शुक्रवार, जनवरी 27, 2017


जन्मशती पर विशेष—
(1917 से 2007 )
                           त्रिलोचन की छांदस चेतना
# भारतेंदु मिश्र
 


गाओमन के तारों परजी भर कर गाओ
जहाँ मरण का सन्नाटा है जीवन लाओ।
त्रिलोचन मन की स्वतंत्रता के कवि है|  मानसिक स्वातंत्र्य कवि होने का सहज लक्ष्ण है|त्रिलोचन किसी एक विचार या राजनीतिक संघ से कभी जुड़े नहीं रहे|आलोचकों ने नाहक उन्हें अपनी व्याख्याओं के लिए विचारधाराओं के हिसाब से व्याख्यायित किया है|मृत्यु के सन्नाटे को जीवन में बदलने के लिए जिस भी गीत की आवश्यकता पड़े उसे गाने की वो प्रेरणा देते चलते है|उन्होंने गीत, सानेट, गजल और आवश्यकता के अनुरूप मुक्तछन्दी कविताएं भी लिखीं | कभी किसी काव्यविधा को कम करके नहीं आंका| कविता के प्रति उनके व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाता है| किन्तु उनके समीक्षकों ने उनकी छंदबद्धता का वैसा आदर नहीं किया|उनके भाषा और छंद के ज्ञान के बारे में किसी को संदेह नहीं था|किस शब्द को किस तरह से प्रयुक्त किया जाना है लोग उनसे सीखते थे| वे वैदिक संस्कृत से लेकर प्राकृत ,पाली,अंगरेजी,उर्दू,बांग्ला हिन्दी और अवधी जैसी भाषाओं के बेहतरीन जानकार थे|सागर में रह कर उन्होंने वर्षो तक मुक्तिबोध की भाषा चेतना पर काम किया|बाद में अनेक वर्षो तक अलीगढ़ वि.वि. में विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर उर्दू फारसी आदि भाषाओं पर काम किया|

उनके साथ बतकही करना किसी उत्सव से कतई कम नहीं था|मेरा सौभाग्य है कि मुझे 1989 से 1997 तक उनका सामीप्य मिला|दिल्ली में उनके साथ बिताये पल मेरे लिए अनमोल है |एक बार उनके साथ सात दिन की कुल्लू यात्रा करने का भी सौभाग्य मिला|उनसे बहुत कुछ सीखा और जाना| पहली मुलाक़ात में उन्होंने पूछा-‘पढाई लिखाई क्या की है ?’
‘जी,संस्कृत में एम्.ए. किया है|’मैंने उत्तर दिया तो बोले – ‘ये शुभ लक्षण है..क्योकि हिन्दी वालो को हिन्दी नहीं आती|’ इसके बाद वो बताते रहे कि मुझे और क्या क्या पढ़ना चाहिए| उनके साथ के अनेक संस्मरण है|संस्मरण फिर कभी अन्य अवसर के लिए उपयोगी होंगे |
उनके भाषा ज्ञान और गांभीर्य को उनकी कविता की सहजता में देखा जा सकता है|वे कविता में पूरे वाक्य संतुलित भाषा और छान्दसिक सौष्ठव के पक्षधर थे| जटिल से जटिल विषयो को सहज रूप में समझा देने की उनकी कला चमत्कृत करती थी| सच्चाई ये भी है कि उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा अकेले ही काटा|एक गीत में वे कहते है-

आज मैं अकेला हूँ/अकेले रहा नहीं जाता।
जीवन मिला है यह/रतन मिला है यह
धूल में कि फूल में /मिला है तो मिला है यह
मोल-तोल इसका/अकेले कहा नहीं जाता|

सुख आये दुख आये/दिन आये रात आये
फूल में कि धूल में आये/जैसे जब आये
सुख दुख एक भी/अकेले सहा नहीं जाता|

चरण हैं चलता हूँ/चलता हूँ चलता हूँ
फूल में कि धूल में/चलता मन चलता हूँ
ओखी धार दिन की/अकेले बहा नहीं जाता।
इतने मार्मिक ढंग से अकेलेपन की व्यथा को इस गीत के माद्ध्यम से त्रिलोचन जी रखते है कि वह प्रत्येक मनुष्य के लिए नया पाठ देने लगता है|ये उन दिनों का गीत है जब अधिकाँश नौकरी करने वाले कमाने के लिए अपने घर परिवार से दूर शहरों में रहते थे|त्रिलोचन प्रेम और जनवादी सौन्दर्य के बड़े कवि है|आत्मव्यंग्य करने से वो कभी नहीं चूकते|हालांकि उनकी कविता का स्वर संघर्ष और दृढ़ता के मूल मन्त्र से हमें जोड़ता है|उनका एक गीत है ‘परिचय की गाँठ’ ये गीत वास्तव में प्रेम या प्रणय को परिभाषित करता है|अर्थात जब किसी परिचित से हमारा संपर्क हो जाता है और जब वह बंधन अविच्छिन्न प्रतीत होने लगे तो उसी अवस्था का नाम प्रेम है| देखिये परिचय की गाँठ का स्वर-
यूं ही कुछ मुस्काकर तुमने/परिचय की वो गांठ लगा दी!
था पथ पर मैं भूला भूला /फूल उपेक्षित कोई फूला 
जाने कौन लहर ती उस दिन /तुमने अपनी याद जगा दी।
कभी कभी यूं हो जाता है /गीत कहीं कोई गाता है 
गूंज किसी उर में उठती है /तुमने वही धार उमगा दी।
जड़ता है जीवन की पीड़ा /निस्-तरंग पाषाणी क्रीड़ा
तुमने अन्जाने वह पीड़ा /छवि के शर से दूर भगा दी।
तमाम नवगीतवादियों के लिए ये गीत आज भी अत्यन्त प्रेरक है|ध्यान देने की बात ये है कि पूरे गीत में कही भी प्रेम या प्रणय शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है| यही त्रिलोचन की शक्ति है| छंद तो है ही पूरा वाक्य भी साफ़ तौर से देखा चीन्हा जा सकता है|ये जो छवि का शर इस गीत में आता है वही कविता की मूल संवेदना है|सौन्दर्य का तीर की तरह लगना ही प्रणयानुभूति है|छन्दोबद्ध कविता का कुछ आलोचकों ने जिस समय सबसे अधिक विरोध किया उसी समय में हमारे चर्चित प्रगतिशील कवि गीतों और छंदों में कविता कर रहे थे| शरद ऋतु के प्रसंग को गीत में त्रिलोचन जी बेहद सुंदर रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते है-
शरद का यह नीला आकाश 
हुआ सब का अपना आकाश 
ढ़ली दुपहरहो गया अनूप 
धूप का सोने का सा रूप 
पेड़ की डालों पर कुछ देर 
हवा करती है दोल विलास 
भरी है पारिजात की डाल 
नई कलियों से मालामाल 
कर रही बेला को संकेत 
जगत में जीवन हास हुलास 
चोंच से चोंच ग्रीव से ग्रीव 
मिला करहो कर सुखी अतीव 
छोड़कर छाया युगल कपोत 
उड़ चले लिये हुए विश्वास|
  शरद के नीले आकाश में सुनहरी धूप और पारिजात के वृक्ष पर झूलती और उसे झुलाती हवा का सुन्दर बिम्ब देखने योग्य है| इसी बीच कपोतो की रति क्रीडा का अद्भुत चित्र अपनी नैसर्गिकता के साथ अत्यंत हृदयहारी बन गया है| त्रिलोचन जी के काव्य सौन्दर्य को समझाने के लिए इस प्रकार के गीतों को व्याख्यायित किया जाना मुझे आवश्यक प्रतीत होता है| दूसरी ओर देखें ‘फेरू ’ जैसे विपन्न जाति के कहार पात्र को लेकर उन्होंने कितना सुंदर नवगीत अपने समय में उन्होंने लिखा था| फेरू मनमौजी है ठाकुर का खानदानी सेवक है| वाह बहिर्मुखी है,बहिर्मुखी से अभिप्राय सामंत के साथ बाहर राग रंग की दुनिया के नज़ारे देखने में वो भी खुश है|उसी सामंतवादी दासता के भ्रमजाल में वह ठकुराइन के झूठ के साथ मगन भी है|ऐसे भोलेभाले  पात्र आज भी हमारे गाँवों में मिल जाते हैं --
फ़ेरु अमरेथू रहता है
वह कहार है/काकवर्ण है
सृष्टि वृक्ष का /एक पर्ण है
मन का मौजी
और निरंकुश/राग रंग में ही रहता है|
उसकी सारी आकान्क्षाएं - अभिलाषाएं
बहिर्मुखी हैं/इसलिए तो
कुछ दिन बीते/अपनी ही ठकुराइन को ले
वह कलकत्ते चला गया था
जब से लौटा है/उदास ही अब रहता है। 
ठकुराइन तो बरस बिताकर/वापस आई
कहा उन्होंने मैंने काशीवास किया है
काशी बड़ी भली नगरी है
वहां पवित्र लोग रहते हैं
फेरू भी सुनता रहता है।
  नागार्जुन ,शमशेर ,केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन जैसे कवि हिन्दी की  प्रगतिशील चेतना के कवि हैं | ये सब गीत और छंद में कविताए लिख रहे थे|यही कारण था कि ये अन्य कवियों की तुलना में अधिक चर्चित और प्रासंगिक रहे| बात यह भी ध्यान देने की है  कि इनके काव्य में इनका अपना जीवन संघर्ष इनकी अपनी लोकचेतना के साथ भास्वर होता हैलोकचेतना का अर्थ ही है संपूर्ण लोक जीवन जिसमे लोकभाषा चेतना ,किसान चेतना,आंचलिक सौन्दर्य,जनपदीय स्वर,लोक भाषा के छंद और उनकी जीवन लय त्रिलोचन के सामने नागार्जुन थे तुलसीदास उनके भाषा गुरू थे हीसंस्कृत माध्यम से बचपन में पढाई शुरू हुई|कबड्डी और पहलवानी उनके खेल थे| उनका जन्म 20 अगस्त 1917 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले के कठघरा चिरानी पट्टी गाँव में क्षत्रिय परिवार में हुआ। बाद में काशी विद्यापीठ में रहकर पढाई की| स्वतंत्रता संग्राम का अंतिम चरण भी देखा और देश का विभाजन भी|उनका इतिहास बोध कमाल का था| कालिदास,तुलसी,शेक्सपीयर ,गुरुदेव रवीन्द्र आदि  से लेकर लेनिन, मार्क्स,स्वामी विवेकानंद,के बारे में उनसे कोई भी घंटो बात कर सकता था| बातचीत के सिलसिले में खाना पीना भी भूल जाया करते थे| जीवन संघर्ष और संघर्ष से प्रगति का मार्ग देखना उनका स्वभाव बन गया था|अपने गाँव के पात्रो को,अपने जनपद को और  अपने समाज को त्रिलोचन जी प्रगति करते हुए देखना चाहते हैं | यह उनका जन्मशती वर्ष है| अब यदि जीवित होते तो शतायु हो चुके होते| बहरहाल उनकी कविताएं आज भी जीवित है और आगे भी जीवित रहेंगी|मानवता  तो सबके मूल में है ही|इसीलिए मुझे लगता है कि  त्रिलोचन जी हिंदी की प्रगतिशील काव्यधारा के साथ ही अपनी जनपदीयता और अवधी लोक के प्रमुख और अपरिहार्य कवि भी हैं।उत्तर प्रदेश के छोटे जनपद आज भी अपने स्वाभिक विकास की प्रतीक्षा कर रहे है|अपने जनपद के अभावो को याद करते हुए वे एक सानेट में कहते है-
उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है, 
नंगा हैअनजान हैकला--नहीं जानता 
कैसी होती है क्या हैवह नहीं मानता 
कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है |
   उनके बारे में डॉ. रामविलास शर्मा जी की टिप्पणी बहुत महत्त्वपूर्ण है - "एक खास अर्थ में आधुनिक है और सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि आधुनिकता के सारे प्रचलित साँचों को (अर्थात नयी कविता के साँचों को) अस्वीकार करते हुए भी आधुनिक हैं। दरअसल वे आज की हिंदी कविता में उस धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो आधुनिकता के सारे शोरशराबे के बीच हिंदी भाषा और हिंदी जाति की संघर्षशील चेतना की जड़ों को सींचती हुई चुपचाप बहती रही है। त्रिलोचन जी की कविताएँ समकालीन बोध की रूढ़िग्रस्त परिधि को तोड़ने वाली कविताएँ हैं।" यह कहने के पीछे रामविलास जी का मंतव्य समझने के लिए हम जब उनकी कविताओं की पड़ताल करते है तो देखते है कि वे नई कविता के रूपवादी स्वरूप से बचकर निकल जाते है|उनकी कविताओं का स्वर ग्राम चेतना से सदैव संपृक्त दिखाई देता है|अब ज़रा उनकी रचनाओं  के नामकरण बारे में जाने -
धरतीदिगंतगुलाब और बुलबुलताप के ताये हुए दिनअरधानउस जनपद का कवि हूँफूल नाम है एकअनकहनी भी कहनी हैतुम्हें सौंपता हूँसबका अपना आकाशअमोला आदि उनके काव्य संग्रह है । इनमे से ‘अमोला’ में उनके अवधी भाषा में लिखे 400 बरवै संग्रहीत है| इस शीर्षकों की ध्वनि भी उनकी लोक चेतना का उद्घोष करती है| त्रिलोचन बड़े इसीलिए है कि वे अपनी जातीय भाषा अवधी और जनपदीयता को कभी नहीं छोड़ते| इसीलिए वे कवि से अधिक भाषाशास्त्री के रूप में दिखाई देते है| ध्यान देने की बात ये भी है कि जो कुछ उन्होंने अवधी में लिखा उस संग्रह का नाम ‘अमोला’ अर्थात जो अमूल्य है |उनसे जब कभी अवधी भाषा के बारेमें बात होती थी तो वो कहा करते थे-‘अवधी में लिखिए पढ़िए,गद्य का प्रयोग अवधी में नहीं हुआ है|अवधी गद्य में अनंत शक्ति है|’ उन्ही दिनों मैंने एक अखबार के लिए उनसे बातचीत की थी तो एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा था-‘मै अवध के गाँवों को विश्वविद्यालय मानता हूँ|’ जाहिर है कि त्रिलोचन जी लगातार अपने जनपदीय पात्रो के दुःख और जीवन को लेकर लगातार रचनाशील रहे| यह प्रेरणा उन्हें तुलसी की भाषा से मिली है|  एक कविता में वे तुलसीदास को अपना भाषा गुरू स्वीकारते है-
“तुलसी बाबाभाषा मैंने तुमसे सीखी
मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो ।
कह सकते थे तुम सब कड़वीमीठी तीखी ।
प्रखर काल की धारा पर तुम जमे हुए हो ।
और वृक्ष गिर गए मगर तुम थमे हुए हो ।“
ये सच है कि तुलसीदास जैसा दूसरा कवि हिन्दी में नहीं हुआ जिसने अपने समय में नई काव्य भाषा गढ़ी| अपने समाज की भाषा को नया रूपाकार देने में तुलसी बेजोड़ हैं | त्रिलोचन के सामने तुलसी हमेशा खड़े हुए दिखाई देते है| लेकिन कुछ मार्क्सवादियो को तुलसी केवल धार्मिक और सामंतवाद के पोषक कवि के रूप में दिखाई देते है| इन आलोचकों के वैचारिक मोतियाबिंद का कोई इलाज नहीं है| त्रिलोचन को तुलसी से जो गृहण करना है उतना ही लेते है|  ध्यान देने की बात है कि त्रिलोचन तुलसी से दासवाली भक्ति की प्रेरणा कतई नहीं लेते| त्रिलोचन जी इसी अर्थ में सबसे अलग है| वे परपरा से भाषा और जातीय चेतना लेते है लेकिन वैचारिक भूमि में वे तमाम आधुनिक कवियों से बहुत आगे खड़े दिखाई देते हैं|उनकी कविताओं में नगई महारा,फेरू,चम्पा जैसे लोक जीवन के पात्र सहज ही प्रकट होते है| शुरुआत तो गीत और हिन्दी में गजल के प्रयोग से ही करते है इसके बाद सानेट छंद में उनकी कविताई निखरती है| उनकी मुक्तछंदी कविताओं में भी अंतर्लय की अन्विति सदैव विद्यमान रहती है|एक गजल देखिये-
बिस्तरा है न चारपाई है,/जिन्दगी खूब हमने पायी है। 
‘कल अंधेरे में जिसने सर काटा,/नाम मत लो हमारा भाई है।
ठोकरें दर-ब-दर की थी हम थे,/कम नहीं हमने मुँह की खाई है। 
कब तलक तीर वे नहीं छूते,/अब इसी बात पर लड़ाई है। 
आदमी जी रहा है मरने को/सबसे ऊपर यही सचाई है। 
कच्चे ही हो अभी त्रिलोचन तुम /धुन कहाँ वह सँभल के आई है।
ये आत्मव्यंग्य  की साफ़गोई आज की हिन्दी गजल में भी देखने को नहीं मिलती| उन्हें अपने जातीय छंदों से भी प्रेम है| उनके आलोचकों ने उन्हें व्याख्यायित तो किया किन्तु कभी उनके इस पक्ष पर जानबूझकर विचार नहीं किया| किसान आसमान में घुमड़ते हुए बादलो को देखकर किस प्रकार आह्लादित होता है यह हम सभी जानते है |लेकिन इस गीत में त्रिलोचन जी किसान को पुरवाई के माद्ध्यम से सन्देश भेजते है| इस प्रकार के मनोरम मानवीय भावो से त्रिलोचन की कविताई हमें आह्लादित भी करती है और उनकी ग्राम्य सौन्दर्य को चीन्हने वाली दृष्टि का भी हमें पता बताती है| इसी लिए त्रिलोचन जनकवि है--
उठ किसान ओउठ किसान ओ,/बादल घिर आए हैं
तेरे हरे-भरे सावन के/साथी ये आए हैं|
आसमान भर गया देख तो/इधर देख तोउधर देख तो
नाच रहे हैं उमड़-घुमड़ कर/काले बाल तनिक देख तो
तेरे प्राणों में भरने को/नए राग लाए हैं|
यह संदेशा लेकर आई/सरस मधुरशीतल पूरवाई
तेरे लिएअकेले तेरे/लिएकहाँ से चलकर आई
फिर वे परदेसी पाहुनसुन,/तेरे घर आए हैं|
चैती,कातिक पयान जैसी उनकी अनेक कविताएं उनके किसान और किसानी को व्याख्यायित करने वालीहै| किसान को जगाने वाले उसमे उल्लास भरने वाले कवियों की परंपरा में त्रिलोचन जी का नाम आदरपूर्वक लिया जाना चाहिए| भारत किसानो का देश है और रहेगा भी उन्होंने ज्यादातर किसान और  कृषि मजदूरों से जुडी कविताओं के में उनके जटिल जीवन को रेखांकित किया है| त्रिलोचन जी ने अभाव को बहुत निकट से देखा ही नहीं किन्तु जिया भी था| एक मेहनती कामकाजी और स्वाभिमानी व्यक्ति की छवि त्रिलोचन जी की सदैव बनी रही|अभावो को सहा लेकिन समझौते नहीं किये| काविताई से सम्मान वगैरह तो बहुत बाद में मिलने शुरू हुए थे |कवि का जीवन जब उसकी कविताओं में से झांकता है तभी उसे सच्चा सम्मान मिलता है| खुली किताब की तरह खिलंदड़े स्वभाव के त्रिलोचन स्वयं अपने बारे में एक सानेट में कहते है- 
वही त्रिलोचन हैवह-जिस के तन पर गंदे
कपड़े हैं। कपड़े भी कैसे-फटे लटे हैं
यह भी फ़ैशन हैफ़ैशन से कटे कटे हैं।
कौन कह सकेगा इसका यह जीवन चंदे
पर अवलम्बित् है। चलना तो देखो इसका-
उठा हुआ सिरचौड़ी छातीलम्बी बाहें,
सधे कदमतेजीवे टेढ़ी मेढ़ी राहें
मानो डर से सिकुड़ रही हैंकिस का किस का
ध्यान इस समय खींच रहा है। कौन बताए,
क्या हलचल है इस के रुंधे रुंधाए जी में
कभी नहीं देखा है इसको चलते धीमे।
धुन का पक्का हैजो चेते वही चिताए।
जीवन इसका जो कुछ है पथ पर बिखरा है,
तप तप कर ही भट्ठी में सोना निखरा है।
पुराने लोग जानते है कि त्रिलोचन जी पैदल बहुत चलते थे| पैसे का अभाव उनकी इस आदत के पीछे एक बड़ा कारण बनी| इसीलिए वे अधिकाँश जीवन स्वस्थ भी रहे और 90 वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हुए|तुलसीदास को त्रिलोचन जी अपना आदर्श कवि मानकर चलते रहे|इसका मुख्य कारण तो तुलसी की  भाषा है|इसीलिए अनेक तरह से तुलसीदास को स्मरण करते है| अपने जीवन की तुलना तुलसीदास के सरोकारों से करते हुए एक वे एक अवधी कविता में कहते है कि कविता तो बहुत लोगो ने की है लेकिन तुलसीदास जैसी कविता कैसे की जा सकती है,क्योकि तुलसी तो स्वयं को उबारते है और अन्य पाठक आदि को भी दुखो से उबारते है| प्रकारांतर से त्रिलोचन जी यह भी कहना चाहते है कि तुलसी ने जो कुछ कहा है वही सब कुछ आगे के कवियों के पास भी दिखाई दे रहा है|तुलसी जन जीवन करूणा और दुःख की व्याख्या करने वाले बड़े कवि  है|यही कारण है कि तुलसीदास की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है| तुलसी के अवदान को रेखांकित करते हुए त्रिलोचन जी लिखते है-
कहेन किहेन जेस तुलसी तेस केसे अब होये।
कविता केतना जने किहेन हैं आगेउ करिहैं;
अपनी अपनी बिधि से ई भवसागर तरिहैं,
हमहूँ तौ अब तक एनहीं ओनहीं कै ढोये;
नाइ सोक सरका तब फरके होइ के रोये।
जे अपनइ बूड़त आ ओसे भला उबरिहैं
कैसे बूड़इवाले सँगसँग जरिहैं मरिहैं
जेओनहीं जौं हाथ लगावइँ तउ सब होये।
तुलसी अपुनाँ उबरेन औ आन कँ उबारेन।
जनेजने कइ नारी अपने हाथेन टोयेन;
सबकइ एक दवाई राम नाम मँ राखेन;
काम क्रोध पन कइ तमाम खटराग नेवारेन;
जवन जहाँ कालिमा रही ओकाँ खुब धोयेन।
कुलि आगे उतिरान जहाँ तेतना ओइ भाखेन|
  अंतत: लोक जीवन से जुडी उनकी सहजता ही मुझे बेहद आकषित करती रही|मैंने उन्हें दिल्ली स्थित यमुनाविहार से सादतपुर आते जाते कई बार देखा लेकिन वो कभी रिक्शा या ऑटो रिक्शा नहीं लेते थे| सादतपुर में उन दिनों बाबा नागार्जुन रहते थे| आज भी सादतपुर साहित्यकारों और लेखको के नाम से जाना जाता है|उनदिनों कथाकार रमाकांत,डा.माहेश्वर,विष्णुचंद शर्मा,हरिपाल त्यागी,रामकुमार कृषक,महेश दर्पण,सुरेश सलिल,वीरेन्द्र जैन,रहते थे बाद में हीरालाल  नागर,राधेश्याम तिवारी भी इधर ही रहने लगे| उन दिनों मैं भी उसी तरफ रहता था| संयोग से मेरा घर बीच में पड़ता था| तो त्रिलोचन जी ने एकाधिक बार मेरे घर पर भी पैदल ही पधारने की कृपा की| वे मेरे कितने आत्मीय बन गए थे यह कहना कठिन है| उनका जाना मुझे कुछ वैसे ही लगा जैसा कि उन्होंने अपने एक गीत में दिन के अवसान हो लेकर लिखा था- ‘हंस के सामान दिन /उड़कर चला गया’| बहरहाल मेरे लिए त्रिलोचन जी हिन्दी की छांदस  कविता के महत्वपूर्ण नाम है| उनकी ‘अमोला’ भी जिस तरह से समीक्षित होनी चाहिए वह नहीं हुई| मेरा मानना है कि त्रिलोचन जी की कविताई को सही रूप में जानने के लिए उनकी कविताओं में सहज रूप में प्रवाहित छंद चेतना और भाषा को समझना अनिवार्य है|वे बार बार अपनी भाषा चेतना का सन्दर्भ देते हुए चलते है-
भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है,
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है|
तात्पर्य यह कि उनकी भाषा और उनके छंद ही उनके जीवन की हलचल के पर्याय थे| वो और उनकी भाषा आज भी हिन्दी के नए कवियो के सामने ताल ठोकर चुनौती देती हुई दिखाई देती है|उनकी स्मृति को प्रणाम|


(मध्य में त्रिलोचन शास्त्री जी )

कुल्लू में एक समारोह का चित्र (बटुक जी ,पाल भसीन,भारतेंदु मिश्र,देवेन्द्र शर्मा इंद्र,बाबूराम शुक्ल ,त्रिलोचन शास्त्री,और स्वामी श्याम )



रविवार, दिसंबर 04, 2016

आलेख-
“ गीत का रथ चल रहा है”


# भारतेंदु मिश्र 

काँपती लौये स्याहीये धुआँये काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी गीत थी पर जिल्द बंधाने में कटी| 
(गोपालदास सक्सेना 'नीरज'

                                                                                       हमारी काव्य परंपरा में कवि अक्सर कविताई के माध्यम से अपना परिचय भी देते थे |यहाँ ये मुक्तक ही नीरज जी का वास्तविक परिचय देता है|इन चार पंक्तियों में प्रेम, सौन्दर्य और जीवन संघर्ष का स्वर है|  कवि के मन में जीवन सौन्दर्य से उपजी जो बिरही मन की पीड़ा है वही उसके लिए गीत है | असल में कवि  के सामने कोई स्त्री विशेष नहीं है बल्कि सूक्ष्म संवेदनाओं की भरीपुरी दुनिया है |सार्थक गीत लिखने वाले कवि को एक सलीके का गीत रचने में पूरी जिन्दगी लगानी पड़ती है| नीरज के मन का कवि उसी जिन्दगी के गीत पर जिल्द  बंधवाने की कोशिश करता है| ये जो जिल्द बंधवाना है वही जिन्दगी को समग्रता में सहेजने की कोशिश भी है| आँखों की नमी का मतलब,आम आदमी के दुख के साए हैं| अर्थात नीरज जी के लिए गीत ही उनकी भरपूर जिन्दगी है|उस गीत में ही उनकी समूची दुनिया है| जिसे सहेजने की कोशिश में वो आज भी सजग हैं |
 भारतीय समाज में पुनर्जागरण काल जिसे हम स्वातंत्रयोत्तर काल भी कह सकते हैं उसमे अनेक तरह के बदलाव हुए |परिणाम स्वरूप साहित्य में भी स्वाभाविक रूप से अनेक तरह के वेग और धाराएं समय समय पर उठती गिरती हुई देखी जा सकती हैं | हिंदी  कविता का स्वरूप भी इस बदलाव का साक्षी बना| नीरज या नीरज जैसे मंचीय गीतकार हिन्दी की लोकवादी वाचिक कविता के स्वरूप को लगातार निखारते रहे हैं| असल में यही हमारी कविता की वाचिक परंपरा की खूबी भी रही है|
उत्तर प्रदेश के इटावा में 4 जनवरी सन 1925 को जन्मे कविवर गोपालदास नीरज जी हिन्दी की वाचिक कविता परंपरा की धरोहर हैं|नीरज को उनके जीवन संघर्षो ने ही गीतकार बना दिया | अल्पायु में पितृविहीन हुए,घर छूटा नौकरियों के लिए एटा ,फिर दिल्ली और दिल्ली से कानपुर  तक भटकना पडा | टाइपिस्ट या क्लर्की की नौकरी करते हुए नीरज कब किशोर से जवान हुए पता ही नहीं चला| लेकिन इस जीवन संघर्ष ने नीरज को कवि बना दिया था| उन्होंने  कानपुर में रह कर अपनी पढाई भी जारी रखी| कानपुर ही ज्यादातर उनके युवा मन के संघर्षो और सपनों का साक्षी बना| अध्यापन के लिए मेरठ गए | मेरठ के बाद अलीगढ़ के धर्म समाज महाविद्यालय में प्राध्यापक  नियुक्त हुए| यह सब होने के साथ ही नीरज ने कभी कविता कामिनी का साथ नहीं छोड़ा| उनकी ख्याति विशेष रूप से देश के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतकारो में कई दशक पहले बन चुकी थी | वे मानवतावादी विचारों साथ ही श्रंगार प्रेम आस्था और ओज के गीतकार के रूप में हिन्दी कवियों के समाज में चर्चित रहे हैं |
एक समय राष्ट्रकवि दिनकर जी ने उनकी काव्यपाठ शैली को लेकर उन्हें –‘हिन्दी की वीणा’ कहा था| भारत सरकार के पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे अलंकरणों  से अलंकृत गोपालदास नीरज हिन्दी की वाचिक काव्य परंपरा और उसके आध्यात्मिक,सांस्कृतिक सरोकारों एवं रसवादी रुचियों को अपनी कविताओं से परिमार्जित करने वाले जनता के कवि हैं| कई दशको से हिन्दी कविसम्मेलनो का अत्यंत सुपरिचित स्वर नीरज जी ही रहे हैं| आपने हिन्दी सिनेमा में भी अनेक फिल्मो के लिए बेहतरीन गीत लिखे हैं | नीरज जी के गीत गीतिका और दोहो के संग्रह काफी समय से बाजार में उपलब्ध हैं |  अत्यंत सुख संतोष का विषय यह भी है कि आज लगभग 92 वर्ष की आयु में भी नीरज जी साहित्य के प्रति पूर्णतया सजग हैं|   
 नीरज जी से हिन्दी संसार अच्छी तरह परिचित है| उनका काव्यात्मक व्यक्तित्व समाजवादी विचारों के ऊहा पोह और अमीर गरीब सबको एक सामान एक स्तर पर समझने वाली चेतना का प्रतीक है|कुछ लोगो की नजर में यह विवादास्पद भी हो सकता है, लेकिन ‘बस यही अपराध मै हर बार करता हूँ /आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ |’जैसी अमर पंक्तिया लिखने वाले नीरज जी जन समाज की दृष्टि में मानवीय  प्रेम के अन्यतम गायक हैं। 'भदन्त आनन्द कौसल्याननके शब्दों में- “उनमें हिन्दी का अश्वघोष बनने की क्षमता है।“ अर्थात जिस प्रकार अश्वघोष ने ‘बुद्धचरित’ नाटक लिखकर सामाजिक चिंतन करते हुए अपने समय में भगवान बुद्ध को अपना चरित नायक बनाया था उसी प्रकार नीरज जी में भारतीय दार्शनिक सांस्कृतिक समझ विद्यमान है|वे मानवीय करुणा के कवि  हैं|  वे समाजवादी चिंतन को व्यापक रूप दे सकते हैं |भदंत कौसल्यायन की यह भविष्यवाणी पूर्ण रूप से सत्य नहीं हो पायी,परन्तु उनमें अश्वघोष बनने की क्षमता सदैव बनी रही| दूसरी ओर राष्ट्रकवि दिनकर के अनुसार वे ‘हिन्दी की वीणा’ हैं। यह बात ज्यादा सही साबित हुई|अन्य भाषा-भाषियों के विचार में वे 'सन्त-कविहैं और कुछ आलोचक उन्हें 'निराश-मृत्युवादीकवि भी कह सकते हैं। इस सबके बावजूद नीरज जी वर्तमान समय में हिन्दी जगत के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं, जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी काव्यानुभूति तथा सरल भाषा द्वारा हिन्दी की वाचिक कविता को एक नया मोड़ दिया है |वे स्वयं बच्चन जी की कृति  ‘निशा निमन्त्रण’ से प्रभावित हुए किन्तु बाद में उन्होंने नयी पीढी के मंचीय गीत कवियों को सर्वाधिक प्रभावित किया है। आज अनेक नए गीतकारों के कण्ठों में उन्हीं की अनुगूँज है । करोड़ों कंठो में अपनी व्याप्ति बना लेने वाले कवि नीरज ने अपनी ख्याति अपनी काव्य पाठ शैली से ही अर्जित की है| उनका स्वर उनकी आत्मा की गहराई से फूटकर बाहर आता है| उनकी प्रांरम्भिक चर्चित रचनाएं –‘कारवाँ गुजर गया’ और ‘नीरज की पाती’  है जो हिन्द पाकेट बुक्स से प्रकाशित हुई | उसके बाद के अनेक संग्रह आत्माराम एंड संस ,पेंग्विन आदि से भी प्रकाशित हुए| उनके काव्य संग्रहों में –
संघर्ष (1944),अन्तर्ध्वनि (1946)विभावरी (1948)प्राणगीत (1951)दर्द दिया है (1956)बादर बरस गयो (1957)मुक्तकी (1958)दो गीत (1958)नीरज की पाती (1958)गीत भी अगीत भी (1959)आसावरी (1963)नदी किनारे (1963)लहर पुकारे (1963)कारवाँ गुजर गया (1964) फिर दीप जलेगा (1970)तुम्हारे लिये (1972)नीरज की गीतिकाएँ (1987) इसके बाद आये संग्रहों में  – ‘गीत जो गाये नहीं’,’बादलों से सलाम लेता हूँ’,और ‘पुष्प पारिजात के’  आदि प्रमुख हैं | ध्यान देने की बात यह भी है कि नीरज जी की ज्यादातर काव्य पुस्तके कई बार पुनर्प्रकाशित भी हुई | अब तो ‘नीरज रचनावली’ का भी प्रकाशन हो चुका है|
मूलत: नीरज गीत गजल और रूबाई के मुक्तक कवि है, प्रबंध कवि नहीं हैं | हालांकि वे प्रेम और सौन्दर्य के निरे श्रंगारी कवि भी नहीं हैं,कई बार उनका यही प्रेम नारी सौन्दर्य के साथ  ही देश प्रेम के रूप में हिलोरें  मारने लगता है| उनके गीतों में व्यष्टि से समष्टि तक की प्रणय यात्रा के असंख्य अमिट लक्षण दिखाई देते है|रुबाइयो और गजलो में उपस्थित उनके सूफियाना अंदाज को नजरंदाज नहीं किया जा सकता| जीवन में आस्था और विश्वास का भाव कभी समाप्त नहीं होता|कवि अपने समाज को खुली आँखों देखे जाने वाले सपनों की ओर लेकर आना चाहता है| ‘जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना/अन्धेरा धरा पर कही रह न जाए|’ जैसी अनेक अमर पंक्तियां देने वाले कवि के अवचेतना में सदैव ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ जैसी आर्ष वचनों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अवश्य विद्यमान रही है |  सहज शब्दों में गीता का उपदेश सुना सकने की क्षमता वाले कवि नीरज की निम्न पंक्तियाँ देखें| सामाजिक समरसता के प्रति आस्था और विश्वास का ये भाव सचमुच स्पृहणीय है  -
छिप-छिप अश्रु बहाने वालोंमोती व्यर्थ लुटाने  वालों
कुछ सपनों के मर जाने सेजीवन नहीं मरा करता है।
खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी 
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! जाने वालों चाल बदलकर !
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।
प्रसंगवश अभी हाल में ही जिस प्रकार वर्ष 2016 के लिए साहित्य के नोबल पुरस्कार से अमेरिकी गीतकार और संगीतकार  “बॉब डिलन” को सम्मानित किया गया है ,वह नोबल पुरस्कारों के इतिहास में बड़ी युगांतकारी सूचना है| इसका यह सन्देश भी मिलता है कि कविता या साहित्य की जो जनरुचि वाली  या लोकोन्मुखी रसधारा हमारे समाज में बौद्धिक विमर्श वाली प्रगतिकामी धारा के साथ समानांतर रूप से चलती रहती है, उसका महत्व कम करके नहीं आंका जा सकता| प्राय: देखा गया है कि जो बहुत पापुलर होता है वह सामाजिक सरोकारों की दृष्टि से उतना ही महत्वपूर्ण भी हो जाता है |लेकिन “बॉब डिलन” की प्रतिभा क्षमता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उन्हें उनकी पापुलरिटी ने ही महत्त्वपूर्ण भी बना दिया| यही अवधारणा हम चर्चित गीतकार कवि गोपालदास नीरज को लेकर भी विकसित कर सकते हैं | नीरज मानवीय संवेदना की दार्शनिक और सांस्कृतिक गूंज के कवि हैं | हिन्दी की जो छायावादोत्तर कविता धारा पुनर्जागरण के बाद छीजने लगी थी उसे गीत और नवगीत के कवियों ने सहेजने का काम किया|हालांकि गीतकारो में भी गीत और नवगीत के सरोकारों को लेकर एक राय नहीं बन सकी |
गीत को छायावादी प्रेम ,सौन्दर्य ,आध्यात्म जैसे  मूल्यों के प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता रहा और नवगीत को समकालीन जीवन के यथार्थवादी प्रगतिशील पक्ष से जोड़कर ही देखा गया| ‘नवगीत दशक-1,2,3’ की योजना के दिशावाहक डा.शंभुनाथ सिंह ने तो कविसम्मेलनों में जाने वाले कवियों को नवगीतकार भी नहीं स्वीकार किया था| हम इसे हिन्दी कविता में गीत और नवगीत की विभाजक रेखा के रूप में भी देख सकते हैं|अर्थात उत्सवधर्मी पारंपरिक विषयों की वे कवितायेँ जिन्हें सुर लय के साथ गाया जा सके उसे गीत और जिसे समकालीन कविता के समकक्ष पाठ्य रूप में और युगीन विमर्श में शामिल किया जा सके उसे नवगीत कहा समझा जाने लगा| कालान्तर में यह विभाजक रेखा गीतकारो ने तोड दी|बहुत सीमा तक स्वयं डा.शंभुनाथ सिंह ने अपने बनाए नियमो को ही नवगीत दशक -3 तक आते आते शिथिल कर दिया था|उनके अपने ही गीतकार मित्रो के अनेक तरह के दबाव उनपर थे| इसके बावजूद अपने दुराग्रहो के चलते शंभुनाथ सिंह ने वीरेन्द्र मिश्र,रमेश रंजक,रमानाथ अवस्थी ,गोपाल दास नीरज और कुंअर बेचैन जैसे गीत कवियों को ‘नवगीत दशक 1,2,3’ में शामिल नहीं किया|
बहरहाल नीरज जी बालकृष्ण शर्मा नवीन,गोपाल सिंह नेपाली,दिनकर ,हरिवंशराय बच्चन,भवानी प्रसाद मिश्र,बलबीरसिंह रंग,शिवमंगल सिंह सुमन,रमानाथ अवस्थी आदि गीत कवियों की विराट सांस्कृतिक आध्यात्मिक  मानवीय परंपरा के गीतकार हैं | वे दशको से पाठ्यक्रमो में भी शामिल रहे और मंचो पर भी बने रहे| हिन्दी गीतकारो की यह वाचिक परंपरा आज मंचीय कविता से कविता के क्षीण होने के साथ ही नष्ट हो रही है| अब कविसम्मेलनो में फूहड़ हास्यकवियों और मसखरों का जमावड़ा हो गया है| अब  मंचीय कवियों में द्विअर्थी अश्लील तुकबन्दियाँ जोड़ने वाले अथवा नकली वीरता भाव जगाने वाले कवियों का ही बोलबाला रह गया है| मंचो पर अब अच्छे गीतकार भी कविता पढ़ने से कतराने लगे हैं |पारिश्रमिक तो हास्य कवियों की तुलना में उनका आधा भी नहीं रहा| अत: मंच से कविता को या अच्छे गीतकार को जोड़कर देखना आज के समय में उचित नहीं है| नीरज जी को कई बार सुनने और एक बार साथ कविता पढने का  अवसर मुझे भी मिला| प्रसंगवश यह संयोग ही है कि मैंने सन – 1982 में नीरज जी की अध्यक्षता में संपन्न हुए चौक लखनऊ के एक कविसम्मेलन में कविता पाठ किया | उस कविसम्मेलन में प्रख्यात कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा जी भी थी| तब उस कवि सम्मेलन में मुझे 20/ पारिश्रमिक मिला था| बेरोजगारी के दिनों में वह मेरे लिए बड़ी धनराशि थी| मुझे बहुत तालियां भी मिली थीं,लेकिन वो तालियाँ ज्यादातर मेरे प्रस्तुतीकरण पर बजी थीं | खैर ,उस दिन पहली बार मुझे नीरज जी और सुमित्रा जी का बहुत स्नेह भी मिला| किन्तु कुछ मस्खरो के बेहूदा आचरण के कारण उसके बाद दुबारा ऐसे  मंचो पर कविता न पढने का मैंने निर्णय लिया |बाद में फिर कभी मैने अपने को वहाँ फिट नहीं समझा और मैं नवगीत की ओर मुड़ गया| लेकिन नीरज जी का तब का आटोग्राफ अभी तक संभाल कर रखा है|     
बहरहाल,जो नवगीत की यथार्थवादी प्रगतिशील कविता धारा शंभुनाथ सिंह के अलावा रमेश रंजक,वीरेन्द्र मिश्र ,माहेश्वर तिवारी,शान्ति सुमन,ठाकुर प्रसाद सिंह ,शिवबहादुर सिह भदौरिया,नईम ,देवेन्द्र शर्मा इंद्र ,उमाकांत मालवीय, सत्यनारायण,महेश अनघ,कैलाश गौतम,इसाक अश्क,गुलाब सिंह,नचिकेता जैसे नवगीतकारो द्वारा एक समय में चलाई गयी वह प्रगतिशील गीत कविता के पाठ्य स्वरूप और जन सरोकारों पर केन्द्रित थी| नीरज जी कभी  नवगीत के इस विमर्श वाले पक्ष को लेकर बहुत सजग नहीं रहे|हालांकि उन्होंने जाने अनजाने नवगीत आन्दोलन का समर्थन ही किया है| उनका एक गीत देखने योग्य है –‘ए भाई ! ज़रा देख के चलो/आगे ही नहीं पीछे भी /दाएं ही नहीं बाएँ भी|’ ऐसे जनपक्ष वाले मार्मिक यथार्थवादी कई नवगीत भी उनके खजाने मिलते हैं |  उनके सामने हजारो हजार श्रोताओं की भीड़ सदैव रही और  उन्होंने श्रोताओं को ध्यान में रखकर जनरुचि की कविता की| उन्होंने अपनी रसवादी काव्यपाठ शैली से जनता के व्यापक सरोकारों के साथ अनुरंजन करते हुए कविता कामिनी को सजाया संवारा है |स्वयं ही उन्होंने अपने गीतों और गजलो का रचना विधान बनाया, वे अपनी संवादधर्मी मौलिक काव्य चेतना के ज्योतिपुंज हैं | नीरज जी अपनी रचनाशीलता से हिन्दी कविता के मंच पर लगभग पांच दशको से केन्द्रीय भूमिका में विद्यमान रहे हैं | उनके नाम से हिन्दी काव्य प्रेमी श्रोताओं की भीड़ का जमावड़ा हम सबने देखा ही नहीं महसूस भी किया है| एक दोहे में वे कहते हैं-
गीत वही है सुन जिसेझूमे सब संसार
वर्ना गाना गीत काबिलकुल है बेकार। 
नीरज जी लगातार कविता से आनंद वितरित करने का काम करते रहने के लिए जाने जाते है|हालांकि उनकी कविता का प्रयोजन-यशसे और अर्थकृते के रूप में ही लक्षित किया जाना चाहिए|एक तरफ वे कविता के आनंदमार्ग के समर्थक दिखाई देते हैं दूसरी ओर वे गंभीर दार्शनिक चेतना के प्रतिनिधि भी नजर आते हैं | निम्न दोहों में अपनी चिर परिचित दार्शनिक बोध की मुद्रा में वे कहते हैं-
बड़े जतन के बाद रे ! मिले मनुज की देह
इसको गन्दा कर नहींहै ये प्रभु का गेह।      
अन्तिम घर संसार मेंहै सबका शमशान
फिर इस माटी महल परक्यों इतना अभिमान।
हर एक समाज में मनुष्यता को परिमार्जित करने  की लगातार आवश्यकता रहती है|मंचीय कवियों ने सामान्य जन को इस प्रकार की पंक्तियों से लगातार जगाने का काम किया है| नीरज जी इस रूप में वाचिक कविता के आदर्श हैं| ‘नीरज की पाती ’में उनके अनेक प्रगीत है जो बेहद मार्मिक बन गए हैं| सैनिक की ओर  से लिखे गए पत्र की भाषा और संवेदना देखिए  -
आज की रात तुझे आख़िरी ख़त और लिख दूँ
कौन जाने यह दिया सुबह तक जले न जले ?
बम्ब बारुद के इस दौर में मालूम नहीं 
ऐसी रंगीन हवा फिर कभी चले न चले।
नीरज जी के पास ऐसे अनेक गीत है जो प्रेम और समर्पण के विभिन्न कोणों  के हिसाब से मनुष्य की शाश्वत संवेदना और जीवन की मर्म वेदना का पता बताते हैं | ‘नीरज की पाती’ में एक और चर्चित प्रगीत कानपुर को लेकर संकलित है इस गीत में कवि की अपनी निजता का विस्तार दिखाई देता है| कानपुर से नीरज जी का गहरा संबंध रहा है| कवि ने कानपुर में अपने संघर्ष के दिन बिताये थे| उनकी  जवानी यही परवान चढी और उनकी शिक्षा भी यही हुई| इंटरमीडिएट ,बी.ए. और एम्.ए. की शिक्षा भी कानपुर में ही हुई | प्रेम और सौन्दर्य की पहचान इसी उम्र में यही विकसित हुई|यह स्वतंत्रता के बाद का समय था सन 1952- 53 का हिन्दुस्तान और उस दौर का कानपुर देखिए कवि की स्मृतियों में कवि के संघर्ष का साक्षी बना उसका अपना शहर किस तरह आता है-
कानपुरआह!आज याद तेरी आई फिर
स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती है,
आँख पहले भी यह रोई थी बहुत तेरे लिए
अब तो लगता है कि बरसात हुई जाती है.|
इसी कविता में आगे नीरज लिखते हैं --
करती टाईप किसी ऑफिस की किसी टेबिल पर 
आज भी बैठी कहीं होगी थकावट मेरी,
खोई-खोई-सी परेशान किसी उलझन में
किसी फाइल पै झुकी होगी लिखावट मेरी.|
कानपुर में छोडी हुई अपनी थकावट और लिखावट को दिल से लगाकर रखने वाले संवेदनशील  कवि नीरज जी विशेष रूप से अपनी काव्यपाठ शैली और प्रस्तुतियों के लिए जाने जाते हैं | लेकिन जबतक कविताई में दम नहीं होगा तब तक केवल प्रस्तुतीकरण से काम नहीं चलेगा| दीर्घकाल तक मंच की सिद्धि कविताई और प्रस्तुतीकरण दोनों के संतुलन से ही संभव है| इसीलिए लोग नीरज जी को मंच सिद्ध कवि मानते है | उनको जिस चर्चित गीत ने सबसे अधिक सम्मान दिलाया वह तो ‘कारवाँ गुजर गया’ ही है | कहते है कि कविसम्मेलनो की अपार सफलता के बाद नीरज जी को फिल्मो के लिए गीत लिखने का निमत्रण मिला जिसे स्वीकार कर नीरज जी ने ‘नई उमर की नई फसल ’ से फ़िल्मी गीत लिखने शुरू किए-
स्वप्न झरे फूल सेमीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे|
और
देखती ही रहो आज दर्पण न तुम/प्यार का ये मुहूरत निकल जाएगा|
 फिल्म ‘नई उमर की नई फसल’ तो उतना नहीं चली लेकिन नीरज  जी के इन दोनों गीतों ने जनता के मन में ही नहीं बल्कि फिल्म इंडस्ट्री में भी धूम मचा दी थी| ये गाने आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं |इसके बाद तो फिर उन्हें राजकपूर जैसे कई बड़े फिल्म निर्माताओ ने भी अपनी फिल्मो में गाने लिखने के लिए निमंत्रण दिया|यह सिलसिला काफी दिनों तक चला| उन्होंने ‘मेरा नाम जोकर, शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक गीत लिखे| ये आजकल के  जैसे नृत्य पर केन्द्रित गीत नहीं थे| उनमे कविता की पूरी सुन्दरता अपने वर्चस्व के साथ विद्यमान थी दो अन्य उदाहरण दृष्टव्य हैं --
लिखे जो ख़त तुझे/वो तेरी याद में
हज़ारों रंग के/नज़ारे बन गए
सवेरा जब हुआ/तो फूल बन गए
जो रात आई तो/सितारे बन गए|
और-
कहता है जोकर सारा ज़माना
आधी हक़ीक़त आधा फ़साना
चश्मा उठाओफिर देखो यारो
दुनिया नयी हैचेहरा पुराना
कहता है जोकर........|
  असल में जिन्दगी तो हकीकत और फ़साने के बीच में ही अटकी है| न पूरी तरह से हकीकत से ही काम चलता है और न केवल फ़साना बन जाने से ही जिन्दगी चल सकती है|ये अधूरापन हम सबके जीवन का अहम हिस्सा है| इसे तो सभी को स्वीकार करना ही होता है| नीरज जी अपने समय के पुरस्कृत फ़िल्मी गीतकार भी हैं | उन्हें  फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्नीस सौ सत्तर के दशक में लगातार तीन बार पुरस्कार दिया गया। उनके द्वारा लिखे गये पुरस्कृत कृत गीत हैं-
वर्ष -1970: काल का पहिया घूमे रे भइया! (फ़िल्म: चन्दा और बिजली)
वर्ष -1971: बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ (फ़िल्म: पहचान)
वर्ष -1972: ए भाईज़रा देख के चलो (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर)
आज भी उनके ये गीत उतनी ही तन्मयता से सुने सराहे जाते हैं| लेकिन बम्बई की ज़िन्दगी से भी उनका मन  बहुत जल्द उचट गया और वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर फिर अलीगढ़ वापस लौट आये। जैसा कि नीरज ने अपने एक मुक्तक में कहा है कि –
ख़ुशी जिस ने खोजी वो धन ले के लौटा
हँसी जिस ने खोजी चमन ले के लौटा
मगर प्यार को खोजने जो गया वो
न तन ले के लौटा न मन ले के लौटा|
तो कवि अपने ही शब्दों को जीते हुए प्यार की खोज में मुम्बई से फिर अपने शहर अलीगढ़ वापस लौट आया | अब उसका तन और मन संपूर्ण कवितामय हो चुका था| कविता की साधना में ही कवि को जीवन का सर्वस्व दिखाई देने लगा| तब से अलीगढ़ में ही अपना स्थायी निवास बना लिया | नीरज जी ने सामाजिक सद्भाव के कई रंगो पर गजले भी कही हैं | कुछ गजलो के शेर देखने योग्य हैं-
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए। 
जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए। 
आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए।
आज भी ये कश्मीर समस्या वैसी ही बनी हुई है|धर्म के नाम पर संघर्ष हो रहे हैं |इंसानी मोहब्बत और खुलूस की बात लगातार दुहराने की आवश्यकता बनी हुई है| गंगा और झेलम दोनों में इस समय भी आग लगी हुई है|ऐसे संकट के समय हमारा जीवन कितना दूभर हो चुका है|पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों की सीमाओं पर लगातार आग बरस रही है| नीरज जी की एक और दार्शनिक बोध की गजल के कुछ शेर देखें -   
तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा । 
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा ।
वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में, 
हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा ।
गजल की मार्मिकता उसके उक्तिवैचित्र्य में निहित होती है| नीरज जी के खजाने में ऐसी तमाम गजले हैं जिनमे भारतीय दर्शन की आत्मा फड़कती है| वे हिन्दी गजल को गीतिका कहते हैं | इसी प्रकार की एक और गजल अपनी भंगिमा के कारण बेहतरीन बन गयी है-  
जितना कम सामान रहेगा/उतना सफ़र आसान रहेगा
जितनी भारी गठरी होगी/उतना तू हैरान रहेगा
उससे मिलना नामुमक़िन है/जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा
हाथ मिलें और दिल न मिलें/ऐसे में नुक़सान रहेगा
जब तक मन्दिर और मस्जिद हैं/मुश्क़िल में इन्सान रहेगा
नीरज’ तो कल यहाँ न होगा/उसका गीत-विधान रहेगा |
अंतत: यही कहा जा सकता है कि कवि कभी मरता नहीं|उसके शब्द सदैव जीवित रहते हैं | उन शब्दों में अभिव्यक्त संवेदनाएं अपने समकाल में मानवीय सरोकारों को अपनी तरह से प्रेरित भी करती रहती हैं| नीरज की संवेदनाओं में सुर भी है ताल भी है लय भी है| अनंत काल से गीत का रथ चल रहा है,अविराम है यह गीत की शाश्वत यात्रा | फिलहाल  ऐसे शब्द साधक, रस साधक और मंच साधक कवि को दीर्घायु होने की अशेष शुभकामनाएं|
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