शुक्रवार, दिसंबर 20, 2019


## नवगीत के उद्गाता : वीरेन्द्र मिश्र

#भारतेंदु मिश्र
नवगीतकार वीरेन्द्र मिश्र

जन्म से मुझको मिली है
जो विरासत में निशानी
वह निशानी गा रहा हूँ
मन नहीं बहला रहा हूँ||(जिन्दगी का गीत-127 गीतम)
हिन्दी नवगीत के उन्नायकों में शंभुनाथ सिंह  ,मुकुट बिहारी सरोज,ठाकुर प्रसाद सिंह ,रमेश रंजक,देवेन्द्रकुमार,रामदरस मिश्र, राजेन्द्र प्रसाद सिंह ,देवेन्द्र शर्मा इंद्र  जैसे जिन यशस्वी गीत नवगीत कवियों का उल्लेख लगातार किया जाता है उनमें वीरेन्द्र मिश्र जी का नाम भी अग्रणी रूपसे चर्चित रहा है| शंभुनाथ सिंह जी की 'नवगीत दशक' योजना में शामिल न होने के कारण उनकी चर्चा कम होती है | वीरेन्द्र मिश्र जी अपने सांस्कृतिक मूल्य और जीवन के सरोकारों को भली भाँति  जानते हैं, जीवन के दुःख और दर्द को समझते हुए रूढ़ियों को संशोधित करते हुए नवगीत के पथ पर आते हैं|वे  केवल मारवाड़ी श्रोताओं का मन बहलाने वाले मंचीय कवि कभी नहीं रहे| सौभाग्य वश उन्हें मध्यप्रदेश की धरती ग्वालियर और इंदौर जैसी सांस्कृतिक भूमि मिली तो दूसरी और वे मुम्बई और दिल्ली जैसे महानगरों में भी जीवन समग्र का अनुभव करते रहे| निश्चय  ही ‘नवगीत दशक 1’ में संग्रहीत उस समय के सभी दसों नवगीतकारों की तुलना में वे कहीं कम  श्रेष्ठ नवगीतकार नहीं थे| नवगीत दशक योजना में उन्हें तथा रमेश रंजक का  शामिल न होना डॉ शंभुनाथ सिंह जी की संपादकीय भूल थी| उन्होंने देश की स्वतंत्रता के बाद  नवाचार के आन्दोलन और नवता के विहान का स्वागत करते हुए उस समय अर्थात 28 फरवरी 1949 को नव निर्माण प्रतीक्षा वाले समय में लिखा था-
दूर होती जारही है कल्पना/पास आती जा रही है जिन्दगी
आज आशा ही नहीं विश्वास  भी/आज धरती ही नहीं आकाश भी
छेड़ते  संगीत नव निर्माण का/गुगुनाती जा रही है जिन्दगी
भ्रम नहीं यह टूटती जंजीर है/और ही भूगोल की तस्बीर है
रेशमी अन्याय की अर्थी लिए /मुस्कुराती जा रही है जिन्दगी|(गीतम -81)
 वीरेन्द्र जी ने अपने पहले गीत संग्रह ‘गीतम’ से ही कल्पना की थोथी उड़ानों को विराम देने और जीवन की विसंगतियों को भरपूर जी लेने  का मन बना लिया था| उक्त गीत में उन्होंने आजादी और उसके बाद बनते  बिगड़ते नए  भूगोल की और भी संकेत किया  है| तात्पर्य यह कि नवता की अवधारणा वीरेन्द्र मिश्र जी के गीतों में स्वतंत्रता के आरम्भ से ही देखने को मिलती है| नवगीत आन्दोलन के महत्वपूर्ण योद्धा तो वे थे ही|लेकिन फिल्मों में गीत  लिखना और कविसम्मेलनों में शामिल होना जैसे कतिपय कारणों से उपजे  मतभेद के कारण डॉ शंभुनाथ सिंह जी ने उन्हें ‘नवगीत दशक’1 में नहीं शामिल किया|हालांकि नवगीत दशक योजना के क्रियान्वयन के समय तक उनके कई नवगीत संग्रह भी प्रकाशित हो चुके थे| बाद में जब शंभुनाथ जी उन्हें शामिल करने का मन बना रहे थे तो वे स्वत: शामिल नहीं हुए| उनकी सजग और विशाल रचनाशीलता को विवेचित करते हुए माहेश्वर तिवारी कहते हैं- ‘भटकाने वालों की भीड़ में वीरेन्द्र मिश्र के गीत विश्वसनीय ढंग से रचनात्मकता की मशाल के रूप में सामने आते हैं|इस मशाल से सिर्फ आपको अपना रास्ता ही साफ़ दिखाई नहीं देगा बल्कि अपनी जमीन और उसके सरोकार साफ साफ नजर आयेंगे|’ (हिन्दी नवगीत सन्दर्भ और सार्थकता-144)
वीरेन्द्र मिश्र जी का जन्म 1 दिसम्बर 1927 को मध्य प्रदेश के मुरैना जनपद में हुआ,और देहांत 1 जून 1999 को हुआ | नौ वर्ष की आयु में ही शिक्षक पिता श्री चंद्रिका प्रसाद मिश्र जी के माध्यम से बच्चन जी की मधुशाला पढ़ने को मिली| उसे पढने से वीरेन्द्र मिश्र का कवि  बेहद प्रभावित हुआ| गीत नवगीत की प्रगतिशील चेतना ने आगे चलकर अपनी स्वतन्त्र छवि निर्मित की| इस 72 वर्ष की आयु में उन्होंने गीत और नवगीत को आकाशवाणी और दूरदर्शन के मंचों पर बहुत करीने से स्थापित किया था| इस लम्बे कालखंड में उनके अनेक गीत नवगीत संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें –गीतम(1953 ),लेखनी बेला (1957 ) , अविराम चल मधुवंती(1967 ),झुलसा है छायानट धूप में(1980), धरती गीताम्बरा (1982)शान्ति गन्धर्व (1984),गीत पंचम(1987), कांपती बांसुरी (1987)उत्सव गीतों की लाश पर (1990),वाणी के कलाकार (1991) सूर्यमुखी चंद्र्कौंस (1991) आदि उल्लेखनीय हैं| इसके अतिरिक्त बच्चों के  लिए भी उनके  -‘अपना देश महान’,’काले मेघा पानी दे’, ‘मेरी छोटी सी किताब’  जैसे गीत संग्रह  और कुछ काव्य रूपक भी प्रकाशित हुए| कुछ संगीत रूपक भी उन्होंने आकाशवाणी के लिए लिखे जो बेहद चर्चित रहे| ‘ हरिश्चंद तारामती’ और ‘बदनाम बस्ती’ जैसी कई फिल्मों केलिए मुम्बई में रहकर बालीवुड के लिए भी उन्होंने गीत लिखे थे| उनके गीतों को मोहमद रफ़ी और लतामंगेशकर  जी ने भी गया था| उनके गीत तो चले लेकिन बाद में कुछ फ़िल्में नहीं चलीं तो वहां से मन उचट गया|
वीरेन्द्र मिश्र जी का जीवन समग्र गीतमय था| उनके गद्य और साक्षात्कारों की एक पुस्तक – “पंख और पांखुरी’’ भी प्रकाशित हुई| उनका गद्य बहुत काव्यात्मक यथार्थ और ललित छवि से युक्त है,बापू के हत्यारे को लेकर ‘बीसवीं सदी का हत्यारा’ शीर्षक निबंध में वे लिखते हैं –
‘प्रार्थनासभा के लोग बैठे ही रह गए|नेहरू मिल भी नहीं पाए,देश संभाल भी नहीं सका और यह सब बिना समझे हत्यारे ने ह्त्या की|उसको उन बातों से मतलब? वह तो अपना काम कर चुका|न अपने पर घृणा,न अफसोस| वह  क्या जाने कि नोआखाली ,बिहार और पंजाब में हुई ह्त्याओं  का जो सामूहिक महत्व है उससे कहीं अधिक महत्व अकेले बापू के महाप्रयाण का है| हत्यारा यह कुछ नहीं समझता,न समझना चाहता है|’(पंख और पांखुरी -214)
आकाशवाणी से जुड़े रहने के कारण उन्हें मंचों पर अक्सर आमंत्रित किया जाता था| उनका प्रस्तुतीकरण  बेहद सरस और अर्थवाही था| एक समय में वीरेन्द्र मिश्र के गीतों की चारों और धूम थी| वर्ष 1986 में मैं जब दिल्ली आया तो उनसे भी मुलाक़ात हुई| हालांकि इससे पहेल उन्हें ‘लखनऊ महोत्सव’ में सुन चुका था| उन्हें लगातार पत्र पत्रिकाओं में पढ़ते हुए उनसे मिलने की इच्छा बलवती होती गयी| उन्हें तब पत्र लिखता था इसी बीच संभवत: ‘इसाक अश्क’ जी की पत्रिका-‘समान्तर’ में मेरा भी कोई गीत प्रकाशित हुआ था| मेरे पत्रों के जवाब में उसे पढ़कर मेरे पते पर वीरेन्द्र जी ने एक संक्षिप्त पोस्टकार्ड लिख भेजा कि – ‘इन दिनों कर्जन रोड स्थित कामकाजी महिला आवास ,नई दिल्ली में ठहरा हूँ किसी दिन मिलें तो अच्छा लगेगा|’ मुझे तो मन की मुराद मिल गयी थी| पत्र में फोन नंबर भी लिखा था सो फोन करके उनेसे समय लेकर कर्जन रोड स्थित उनकी सुपुत्री-गीतम मिश्र जी के आवास पर पहुँच  गया | पहली मुलाक़ात में ही उनसे बहुत स्नेह मिला| घर में उस समय कोई अन्य नहीं था सो उन्होंने स्वयं मेरे लिए चाय बनायी और देर तक नवगीत आन्दोलन पर बात करते रहे| तभी उन्होंने मुझे अपनी पहली गीत पुस्तक ‘गीतम’ भेंट की | बाद में और भी कई मुलाकातें हुईं ‘चौथी दुनिया’ के लिए मैंने उन्ही दिनों उनसे एक साक्षात्कार भी किया था,जिसकी चर्चा देश भर में हुई| मैं युवा था और नवगीत सीखने के दिन थे,तबके दौर में उनके जैसे बड़े साहित्यकार पत्र लिखकर मुझ जैसे युवा को उत्साहित करते थे|
वीरेन्द्र जी से नवगीत पाठ करने की शैली सीखी जा सकती थी| नवगीत के पाठ्य को अनाहत किये जाने वाली सरस प्रस्तुति क्या हो सकती है यह उनसे मुझे सीखने को मिला|उनका उच्चारण बेहद स्पष्ट और भावानुसारी था| हृदयंगम करने वाले आरोह और अवरोह भावानुसार अभिव्यक्ति उनके गीतों को हृदयग्राही बनाता था| मेरे मन में गीत और नवगीत का अंतर भी तब कुछ कुछ साफ़ होने लगा था| वीरेन्द्र मिश्र जी के प्रारम्भिक गीतों पर स्पष्ट रूप से छायावादी कविता का प्रभाव खासकर अध्यात्मिकता,प्रकृति के माध्यम से चित्रण और राष्ट्रीय चेतना के स्वर विद्यमान है| यह उस दौर के सभी गीतकारों पर किसी न किसी रूपमें परिलक्षित होता है|
‘पवन सामने है नहीं गुनगुनाना
 सुमन ने कहा पर भ्रमर ने न माना ||’
जैसे उनके प्रारंभिक अनेक गीतों में छायावादी प्रवृत्तियां देखी जा सकती है| किन्तु पचास वर्षों की गीत यात्रा में नवाचार और नवगीत के अनेक स्वर उनके संग्रहों में देखे जा सकते हैं | ‘लेखनी बेला’ ‘गीत पंचम’और ‘शान्ति गन्धर्व’ जैसे गीत संग्रहों के गीतों में व्यवस्था विद्रोह  और जनजीवन की विसंगतियाँ प्रखर रूप से अत्यंत मुखर हुई हैं|
‘पतझर कुर्सी पर बैठा है, इस बार न जाएगा
दल बदल रहे सामंत सुमन हर रंग उड़ जाएगा
ऊंचे कुबेर पर्वत पर बंधक सारस्वत वाणी
ऋतु  राजा/ऋतु रानी| (गीत पंचम-163 )
नवगीत के प्रखर बिम्ब और प्रयोग उनके काव्य वैभव को प्रतिष्ठित करते चलते हैं| ऋतु ही राजा है और ऋतु रानी भी है| इस सन्दर्भ में व्यंग्य करते हुए पतझर के माध्यम से वीरेन्द्र जी कालिदास की प्रणय चेतना और मेघदूत की पीड़ा तक पहुचने का जतन करते हैं| असल में पतझड़ ऋतुराज वसंत की कुर्सी के या कि सत्ता के पतन का भी प्रतीक है| वही क्रूर पतझड़ राजा  सत्ता पर बैठकर कालिदास जैसे कवियों की सारस्वत वाणी को बंधक बनाने का जतन कर  रहा है| सुमन का अर्थ सुन्दर मन वाले सहृदय सहज व्यक्ति से लगाकर देखें |गीत की व्यंजना चक्राकार होती है और कुशल गीतकार वीरेन्द्र मिश्र जी अनेक शब्द शक्तियों से  और अर्थ व्यंजनाओं से अपने गीत सजाते हैं| ‘अविराम चल मधुवंती’ शीर्षक संग्रह का एक नवगीत अंश देखें-
डसने के बाद सर्प खिसका है/चूसे विष कौन दाय किसका है
जल तरंग में गरल,मधुवंती /फिर भी अविराम चल मधुवंती |(अविराम चल मधुवंती)
असल में वीरेन्द्र मिश्र जी अविराम गीत से माधुरी बिखेरने और सुरभि वितरित करने वाली लय संवेदन यात्रा के संवाहक हैं| समाज का विष पीकर भी कवि सदैव मधुर सकारात्मकता का सन्देश देता हुआ चलता है|वीरेन्द्र जी के नवगीतों में युग का यथार्थ सत्ता और व्यवस्था के सजीव चित्र के रूप में उभरता है| रोजी रोटी के लिए संघर्ष करते मनुष्य की  व्यथा का एक चित्र देखिए – 
रोटी की आयु बड़ी छंद की अवस्था से
इसीलिए शब्दों का युद्ध है व्यवस्था से
लाभ के अँधेरे में नाच रहे व्यापारी
मृत्यु के महोत्सव में रस की ठेकेदारी
विष से है सराबोर अमृता सुराही
कविता की सेना में शब्द है सिपाही||(शान्ति गन्धर्व-143)
 असली कवि जनहित में संघर्ष को ही अपना मार्ग बनाते हैं|आज भी व्यवस्था से शब्दों का युद्ध जारी है|करुणा और पीड़ा ही तो सार्थक कविता की सबसे बड़ी पूंजी है| जिस कवि  ने इस मर्म को समझ लिया वह समग्र मानवता का कवि कहा गया| वीरेन्द्र जी के मुक्तक भी बहुत मार्मिक होते हैं |कविताई की पराकाष्ठा तो संक्षिप्तता  में ही निहत मानी गयी है| सार्थक दोहे और मुक्तक सदियों से सर्वश्रेष्ठ कविता का नमूना रहे हैं| वीरेन्द्र जी का एक मुक्तक देखें-
प्यासी लहरें टूटी नावें/खाली सीपी खारा जल
इतनी दौलत पास हमारे/हम हैं सागर के बादल|
( -मुखरित संवेदन )
 जन और अभिजन का द्वंद्व नया नहीं है, हमेशा अभिजन लोगों ने अपनी कुलीनता के स्वर्णिम आसन पर विराजमान होकर आमजन को निम्न साबित करके उसे तिरस्कृत किया है| शालीनता का दुशाला ओढ़े हुए लोगों से कवि कहता है कि असल में तो वही लोग अधिक संपन्न होते हैं जिनका सर्वाधिक विरोध होता है | सच्चा कवि  आमजन के पक्ष में ही खड़ा होता है| वहीं से तटस्थ होकर कवि की रचनाशीलता की लता फूटती है| झुलसा है छायानट धूप में’ से एक नवगीत अंश देखिए-
मखमल –से लोग बहुत ज्यादा शालीन हैं
दुःख के पग से होते मैले कालीन हैं
उतना संपन्न तुम उसे समझो /जितना उसका विरोध होता है
जब जब कंठावरोध होता है/और अधिक सृजन बोध होता है| (झुलसा है छायानट धूप में )
फ़िल्मी दुनिया से विदा लेकर वीरेन्द्र मिश्र जी ने काफी समय तक आकाशवाणी में नौकरी की|आकाशवाणी में उनकी रचनाशीलता को बहुत विस्तार और सृजन का नया आकाश मिला| आकाशवाणी की नौकरी करते हुए जब इंदौर से वीरेन्द्र जी का स्थानान्तरण दिल्ली के लिए हुआ   तब उन्होंने जो लिखा था वो  उन दिनों ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के मुखपृष्ठ पर छपा था-
