जेठ की दुपहरी
दो घनाक्षरी
(डाँ श्याम गुप्त)
दहन सी दहकै, द्वार देहरी दगर दगर ,
कली कुञ्ज कुञ्ज क्यारी क्यारी कुम्हिलाई है।
पावक प्रतीति पवन , परसि पुष्प पात पात ,
जरै तरु गात , डारी डारी मुरिझाई है ।
जेठ की दुपहरी सखि, तपाय रही अंग अंग ,
मलय बयार मन मार अलसाई है।
तपैं नगर गाँव ,छावं ढूंढ रही शीतल ठावं ,
धरती गगन 'श्याम' आगि सी लगाई है।1।
सुनसान गलियाँ वन बाग़ बाज़ार पड़े ,
जीभ को निकाल श्वान हांफते से जारहे।
कोई पड़े ऐसी कक्ष कोई लेटे तरु छाँह ,
कोई झलें पंखा कोई कूलर चलारहे
जब कहीं आवश्यक कार्य से है जाना पड़े ,
पोंछते पसीना तेज कदमों से जारहे।
ऐनक लगाए ,श्याम छतरी लिए हैं हाथ,
नर नारी सब ही पसीने से नहा रहे॥2।
( श्याम गुप्त के मेल द्वारा प्रकाशनार्थ प्राप्त)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें