जन्मशती पर
दृढ आस्था के कवि:कन्हैया लाल मत्त
भारतेन्दु मिश्र
लखनऊ से दिल्ली आने के बाद भाई योगेन्द्र जी से सन 1989-1990 के आसपास मुलाकात हुई तब तक उन्हे एक नवगीतकार के रूप मे जान चुका था।इससे पहले वरिष्ठ नवगीतकार देवेन्द्र शर्मा इन्द्र जी के माद्ध्यम से उनके गीत परिवार मे (बाबूराम शुक्ल,बाबूलाल गोस्वामी,राजेन्द्र गौतम,पाल भसीन,योगेन्द्रदत्त शर्मा)के साथ मैं भी सन 1987 मे शामिल हो चुका था। फिर जब से योगेन्द्र जी के साहित्यिक परिवार से मुलाकात हुई तो धीरे धीरे हम पं. कन्हैयालाल मत्त जी के परिवेश से जुडते गये।पहली बार मैने मत्त जी को योगेन्द्र जी के पूज्य पिता जी के रूप मे देखा।मत्त जी जितने सादे थे उतने ही गम्भीर सुकवि थे। फक्कडपन और मस्ती उनका स्वभाव था।कुलमिलाकर सादा जीवन उच्च विचार वाली शैली के अनुयायी के रूप मे मैने उन्हे देखा।आगरा अर्थात बृजमंडल की काव्यपरम्परा के साक्षात जीवंत प्रतिमान के रूप में मैने उन्हे पाया।फिर तो लगातार उनके जन्मदिन की काव्यगोष्ठी मे अनेक वर्षों तक उनके सानिद्ध्य में बैठने का अवसर मिलता रहा।साहित्य की दुनिया के लोग उन्हे बाल साहित्यकार मे जानते हैं किंतु मत्त जी ने जो श्रम सौन्दर्य के गीत लिखे हैं वे हिन्दी के बडे साहित्यकारों के यहाँ भी दुर्लभ हैं।बाजीगर,रिक्शेवाला, सपेरा, चाटवाला, गुब्बारेवाला, कठपुतलीवाला जैसे श्रमजीवियों पर लिखे उनके गीत तो मुझे दंग करते रहे हैं-एक राज शीर्षक गीत का अंश देखिए-
ये रन्दा गुनिया साहुल,मुगरी-ये करनी कसले
मैं इनके द्वारा हल करता हूँ बुनियादी मसले
मैं ईंट रेत गारे चूने का खेल दिखाता हूँ
है सृजन कर्म मुझको प्यारा मैं राज कहाता हूँ।
 ऐसे अनेक गीत मत्त जी ने उस समय रचे जब अधिकांश गीतकार छायावादी रोमानियत के तराने गाने में लगे थे। गूढ कविताई वाले प्रतीकों और बिम्बों की आलंकारिक शैली उनके यहाँ नही है। वे तो सहज कवि हैं-एकदम सादा-कोई बडी महत्वाकान्क्षा भी नही दिखाई देती थे मुझे उनमें स्वयं के लिए। बस वे संगच्छध्वम संवदध्वम संवोमनासि जानताम वाली आर्ष परम्परा के व्यक्ति थे।उनका साँवला सुन्दर चेहरा और समंवयवादी गहरी दृष्टि बहुत प्रभावित करती थी मुझे।अपने कवि कुटीर में अपने सन्युक्त परिवार के साथ मैने उन्हे एक आदर्श पिता और आदर्श गृह स्वामी के रूप मे देखा। संयोगवश उन्हे मेरा एक गीत –मैं चन्द्रापीड बनूँ तुम हो कादम्बरी
स्वर्ग से उतर आओ सोनपरी,सोनपरी।
-बहुत पसन्द आया था तो जब भी उनके सानिध्य मे काव्यपाठ का अवसर मिलता तो अक्सर वो इस गीत को सुनाने के लिए कहा करते थे।राधा कृष्ण प्रणय के मूल स्वर वाले उनके कई गीत बहुत मार्मिक हैं। लगभग पाँच छह ऐसी नितांत आत्मीय गोष्ठियों मे उन्हे सुनने का अवसर मिला। कई बार तो भाई योगेन्द्र जी ने गोष्ठियों का संचालन करने का अवसर भी मुझे सौपा। योगेन्द्र जी के घर जाने पर आज भी उनकी वही कुर्ता सदरी पहने तखत पर बैठे हुए दुबले पतले शरीर वाली श्यामल छवि मन मे भास्वर हो उठती है। वे अक्सर खिलाने पिलाने के अलावा घर परिवार की कुशल क्षेम आदि भी पूछते थे। उनका अपना जीवन संघर्ष भी रहा होगा लेकिन कभी उन्होने आत्मगाथा बडबोले स्वर मे नहीं सुनायी।पराधीन और स्वाधीन दोनो तरह के भारत उन्होने देखे थे। एक जातीय स्वर और राष्ट्र- भक्ति का भाव उनके गीतों मे भरा हुआ है। एक बेहद संस्कारी सहज व्यक्ति की छवि मैने उनमे देखीऔर वही छवि उनके गीतों का मूल स्वर है। वस्तुत: वे आस्था के कवि दृढ हैं-यह आस्था श्रम के प्रति हैं-सकारात्मक मूल्यों की है।यही कारण है कि उनके प्राय;यहाँ विद्रोह नकार और व्यंग्य कम दिखाई देते हैं।
ये कवि कुटीर मे होने वाली आत्मीय गोष्ठियाँ मुझ जैसे नये रचनाकार के लिए बडी प्रेरक होती थीं।इन गोष्ठियों मे प्रसिद्ध कथाकार से.रा.यात्री,देवेन्द्रशर्मा इन्द्र,कमलेश भट्ट कमल,ओमप्रकाश चतुर्वेदी पराग,वेद प्रकाश शर्मा,श्याम निर्मम, आदि से भी मुलाकात होती थी। एक दो बार वहीं स्व.शमशेर आलम खान से भी मुलाकात हुई शमशेर जी उन दिनों मत्त जी पर शोध कर रहे थे। मत्त जी किशोर वय के बच्चों के मन में आस्था और सकारात्मक बोध भरने के लिए गीत रचना करते रहे। इसके बाद भी वो बातों बातों में कहा करते थे कि -मैं कवि नहीं हूँ-मैं बस तुकबन्दी कर लेता हूँ।
 उनकी इस प्रकार की विनम्रता मुझे आज भी प्रणम्य लगती है। आशीस देने के लिए बढा हुआ उनका हाथ और उनकी आँखों की चमक आज भी मुझे कहीं गहरे तक जोडे हुए है। उनकी कुछ पंक्तियाँ तो मन पर अमिट हो गयी हैं-
मेरी आखों में अश्रु,अधर पर मधुर हास है
मैं कवि हूँ,मेरे स्वर में शंकर का निवास है।
ध्यान देने की बात है कि शंकर आदि देव हैं,शंकर नाश और सृजन के भी प्रतीक हैं।शंकर सर्वहारा के स्वामी हैं।वो पशुपति भी हैं-नागपति भी हैं-महादेव हैं-अवढर दानी हैं-आर्य अनार्य -राक्षस आदि सभी के स्वामी हैं। अवसर आने पर समय का गरल भी वही पी जाते हैं।ऐसे शंकर का निवास जिस कवि के स्वर में है वो हैं पं कन्हैया लाल मत्त। उनकी स्मृति को प्रणाम। समर्थ कवि उस बरगद की भाँति होता है जिसकी गहनता का छोर नही मिलता।कवि कुटीर की अनेक गोष्ठियों की यादें हैं।उनकी स्नेहछाया मे जुडाने का जितना अवसर मुझे मिला वह मेरा सौभाग्य है।
 
 
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