(ग्वालियर गीत समारोह में दि.२३/३/१४ को दिया गया यह व्याख्यान )
# भारतेंदु मिश्र
साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है और वह कई मायने में है भी| अब यदि साहित्य की मुख्यधारा की बात करें तो उसमे गद्य की ही अनेक विधाए आती हैं|यह हमें स्वीकार करना होगा कि यह गद्य का युग है|अब गद्य और पद्य का भेद मिट गया है|अर्थात छन्दहीन नीरस वैचारिक कवितायेँ हमारे सामने हैं| जहां तक छंदोबद्ध कविता की बात की जाय तो वह आज मुख्य धारा में नहीं दिखाई देती| लगभग एक दशक से अधिक हो गया उत्तर आधुनिकता के प्रवाह में कवियों (राजेश जोशी) समालोचको (मैनेजर पाण्डेय,सुधीश पचौरी) आदि ने साहित्य की प्रासंगिकता को खासकर कविता की प्रासंगिकता को ही कठघरे में खडा कर दिया है|तात्पर्य यह कि बाजार और बाजारवादी इस समय में कविता या गीत की कोमल संवेदना के लिए अवसर नहीं बचा है|दूसरी ओर इसके कई कारण है कि एक तरफ हर बड़े शहर में हर मोहल्ले में दस बीस कवि अवश्य होने लगे हैं| अर्थात अधकचरे /अपरिपक्व कवियों की सूची लगातार बढ रही है धडाधड किताबें भी प्रकाशित हो रही हैं| गीतकार या व्यग्य कवि के रूप में जिस किसी कवि सम्मलेन के मंच पर देखें चार छह नए कवि – एक-दो नई कवयित्रियाँ जरूर मिल जाएंगी |उनके पास यत्र तत्र नए समय की मौलिक संवेदनाए भी हैं लेकिन उनमे धैर्य नहीं है|वे सब साहित्य के इस बाजार में ताजे उत्पाद या माल के तौर पर अपने आपको प्रस्तुत करने में लगे हैं|वो ज्यादातर पढ़ नहीं रहे हैं,केवल लिख रहे हैं| जो कवि साहित्य की परम्परा को जाने बिना आ रहे हैं उनके लिए कविताई खेल बन गया है| ..तो जो हमारे प्राचीन कवि ने कहा था –लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानेव है| -अर्थात कविताई खेल बन गया है/फैशन बन गया है| अधिकाँश गीत कविता उस दिशा में जा रही है|लगभग एक जैसे विचार और संवेदना सबके पास है और उसका बार बार प्रकटीकरण हो रहा है| ये संचार माध्यमो के प्रभाव से प्रतिदिन उपजने वाली तुकबन्दियाँ सार्थक कविता के रूप में रेखांकित नहीं की जा सकती|अखबारों में छपने वाली अवसर विशेष के लिए लिखी गयी तमाम गीत गजल कविताएं-उत्सवधर्मिता और बाजार को ही संवर्धित करती हैं,साहित्य को नहीं|
यह जो थोक में कविताए लिखी जा रही हैं वह विचार/विचारधारा के नाम पर भी हो सकता है राजनीति या एन.जी.ओ.के संगठन के विज्ञापन के तौर पर भी हो रहा है-जैसे कुमार विश्वास की चुनावी तुकबन्दियाँ| उत्सवधर्मिता के नाम पर तो लगातार तुकबाजी होती रही है|इसी बीच कविता का अनुशासन समाप्त हो रहा है,केवल छन्दानुशासन में लिखी गयी पंक्तियाँ कविताएँ नहीं मानी जा सकतीं|इसके बावजूद शिल्प में जहाँ कहीं नवीनता दिखती है वहाँ नई कविता/नवगीत या समकालीन गीत हो सकता है|तात्पर्य यह कि गीत कविता के नाम पर जो तमाम कचरा इकट्ठा हो रहा है उसमे से बहुत कम हिस्सा सार्थक गीत का है|
सार्थकता किसी भी कविता का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु होता है|लेकिन सोचिए कि स्वतंत्रता दिवस /होली या दीपावली के अवसर पर आयोजित कवि सम्मलेन में कितनी नई संवेदनाओं की कवितायेँ /गीत लिखे जा सकते हैं| दूसरी बात यह कि उन तमाम कविताओं के पाठ्य रूप एक जैसे होंगे या नहीं| जिन्हें तुको का अभ्यास हो जाता है फिर वो कविराज हो जाते हैं चलते फिरते गीत बनाते रहते हैं,किन्तु उन तमाम गीतो को हम समकालीन गीत के खाते में नहीं जोड़ सकते|
वाल्मीकि की आदि कविता –शोक से उपजती है |आचार्यो ने कहा-शोक:श्लोकत्वमागत: -अर्थात शोक ही श्लोक बनकर फूट पडा|अरस्तू ने करुणा और दुःख के विरेचन को साहित्य का मूल मंत्र माना|..लेकिन वह कौन सी कविता या गीत हो जिसे समकालीन श्रेष्ठता के आधार पर परखा जाय या स्वीकार किया जाय-यह विचारणीय है|यहाँ गीतकारो में आत्ममुग्ध कवियों की एक विराट परम्परा है|
इसलिए मेरे हिसाब से जो कविसम्मेलनो में जाकर तरह तरह से आलाप भरते हैं |और गायन/प्रस्तुति से अपने गीत की कमियों को ढकने का प्रयास करते हैं वे श्रेष्ठ कवि /गीतकार/नवगीतकार नहीं हो सकते| सुर ताल और आलाप संगीत का विषय हैं कविता का नहीं|कविता में शब्द की शक्तियां होती है-अभिधा लक्षणा और व्यंजना|हमारे आदि काव्यशास्त्रकार भरत से लेकर आचार्य विश्वनाथ और रामचंद्र शुक्ल तक ने कवि के लिए गाना अनिवार्य नहीं बताया|
काव्यपाठ शैली /छन्दपाठ शैली अलग चीज है|भाषा की शुद्धता छंद की मात्राओं आदि की बात सभी ने अवश्य की है|गायन और प्रस्तुतीकरण-नाटक और संगीत का विषय है|
हमारे यहाँ समाज में भी नौटंकीबाज को गंभीर कवि नहीं माना गया|यहाँ जो -वाह वाह इंडिया -में हो आया या जो लालकिले से गीत पढ़ आया उसे ही हम बड़ा गीतकार मान लेते हैं| तो क्या कुमार विश्वास और शैलेश लोढा हमारे इस समय के बड़े गीतकार हैं ?बिलकुल नहीं | कवि सम्मलेन शुद्ध रूप से चारणों और भाँड़ो द्वारा किया जाने वाला एक तरह का नाटक ही होता है,जिसका आयोजन कुछ उत्सव धर्मी व्यापारी और दलाल मिलकर करते हैं|जिसका उद्देश्य साहित्य नहीं होता |जहां लोग कोशिश करते है ताली पिटाऊ गीत पढ़ें|ऐसे अधिकाँश गीतकारो के पास समकालीन श्रेष्ठ गीत नहीं मिलते| यह आप स्वयं भी जांच सकते हैं ऐसे बड़े मंचीय गीतकारो के गीत कभी एकांत में पढ़िए और उनका विवेचन करने का प्रयत्न भी कीजिए|कुछ न कर सकें तो पूरे गीत में कर्ता और क्रिया ही खोज लीजिए|अर्थात उसका व्याकरण ही देख जाइए|आपको बहुत निराशा होगी ,हो सकता है बाल नोचने की नौबत भी आ जाए| अक्सर छंद भी खंडित हो सकता है|आलाप लेते समय या सुर ताल लगाते समय छंद की मात्राएँ कम या ज्यादा हो जाती हैं| अर्थात यह समझ लीजिए कि मंचीय गीत का सार्थक गीत से कोई सरोकार नहीं हो सकता|-काव्यं गीतेन हन्यते|(गाये जाने से कविताई नष्ट हो जाती है|) जो गीतकार मंच के प्रपंच से बाहर निकलने को तैयार नहीं है,उन्हें समकालीन गीत की समीक्षा के संदर्भ में कैसे गिना जा सकता है ? कुछ कुंअर बेचैन जैसे मंचीय गीतकार ऐसे भी हैं जिनके पास कुछ बहुत अच्छे गीत हैं लेकिन मंचीयता के चलते उनके सार्थक गीत भी प्रभाव शून्य और प्रभाहीन हो गए|
मंच भी न छूटे सार्थकता भी बनी रहे ऐसा विलक्षण गीत रचना करना आज के युग में संभव नहीं है|अर्थात जहां ये सब कमियाँ दिखाई देती है उस कवि या गीतकार से हमें कोई आशा नहीं करनी चाहिए|यदि हम समकालीन गीत के खाते में श्रृंगार –वीर-आदि पारम्परिक विषयो को शामिल कर लें और उत्सव धर्मिता को भी किसी हद तक शामिल करे तो करोडो की संख्या में कवि दिखाई देने लगेंगे| उदाहरणार्थ –सरस्वती वन्दना या राधा कृष्ण प्रेम या धार्मिक मंचो के गीत के रूप लिखे गए कीर्तन ही कई करोड़ की संख्या में होंगे|उन्हें समकालीन श्रेष्ठ गीत के उदाहरण के रूप में नहीं देखा जा सकता|क्योकि ये अधिकांश गीत हमारी गंभीर संवेदना को नहीं छू पाते और मनुष्य की चेतना का परिसंस्कार नहीं करते|इसी प्रकार पन्द्रह अगस्त या गांधी जयन्ती, ईद मिलन जैसे समारोहों के लिए करोडो की संख्या में गीत लिखे गए होंगे और साल दर साल लिखे जा रहे हैं,उन्हें भी समकालीन गीत के खाते में नहीं जोड़ा जा सकता|मुंडन या जन्म दिन पर भी हमारे मित्र गीत गाने में व्यस्त दिखाई देते हैं|वह चारण कर्म हो सकता है कविताई नहीं|वह सब समीक्षा की दृष्टि से समकालीन गीत में शामिल नहीं किया जा सकता |
इसके बाद जो कुछ बचता है वह अधिकांश नवगीत की तरह कवियों ने लिखा है यदि उसे ही समकालीन गीत मान लेने से आशय है तो यह समीचीन हो सकता है|इस पर विचार किया जा सकता है|अर्थात जो नवगीत की परम्परा से आगे का गीत है वही समकालीन गीत है| नवगीत का काल लगभग चार दशको (१९६० से २००० )तक फैला है|निश्चित है कि अब नवगीत का नारा भी पुराना पड़ने लगा है,लेकिन लोग अभी भी नवगीत की प्रवृत्तियो के साथ काम कर रहे हैं|हमें समकालीन गीत पर नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है|सार्थक समकालीन गीतकारो में – मुकुटबिहारी सरोज,शंभुनाथासिंह ,रमेश रंजक ,वीरेन्द्र मिश्र , नईम ,देवेन्द्र शर्मा इंद्र ,उमाकांत मालवीय,कुमार रवीन्द्र, माहेश्वर तिवारी ,राजेन्द्र गौतम ,महेश अनघ,कैलाश गौतम ,दिनेश सिंह, अवध बिहारी श्रीवास्तव,शान्ति सुमन ,इंदिरा मोहन,राजकुमारी रश्मि, इसाक अश्क ,राम अधीर ,मयंक श्रीवास्तव ,पूर्णिमा वर्मन ,दिवाकर वर्मा ,योगेन्द्र दत्त शर्मा,नचिकेता ,सत्यनारायण, ओमप्रकाश सिंह ,मधुकर अष्ठाना, विनोद श्रीवास्तव,यश मालवीय,निर्मल शुक्ल ,पूर्णिमा वर्मन ,दिनेश प्रभात,मनोज जैन मधुर,ब्रजेश श्रीवास्तव,ब्रिजनाथ श्रीवास्तव आदि अनेक नाम हैं-इनमें से कुछ नाम तो ऐसे भी हैं जो लगातार गीत /नवगीत या समकालीन गीत को साहित्य की मुख्य धारा में केंद्रित करने के प्रयास में संलग्न हैं|अंतरजाल पर नवगीत /गीत केन्द्रित पत्रिका अभिव्यक्ति –अनुभूति अधिकाँश गीतकारों को चकित कर रही है| पूर्णिमा जी तो कई वर्षो से इस दिशा में सराहनीय कार्य कर रही हैं| वहां नवगीत की पाठशाला भी चल रही है| आप जाने या न जानें,बहरहाल दुनिया भर में गीत प्रेमी लोग उन्हें जान चुके हैं|
अब ज़रा अकादमियो और विश्वविद्यालयों में साहित्य की मुख्यधारा की बात करें तो समीक्षा की दृष्टि से समकालीन गीत पर कोई विमर्श प्राय: साहित्य अकादमी जैसे केन्द्रीय साहित्यिक मंच आदि से पिछले कई दशकों में मैंने नहीं देखा सुना|यहाँ तो छंदोबद्ध कविता ही हाशिए में है|यहाँ समकालीन कविता पर हालांकि अक्सर बात होती है कविता पाठ आदि भी होते हैं ,लेकिन समकालीन गीत पर कोई बात नहीं होती|इस दुखद स्थिति के लिए भी हमारे गीतकार ही जिम्मेदार हैं|क्योकि गीतकार समीक्षा के लिए तैयार नही होते|आत्ममुग्धता के चलते उदार आलोचना भी उन्हें स्वीकार्य नहीं होती|कोई करना भी चाहे तो दुश्मनी मोल लेने जैसा काम हो जाता है|मैं ये जोखिम उठा चुका हूँ और मित्रो को अमित्र बना चुका हूँ|..तो ये जो तलवार की धार पे धावनो है – कविताई, उसकी चिंता कौन करे और क्यों करे? अत:साहित्य की मुख्यधारा यदि कोई है तो उसमे गीत तो कतई शामिल नहीं है| जो गीत पाठ्यक्रम आदि में (प्रसाद-निराला-माखनलाल चतुर्वेदी-महादेवी वर्मा -राम नरेश त्रिपाठी-नागार्जुन-त्रिलोचन-केदार नाथ अग्रवाल-मुकुट बिहारी सरोज-शंभुनाथ सिंह –वीरेन्द्र मिश्र -नीरज–रमेश रंजक ) शामिल दिखाई देते हैं वे पचासों वर्ष पहले के लिखे हुए हैं उन्हें हम समकालीन गीत कहकर खुश हो सकते हैं|कुछ उनमे से आज भी समकालीन और प्रासंगिक लगते हैं |लेकिन हम जानते हैं कि वे हमारे नए समय की नई संवेदना को प्रभावित करने वाले गीत नहीं हैं|
हालांकि मध्य प्रदेश से ही अनेक गीत पत्रिकाएं निकलती रही हैं –समान्तर-इसाक अश्क ,संकल्प रथ-राम अधीर ,प्रेसमेन-मयंक श्रीवास्तव ,शिवम पूर्णा,अंतरा ,गीत गागर आदि सब मध्यप्रदेश से ही निकलने वाली पत्रिकाएं हैं |किसी भी अन्य प्रदेश में गीत को लेकर इतनी तत्परता नही दिखाई देती लेकिन तार्किकता और वैचारिक सजगता यहाँ भी नहीं दिखती| दूसरी ओर अब साहित्य आकादमी की पत्रिका हो या कथादेश अथवा वागर्थ,प्राय: सभी पत्रिकाओं में सार्थक गीत को जगह मिलने लगी है|इसके बावजूद गीत/गज़ल /घनाक्षरी आदि साहित्य की मुख्यधारा में नहीं है|मुख्यधारा में जो कविताए/विधाएं होती हैं उन पर लगातार विमर्श होता रहता है| यहाँ आत्मसंमोहन का आसव छके हुए अधिकाँश दोहरे व्यक्तित्व वाले स्वनामधन्य गीतकारो से विमर्श की बात करना बेमानी है|समालोचना उन्हें सहन नहीं होती|ऐसे में साहित्य की मुख्य धारा में गीत की बात करना निरर्थक होगा |क्योकि मुख्यधारा तो समावेशी होती है|वहां वैयक्तिकता के लिए कोइ शान नहीं होता|किसी एक संस्कृति या सांस्कृतिक राष्ट्र की कल्पना सही नहीं हो सकती|हमारी भारतीयता विविध संस्कृतियों के रंगों से निर्मित हुई है|हमारे गीतों में कहीं किसान चेतना,दलित चेतना या स्त्री विमर्श की बात की गयी है क्या? या की जा रही है ?साहित्य की मुख्यधारा में ये सब विमर्श भी शामिल करना होगा|ध्यान रहे कि किसान का चित्रण या दलित वर्णन और स्त्री वर्णन की बात मै यहाँ नहीं कर रहा हूँ|वर्णन और विमर्श में बहुत अंतर होता है| पहले विमर्श कर लें और तय कर लें कि साहित्य की मुख्य धारा में शामिल किए जाने वाले कौन से गीत हैं या कौन से गीतकार हैं|तब आगे इस विषय पर बात हो सकती है|
दूसरी ओर मुझे तो-मानव जहां बैल घोड़ा है/कैसा तन मन का जोड़ा है|
या कि—सुख का दिन डूबे डूब जाय/तुमसे न तनिक मन ऊब जाय|
जैसी पंक्तिया देने वाले कालजयी कवि निराला के गीत आज भी प्रासंगिक और समकालीन लगते हैं | ग्वालियर के ही मुकुट बिहारी सरोज और महेश अनघ के गीत समकालीन और प्रासंगिक भी जान पड़ते हैं |आप उन्हें मुख्यधारा का माने या न मानें|लेकिन ..अगर उन्हें मुख्यधारा का गीतकार माना होता तो अब तक किसी न किसी गीत पत्रिका का उनपर विशेषांक आ चुका होता|उन्हें लेकर विस्तार से गीत की चर्चा हुई होती|मेरी जानकारी में शायद –शंभुनाथ सिंह ,ठाकुर प्रसाद सिंह ,उमाकांत मालवीय,वीरेन्द्र मिश्र ,जानकीवल्लभ शास्त्री,मुकुट बिहारी सरोज,महेश अनघ ,कैलाश गौतम ,दिनेश सिंह जैसे गीतकारो पर एकाग्र किसी पत्रिका का अंक नहीं संपादित किया गया|यदि कहीं छुटपुट अंक आए भी हों तो इनकी रचनाधर्मिता पर विस्तार से बातचीत तो कतई नहीं हुई|शंभुनाथ सिंह के नवगीत दशको पर भी चर्चा नहीं हुई|इस दिशा में रामअधीर जी ने संकल्प रथ के कुछ विशेषांक तो निकाले हैं बाकी सन्नाटा है , तो फिर बताएं गीत मुख्यधारा में कहाँ है? किसी एक गीत पत्रिका के प्रयास को साहित्य की मुख्यधारा कैसे माना जा सकता है? मेरे तेरे गीतों को एक किसी स्थानीय पत्रिका में छप जाने से गीत साहित्य की मुख्यधारा में नहीं आ सकता|लोगो के लिए गीत जीने मरने का सवाल बिलकुल भी नहीं है|गीत को मुख्यधारा में स्थापित करने के लिए संघर्ष करने की आवश्यकता है|सबसे पहले गीत में घुसा हुआ -मंच और प्रपंच वाला हिस्सा काट कर अलग फेंकना होगा |उसके बाद तर्क की छेनी और व्याकरण की हथौड़ी लेकर समकालीन गीत की नई तस्बीर गढ़नी होगी|इस अवसर पर याद करना चाहता हूँ भवानी दादा को जिनकी जन्मशती चल रही है |उन्होंने मंचीय गीतकारो पर व्यंग्य करते हुए कहा था-
जी हाँ हुज़ूर
मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ
मैं क़िस्म-क़िस्म के
गीत बेचता हूँ|
शायद इसी मंचीयता के विरोध के कारण उनपर किसी गीत पत्रिका ने विशेषांक नहीं निकाला |और अंत में धन्यवाद-ग्वालियर के सुधी मित्रो का जिन्होंने मुझे कुछ कहने का सुखद अवसर दिया , खासकर ब्रजेश जी का जिन्होंने मुझे यहाँ बुलाने की कृपा की और यह ग्वालियर का इतना रसज्ञ मंच प्रदान किया|
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ग़ज़ब की अध्ययनशीलता को प्रस्तुत करता वक्तव्य है भारतेंदु जी। इसके कई प्रसंग ऐसे हैं जिन्हें लगभग ज्यों का त्यों लघुकथा-साहित्य के बारे में हम लोग दशकों से कहते चले आ रहे हैं। इस वक्तव्य को पढ़कर लगा कि हम लघुकथा को लेकर जितना परेशान हैं विकार उससे कहीं ज्यादा है। बाज़ार और उसकी उपजाई अंधाकांक्षाओं ने हिंदी की लगभग सभी विधाओं का गहरा अहित किया है, उस पर तुर्रा यह कि साहित्य की समझ वाले विद्वान आलोचक (!) इस अहित पर लेशमात्र भी चिंतित नहीं है। उन्हें गर्व है कि उनके निर्देशन में देश के नौनिहाल कालजयी रचनाएँ हिन्दी व विश्व को दे रहे हैं। वे देश और विदेश भ्रमण कर रहे हैं, जश्न मना रहे हैं और उनके अनुसार, आज संसार का कोई कोना नहीं, जहाँ हिन्दी पहुँच न चुकी हो। कौन-सी हिन्दी? अगर आप विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा भारत के विभिन्न प्रांतों में मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों के विभागों पर नजर डालें तो आपको हर विश्वविद्यालय में 'डिपार्टमेंट ऑफ इंग्लिश' तो मिल जायेगा, 'डिपार्टमेंट ऑफ हिन्दी' का दर्शन नहीं होगा। बहरहाल, आपने गीत और छंदोबद्ध कविता के बारे में जो चिंता प्रकट की, वह दरअसल, भारतीय सामाजिक जीवन के बारे में चिंता है। लय और अनुशासन हमारे जीवन से ही गायब हो चुके हैं।
जवाब देंहटाएंध्क्न्यवाद बलराम जी|..इस उत्साहवर्धन के लिए|
हटाएंसाझा करने हेतु तहे दिल से अाभार अादरणीय भारतेंदु जी .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शशी जी ।
हटाएंबहुत ही विचारणीय और उम्दा समीक्षा |
जवाब देंहटाएंवाह दो टूक सटीक तथ्य ।
जवाब देंहटाएंचिंतन करने को विवश करते तर्क ।।
साझा करने हेतु आभार आदरणीय भारतेन्दु जी ।।
आपका धन्यवाद भावना जी|वरना अब सही को सही कहने वाले लोग नही रहे|
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