गुरुवार, अगस्त 15, 2013

संभावनाशील नवगीतकार


समीक्षा

भारतेंदु मिश्र
भोपाल के चर्चित गीतकार शिवकुमार अर्चन का पहला गीत संग्रह-उत्तर की तलाश-शीर्षक से प्रकाशित हुआ है|इन पछपन गीतों को पढ़कर अर्चन जी के प्रति गीत के सच्चे साधक होने का विश्वास होता है|कवि के पास गीत का मुकम्मल मुहावरा है | यानी भाषा और छंद में प्रवाह विद्यमान है | प्रक्रति और प्रणय में पगी हुई संवेदना कवि के अनेक गीतों में गृहरति की सार्थक व्यंजना के रूप में प्रतिफलित होती है|यह स्वर समकालीन गीत का मुख्य स्वर बन गया है|असल में निजी संबंधो की संवेदना का वर्तमान सामजिक रूप लगभग एक समय की समष्टि गत पीड़ा बन गया है| यह रंग सार्वजनिक है ,आम आदमी के घर का भी है-
कुछ भी करू /कही भी जाऊ/जब देखो तब पीछे घर|
यहाँ पीछे घर का अर्थ केवल घर पीछे पड़ा है -यही नहीं बल्कि यह भी कि सभी कार्यो के मूल में घर ही है,और घर अपने आप में एक बड़ी कविता है| इसी घर का एक और मधुर चित्र देखें –
सौप गया जबसे इन बाहों को/क्षण अपने उजले निष्कर्ष/रह रह कर खूब याद आए/दूध में नहाए स्पर्श /काम आ गयी कोई दुआ/तुमने जो अधर से छुआ/पोर पोर बांसुरी हुआ|
यहां ध्यान देने की बात है कि-यहाँ कवि दूध में नहाए स्पर्श की बात करता है जो प्रकारान्तर से भरे पूरे घर की ग्रहिणी की ओर संकेत है|प्रणय गीत और गृहरति के गीत में यही भेद है|प्रणय गीत यानी श्रृंगार की सुन्दर अभिव्यक्ति के चित्र भी अर्चन के गीतों में दिखाई देते हैं यथा –
जब जब पत्र तुम्हारे आये /संबंधो की इस धरती पर/ इन्द्रधनुष लहराए|
लेकिन गृहरति की व्यंजना कवि के इन गीतों में अधिक मर्मस्पर्शी होकर उभरती है|यह स्वर आगे जा कर प्रकृति के सौन्दर्य का चित्रण करने में भी अभिव्यक्त हुआ है,गांव की सुबह का एक चित्र देखें कि ताल की छवि कैसे रंग बदल रही है-
अभी श्याम कुछ पीला औ /कुछ ईंगुरिया है ताल/छूटे नहीं आँख से /सपनों के सतरंगी जाल/हवा भरे सिसकारी जैसे /कील चुभी हो पाँव में|
ये जो कील सी संवेदना कवि के हृदय में चुभी हुई है वही कविता का मूल है|तभी वह गीतों के नीलकंठ का पता जानता है,संग्रह के पहले गीत का मुखड़ा देखने योग्य है- गीतों के नीलकंठ/उतर रहे सांस पर/बूँद के बिछौने हैं / नरम हरी घास पर|
इस सुन्दर प्रकृति का अनुशीलन कवि अपने मूल जनपद सागर से लेकर भोपाल तक लगातार करता आ रहा है|अपने युग से भी कवि अनजान नहीं है|समय की विसंगति को लेकर कई गीत इस संग्रह में हैं |एक चित्र देखें – अँधेरे का गीत गाया /सूर्य-पुत्रो ने/सबा सुखी हो,स्वस्थ हो सब/यह कथन कितना स्वगत है/यहाँ समय चट्टानवत है|
तो शिवकुमार अर्चन के गीतकार के पास प्रकृति को चीन्हने की पैनी नजर है|भाषा छन्द लय तो कवी ने साधा हुआ ही है|उत्तर की तलाश का अर्थ है कवि के पास प्रश्न हैं -जो उसके अपने ही नहीं उसके समाज के भी प्रश्न हैं,उनका समाधान हरा संवेदनशील व्यक्ति खोज रहा है|आत्मविमर्श भी कवि करता है और कहता है-
बीज हूँ मैं /एक नन्हा बीज हूँ /वृक्ष बनने की प्रबल संभावना मुझमें |
सचमुच शिवकुमार अर्चन संभावनाशील नवगीतकार हैं |छंद प्रेमियों की ओर से उनके इस पहले गीतसंग्रह का स्वागत है|
शीर्षक :उत्तर की तलाश ,कवि : शिव कुमार अर्चन ,प्रकाशक:पहले पहल प्रकाशन-भोपाल,वर्ष:२०१३,मूल्य:१५०/

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