षष्टिपूर्ति पर विशेष ---
संघर्ष के साथी नवीन जी
लखनऊ, उन्नाव और इलाहाबाद जैसे शहर निराला जी के
फक्कड़पन के गवाह रहे है| इन शहरो में निराला जी की हजारो सच्ची झूठी किंवदंतियाँ
भी प्रचलित हुई |इनमे से कुछ किस्से लोग आज भी दुहराते हैं |भाई सुरेश कुमार पर भी
निराला जी के किसी जीवन प्रसंग का ऐसा
गंभीर असर पडा कि उन्होंने अपना नाम आवारा रख लिया फिर बाद में उसमे नवीन भी जुड
गया| उस दौर में शायरों और कविता करने वालो को आवारागर्द समझा भी जाता था| निराला
का फक्कड़ स्वभाव तो कवियों का आदर्श बन ही गया
था ,दूसरी ओर कवियों और शायरों की बदचलनी के किस्सों के कारण सद्गृहस्थ लोग
उन्हें अपने घरो में घुसने नहीं देते थे|नवीन जी ने इन अवधारणाओ से मुकाबला करने
के लिए ही शायद युवावस्था में अपना नाम आवारा नवीन रखा और साबित भी कर दिखाया कि
वे जितने सद्गृहस्थ है उतने ही बड़े साहित्य सेवी भी हैं |
शायद सन 1979 में नवीन जी से ल.वि.वि.के हिन्दी
विभाग में पहली बार मुलाक़ात हुई ,फिर ‘मानस वीथिका’(संपादक-श्री उमादत्त त्रिवेदी)
पत्रिका के कार्यालय राजाबाजार लखनऊ में मेरी मुलाक़ात श्री गिरिजाशंकर शुक्ल जी ने भाई सुरेश कुमार उर्फ़ आवारा नवीन जी से
मुलाक़ात कराई थी|यह दूसरी मुलाक़ात साहित्यिक थी |गिरिजाशंकर जी पत्रिका के
सहसंपादक तो थे ही उनपर प्रूफ देखने की भी जिम्मेदारी थी|वो विश्वविद्यालय के दिन थे,तब मै लखनऊ वि.वि. में
एम.ए.का विद्यार्थी था|नवीन जी कविताए लिखते थे|गोष्ठियां आयोजित करते थे|उन्ही
दिनों मेरी कुछ तुकबन्दियाँ भी ‘मानस वीथिका’ में प्रकाशित हुई थीं तो कविता ने
अनायास ही हमारी मैत्री को सुदृढ़ कर दिया |
उस समय अशोक पाण्डेय अशोक,राजहंस मिश्र दीपक ,अजय
प्रसून,उमेश चन्द्र पाठक ,रंजना श्रीवास्तव,डंडा लखनवी,अशोक ऋषिराज जैसे अनेक कवि
मित्रो से भाई नवीन जी ने ही मिलवाया|हम लोग अक्सर आगामीर ड्योढी स्थित कुमुदेश
भवन में श्री अशोक कुमार पाण्डेय जी के सानिध्य में बैठकें करने लगे|अमीनाबाद में
कंचना रेस्टोरेंट और गंगाप्रसाद मेमो.पुस्तकालय के अलावा नरेन्द्रदेव पुस्तकालय
अमीरुद्दौला पुस्तकालय,गांधी भवन ,हिन्दी संस्थान तथा काफी हाउस आदि में भी हमारी बैठके होने लगी थी| इसी बीच सन 1981 मे युवारचनाकार मंच,लखनऊ की स्थापना की
गयी|उमेशचन्द्र पाठक जी को मंच का अध्यक्ष चुना गया|1 फरवरी को तभी से युवारचनाकार
दिवस मनाया जाना शुरू हुआ| हम लोग तब साइकल से पूरा लखनऊ मथते रहते थे| कहना
आवश्यक है कि तभी से नवीन जी लखनऊ के सभी गैर सरकारी साहित्यिक कार्यक्रमो का
संयोजन करते आ रहे हैं |वे जितने सहज व्यक्ति हैं उतने ही कुशल संयोजक |उनके मन
में साहित्य और साहित्यकारों की सेवा का जो अकुंठ भाव है वह मुझे अन्य किसी
साहित्यकार में नहीं दिखा|विवादों से परे रह कर साहित्य के लिए तन मन धन के समर्पण
का उनका भाव वरेण्य ही नहीं अनुकरणीय भी है| इसी लिए वो नई तरह के आवारा हैं
|मैंने बहुत पहले नवीन भाई को समर्पित आवारा बादल शीर्षक एक गीत में लिखा था-
तुम मेरे जैसे सैलानी या मैं तुम सा आवारा हूँ
तुम भी भटक रहे हो प्रति पल मैं भी थका और हारा
हूँ
किन्तु हार कर भी जीवन में अपनी शक्ति टटोल रहा
हूँ
खारे जलनिधि से उपजा हूँ मधुर माधुरी घोल रहा हूँ
खट्टे कडवे अनुभव लेकर तैर रहा हूँ ,डोल रहा हूँ
|
नवीन जी मेरे संघर्ष के साथी हैं,वो आज भी
संघर्ष कर रहे हैं|सुख में आनंद से भीजने वाले और दुःख में करुणा से विगलित होने
वाले मित्र अब नहीं मिलते| नवीन जी इसी कोटि के मेरे मित्र हैं |बड़े छोटे सभी
प्रकार के साहित्यकारों के लिए दरी बिछाने और अपने पैसों से माला लेकर स्वागत करने
तक एक पैर से जिन्हें खड़े देखा वह भाई नवीन जी ही हैं|कई बार मुझे उनकी इस सदाशयता
पर खीझ भी हुई लेकिन वो है कि सहज भाव से डट जाते हैं |यही कारण है कि युवा रचनाकार मंच से जुड़े
सैकड़ो की संख्या में साहित्यकार आज उनके मित्र हैं |पता नहीं कितने शोधो में उनका
उल्लेख है|हालांकि वो हिन्दी पत्रकारिता में एम.ए. हैं,उस समय नौकरी की दिशा में
यदि उनके प्रयास फलीभूत होते तो शायद उनका जीवन कुछ और होता किन्तु अब वे अजातशत्रु
बने चुके हैं|अपने स्वाभिमान के साथ संघर्ष की राह पर वो संतुष्ट हैं| इस बाजार
वादी और भोगवादी समय में लखनऊ में शायद ही नवीन जैसा कोई दूसरा साहित्य सेवी मिले|
बेरोजगारी के दिनों में अक्सर नवीन जी मुझे फिल्म
दिखाते थे| अचानक पूछते –‘कोई काम तो नहीं है ?’..मैं कहता-‘नहीं ...बताएं ? कहीं
चलना है ?’| ‘अरे एक बड़ी अच्छी पिक्चर लगी है..’ मैं कहता-‘मेरे पास पैसे भी नहीं
हैं |’ नवीन जी कहते -उसकी चिंता मत कीजिए ‘दो एडवांस टिकट ले आया हूँ|’ मैं
निरुत्तर हो जाता था| साहित्यकारों पत्रकारों के अलावा लखनऊ में उम्दा पान की दूकानों, फोटोग्राफरो , अच्छी
चाट वाले ,अच्छी मिठाई और नमकीन की दूकानों का पता नवीन जी को ही मालूम रहता था|आज
भी उन्हें इस काम में महारत हासिल है| नवीन जी तब राजाबाजार स्थित होमियोपैथिक
चिकित्सालय में पार्ट टाइम कम्पौंडर
थे|वही पर डॉक्टर अनंत माधव चिपलूणकर जी
के साथ उनसे अनेक मुलाकाते हुआ करती थीं |युवा अवस्था के वे दिन साहित्य और जीवन
को समझने की एक प्रकार की पाठशाला जैसे बन गए थे| तब हम लोग साइकल से पूरा लखनऊ
घूमते थे|उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान में आयोजित प्राय: सभी कार्य्रक्रमो में हम
लोग भाग लेते थे| सन 1978 से 1986 तक का समय मेरे लिए साहित्य के संस्कार सीखने
समझने का था| इन्ही दिनों –लखनऊ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी,शिवमंगल सिंह
सुमन,डा.देवराज ,प्रो. कुवर चन्द्रप्रकाश सिंह,लक्ष्मीशंकर मिश्र निशंक,महादेवी
वर्मा ,अमृतलाल नागर ,रमई काका ,चतुर्भुज शर्मा,डा.विद्यानिवास मिश्र ,शिवबहादुर
सिंह भदौरिया,शिवसिह सरोज,पंडित सोहनलाल द्विवेदी,ओदोलेन स्मेकल,प्रभाकर
माचवे,गंगा रत्न पाण्डेय,डा .श्यामसुन्दर मिश्र मधुप ,डा,राजेन्द्र मिश्र जैसे बड़े
साहित्यकारों को सुनने जानने का अवसर भी मिला|जिनकी अनेक यादें मेरी जीवनी शक्ति
बन चुकी हैं | प्रो.हरिकृष्ण अवस्थी और प्रो.सूर्यप्रसाद दीक्षित जैसे गुरुजनों का
दिया हुआ हिन्दी संस्कार तो मुझे लगातार हिन्दी में कामा करते रहने की प्रेरणा
देता ही है| विश्वविद्यालय में मेरे सहपाठी
डॉ.सुशील सिद्धार्थ और स्थानीय गोष्ठियों मेरे मित्र भाई नवीन जी मुझे
साहित्य की दुनिया और आयोजनों से अनेक रूपों में जोड़े रखते थे | अग्रज अशोक
पाण्डेय जी से हम सभी छंद की बारीकियां सीखते थे| अर्थात जीवन और कविता के सरोकार
से मेरा परिचय कुछ इसी प्रकार हुआ |सं 1981 में वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल जी से भी पहली मुलाक़ात नवीन जी ने
ही कराई|तब वो अमृत प्रभात में नौकरी करते थे| सन 1983 में रिटायर होकर दिल्ली से
लखनऊ पहुंचे स्व.गंगारत्न पाण्डेय जी के घर पर हम लोगो की अनेक गोष्ठियां होती थीं
|हमेशा इन गोष्ठियों के आयोजन नवीन जी ही करते रहे|
लगभग ३० वर्ष
पहले १९८६ में नौकरी के चक्कर में मैं दिल्ली
चला आया किन्तु जाने कब नवीन जी मेरे परिवार के अभिन्न सदस्य बन चुके थे |मैं लखनऊ
में नहीं था तो भी नवीन जी मेरे भाइयो बहनों माता पिता तथा अन्य रिश्तेदारों से
लगातार जुड़े रहे |साहित्य का कोई विशेष फेवीकोल उनके पास जरूर है जिससे वो सबको
जोड़कर रख लेते हैं | सन २०१० से नवीन जी ही ‘शिक्षक साहित्कार सम्मान’ के संयोजक
हैं | उनसे किसी बात पर विवाद हुआ हो ऐसा कोई प्रसंग मुझे याद नहीं आता| नवीन जी
की एक छोटी सी कविता अक्सर मुझे जीवन के अनेक मोड़ो पर याद आती रही वह इस प्रकार है-
‘तुम्हारा अलास्टिकी व्यक्तित्व /खूब सिकुड़े खूब तने/लेकिन किसी के
लिए गुलेल न बने|’
नवीन जी कई वर्ष तक दैनिक जागरण के लखनऊ कार्यालय में भी नौकरी करते रहे |जब उनका
कानपुर के लिए तबादला हुआ और कई साथियो के साथ कामरेड प्रमोद त्रिपाठी आदि को
निकाल दिया गया तो उन्होंने भी नौकरी छोड़
दी|
युवा
रचनाकार मित्रो का एक सहयोगी काव्य संकलन
‘दस दिशाएं ’ अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ष और बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र निर्वाण
शताब्दी वर्ष -१९८५ में नवीन जी के सहयोग
और लगन से ही निकल सका | नवीन जी संकल्प सिद्ध व्यक्ति हैं और बनिए की नौकरी करते
हुए आज भी सहज भाव से सक्रिय हैं|वो सौभाग्यशाली भी है कि उन्हें उनकी जैसी ही कदम
कदम पर साथ देने वाली संघर्षशील पत्नी भी मिलीं |13 जून 2016 को उनकी षष्ठिपूर्ति
होने जा रही है| ईश्वर से प्रार्थना है कि उन्हें शतायु करे तथा सपरिवार स्वस्थ
सानंद रखे|
--जिसने बरगद को सीचा है--
वो आवारा
वो है नवीन|
जो आत्मीय सहजात सदृश
जो मित्रो के घर का सदस्य
वो है नवीन|
जो साइकल का अद्भुत सवार
सेवा है जिसकी निर्विकार
वो है नवीन|
श्रम श्लथ है जिसका कर्म सहज
बस चाह भारती की
पद -रज
वो है नवीन |
जो लिए बिना ही धन्यवाद
अवसाद पी गया मित्रो का
वो है नवीन |
होकर अकुंठ साहित्य जिया
दुःख में अपनों का साथ दिया
वो है नवीन |
छाया का याचक बने बिना
जिसने बरगद को सींचा है
वो है नवीन |
भाई नवीन जी और भारतेंदु मिश्र |
....
भारतेंदु मिश्र
सी-45/वाई-4,दिलशाद गार्डन ,दिल्ली-110095
फोन-9868031384
बधाई जी... www.thehindiacademy.com
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