि बूढ़े हो जाते हैं वही कुछ लोग दिन भर में पांच गीत लिख लेते हैं। जीवन के हजारों रंग हैं किन्तु शब्दों को बलात ठूँसकर प्रतिरोध में लिखना बड़े कवि की पहचान बनती जा रही हैं। सुंदर मीमांसा, बहुत बहुत बधाई आदरणीय!
डॉ. हीरालाल प्रजापतिसचमुच जिसे देखो तुकांतिकीय कविताओं या छंद या बहर में लिखने वालों को लकीर का फ़कीर कह रहा है जबकि इन रचनाओं का वास्तविक और पूर्णतः नियमबद्ध फ्रेम वर्क कितना दुरूह है यह एक रचनाकार ही जानता है । www.kavitavishv.com
राम सेंगरअपनी एक लंबी प्रगीतात्मक कविता में हमने तो बखिया उधेड़ कर रख दी है इनकी । उस चुनौतीपूर्ण कविता में क्या नहीं कहा हमने , लेकिन , अब जो आपके सुर में सुर मिलाकर गाल बजा रहे हैं , इनमें से एक भी मेरी उस कविता के पक्ष में खड़ा नहीं हुआ । कुलीनों और शालीनों की कमी नवगीत में भी नहीं है । ज़माने बीत गये , नयी कविता के विरुद्ध प्रतिरोधी-स्वर और संकल्प लेकर नवगीत के कितने पक्षकार हैं जो खुलकर आगे आये ।
Prabhat Kumar Tyagiप्रश्न यह है कि क्या आज के कवि कुलीन कवियों से ज्यादा ईमानदार हैं।जो हंसिया हथौड़ा चलाते हैं वो कविता नहीं पढ़ते।जो पढ़ते हैं या लिखते हैं उन्होंने भी हंसिया या हथौड़ा नहीं चलाया।ऐसे में इस लेखन को कौन पढता है।यह किसके लिए लिखा जा रहा है। मित्र भेंड़ों को छोड़ कर पाठक कहाँ है।लुप्त पाठक की तलाश करें कुलीन और अकुलीन दोनों तरह के कवि।
Prabhat Kumar TyagiBhartendu Mishra यह सिर्फ कुछ विचार थे जो आपकी कविता पढ़ कर दिमाग में आये।ये एक brainstorming जैसी बात थी जो सीधी सीधी आपसे सम्बद्ध नहीं थी।
Ramsanehilal Sharmaबहुत प्रभावी बन्धु ।बिखण्डनवाद , उत्तर आधुनिकतावाद और मार्क्सवाद की धुंध में लिपटा बे-चारा कुलीन कवि अब लय साधे या बिखण्डन ।बड़ी दुविधा है मिश्र जी ।काहे की लय फ़य फ्यूचर तो ससुर बिखण्डनवाद में ही है ।विश्वकवि बनने का दिवास्वप्न साफ साफ दिखता है
Abhiranjan Kumarभारतेंदु भाई, अब इन कथित कुलीन कवियों को कोई नहीं पढ़ता। खुद ही लिखते हैं, खुद ही पढ़ते हैं और गिरोह में एक दूसरे को पीर और मुल्ला कहते हैं। आम पाठकों में इनका खेल खत्म है।
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