सोमवार, अक्तूबर 03, 2011



नवगीत एकादश की दो समीक्षाएँ

1.संघर्ष को स्वर देते नवगीत

*वेदप्रकाश भारद्वाज

नवगीत के समवेत संकलनों का प्रकाशन तो इस विधा के अस्तित्व मे आने के साथ ही हो गया था। सन 1958 में गीतांगिनी 1964 में कविता चौसठ 1969 में पाँच जोड बाँसुरी के अलावा नवे दशक में प्रकाशित हुए नवगीत दशकों व नवगीतअर्धशती सहित कई समवेत संकलन आये है परन्तु सभी की अपनी एक सीमा थी।यह सीमा हर उस विधा के साथ होती है जो रचनात्मक दृष्टि से समृद्ध होती है।आज किसी भी विधा के किसी भी समवेत संकलन को विधा का प्रतिनिधि संकलन नही कहा जा सकता उसे भी नही जो प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं। अच्छी बात ये है कि कवि संपादक डाँ.भारतेन्दु मिश्र ने ऐसे किसी प्रतिनिधित्व का दावा नही किया है।हाँ उन्होने भोजपुरी,रुहेली,बुन्देली,अवधी व हरियाणवी लोक जीवन व लोक मानस से जुडे नवगीतकारों को एक स्थान पर एकत्रित किया है।इस संकलन में ग्यारह नवगीतकारों के 110 नवगीत संकलित हैं।ये नवगीतकार हैं-जगदीश श्रीवास्तव,पाल भसीन,राधेश्याम बन्धु,राधेश्याम शुक्ल,हरिशंकर सक्सेना,श्यामनारायण मिश्र,सुरेन्द्र कुमार पाठक,भोलानाथ,भारतेन्दु मिश्र,शशिकांत गीते और शरद सिंह ।

नवगीत एक ओर जहाँ मानवीय रिश्तों की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है वहीं दूसरी ओर समसामयिक यथार्थ और आधुनिकता व आधुनिकोत्तर बोध की अभिव्यक्ति हैं। इस संकलन की रचनाओ मे ये तीनो स्वर विद्यमान हैं। यह अलग बात है कि हर कविता का अपना अलग तेवर है। जगदीश श्रीवास्तव के नवगीतो मे संघर्ष का भाव प्रबल है तो पाल भसीन के गीतों में संघर्ष के साथ साथ संवेदना में आज के व्यक्तित्व का संकट-स्वप्नभंग की स्थिति जैसी त्रासदियाँ भी हैं जो बहुत कम गीतकारो के यहाम हैं। इस लिहाज से पाल भसीन की रचनाओ का फलक और विस्तृत हो जाता है।

राधेश्याम बन्धु के गीतो से अदम्य जिजीविषा नजर आती है और चेतावनी का स्वर भी कि जो अभी तक मौन थे वे शब्द बोलेंगे/हर महाजन की बही का भेद खोलेंगे। राधेश्याम शुक्ल सत्ता की विसंगतियो और त्रासदियो का विश्लेषण करते हुए चलते हैं जो उन्हे कहीं कहीं उदास करता नजर आता है।हरिशंकर सक्सेना,श्यामनारायण मिश्र,सुरेन्द्र पाठक,भोलानाथ,भारतेन्दु मिश्र,शशिकांत गीतेऔर शरद सिंह के गीतो में भी सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था की चक्की में पिसते व्यक्ति की पीडा ही अधिक मुखरित हुई है और यही बात इस समवेत संकलन को एक सूत्र से बाँधती भी है।

इस संकलन की रचनाओ के साथ एक अच्छी बात यह भी है कि इनमें प्रयुक्त बिम्ब और प्रतीक नवीनता लिए हुए हैं।चूँकि संपादक ने रचनाओ के चयन में कठोरता बरती है इस लिए संकलन में अच्छी रचनाएँ ही आयी हैं। जाहिर है कि बहुत से जाने पहचाने नाम इसमें नही हैं और यह कोई अवगुण नही है।प्रत्येक संपादक की अपनी दृष्टि और पँहुच होती है।वह उसी दायरे में चयन करता है।फिर किसी एक संकलन में आज सभी मौजूदा गीतकारों को शामिल कर पाना सम्भव नही है।इसके लिए एक नही कई नवगीत एकादश का प्रकाशन करना होगा।

राष्ट्रीयसहारा दैनिक(1 -1-1995)नई दिल्ली पृ.7 से साभार।

2.

स्वीकार और अस्वीकार के बीच नवगीत

*राम अधीर

हिन्दी की एक समर्थ विधा पारम्परिक गीत को नकारते हुए गत दशको से नवगीत साहित्य के क्षितिज पर उभरा है और वह भी तेजी से ,इसमे दो मत नही कि कथ्य की ताजगी और शब्दो के चमत्कार ने नवगीत को अपनी जगह कायम करने का अवसर दिया है किंतु क्या नवगीत और पुराने पारंपरिक के बुनियादी चरित्र मे कोई अंतर है,इस पर आज भी बहस की काफी गुंजाइश है।यह सवाल नवगीत के जन्म से आज तक अनुत्तरित ही है। छन्द विधान का जो स्वरूप पुराने गीत मे है वह नवगीत में भी है।शहरी संत्रास और आम आदमी के दर्द ,कुंठा,विफलता,नैराश्य और आगामी कल को नवगीत में पूरी ताजगी के साथ बयान करने की कोशिश की जाती है।इसने निश्चय ही अच्छे हस्ताक्षर दिए हैं।स्व.डाँ शम्भुनाथ सिंह इसके प्रवर्तक माने जाते हैं। शब्द सामर्थ्य और कथ्य का ऐन्द्रजालिक स्वरूप ही नवगीत को प्राणवत्ता प्रदान करता है।

हाल ही सहकार के आधार पर अयन प्रकाशन दिल्ली ने नवगीत एकादश के नाम से कुल ग्यारह नव्वगीतकारो की बढिया संकलन प्रकाशित किया है-इसमें 6 नवगीतकार तो मध्य प्रदेश के ही हैं और पाँच अन्य राज्यो के ।विशेषता यह है कि इसमें सागर की सुश्री शरद सिंह एकमात्र महिला गीतकार हैं और उनकी पहचान समूचे मध्य प्रदेश में नवगीतकार के रूप में अनूठी है।वह नवगीत की प्रदेश की एकमात्र समर्थ हस्ताक्षर हैं।शरद के गीतो में आत्मकथ्य का प्रगल्भ स्वरूप अगर रूपायित हुआ है तो वह उस दर्द को जीती हैं जो आम आदमी का है जैसे-

बीत गये जाने कितने दिन/धूप ओढते धूप बिछाते/पैरो के छाले भी फूटे/होठो के ताले भी टूटे/देर नही लगती/भाई जी।

भाई जी! सम्बोधन मे आत्मीयता का बोध होता है तो विफलता से उपजी पीडा की आहट भी आती है।उनके दो अन्य गीतो मे बस्तर के आदिम जीवन से जुडने जोडने का पूरा प्रयास हुआ है।फाँके की बारी में शरद सिंह का नवगीतकार बहिर्मुखी होकर अन्दर झाँकता है अन्यथा ये पंक्तियाँ अजन्मी रह जातीं-

हफ्ते में एक दिन /फाँके की बारी/दैनिक वेतन भोगी/छुट्टी इतवारी/जोड जोड दुखते हैं/यंत्रो के साथ जुटे चुप ही तो रहना है/चाहे बिंवाई फटे /कट कट कर मिलती है /शाम को दिहाडी।

आज के ताजे हालातो का यह सही निरूपण कहा जा सकता है।संग्रह में श्यामनारायण मिश्र अपनी कल्पनाशीलता और बिंब प्रतीको के लिए सर्वपरिचित हैं उनका कथ्य लोक संस्कृति और लोक जीवन से जुडने का अनूठा माद्दा रखता है।एक गीत में उनकी बानगी है-

महानगर में मै उदास/तुम्स क्स्बे मे ऊबीं/मै तो अपनी आग जला/दुख अपने तुम डूबीं/अमृत जन्म मिले शायद/इस घोर जन्म के बाद/मन भर सौ अवसाद।

श्यामनारायण मिश्र ने प्रकृति के अनेक चित्र अपने गीतो मे उकेरे हैं जिंको संकलित गीतो मे जगह नही मिली।बहरहाल निश्चय ही इस संग्रह में उनकी अपनी पहचान है।इसी क्रम में भोलानाथ एक उल्लेखनीय हस्ताक्षर हैं यथार्थ के धरातल पर उनका यह गीत सचेत करता है-

प्यास भीतर की बुझा पाती नही/गंगाजली यह काँच की/आग की लपटें दफन हैं/एक मुट्ठी रेत में/मेटकर सोना उगी हैं/नागफनियाँ खेत में/शौर्य का साहस जुटा पाती नही/मुह मंडली यह पाँच की।

काव्य की यह सफाई उनके अन्य गीतो में भी दृष्टव्य है।संकलन मे सुरेन्द्र पाठक और शशिकांत गीते भी ठीक हैं।

नवगीतकार भारतेन्दु मिश्र का यह कथन सही लगता है कि नवगीत में छन्द है,लालिय है,उक्ति वैचित्र्य है,युगबोध है फिर भी उसका विरोध किया जा रहा है।उसी प्रकार भूमिका में डाँ. राजेन्द्र गौतम की यह बात अपनी जगह बानगी है कि गीत समकालीन कविता में अविच्छिन्न है।उसकी अपनी विशिष्ट मुद्रा है,अपना व्यक्तित्व है-पर न तो वह कविता से अलग कुछ है और नही वह झरे पत्ते की तरह विगत महत्व की विधा है। कुलमिलाकर संग्र्ह की भूमिका का अत्यंत ही महत्व है।सम्पादन श्री भारतेन्दु मिश्र ने किया है। कृति का मुद्रण लुभावना है और रचनाओ का अपना स्तर है।

नवभारत भोपाल(23-10-1994) से साभार

पुस्तक: नवगीत एकादश

सम्पादक: डाँ.भारतेन्दु मिश्र

प्रकाशन: अयन प्रकाशन 1/20 महरौली नयी दिल्ली-30

मूल्य: रु 75/

संस्करण:1994

3 टिप्‍पणियां:

  1. नवगीत एकादश की दो समीक्षाएँ पढ़वाने के लिए हार्दिक आभार...

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  2. जी वर्षा जी बहुत दिनो से ये समीक्षाएँ फाइलों मे भटक रही थीं,आब सही जगह लग गयी हैं।आपका धन्यवाद ,आपने पढकर टिप्पणी की। शरद जी को भी पढवाइये।

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  3. भाई भारतेंदु जी नमस्कार बहुत अच्छा लगा समीक्षाएं पढ़ कर ,चूँकि मैं खुद नवगीत एकादश का सहभागी नवगीतकार हूँ इसलिए बहुत कुछ टिप्पणी करना उचित प्रतीत नहीं होता आपके अथक प्रयासों को नमन करता हूँ ! धन्यवाद और बधाई

    आपका मित्र

    भोलानाथ

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