रविवार, जून 20, 2010

जेठ की दुपहरी  
दो घनाक्षरी

(डाँ श्याम गुप्त)

दहन सी दहकै, द्वार देहरी दगर दगर ,

कली कुञ्ज कुञ्ज क्यारी क्यारी कुम्हिलाई है।

पावक प्रतीति पवन , परसि पुष्प पात पात ,

जरै तरु गात , डारी डारी मुरिझाई है ।

जेठ की दुपहरी सखि, तपाय रही अंग अंग ,

मलय बयार मन मार अलसाई है।

तपैं नगर गाँव ,छावं ढूंढ रही शीतल ठावं ,

धरती गगन 'श्याम' आगि सी लगाई है।1।


सुनसान गलियाँ वन बाग़ बाज़ार पड़े ,

जीभ को निकाल श्वान हांफते से जारहे।

कोई पड़े ऐसी कक्ष कोई लेटे तरु छाँह ,

कोई झलें पंखा कोई कूलर चलारहे

जब कहीं आवश्यक कार्य से है जाना पड़े ,

पोंछते पसीना तेज कदमों से जारहे।

ऐनक लगाए ,श्याम छतरी लिए हैं हाथ,

नर नारी सब ही पसीने से नहा रहे॥2।

( श्याम गुप्त के मेल द्वारा प्रकाशनार्थ प्राप्त)





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें