वंचितो का नवगीत
स्वर
# डा.भारतेन्दु मिश्र
नवगीत मे सीधेतौर पर
मनुवादी व्यवस्था पर चोट करने वाले कवि कम ही हुए हैं।ज्यादातर नवगीतकार अपनी
उत्सवधर्मिता और अतीत गायन के लिए चर्चित रहे हैं।पिछले कुछ दशको मे जैसे जैसे
सामाजिक आर्थिक मनोवैज्ञानिक और तकनीकी विकास हुआ है सभी अनुशासनो मे परिवर्तन हुआ
है।नवगीत चेतना मे भी यह परिवर्तन इसी रूप मे लक्षित किया जा सकता है।ऐसी ही चेतना
के नवोदित नवगीतकार जगदीश पंकज जी है गत वर्ष 2015 मे जिनके दो नवगीत संग्रह
क्रमश:’सुनो मुझे भी’ और ‘निषिद्धो की गली का नागरिक’ प्रकाशित हुए हैं।कवि का
स्वर सधा हुआ है।उसकी दृष्टि परिपक्व है।जगदीश पंकज अवकाशप्राप्त बैंक मैनेजर
हैं।स्पष्ट है कि उम्र के साठ बसंत देखने की बाद दैनन्दिन जीवन का कूट गरल पीने के
बाद जब अभिव्यक्ति की भंगिमाएं प्रखर हो जाती हैं तब गीत फूटता है।इन परिस्थितियो
मे नवगीत लेखन मे सक्रिय रूप से भागीदारी करने का एक और बडा कारण यह भी कि कवि
जगदीश पंकज अखिल भारतीय नवगीत चेतना के सर्जक श्री देवेन्द्र शर्मा इन्द्र के
पडोसी भी हैं।निश्चित है कि जगदीश पंकज जी सोच समझकर गीत नवगीत की सृजन भूमि से
जुडे। किसी फैशन या मंचीयता के व्यामोह ने उन्हे नही आकर्षित किया।पिछले एक वर्ष
मे ही उनका रचनात्मक दायरा भी बढा है।इसके मूल मे उनके नवगीत ही हैं।तात्पर्य यह
कि जगदीश पंकज उपेक्षितो दलितो की दुर्दशा का स्वर बनकर उभरते हुए नजर आ रहे हैं--
कितने हरे कितने
भरे/हैं घाव मन के /दह के
केवल नही तन पर
लगी/है चोट मन की भीत पर
अनगिन विरोधाभास
हैं/कानून की हर जीत पर
पर पोथियो मे भी नही
/आखर मिले कुछ नेह के।
बाबा साहेब भीमराव
अम्बेडकर की 125 वीं जयंती वर्ष मे दलित स्वाभिमान को लक्षित इस गीत की भंगिमा
सचमुच नवगीत के लिए उल्लेखनीय है--
सह रहा है/पीठ पर
वह/हर तरह के वार/पर झुकता नही है
धर्म धन धरती नही/पर
हाथ मे धन्धा/हर तरह की नीतियो को
दे रहा कन्धा/वह
दलित/वह सर्वहारा/वक्त से लाचार/पर रुकता नही।
ऐसा नही है कि
नवगीतकारो मे इस प्रकार की अभिव्यक्ति देने वाले कवि पहले नही हुए।रूपवादी या
पारंपरिक कलावादी खासकर मंचीय गीतकारो को छोडकर उपेक्षितो और दलितो के पक्ष मे खडे
होना तो प्रत्येक कवि का पहला कर्तव्य रहा है।इन नवगीतो मे कवि के अपने निजी अनुभव
भी शामिल हैं।कवि की यह निजता जब करोडो दलितो और उपेक्षितो के स्वर का रूप लेती है
तो उसका महत्व और भी बढ जाता है।वर्ग चेतना का यह स्वर देखिए-
राह मे लेकिन खडे
हैं /भेडियो के दल
एक काला कल गया /आना
अभी है एक जलता कल।
इसी प्रकार आगे
देखिए लगता है कवि दलित स्वर को ही नवगीत बद्ध कर रहा है।सचमुच हर एक संविधान
संशोधन उसके और उन जैसे दलितो के जीवन मे बार बार बदलाव को चिन्हित करता है -
हम असीम वर्जना लिए
हुए/जी रहे संशोधनो के नाम पर।
एक और अभिव्यक्ति का
स्वर देखिए-
भीड मे भी तुम मुझे
पहचान लोगे
मै निषिद्धो की गली
का नागरिक हूं।
जाति को लेकर होने
वाले संघर्षो और अत्याचारो को नियंत्रित करने में व्यापक सामाजिक बदलाव लाने की आवश्यकता है।यह कार्य
केवल सरकार या समाज के केवल एक वर्ग के चाहने भर से नही होगा।बहरहाल कवि के पास वंचितो
और दलितो का प्रवक्ता बनने के सभी गुण विद्यमान है ।इन नवगीतो का स्वर हमे एक
ईमानदर यथार्थवादी सामाजिक चेतना से जोडता है।कवि को बधाई इन श्रेष्ठ नवगीतो के
लिए।
संपर्क
सी.ब्लाक 45/वाई-4
दिलशाद गार्डन,दिल्ली-110095
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