इस राजनगर का अनुचित संबल लूं/ या बांधूं बिस्तर और कहीं चल दूं|
प्रसिद्द गीत चिन्तक डॉ.उपेन्द्र जी का वीरेन्द्र मिश्र जी के बारे में कहना है  कि-‘”यह वीरेन्द्र के कवि  की ,मेरी समझ से एक असाधारण उपलब्धि है कि उन्होंने इस द्वंद्व पर उस उम्र में ही काबू पा लिया था जब प्यार रोमांस का ताप अपने तीव्रतम रूप में होता है|पच्चीस वर्ष की तरुनाई में उनका यह किया हुआ फैसला उनके दृढ संस्कारी व्यक्तित्व का द्योतक है| ‘गीतम’के उस प्रसिद्द गीत की पंक्तियाँ शायद आप ने सुनी हों-‘पीर मेरी कर रही ग़मगीन मुझको/और उससे भी अधिक तेरे नयन का नीर रानी/और उससे भी अधिक हर पाँव की जंजीर रानी|’”
(उपेन्द्र/हिन्दी गीत और गीतकार-100)
उपेन्द्र जी के वक्तव्य में संदर्भित यह गीत उनके संग्रह ‘गीतम’ में त्रिमुखी पीड़ा के संकेत के साथ संकलित है| त्रिमुखी पीड़ा की त्रिमुखी अभिव्यक्ति और उसकी भंगिमा उनके चकित करने वाले गीत कौशल का पता बताती है| व्यक्तिगत पीड़ा कवि की प्रेयसी या प्रियजन की पीड़ा और समाज की पीड़ा सब मिलकर यहाँ त्रिमुखी पीड़ा के रूप में एकाकार होती है,तब एक गीत बनाता है|
वीरेन्द्र मिश्र जी ने नवगीत पर व्यापक विचार करते हुए अनेक साक्षात्कारों में अपना मत स्पष्ट किया था| नवगीत नाम के आकर्षण में खिंच कर उस समय भी तमाम वयोवृद्ध कवि नवगीत लिखने लगे थे और लोगों ने उन्हें सुविधानुसार आयु के आधार पर वरिष्ठ भी मानना शुरू कर दिया तो वीरेन्द्र जी ने स्पष्ट किया | नवगीत में घुसपैठ बनाने वालों को लेकर बहुत स्पष्ट रूप से वे कहते हैं-
‘काव्य सृजन के क्षेत्र में साहित्यिक वरिष्ठता ही महत्वपूर्ण होती है,(जिसकी उपलब्धि के लिए प्राय: लोग शार्टकट ढूंडते हैं|) आयु वरिष्ठता नहीं| फिर यह भी कि नवगीत का विरोध भी मुख्यत: वही कर रहे हैं जो उसे लिख पाने में असमर्थ होने के कारण उसके विरुद्ध आज बासी पड़ जाने वाले प्रमाण और नए गढ़े तर्क प्रस्तुत करने को विवश हैं| ’(पंख और पांखुरी -175)
 आजकल भी नवगीत की नाव  में ऐसे अनेक साठोत्तरी कवि पदार्पण कर चुके हैं जो चर्चित होने के लिए नवगीत के आकर्षण में खिंचे चले आ रहे हैं| यश लाभ का ये शार्टकट आज भी चल रहा है| वीरेन्द्र जी इसके आगे नवगीत पर विचार करते हुए स्पष्ट करते है- ‘आधुनिक युगबोध से संपन्न वैविध्यपूर्ण हिन्दी नवगीत निश्चित रूप से स्वस्थ सृजनात्मकता और सुरुचिपूर्ण पाठक-श्रोता का निर्माण कर रहा है|इसी केंद्र बिंदु से उसका भविष्य आरम्भ होता है|’ (पंख और पांखुरी-180)
आज वीरेन्द्र जी हमारे बीच नहीं है| उनके गीत और उनके शब्द हमारे बीच अपनी चेतना के साथ सक्रिय हैं| नवगीत को उनके दाय और उनके साथ बिताए पलों को लेकर गौरवान्वित हूँ| उनकी पुण्य स्मृति को सादर नमन |
संपर्क:- सी-45 /वाई -4,दिलशाद गार्डन,दिल्ली-110095  
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