जन्मशती पर विशेष—
(1917 से 2007 )
त्रिलोचन की छांदस चेतना
# भारतेंदु मिश्र
गाओ, मन के तारों पर, जी भर कर गाओ
जहाँ मरण का सन्नाटा है जीवन लाओ।
जहाँ मरण का सन्नाटा है जीवन लाओ।
त्रिलोचन मन की स्वतंत्रता के कवि है| मानसिक स्वातंत्र्य कवि होने का सहज लक्ष्ण है|त्रिलोचन किसी एक विचार या राजनीतिक संघ से कभी जुड़े नहीं रहे|आलोचकों ने नाहक उन्हें अपनी व्याख्याओं के लिए विचारधाराओं के हिसाब से व्याख्यायित किया है|मृत्यु के सन्नाटे को जीवन में बदलने के लिए जिस भी गीत की आवश्यकता पड़े उसे गाने की वो प्रेरणा देते चलते है|उन्होंने गीत, सानेट, गजल और आवश्यकता के अनुरूप मुक्तछन्दी कविताएं भी लिखीं | कभी किसी काव्यविधा को कम करके नहीं आंका| कविता के प्रति उनके व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाता है| किन्तु उनके समीक्षकों ने उनकी छंदबद्धता का वैसा आदर नहीं किया|उनके भाषा और छंद के ज्ञान के बारे में किसी को संदेह नहीं था|किस शब्द को किस तरह से प्रयुक्त किया जाना है लोग उनसे सीखते थे| वे वैदिक संस्कृत से लेकर प्राकृत ,पाली,अंगरेजी,उर्दू,बांग्ला हिन्दी और अवधी जैसी भाषाओं के बेहतरीन जानकार थे|सागर में रह कर उन्होंने वर्षो तक मुक्तिबोध की भाषा चेतना पर काम किया|बाद में अनेक वर्षो तक अलीगढ़ वि.वि. में विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर उर्दू फारसी आदि भाषाओं पर काम किया|
उनके साथ बतकही करना किसी उत्सव से कतई कम नहीं था|मेरा सौभाग्य है कि मुझे 1989 से 1997 तक उनका सामीप्य मिला|दिल्ली में उनके साथ बिताये पल मेरे लिए अनमोल है |एक बार उनके साथ सात दिन की कुल्लू यात्रा करने का भी सौभाग्य मिला|उनसे बहुत कुछ सीखा और जाना| पहली मुलाक़ात में उन्होंने पूछा-‘पढाई लिखाई क्या की है ?’
‘जी,संस्कृत में एम्.ए. किया है|’मैंने उत्तर दिया तो बोले – ‘ये शुभ लक्षण है..क्योकि हिन्दी वालो को हिन्दी नहीं आती|’ इसके बाद वो बताते रहे कि मुझे और क्या क्या पढ़ना चाहिए| उनके साथ के अनेक संस्मरण है|संस्मरण फिर कभी अन्य अवसर के लिए उपयोगी होंगे |
उनके भाषा ज्ञान और गांभीर्य को उनकी कविता की सहजता में देखा जा सकता है|वे कविता में पूरे वाक्य संतुलित भाषा और छान्दसिक सौष्ठव के पक्षधर थे| जटिल से जटिल विषयो को सहज रूप में समझा देने की उनकी कला चमत्कृत करती थी| सच्चाई ये भी है कि उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा अकेले ही काटा|एक गीत में वे कहते है-
आज मैं अकेला हूँ/अकेले रहा नहीं जाता।
जीवन मिला है यह/रतन मिला है यह
धूल में कि फूल में /मिला है तो मिला है यह
मोल-तोल इसका/अकेले कहा नहीं जाता|
सुख आये दुख आये/दिन आये रात आये
फूल में कि धूल में आये/जैसे जब आये
सुख दुख एक भी/अकेले सहा नहीं जाता|
चरण हैं चलता हूँ/चलता हूँ चलता हूँ
फूल में कि धूल में/चलता मन चलता हूँ
ओखी धार दिन की/अकेले बहा नहीं जाता।
इतने मार्मिक ढंग से अकेलेपन की व्यथा को इस गीत के माद्ध्यम से त्रिलोचन जी रखते है कि वह प्रत्येक मनुष्य के लिए नया पाठ देने लगता है|ये उन दिनों का गीत है जब अधिकाँश नौकरी करने वाले कमाने के लिए अपने घर परिवार से दूर शहरों में रहते थे|त्रिलोचन प्रेम और जनवादी सौन्दर्य के बड़े कवि है|आत्मव्यंग्य करने से वो कभी नहीं चूकते|हालांकि उनकी कविता का स्वर संघर्ष और दृढ़ता के मूल मन्त्र से हमें जोड़ता है|उनका एक गीत है ‘परिचय की गाँठ’ ये गीत वास्तव में प्रेम या प्रणय को परिभाषित करता है|अर्थात जब किसी परिचित से हमारा संपर्क हो जाता है और जब वह बंधन अविच्छिन्न प्रतीत होने लगे तो उसी अवस्था का नाम प्रेम है| देखिये परिचय की गाँठ का स्वर-
यूं ही कुछ मुस्काकर तुमने/परिचय की वो गांठ लगा दी!
था पथ पर मैं भूला भूला /फूल उपेक्षित कोई फूला
जाने कौन लहर ती उस दिन /तुमने अपनी याद जगा दी।
जाने कौन लहर ती उस दिन /तुमने अपनी याद जगा दी।
कभी कभी यूं हो जाता है /गीत कहीं कोई गाता है
गूंज किसी उर में उठती है /तुमने वही धार उमगा दी।
गूंज किसी उर में उठती है /तुमने वही धार उमगा दी।
जड़ता है जीवन की पीड़ा /निस्-तरंग पाषाणी क्रीड़ा
तुमने अन्जाने वह पीड़ा /छवि के शर से दूर भगा दी।
तुमने अन्जाने वह पीड़ा /छवि के शर से दूर भगा दी।
तमाम नवगीतवादियों के लिए ये गीत आज भी अत्यन्त प्रेरक है|ध्यान देने की बात ये है कि पूरे गीत में कही भी प्रेम या प्रणय शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है| यही त्रिलोचन की शक्ति है| छंद तो है ही पूरा वाक्य भी साफ़ तौर से देखा चीन्हा जा सकता है|ये जो छवि का शर इस गीत में आता है वही कविता की मूल संवेदना है|सौन्दर्य का तीर की तरह लगना ही प्रणयानुभूति है|छन्दोबद्ध कविता का कुछ आलोचकों ने जिस समय सबसे अधिक विरोध किया उसी समय में हमारे चर्चित प्रगतिशील कवि गीतों और छंदों में कविता कर रहे थे| शरद ऋतु के प्रसंग को गीत में त्रिलोचन जी बेहद सुंदर रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते है-
शरद का यह नीला आकाश
हुआ सब का अपना आकाश
ढ़ली दुपहर, हो गया अनूप
धूप का सोने का सा रूप
पेड़ की डालों पर कुछ देर
हवा करती है दोल विलास
भरी है पारिजात की डाल
नई कलियों से मालामाल
कर रही बेला को संकेत
जगत में जीवन हास हुलास
चोंच से चोंच ग्रीव से ग्रीव
मिला कर, हो कर सुखी अतीव
छोड़कर छाया युगल कपोत
उड़ चले लिये हुए विश्वास|
हुआ सब का अपना आकाश
ढ़ली दुपहर, हो गया अनूप
धूप का सोने का सा रूप
पेड़ की डालों पर कुछ देर
हवा करती है दोल विलास
भरी है पारिजात की डाल
नई कलियों से मालामाल
कर रही बेला को संकेत
जगत में जीवन हास हुलास
चोंच से चोंच ग्रीव से ग्रीव
मिला कर, हो कर सुखी अतीव
छोड़कर छाया युगल कपोत
उड़ चले लिये हुए विश्वास|
शरद के नीले आकाश में सुनहरी धूप और पारिजात के वृक्ष पर झूलती और उसे झुलाती हवा का सुन्दर बिम्ब देखने योग्य है| इसी बीच कपोतो की रति क्रीडा का अद्भुत चित्र अपनी नैसर्गिकता के साथ अत्यंत हृदयहारी बन गया है| त्रिलोचन जी के काव्य सौन्दर्य को समझाने के लिए इस प्रकार के गीतों को व्याख्यायित किया जाना मुझे आवश्यक प्रतीत होता है| दूसरी ओर देखें ‘फेरू ’ जैसे विपन्न जाति के कहार पात्र को लेकर उन्होंने कितना सुंदर नवगीत अपने समय में उन्होंने लिखा था| फेरू मनमौजी है ठाकुर का खानदानी सेवक है| वाह बहिर्मुखी है,बहिर्मुखी से अभिप्राय सामंत के साथ बाहर राग रंग की दुनिया के नज़ारे देखने में वो भी खुश है|उसी सामंतवादी दासता के भ्रमजाल में वह ठकुराइन के झूठ के साथ मगन भी है|ऐसे भोलेभाले पात्र आज भी हमारे गाँवों में मिल जाते हैं --
फ़ेरु अमरेथू रहता है
वह कहार है/काकवर्ण है
सृष्टि वृक्ष का /एक पर्ण है
मन का मौजी
और निरंकुश/राग रंग में ही रहता है|
उसकी सारी आकान्क्षाएं - अभिलाषाएं
बहिर्मुखी हैं/इसलिए तो
कुछ दिन बीते/अपनी ही ठकुराइन को ले
वह कलकत्ते चला गया था
जब से लौटा है/उदास ही अब रहता है।
ठकुराइन तो बरस बिताकर/वापस आई
कहा उन्होंने मैंने काशीवास किया है
काशी बड़ी भली नगरी है
वहां पवित्र लोग रहते हैं
फेरू भी सुनता रहता है।
और निरंकुश/राग रंग में ही रहता है|
उसकी सारी आकान्क्षाएं - अभिलाषाएं
बहिर्मुखी हैं/इसलिए तो
कुछ दिन बीते/अपनी ही ठकुराइन को ले
वह कलकत्ते चला गया था
जब से लौटा है/उदास ही अब रहता है।
ठकुराइन तो बरस बिताकर/वापस आई
कहा उन्होंने मैंने काशीवास किया है
काशी बड़ी भली नगरी है
वहां पवित्र लोग रहते हैं
फेरू भी सुनता रहता है।
नागार्जुन ,शमशेर ,केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन जैसे कवि हिन्दी की प्रगतिशील चेतना के कवि हैं | ये सब गीत और छंद में कविताए लिख रहे थे|यही कारण था कि ये अन्य कवियों की तुलना में अधिक चर्चित और प्रासंगिक रहे| बात यह भी ध्यान देने की है कि इनके काव्य में इनका अपना जीवन संघर्ष इनकी अपनी लोकचेतना के साथ भास्वर होता है| लोकचेतना का अर्थ ही है संपूर्ण लोक जीवन जिसमे लोकभाषा चेतना ,किसान चेतना,आंचलिक सौन्दर्य,जनपदीय स्वर,लोक भाषा के छंद और उनकी जीवन लय | त्रिलोचन के सामने नागार्जुन थे तुलसीदास उनके भाषा गुरू थे ही| संस्कृत माध्यम से बचपन में पढाई शुरू हुई|कबड्डी और पहलवानी उनके खेल थे| उनका जन्म 20 अगस्त 1917 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले के कठघरा चिरानी पट्टी गाँव में क्षत्रिय परिवार में हुआ। बाद में काशी विद्यापीठ में रहकर पढाई की| स्वतंत्रता संग्राम का अंतिम चरण भी देखा और देश का विभाजन भी|उनका इतिहास बोध कमाल का था| कालिदास,तुलसी,शेक्सपीयर ,गुरुदेव रवीन्द्र आदि से लेकर लेनिन, मार्क्स,स्वामी विवेकानंद,के बारे में उनसे कोई भी घंटो बात कर सकता था| बातचीत के सिलसिले में खाना पीना भी भूल जाया करते थे| जीवन संघर्ष और संघर्ष से प्रगति का मार्ग देखना उनका स्वभाव बन गया था|अपने गाँव के पात्रो को,अपने जनपद को और अपने समाज को त्रिलोचन जी प्रगति करते हुए देखना चाहते हैं | यह उनका जन्मशती वर्ष है| अब यदि जीवित होते तो शतायु हो चुके होते| बहरहाल उनकी कविताएं आज भी जीवित है और आगे भी जीवित रहेंगी|मानवता तो सबके मूल में है ही|इसीलिए मुझे लगता है कि त्रिलोचन जी हिंदी की प्रगतिशील काव्यधारा के साथ ही अपनी जनपदीयता और अवधी लोक के प्रमुख और अपरिहार्य कवि भी हैं।उत्तर प्रदेश के छोटे जनपद आज भी अपने स्वाभिक विकास की प्रतीक्षा कर रहे है|अपने जनपद के अभावो को याद करते हुए वे एक सानेट में कहते है-
उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है,
नंगा है, अनजान है, कला--नहीं जानता
कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता
कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है |
नंगा है, अनजान है, कला--नहीं जानता
कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता
कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है |
उनके बारे में डॉ. रामविलास शर्मा जी की टिप्पणी बहुत महत्त्वपूर्ण है - "एक खास अर्थ में आधुनिक है और सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि आधुनिकता के सारे प्रचलित साँचों को (अर्थात नयी कविता के साँचों को) अस्वीकार करते हुए भी आधुनिक हैं। दरअसल वे आज की हिंदी कविता में उस धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो आधुनिकता के सारे शोरशराबे के बीच हिंदी भाषा और हिंदी जाति की संघर्षशील चेतना की जड़ों को सींचती हुई चुपचाप बहती रही है। त्रिलोचन जी की कविताएँ समकालीन बोध की रूढ़िग्रस्त परिधि को तोड़ने वाली कविताएँ हैं।" यह कहने के पीछे रामविलास जी का मंतव्य समझने के लिए हम जब उनकी कविताओं की पड़ताल करते है तो देखते है कि वे नई कविता के रूपवादी स्वरूप से बचकर निकल जाते है|उनकी कविताओं का स्वर ग्राम चेतना से सदैव संपृक्त दिखाई देता है|अब ज़रा उनकी रचनाओं के नामकरण बारे में जाने -
धरती, दिगंत, गुलाब और बुलबुल, ताप के ताये हुए दिन, अरधान, उस जनपद का कवि हूँ, फूल नाम है एक, अनकहनी भी कहनी है, तुम्हें सौंपता हूँ, सबका अपना आकाश, अमोला आदि उनके काव्य संग्रह है । इनमे से ‘अमोला’ में उनके अवधी भाषा में लिखे 400 बरवै संग्रहीत है| इस शीर्षकों की ध्वनि भी उनकी लोक चेतना का उद्घोष करती है| त्रिलोचन बड़े इसीलिए है कि वे अपनी जातीय भाषा अवधी और जनपदीयता को कभी नहीं छोड़ते| इसीलिए वे कवि से अधिक भाषाशास्त्री के रूप में दिखाई देते है| ध्यान देने की बात ये भी है कि जो कुछ उन्होंने अवधी में लिखा उस संग्रह का नाम ‘अमोला’ अर्थात जो अमूल्य है |उनसे जब कभी अवधी भाषा के बारेमें बात होती थी तो वो कहा करते थे-‘अवधी में लिखिए पढ़िए,गद्य का प्रयोग अवधी में नहीं हुआ है|अवधी गद्य में अनंत शक्ति है|’ उन्ही दिनों मैंने एक अखबार के लिए उनसे बातचीत की थी तो एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा था-‘मै अवध के गाँवों को विश्वविद्यालय मानता हूँ|’ जाहिर है कि त्रिलोचन जी लगातार अपने जनपदीय पात्रो के दुःख और जीवन को लेकर लगातार रचनाशील रहे| यह प्रेरणा उन्हें तुलसी की भाषा से मिली है| एक कविता में वे तुलसीदास को अपना भाषा गुरू स्वीकारते है-
“तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी
मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो ।
कह सकते थे तुम सब कड़वी, मीठी तीखी ।
प्रखर काल की धारा पर तुम जमे हुए हो ।
और वृक्ष गिर गए मगर तुम थमे हुए हो ।“
ये सच है कि तुलसीदास जैसा दूसरा कवि हिन्दी में नहीं हुआ जिसने अपने समय में नई काव्य भाषा गढ़ी| अपने समाज की भाषा को नया रूपाकार देने में तुलसी बेजोड़ हैं | त्रिलोचन के सामने तुलसी हमेशा खड़े हुए दिखाई देते है| लेकिन कुछ मार्क्सवादियो को तुलसी केवल धार्मिक और सामंतवाद के पोषक कवि के रूप में दिखाई देते है| इन आलोचकों के वैचारिक मोतियाबिंद का कोई इलाज नहीं है| त्रिलोचन को तुलसी से जो गृहण करना है उतना ही लेते है| ध्यान देने की बात है कि त्रिलोचन तुलसी से दासवाली भक्ति की प्रेरणा कतई नहीं लेते| त्रिलोचन जी इसी अर्थ में सबसे अलग है| वे परपरा से भाषा और जातीय चेतना लेते है लेकिन वैचारिक भूमि में वे तमाम आधुनिक कवियों से बहुत आगे खड़े दिखाई देते हैं|उनकी कविताओं में नगई महारा,फेरू,चम्पा जैसे लोक जीवन के पात्र सहज ही प्रकट होते है| शुरुआत तो गीत और हिन्दी में गजल के प्रयोग से ही करते है इसके बाद सानेट छंद में उनकी कविताई निखरती है| उनकी मुक्तछंदी कविताओं में भी अंतर्लय की अन्विति सदैव विद्यमान रहती है|एक गजल देखिये-
बिस्तरा है न चारपाई है,/जिन्दगी खूब हमने पायी है।
‘कल अंधेरे में जिसने सर काटा,/नाम मत लो हमारा भाई है।
‘कल अंधेरे में जिसने सर काटा,/नाम मत लो हमारा भाई है।
ठोकरें दर-ब-दर की थी हम थे,/कम नहीं हमने मुँह की खाई है।
कब तलक तीर वे नहीं छूते,/अब इसी बात पर लड़ाई है।
आदमी जी रहा है मरने को/सबसे ऊपर यही सचाई है।
कच्चे ही हो अभी त्रिलोचन तुम /धुन कहाँ वह सँभल के आई है।
कब तलक तीर वे नहीं छूते,/अब इसी बात पर लड़ाई है।
आदमी जी रहा है मरने को/सबसे ऊपर यही सचाई है।
कच्चे ही हो अभी त्रिलोचन तुम /धुन कहाँ वह सँभल के आई है।
ये आत्मव्यंग्य की साफ़गोई आज की हिन्दी गजल में भी देखने को नहीं मिलती| उन्हें अपने जातीय छंदों से भी प्रेम है| उनके आलोचकों ने उन्हें व्याख्यायित तो किया किन्तु कभी उनके इस पक्ष पर जानबूझकर विचार नहीं किया| किसान आसमान में घुमड़ते हुए बादलो को देखकर किस प्रकार आह्लादित होता है यह हम सभी जानते है |लेकिन इस गीत में त्रिलोचन जी किसान को पुरवाई के माद्ध्यम से सन्देश भेजते है| इस प्रकार के मनोरम मानवीय भावो से त्रिलोचन की कविताई हमें आह्लादित भी करती है और उनकी ग्राम्य सौन्दर्य को चीन्हने वाली दृष्टि का भी हमें पता बताती है| इसी लिए त्रिलोचन जनकवि है--
उठ किसान ओ, उठ किसान ओ,/बादल घिर आए हैं
तेरे हरे-भरे सावन के/साथी ये आए हैं|
आसमान भर गया देख तो/इधर देख तो, उधर देख तो
नाच रहे हैं उमड़-घुमड़ कर/काले बाल तनिक देख तो
तेरे प्राणों में भरने को/नए राग लाए हैं|
यह संदेशा लेकर आई/सरस मधुर, शीतल पूरवाई
तेरे लिए, अकेले तेरे/लिए, कहाँ से चलकर आई
फिर वे परदेसी पाहुन, सुन,/तेरे घर आए हैं|
चैती,कातिक पयान जैसी उनकी अनेक कविताएं उनके किसान और किसानी को व्याख्यायित करने वालीहै| किसान को जगाने वाले उसमे उल्लास भरने वाले कवियों की परंपरा में त्रिलोचन जी का नाम आदरपूर्वक लिया जाना चाहिए| भारत किसानो का देश है और रहेगा भी उन्होंने ज्यादातर किसान और कृषि मजदूरों से जुडी कविताओं के में उनके जटिल जीवन को रेखांकित किया है| त्रिलोचन जी ने अभाव को बहुत निकट से देखा ही नहीं किन्तु जिया भी था| एक मेहनती कामकाजी और स्वाभिमानी व्यक्ति की छवि त्रिलोचन जी की सदैव बनी रही|अभावो को सहा लेकिन समझौते नहीं किये| काविताई से सम्मान वगैरह तो बहुत बाद में मिलने शुरू हुए थे |कवि का जीवन जब उसकी कविताओं में से झांकता है तभी उसे सच्चा सम्मान मिलता है| खुली किताब की तरह खिलंदड़े स्वभाव के त्रिलोचन स्वयं अपने बारे में एक सानेट में कहते है-
वही त्रिलोचन है, वह-जिस के तन पर गंदे
कपड़े हैं। कपड़े भी कैसे-फटे लटे हैं
यह भी फ़ैशन है, फ़ैशन से कटे कटे हैं।
कौन कह सकेगा इसका यह जीवन चंदे
पर अवलम्बित् है। चलना तो देखो इसका-
उठा हुआ सिर, चौड़ी छाती, लम्बी बाहें,
सधे कदम, तेजी, वे टेढ़ी मेढ़ी राहें
मानो डर से सिकुड़ रही हैं, किस का किस का
ध्यान इस समय खींच रहा है। कौन बताए,
क्या हलचल है इस के रुंधे रुंधाए जी में
कभी नहीं देखा है इसको चलते धीमे।
धुन का पक्का है, जो चेते वही चिताए।
जीवन इसका जो कुछ है पथ पर बिखरा है,
तप तप कर ही भट्ठी में सोना निखरा है।
कपड़े हैं। कपड़े भी कैसे-फटे लटे हैं
यह भी फ़ैशन है, फ़ैशन से कटे कटे हैं।
कौन कह सकेगा इसका यह जीवन चंदे
पर अवलम्बित् है। चलना तो देखो इसका-
उठा हुआ सिर, चौड़ी छाती, लम्बी बाहें,
सधे कदम, तेजी, वे टेढ़ी मेढ़ी राहें
मानो डर से सिकुड़ रही हैं, किस का किस का
ध्यान इस समय खींच रहा है। कौन बताए,
क्या हलचल है इस के रुंधे रुंधाए जी में
कभी नहीं देखा है इसको चलते धीमे।
धुन का पक्का है, जो चेते वही चिताए।
जीवन इसका जो कुछ है पथ पर बिखरा है,
तप तप कर ही भट्ठी में सोना निखरा है।
पुराने लोग जानते है कि त्रिलोचन जी पैदल बहुत चलते थे| पैसे का अभाव उनकी इस आदत के पीछे एक बड़ा कारण बनी| इसीलिए वे अधिकाँश जीवन स्वस्थ भी रहे और 90 वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हुए|तुलसीदास को त्रिलोचन जी अपना आदर्श कवि मानकर चलते रहे|इसका मुख्य कारण तो तुलसी की भाषा है|इसीलिए अनेक तरह से तुलसीदास को स्मरण करते है| अपने जीवन की तुलना तुलसीदास के सरोकारों से करते हुए एक वे एक अवधी कविता में कहते है कि कविता तो बहुत लोगो ने की है लेकिन तुलसीदास जैसी कविता कैसे की जा सकती है,क्योकि तुलसी तो स्वयं को उबारते है और अन्य पाठक आदि को भी दुखो से उबारते है| प्रकारांतर से त्रिलोचन जी यह भी कहना चाहते है कि तुलसी ने जो कुछ कहा है वही सब कुछ आगे के कवियों के पास भी दिखाई दे रहा है|तुलसी जन जीवन करूणा और दुःख की व्याख्या करने वाले बड़े कवि है|यही कारण है कि तुलसीदास की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है| तुलसी के अवदान को रेखांकित करते हुए त्रिलोचन जी लिखते है-
कहेन किहेन जेस तुलसी तेस केसे अब होये।
कविता केतना जने किहेन हैं आगेउ करिहैं;
अपनी अपनी बिधि से ई भवसागर तरिहैं,
हमहूँ तौ अब तक एनहीं ओनहीं कै ढोये;
नाइ सोक सरका तब फरके होइ के रोये।
जे अपनइ बूड़त आ ओसे भला उबरिहैं
कैसे बूड़इवाले सँग–सँग जरिहैं मरिहैं
जे, ओनहीं जौं हाथ लगावइँ तउ सब होये।
तुलसी अपुनाँ उबरेन औ आन कँ उबारेन।
जने–जने कइ नारी अपने हाथेन टोयेन;
सबकइ एक दवाई राम नाम मँ राखेन;
काम क्रोध पन कइ तमाम खटराग नेवारेन;
जवन जहाँ कालिमा रही ओकाँ खुब धोयेन।
कुलि आगे उतिरान जहाँ तेतना ओइ भाखेन|
कविता केतना जने किहेन हैं आगेउ करिहैं;
अपनी अपनी बिधि से ई भवसागर तरिहैं,
हमहूँ तौ अब तक एनहीं ओनहीं कै ढोये;
नाइ सोक सरका तब फरके होइ के रोये।
जे अपनइ बूड़त आ ओसे भला उबरिहैं
कैसे बूड़इवाले सँग–सँग जरिहैं मरिहैं
जे, ओनहीं जौं हाथ लगावइँ तउ सब होये।
तुलसी अपुनाँ उबरेन औ आन कँ उबारेन।
जने–जने कइ नारी अपने हाथेन टोयेन;
सबकइ एक दवाई राम नाम मँ राखेन;
काम क्रोध पन कइ तमाम खटराग नेवारेन;
जवन जहाँ कालिमा रही ओकाँ खुब धोयेन।
कुलि आगे उतिरान जहाँ तेतना ओइ भाखेन|
अंतत: लोक जीवन से जुडी उनकी सहजता ही मुझे बेहद आकषित करती रही|मैंने उन्हें दिल्ली स्थित यमुनाविहार से सादतपुर आते जाते कई बार देखा लेकिन वो कभी रिक्शा या ऑटो रिक्शा नहीं लेते थे| सादतपुर में उन दिनों बाबा नागार्जुन रहते थे| आज भी सादतपुर साहित्यकारों और लेखको के नाम से जाना जाता है|उनदिनों कथाकार रमाकांत,डा.माहेश्वर,विष्णुचंद शर्मा,हरिपाल त्यागी,रामकुमार कृषक,महेश दर्पण,सुरेश सलिल,वीरेन्द्र जैन,रहते थे बाद में हीरालाल नागर,राधेश्याम तिवारी भी इधर ही रहने लगे| उन दिनों मैं भी उसी तरफ रहता था| संयोग से मेरा घर बीच में पड़ता था| तो त्रिलोचन जी ने एकाधिक बार मेरे घर पर भी पैदल ही पधारने की कृपा की| वे मेरे कितने आत्मीय बन गए थे यह कहना कठिन है| उनका जाना मुझे कुछ वैसे ही लगा जैसा कि उन्होंने अपने एक गीत में दिन के अवसान हो लेकर लिखा था- ‘हंस के सामान दिन /उड़कर चला गया’| बहरहाल मेरे लिए त्रिलोचन जी हिन्दी की छांदस कविता के महत्वपूर्ण नाम है| उनकी ‘अमोला’ भी जिस तरह से समीक्षित होनी चाहिए वह नहीं हुई| मेरा मानना है कि त्रिलोचन जी की कविताई को सही रूप में जानने के लिए उनकी कविताओं में सहज रूप में प्रवाहित छंद चेतना और भाषा को समझना अनिवार्य है|वे बार बार अपनी भाषा चेतना का सन्दर्भ देते हुए चलते है-
भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है,
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है|
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है|
तात्पर्य यह कि उनकी भाषा और उनके छंद ही उनके जीवन की हलचल के पर्याय थे| वो और उनकी भाषा आज भी हिन्दी के नए कवियो के सामने ताल ठोकर चुनौती देती हुई दिखाई देती है|उनकी स्मृति को प्रणाम|
(मध्य में त्रिलोचन शास्त्री जी ) |
कुल्लू में एक समारोह का चित्र (बटुक जी ,पाल भसीन,भारतेंदु मिश्र,देवेन्द्र शर्मा इंद्र,बाबूराम शुक्ल ,त्रिलोचन शास्त्री,और स्वामी श्याम ) |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें