मंगलवार, जनवरी 12, 2016


अनुभव की सीढ़ी (भारतेंदु मिश्र की गीत सर्जना ) - यथार्थ की लोकधर्मी सुवास के गीत
# जगदीश पंकज

अपने समसामयिक  गीत-नवगीतकारों में भारतेन्दु मिश्र ऐसे रचनाकार हैं जो नवगीत-विमर्श पर पूरी तन्मयता से उपस्थिति देते रहे हैं किन्तु वर्ष 2010 के बाद से उन्होंने गीत नहीं लिखे।गीत न लिखने के उनके अपने तर्क होंगे किन्तु एक सजग रचनाकार जो लगभग तीस वर्ष तक गीत-नवगीत लिखता ही नहीं रहा बल्कि नवगीत के प्रत्येक विमर्श में उल्लेखित भी होता रहा है उसकी रचनाधर्मिता के लिए  यह अकेला तथ्य ही आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है।अपने सृजन-काल के तीन दशकों में भारतेन्दु मिश्र ने अवधी और हिन्दी में समान रूप से रचना की है जिनमें से काफी कुछ अप्रकाशित रहा है। डॉ रश्मिशील ने भारतेंदु मिश्र के हिन्दी गीत-नवगीतों को एक साथ संगृहीत करके 'अनुभव की सीढ़ी' नाम से संपादित किया है।  संग्रह में भारतेन्दु मिश्र की गीत सर्जना के सभी प्रकाशित- अप्रकाशित  गीतों को समाहित किया गया है जिससे कि रचनाकार का समग्र रूप से मूल्यांकन करने में सुविधा हो सके । सम्पादिका ने प्रस्तुत संग्रह में सम्पूर्ण सर्जना को तीन अलग -अलग दशकों में बाँटा है ताकि कालक्रमानुसार रचनाकार की विकास-यात्रा और साहित्यिक परिपक्वता का आकलन करने में सुविधा हो सके।प्रथम खंड में  प्रारम्भिक गीतसृजन (वर्ष 1980 से 1990 ),द्वितीय गीतसृजन खंड में समय (1991 से 2000) तथा तृतीय खंड में समय वर्ष (2001 से 2010 ) की रचनाओं को रखा गया है।   कथ्य की दृष्टि से भी सर्जना को पाँच खण्डों में विभाजित करके प्रस्तुत किया गया है जिससे गीतकार की वैचारिकता,युगबोध,भावात्मक और ज्ञानात्मक संवेदनाओं की सार्थक प्रस्तुति तथा कवि की अपनी समकालीनता से जुड़े सरोकारों और पक्षधरता के बिन्दुओं को समग्रता से समझा जा सके। यह वर्गीकरण इस प्रकार है -(क) बांसुरी की देह (राग-विराग और गृहरति के गीत-नवगीत) (ख) बाकी सब ठीक है (नगरबोध विसंगतियाँ और आस्था के गीत-नवगीत) ,(ग) मौत के कुएं में -(स्त्री मजदूर और किसान चेतना श्रम सौंदर्य के गीत-नवगीत)  (घ) जुगलबन्दी (राजनीति-धर्म-दर्शन और बाज़ारवादी समय के गीत-नवगीत) (ङ) शब्दों की दुनिया (कुछ मुक्तक कुछ अनुभव गीत) । संकलन में भारतेन्दु मिश्र के अपने वरिष्ठ एवं समवर्ती रचनाकारों से हुए पत्राचार के उल्लेख स्वरुप पत्रों को भी स्थान दिया गया है तथा प्रकाशित-अप्रकाशित काव्य संग्रहों के लिए वरिष्ठ साहित्यकारों द्वारा लिखी गयी भूमिकाओं और समीक्षाओं को अविकल रूप से प्रस्तुत किया गया है। सम्पादन के दायित्व को सफलता से निभाने के उद्देश्य से सम्पादिका द्वारा रचनाकार का संक्षिप्त साक्षात्कार भी प्रस्तुत किया है जिसमें भारतेन्दु मिश्र ने विभिन्न साहित्यिक और गीत-नवगीत से जुड़े प्रश्नों पर बेबाक विचार व्यक्त किये हैं। किसी भी रचनाकार की सर्जना पर समग्र रूप से विश्लेषण ,मूल्यांकन और समीक्षात्मक निर्णय देने में मैं स्वयं को असमर्थ पाता हूँ। यह समीक्षा या आलोचना के  किसी स्थापित मानदंड या प्रतिमान के निकष पर आधारित कोई आलेख नहीं है बस मात्र एक पाठकीय प्रतिक्रिया है। प्रत्येक रचनाकार के लेखन में उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि ,परिवेश ,अध्ययन ,,अनुभव और अभ्यास के प्रभाव रहते हैं। अतः भारतेन्दु मिश्र की सर्जना में भी  निश्चित रूप से परिलक्षित हैं। एक पाठक के तौर पर मैं पहलेभारतेन्दु मिश्र की सर्जना पर अपनी संक्षिप्त प्रतिक्रिया देना उचित समझता हूँ।
(क)  बांसुरी की देह खंड में  कवि के राग-विराग और गृहरति के गीत-नवगीत  प्रस्तुत किये गए हैं। जैसा कि खंड के शीर्षक से स्पष्ट है इसमें कवि ने पारम्परिक गीतों की भाषा-शैली का प्रयोग करते हुए वैयक्तिक भावनात्मक संवेदनाओं के गीत रचे हैं जिनमे प्रणय की रागात्मक प्रस्तुति कलात्मक रूप से की गयी है। तथा अपनी मान्यताओं को भी यत्र-तत्र व्यक्त किया है। यथा-
''सांकेतिक  भाषा  पर  आता  विश्वास  नहीं
मौखिक अभिव्यक्ति कभी बनती इतिहास नहीं ''

प्रणय गीतों में कस्तूरी वाली हिरनी को  बेचारा हिरन खोजता फिर रहा है ,,
'' कुंज-कुंज को /लता-लता को /सूँघ-सूँघ कर रह जाता /आती-जाती /हर हिरनी को देखे रोज़ थका हारा ''

'झूमते महुए लबार'   गीत में सुन्दर चित्र उकेरा है ,
''धुप ने जब से/बसंती फ्रॉक पहनी है /यह हवा भी /पाँव में नूपुर सजाये है ''
'कक्षा अध्यापक' शीर्षक के गीत में भारतेन्दु जी के लिए कक्षा के बच्चे सिर्फ पढ़ते ही नहीं बल्कि बच्चे अध्यापक के लिए पाठ की भूमिका भी निभा रहे हैं और वह अपने छात्रों को पढ़कर स्वयं सीख रहा है। एक मनोवैज्ञानिक तथ्य को सरलता से व्यक्त किया है।
इस खंड में 'कक्षा अध्यापक','गोद बुआ की','हम सभी खिलौने हैं' , 'उडी चाँदनी धनपति के संग ' ,'हम न होंगे गीत होंगे ' , 'एक भरम टूट गया', ' गाँठ कसी है' ,'कमल की पाँखुरी पर ' और 'नवगीत के अक्षर' अच्छे गीत हैं। 'कमल की पाँखुरी पर ' गीत की पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं ,
''खुशबुओं के खत /किरण फिर /बाँच पाएगी न जाने। ...... रक्तरंजित /सूर्य होगा /हर तरफ होगा कुहासा/दूब की जड़ /इंद्रधनुषी-/आंच पाएगी न जाने। ''

(ख) बाकी सब ठीक है ' खंड में   नगरबोध विसंगतियां और आस्था के गीत-नवगीत  संकलित किये गए हैं। महानगरीय जीवन की विद्रूप शैली और  जूझती मानसिकता के गीतों में कवि का आत्मानुभव व्यक्त है इन रचनाओं में।  'शूल हुए बिस्तर' गीत की पंक्तियाँ -
''अब तो चुभने लगे /गुलाबी शूल हुए बिस्तर /बांह नहीं उठती है /इतने सूज गए नश्तर। ........... अपनों के ही उष्ण रक्त से /सड़क हो रही तर। ''
 'राहजनी करती दोपहरी ' , 'कागज़ के फूल जहां बदलते परिदृश्य को चित्रित करते हैं वहीँ 'देह का इतिहास' और 'शंख ' ,'चन्दन भी हो गया विषैला ' ,'अंधी हुई दिशाएँ 'जैसे गीत  मानवीय चेतना पर हो रहे संघात से द्वन्द्व में घिरी पीढ़ी की उहापोह को भी व्यक्त कर रहे हैं ।
''एक अधूरापन जीवन का /बार-बार खलता है /कभी-कभी जब अपना साया /साथ छोड़ चलता है। ''
'मैं छोटा सा एक सिपाही','कबीर चाहिए' ,'चूक मत अच्छा समय है ','आज सोमवार है','करुण त्रासदी ','पाँव की बिवाइयाँ ','ऊंटों के परिणय में ',' धूल बरसती है','विश्व ग्राम ','फागुन में','बेपेंदी के लोटे','रात गयी बात गयी','बाकी सब ठीक है',और 'वाल्मीकि व्याकुल है' शीर्षक के गीत अपने कथ्य और शिल्प दोनों तरह से आकर्षित करते हैं।'बेपेंदी के लोटे' गीत की पंक्तियाँ  देखिये -
''जिनकी चर्चायेँ होती हैं /बेपेंदी के लोटे हैं वो।  ....... अपने मन का कोई निर्णय /लेने की सामर्थ्य नहीं है /सभासदों में शामिल हैं /पर इनके मत का अर्थ नहीं है/ अफसर की जूती में चस्पाँ /या कि सुनहरे गोटे हैं वो '' .

(ग) 'मौत के कुएँ में' नाम के इस खंड में  स्त्री-मज़दूर -किसान चेतना:श्रम सौंदर्य के गीत-नवगीत समाहित किये गए हैं। इन गीतों में कवि ने अपने समय के समाज में स्त्री और श्रम की विभिन्न श्रेणियों और पेशों से जुड़े लोगों की स्थिति को सफलता से व्यक्त किया है जगह -जगह व्यंजना के द्वारा पीड़ित की पीड़ा को व्यक्त करते हुए शोषक वर्ग पर चोट करते हुए अपनी पक्षधरता को प्रकट किया है। 'घासलेट की शामें' गीत में देखिये
''मैं ही तो लाचार नहीं हूँ /आस-पास भी लाचारी है /कागज़ पर रह गयी योजना /क्योंकि योजना सरकारी है /लूट रहे वे ही सुविधाएं जो जाने पहचाने हैं। ''
'हम मजदूर होते हैं' गीत में कहा है ,''रोटियों सी /गोल है दुनिया /और हम मजदूर होते हैं /देह अपनी /बाँटते हैं हम /और थककर चूर होते हैं। ''

इस खंड की अनेक रचनाएं  अपनी सादगी भरी व्यंजना और स्वाभाविकता से मोहित करती हैं। जमींदार की डोली','रेत पर लिखे हुए निबंध हैं','यह निगोड़ी नई पीढ़ी ','पारो','दिल्ली कोसों दूर अभी','मुट्ठियाँ तनी हैं','दिया बनाता रामधनी',' लड़की','रामधनी की माई','शिक्षक का बेटा ' आदि अच्छी रचनाएं हैं।

(घ) जुगलबंदी  खंड में राजनीति -धर्म-दर्शन और बाज़ारवादी समय के गीत-नवगीत संकलित किये गए हैं। वैश्वीकरण और मुक्त बाज़ार व्यवस्था और उससे उपजे विसंगत यथार्थ की रचनाओं में मिश्र जी ने अपने सजग सोच को व्यक्त किया है। इस खंड में कवि के प्रारंभिक और नए तथा नवगीत एकादश के अधिकतर गीतों को सम्मिलित गया किया है। इनमें सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करते हुए कवि संघर्ष की ओर आह्वान भी करता है जिससे कवि के सरोकार और प्रतिबद्धता प्रकट होती है। 'उद्बोधन ' नाम के गीत में कवि वास्तव में उद्बोधन करते हुए कहता है ,''इस तिमिर से फिर तुम्हें लड़ना पड़ेगा /आग पर प्रह्लाद सा चलना पडेगा 'और 'धुनते हैं रुई चेतना ' गीत में ,''सूरज ने धूप बेच दी/चांदनी पड़ी गिरवी है /जुगनू निर्यात हो रहे /मौसम की बेशर्मी है। ''
'सीढ़ियां चढ़ते उतरते ' गीत में शहर की भागमभाग में आम आदमी के जीविका के लिए किये जा रहे संघर्ष का सजग चित्र खींच दिया है। ----
''देखता हूँ इस शहर को/रोज़ जीते मरते /उम्र यूँ ही कट रही है सीढ़ियां चढ़ते-उतरते ''.
इस खंड के ,'आवाहन गीत','आत्मबोध','इस बस्ती में','जाने कितनी बार','अवध में', 'ग्वाले रोज़ फूँक भरते हैं ','कापालिक बोल रहे हैं','यह शहर है ','एक युद्ध शेष अभी' ,'पथराया फूल का शहर','जुगलबंदी' आदि गीत पठनीय हैं।
(ङ) शब्दों की दुनिया  शीर्षक के इस खंड में अनुभव गीत और कुछ मुक्तकों को स्थान दिया गया है। इस वर्ग में विविध रचनाएँ संगृहीत हैं जिनमे 'नागार्जुन को,' तथा 'अनुभव की सीढ़ी' शीर्षक का गीत तथा मुक्तक दिए गए हैं। जिनमे पठनीयता है।

पूरे संग्रह में सम्पादिका ने भारतेन्दु मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विभिन्न पहलुओं को समेटने का प्रयास किया है फिर भी बहुत कुछ रह गया है जिसे इस संग्रह की विषयवस्तु बनाया जा सकता था।  मेरे अपने विचार से यदि भारतेन्दु जी के अवधी गीतों तथा गीतेतर सर्जना को भी इसमें स्थान मिलता तो रचनाकार की सृजन प्रक्रिया को समग्रता में समझने में सुविधा होती। साथ ही यदि साक्षात्कार में  और अधिक बिन्दुओं को समाहित करते हुए बढ़ाया जाता तो अधिक सार्थक हो सकता था। 
भारतेन्दु संस्कृत के विद्वान हैं तथा उनकी मात्र भाषा अवधी  है फिर भी अपने गीतों में उन्होंने सरल हिन्दी  को ही अपनाया है जिसमें सफल सम्प्रेषणीयता और सहज ग्राह्यता की यथार्थपरक गंध के दर्शन होते हैं।जिससे मैं उनके गीतों को यथार्थ की लोकधर्मी सुवास के गीत कहना उचित समझता हूँ। भारतेन्दु मिश्र की सर्जना को देखते हुए मुझे यह प्रश्न बार-बार झकझोरता रहा है कि एक समर्थ रचनाकार जो गीत-नवगीत के सफल प्रयोगों को करता रहा है उसने गीत न लिखने का निर्णय क्यों लिया। मेरे अपने सोच के अनुसार या तो लेखक स्वयं को चुका हुआ अनुभव करता है या अपने तात्कालिक युगबोध को व्यक्त करने में असमर्थ पा रहा है या उसकी अपनी व्यक्तिगत परिस्थितियां उसे ईमानदारी से स्वयं एवं अपने युगबोध को व्यक्त करने से रोक रही हैं। कारण कुछ भी हो एक ऊर्जावान रचनाकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी समकालीनता पर प्रतिक्रिया करते हुए समयगत यथार्थ को समाज के लिए व्यक्त करे। अतः मैं भारतेन्दु मिश्र को यही परामर्श दे सकता हूँ कि वे अपने निर्णय पर पुनर्विचार करके गीत-नवगीत लेखन में पुनःसक्रिय भूमिका निभाएं।
अंत में ,मेरा अपना विचार है कि यह संग्रह भारतेन्दु मिश्र के माध्यम से अपने समय और नवगीत सर्जना को समझने का अच्छा दस्तावेज है जो गीत-नवगीत के अध्येताओं, शोधार्थियों और पाठकों के लिए उपयोगी संचयन सिद्ध होगा।
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समीक्षित पुस्तक :  अनुभव की सीढ़ी (भारतेन्दुमिश्र की गीत सर्जना )
संपादक : डॉ रश्मिशील
प्रकाशक : नवभारत प्रकाशन ,दिल्ली
प्रकाशन वर्ष : 2015 , पृष्ठ 256 ,
मूल्य : रु. 400/- मात्र
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# जगदीश पंकज
सोमसदन 5/41 सेक्टर -2 ,राजेन्द्र नगर ,
साहिबाबाद ग़ाज़ियाबाद-201005 मोब.08860446774 ,

e- mail:  jpjend@yahoo.co.in


शनिवार, दिसंबर 26, 2015

डीयर पार्क बतकही मंडल
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रपट











नवगीत विमर्श संगोष्ठी
दिनांक24-12-2015,वरिष्ठायन,राजेन्द्र नगर गाजियाबाद मे “सम्प्रति” साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था के तत्वावधान मे डा.भारतेन्दु मिश्र के गीत/नवगीत संग्रह-अनुभव की सीढी-पर चर्चा की गयी।अनुभव की सीढी भारतेन्दु मिश्र के 30 वर्षो मे लिखे गये समग्र गीतो का संग्रह है जिसका संपादन डा.रशमिशील ने किया है।विमर्श मे नवगीत और समग्र नई कविता पर टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार एवं आलोचक डा.विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा-‘छन्दोबद्ध कविता और मुक्तछ्न्द कविता दोनो को एक दूसरे से गृहण करने की आवश्यकता है।आज सर्दी ज्यादा थी आने का मेरा मन नही था फिर मैने सोचा –यदि मेरा सम्मान होता या मेरी किताब पर समीक्षा होती तो मै अवश्य जाता उसी भाव से चला आया।भारतेन्दु पर यानी मुझ पर गोष्ठी है।इनकी कविताओ पर कहना यानी स्वयं पर ही कहना होगा।‘ उन्होने गालिब निराला और नागार्जुन का उन्होने उल्लेख करते हुए कविता को समग्रता मे देखने की बात पर बल दिया। प्रो.राजेन्द्र गौतम ने भारतेन्दु मिश्र के अनेक नवगीतो का उल्लेख करते हुए हमारे समय का उल्लेखनीय कवि बताया।उन्होने कहा- ‘भारतेन्दु मिश्र का एक नवगीत समकालीन नवगीत की सिग्नेचर ट्यून है-बांसुरी की देह दरकी/और उसकी फांस पर जो फिर रही थी/एक अंगुली चिर गयी है।रक्त रंजित हो गये है/ मुट्ठियो के सब गुलाब/एक तीखी रोशनी मे/ बुझ गये रंगीन ख्वाब/कही नगे बादलो मे/ किरन बाला घिर गयी है।गूंज भरते शंख जैसे खोखले वीरान गुम्बद/थरथराते आग मे इस गांव के बेजान बरगद/नजाने विश्वास की मीनार/कैसे गिर गयी है।..ऐसे कवि ने नवगीत लिखना 2010 से बन्द कर दिया है।यह चिंता की बात है ।कविता की मुख्यधारा मे नवगीत को भी भी शामिल करके देखना चाहिए।‘
प्रसिद्ध कवि और नयी कविता के प्रवक्ता-मदन कश्यप ने कहा-‘मेरी शिक्षा मुजफ्फरपुर मे हुई आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी मेरे गुरु थे,और नवगीत की पहली किताब संपादित करने वाले राजेन्द्र प्रसाद सिंह भी उसी शहर के थे तो मुझे नवगीत गीत और छन्द का थोडी समझ तो है लेकिन जब गीतो मे वाक्य नही बनते तब वह निरर्थक लगने लगते हैं।चाहे जितने बिम्ब और प्रतीक क्यो न हों।नागार्जुन और निराला के गीतो मे इसका निर्वाह सदैव होता है।छन्दमुक्त कविताएं साफ साफ समझ मे आती हैं।भारतेन्दु जी को बधाई।’इस अवसर पर आजकल के पूर्व संपादक डा.योगेन्द्र दत्त शर्मा ने कहा-‘मै भारतेन्दु मिश्र को बधाई दे ता हू इतने सुन्दर नवगीतो के लिए लेकिन उनसे आग्रह करूगा कि वे नवगीत लिखना जारी रखें।’इस अवसर पर देवेश कुमार देवेश जी ने अपनी बात रखते हुए कहा-‘भारतेन्दु जी से और उनके संघर्ष से तब से परिचित हूं जब वो बस से चला करते थे और कविता की किताब इनके हाथ मे होती थी।अक्सर मै भी बस मे उन्हे मिल जाया करता था।मेरा भी निवेदन है कि इतने सुन्दर नवगीत उन्होने लिखे हैं उन्हे लिखते रहना चाहिए’।इस अवसर पर नवगीतकार जगदीश पंकज जी ने अनुभव की सीढी पर केन्द्रित विस्तृत आलेख प्रस्तुत किया और नवगीत पर शोध कर रहे रमाशंकर सिंह ने शोध आलेख का सार प्रस्तुत किया ।अपने अध्यक्षीय भाषण मे वरिष्ठ नवगीतकार देवेन्द्र शर्मा इन्द्र ने छन्दोबद्ध कविता और मुक्तछन्द कविता दोनो को जोडकर देखने की बात कही और भारतेन्दु मिश्र को अपने से अभिन्न और श्रेष्ठ नवगीतकार कहते हुए उन्हे बधाई दी।संगोष्ठी मे-सर्वश्री-बाबूराम शुक्ल,गीता पंडित,डा.जयकृष्ण सिंह,संतोष कुमार सिंह,कमलेश ओझा,पेम किशोर शर्मा निडर,संजय शुक्ल,ब्रजकिशोर वर्मा शैदी,डा.के.एन.शास्त्री,मीनू बाजपेयी सहित अनेक अध्यापको और शिक्षाविदो ने भी भाग लिया।भारतेन्दु मिश्र ने सम्प्रति,के सदस्यों,तथा बतकही मंडल के सदस्यो सहित सभी वक्ताओ का आभार व्यक्त करते हुए अपना एक गीत प्रस्तुत किया।संगोष्ठी का बेहतरीन संचालन वेदप्रकाश शर्मा ने किया।अंत मे गीता पण्डित ने नवगीत विमर्श की आगामी योजना की सूचना दी।

रविवार, सितंबर 27, 2015

दिसम्बर 1984 की बात है युवारचनाकार मंच द्वारा 'दस दिशाएं' शीर्षक एक काव्य संकलन हमने प्रकाशित किया था संपादन मैने ही किया था।उसके लोकार्पण के लिए बाबू जी से आग्रह किया गया उन्होने हिन्दी भवन आने मे कुछ स्वास्थ्य के कारण असमर्थता जतायी तो हम युवारचनाकारो ने उन्हे उनके घर जाकर किताब लोकार्पित कराने के लिए तैयार कर लिया।उन्होने निसंकोच इसके लिए अपनी स्वीकृति दे दी।हमलोग मिठाई भी ले गये थे तो उसके लिए नाराज भी हुए लेकिन बाद मे सबको स्नेह सहित बैठाया। उस स्मृति के दो चित्र मुझे पुराने अलबम मे मिल गये।आगामी वर्ष 2016 उनका जन्मशती वर्ष भी है।बहरहाल दोस्तो के लिए पद्मभूषण पंडित अमृतलाल नागर जी का पावन स्मरण एक कविता के साथ-
अपनेपन की भाषा
भारतेन्दु मिश्र
 
बाबू जी के पानदान से
खाया था जो पान
भूला नही कभी
उनकी वो रसभीनी मुस्कान
तुकबन्दी करने का बस
कुछ शौक चढा था
उनसे मिलकर
बस उनको छू भर लेने का
नशा चढा था
बडी बडी आंखे थी उनकी
बहुत बडा दरवाजा भी था- मन भी था
बडी हवेली थी
लेकिन बस गली चौक की
थी संकरी
मन के संकोचो सी
साथ हमारे थे आवारा
युवा मित्र कुछ
युवा मंच के सारे साथी जा पहुंचे थे
उस दिन उनके घर
अपनी किताब लेकर
बहुत खुश हुए थे बाबू जी
हमे देखकर
जैसे कोई खुश होता है
घर का बूढा
मुस्काता जैसे
किसान नित नई फसल पर
बाबू जी ने हम सबको विधिवत बैठाया
खुलकर बातें कीं पढीस की
शर्मा जी की और निराला की
बीच बीच मे आ जाते थे
बातो मे यशपाल
ऐसे वैसे नही
बडे फक्कड थे अमृतलाल
नागर तो
भाषा की अंगुली पकड बने थे
बूंद बडा है या समुद्र
यह समझ न पाया
मानस को जो हंस मिला
उसने भी भटकाया

नाचा बहुत गोपाल
थिर हुई मन की आशा
सुधियो मे जलती रहती है
अपनेपन की भाषा ।



शनिवार, सितंबर 12, 2015


समीक्षा
अनुभूति अभिव्यक्ति से साभार
अनुभव की सीढ़ी- (भारतेन्दु मिश्र के समग्र गीतो का संग्रह)
"अनुभव की सीढ़ी" मात्र काव्यकृति ही नहीं, डा. मिश्र के विकासक्रम का ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसे डा. रश्मिशील ने बडे मनोयोग से सुरुचि का परिचय देते हुए संपादित किया है। इसमें संकलित १७३ गीतों/नवगीतों के अतिरिक्त शब्दों की दुनियाके अंतर्गत कुछ अनुभव गीत और कुछ मुक्तकों को भी स्थान दिया गया है। अंत में परिशिष्ट शीर्षक में समीक्षा और चुने हुए पत्रों का भी संग्रह है। 

संपादक रश्मिशील जी ने अनुभव की सीढ़ीको अनेक सोपानों में विभक्त कर प्रत्येक विषय से संबन्धित रचनाओं को अलग-अलग शीर्षकों में संयोजित किया है। जो क्रमशः-
१. बाँसुरी की देह (राग विराग एवं गृहरति के गीत/नवगीत) 
२. बाकी सब ठीक है (नगर बोध/विसंगतियाँ और आस्था के गीत/नवगीत)
३. मौत के कुएँ में (स्त्री मजदूर किसान चेतना-श्रम सौन्दर्य के गीत/नवगीत)
४. जुगलबन्दी (राजनीति-धर्म-दर्शन और बाजारवादी समय के गीत/नवगीत)
५. शब्दों की दुनिया (कुछ मुक्तक कुछ अनुभव गीत) तथा 
६. अंत में परिशिष्ट के अंतर्गत-पारो प्रसंग(प्रथम गीत संग्रह की भूमिका), समीक्षा(पारो पर एक दृष्टि), आलेख- (नवगीतात्मकता के विरल वैभव-भारतेन्दु) तथा कुछ चयनित पत्र संकलित हैं। 

देवेन्द्र शर्मा इन्द्र जी का यह कथन कि-काल्पनिक आदर्श की तुलना में प्रत्यक्ष यथार्थ कहीं अधिक वरेण्य होता है। भारतेन्दु जी की रचनाओं में देखा जा सकता है। यथार्थ में निहित कटुता विषाक्तता, पराभव, अवसान, अकेलेपन, अवसाद और सर्वहारापन के स्वर, विस्ंगतियों और विडम्बनाओं की प्रामाणिक अभिव्यक्ति आपकी रचनाओं में है।  इसके विरुद्ध वांछित जागरूकता लाने की दिशा में डा.  भारतेन्दु मिश्र का सृजन निश्चित रूप से पूरी तरह सहायक है। उनकी प्रत्येक रचना में तीक्ष्ण व्यंग्य के साथ वह मारक क्षमता है जो पाठक की चेतना को झकझोर कर चिंतन की दिशा में प्रेरित करती है। डा. भारतेन्दु मिश्र जी कथ्य की प्रकृति के अनुरूप प्रतीक बिम्ब में तथ्यगत यथार्थ को सहेजते हैं जिसका सौन्दर्यबोध पारंपरिक गीतों से अलग नूतन उद्भावनाओं से संयुक्त होता है। 
अब कस्तूरी कहाँमें उनका यथार्थ निम्नांकित रूप में व्यक्त होता है- 
एक और भ्रम जी ले भाई
धूप सुनहरी है
रात अमावस की अँधियारी 
नदिया गहरी है

शब्द मछेरे जाल लिए हैं
तट पर डेरा डाले
अर्थहीन डोंगियाँ तैरतीं
संत्रासों के भाले

रो मत सोन मछरिया यह तो 
नदिया बहरी है

बया डाल पर बैठ बैठ कर
दिन भर रोती है
फिर बहेलिए के पिंजरे में 
थककर सोती है

दाना पानी बिना मरी कल 
एक गिलहरी है

बीत रही है उमर न जाने 
कब आ जाय बुलावा
देह गन्ध के भ्रम में मन को 
देता रहा भुलावा

अब कस्तूरी कहाँ, यहाँ तो 
हिरना शहरी है। 

यहाँ सहजता सरलता एवं सरसता के साथ अपनी अनुभूतियों के सामाजिक ताने बाने में जिस शिल्प और शैली का प्रयोग हुआ है वह डा.  भारतेन्दु मिश्र की व्यक्तिगत विशेषता है। इसके साथ ही उनके सृजन में विविधता है -कथ्य के अनुसार भाषा, प्रतीक-बिम्ब तथा शिल्प में भी अलग ढंग के प्रयोग हैं जो एक ओर रचना के सौन्दर्य भाव और पठनीयता में अभिवृद्धि करते हैं। दूसरी ओर पारंपरिकता का लेश मात्र भी अवशेष नहीं रहता, साथ ही उनका ताजापन भी समय सीमा में आबद्ध नहीं होता। वर्षों पहले रची गयी रचना वर्तमान परिस्थितियों में भी नूतन प्रतीत होती है। उनके सृजन की परिधि में वह सब कुछ वर्तमान है जिनसे मानव जीवन निरंतर रूबरू होता रहता है। पर्व और प्रकृति से लेकर सर्वहारा के जीवन संघर्ष तक उसकी व्याप्ति है इसी लिए डा. मिश्र की रचनाएँ प्राणवंत लगती हैं। 
मिश्र जी वास्तव में शब्दों के कलात्मक प्रयोग के जादूगर हैं। नवगीत की यथार्थोन्मुख शैली के साथ भारतीय दर्शन का सामंजस्य भी उनकी सिद्धि का सुन्दर उदाहरण है जिसमें जीवन की क्षणभंगुरता के साथ आम आदमी की दैनन्दिन पीड़ा का भी सफल सन्योजन किया गया है-

चाम की चदरिया ले जाओगे 
कहाँ तुम
कल मेरे भाई पछताओगे 
यहाँ तुम

साँसों की डोरी है
नेह की लड़ी है
जीवन तो नोन तेल 
साबुन लकड़ी है

अपने पैरों घर जा पाओगे 
कहाँ तुम

अभी समय है अपनी 
देह आप माँज लो
आँखों में सच्चाई का 
सुरमा आँज लो

पर ये मैला मन धो पाओगे 
कहाँ तुम

दूर देश के पंछी 
दूर है बसेरा
हाट उठ रही है अब 
हो रहा अन्धेरा

लौट इधर जाने आ पाओगे 
कहाँ तुम

प्रस्तुत नवगीत में एक ओर जीवन का यथार्थ नोन तेल लकड़ी साबुन आदि के साथ स्नेह संबन्धों की यथार्थता प्रकट की गई है तो दूसरी ओर संसार की नश्वरता को भी स्पष्ट किया गया है। कहीं कहीं मुद्रण में एक ही गीत दो बार मुद्रित हो गया है। पृ.५३ पर-खुशबुओं के खतमुद्रित है और वही गीत पृ.५८ पर कमल की पाँखुरी परशीर्षक से मुद्रित है और अनुक्रम में वही प्रदर्शित है। इस खंड में देह का व्यापारशीर्षक से प्रस्तुत गीत भी पाठक का ध्यान आकर्षित करने में सक्षम है। वर्षा अधिक होती है तो नदी में बाढ़ आने की आशंका होती है गर्मी में शुष्क हो गई नदी जल से भर जाती है। मछेरे प्रसन्न होकर इस आशा में गा रहे हैं कि एक ओर मछलियाँ अधिक मिलेंगी और दूसरी ओर यात्रियों को पार कराने से आय अधिक होगी। गीत अपनी कहन और मौलिक उद्भावना के लिए अवश्य सराहा जाएगा जो निम्नवत है- 

मेघ का टुकडा झरा है कल
फिर नदी के पाँव भारी हैं

डोंगियाँ ताशे तमाशे
जाल लेकर तीर पर
आँख वे धरने लगे हैं
नदी की तकदीर पर

ये मछेरे गा रहे अविरल
इस नदी के पाँव भारी हैं

नाक तक पानी चढ़ा 
हर आदमी बीमार है
और घाटों पर नदी के
देह का व्यापार है

बज रही है वक्त की साँकल
त्रासदी के पाँव भारी हैं

बाकी सब ठीक हैखण्ड में नगरीय विसंगतियों के साथ कतिपय आस्था के गीत-नवगीत संग्रहीत किये गए हैं जिनमें वैचारिक कथ्य संवेदनाओं में डुबोकर प्रस्तुत किया गया है। जो संप्रेषणीयता के साथ मर्मस्पर्शी भी है। वे हमारी चेतना को प्रभावित करते हैं। कागजी योजनाओं के फल स्वरूप निर्धन मजदूर तथा निम्नवर्ग के लोग प्रतिदिन निर्धनता की ओर बढते जा रहे हैं। उच्च वर्ग धनाढ्य होता जा रहा है एवं गरीबों का शोषण कर अपनी तिजोरी भरता जा रहा है। इस शोषण उत्पीड़न, भ्रष्ट व्यवस्था और आम आदमी की स्थिति पर निम्नांकित नवगीत प्रस्तुत है-

कागजी घोड़े, थके दौडे
हाशिए जीने लगे 
हम टिप्पणी बनकर

अगस्त्यों ने पी लिया है 
सिन्धु का सब जल
और हर मछली तडपती प्यास से घायल

ढल गयी कविता किसी 
बूढ़ी तवायफ सी
क्वणित नूपुर या कि 
लोहे की कड़ी बनकर

कतरनों में फाइलों 
अलमारियों में
धूल या दलदल कभी 
चिनगारियों में

धुल गए वे न्याय 
के आदेश सारे
एक तिनका नीड़ का
धोखाधड़ी बनकर

कौन रोकेगा सनातन 
नियति सीमायें
खंडहर सी रह गयीं जब 
शेष गरिमायें

और गाछों ने न पूछा ताम्रपत्रों से
किस तरह बिजली गिरी 
पतझर झड़ी बनकर

शोषण उत्पीड़न  का सिलसिला सदियों से ही यों ही चल रहा है और आम आदमी की यही नियति है कि वह अस्तित्व के लिए निरंतर संघर्ष करते करते मिट्टी में मिल जाये। लोक तंत्र में वास्तविक सत्ता जनता के हाथ में होती है। हर पाँच वर्ष पर मतदान कर दूसरे दल की सरकार बनाई जा सकती है किंतु वास्तविकता इससे सर्वथा विपरीत है। जन प्रतिनिधि जन सेवक होने के बदले स्वामी बन जाते हैं और अनेक भ्रष्ट तरीकों से धनार्जन करते हैं। मतदान के समय उसी धन से जनता को खरीद लेते हैं। चुने जाने पर पुन: वही शोषण उत्पीड़न और वही साधारण जन का जीवन संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। डा.  मिश्र उपर्युक्त तथ्यों से भली भाँति अवगत हैं उनका मर्माहत हृदय इस कथ्य को निम्नांकित रूप से इस नवगीत में प्रस्तुत करता है-

सूरज के हाथों में 
अब किरण नहीं है
जीवन है जीवन का
व्याकरण नहीं है

सुबह शाम भगदड़ में 
अर्थवान अर्थ है 
सिर्फ पहुँच वाला ही
कुशल है-समर्थ है

चरण ही चरण हैं
बस आचरण नहीं है

बोधगीत गाते हैं 
जमुहाये होठों से
क्रांतियाँ मचलती हैं
ऊँचे परकोटों से

खुली खुली आँखें हैं
जागरण नहीं है

पत्तों सा बिखर बिखर 
गिरा कहीं यौवन है
नग्नता दिखाना ही 
प्रगतिशील जीवन है

मरण का वरण है बस
आवरण नहीं है

हर जगह भ्रष्टाचार रिश्वत कमीशन का बाजार गर्म है। आम आदमी धनकुबेरों के पाँव की जूती होकर रह गया है। समाज में जिसके पास धन अधिक है उसका सम्मान भी अधिक है कोई यह नहीं देखता कि उसने किस अनैतिक ढंग से धन कमाया है। माफिया गुंडो और बदमाशों को लोग आज अपना आदर्श मानते हैं। मानव-मूल्य को पूछने वाला कोई नहीं। डा. मिश्र ने ऐसी परिस्थिति में जीवन में और लेखन में नैतिकता और मानव मूल्यों की निरंतर पक्षधरता की। उनकी रचनाओं में परिवेश के यथार्थ बिम्बों के साथ सर्वहारा की कराह की गूँज स्पष्ट लक्षित होती है। समाज में व्याप्त समस्त विषमताओं, विसंगतियों, विडम्बनाओं, विरूपताओं और विघटन की कटुताओं को उन्होंने केवल देखा ही नहीं भोगा और जिया भी है जिससे उनकी अनुभूतियों को उकेरते शब्द काल्पनिक नहीं लगते। गाँव हो, नगर हो, महानगर हो, जो जितना बडा है उतना ही दयनीय भी। चारों ओर गलाकाट स्पर्धा को अपनी सामर्थ्य और योग्यता के बल पर जीतने के स्थान पर लँगड़ी मारकर बढ़ने की प्रवृत्ति शोकजनित ध्वंस की कथा कहती है। एक महानगर की दैनन्दिन जीवनशैली का शब्दचित्र दर्शनीय है-

धुआँधार इस महानगर में
पल भर को आराम नहीं है
बैसाखियाँ दौडतीं सरपट
मौलिकता का नाम नहीं है

भीड़ों  में भगदड भर होती
अपने सन्धि बिन्दु हैं सबके
गाड़ी बस यों ही चलती है
सई साँझ हो या फिर तड़के

यूकेलिप्टिस की बहार में 
पीपल को ईनाम नहीं है

अग्निशिखाएँ हैं बरगद पर
परिक्रमा से डरता है मन
थके हुए इन चौराहों पर
लालबत्तियों जैसी उलझन

सर्दी गर्मी सहकर अब तो
होता हमें जुकाम नहीं है

हरियाली की चर्चा होती
खुशहाली कब हो पाती है
आँखों की लपटों से मन की
आतिशबाजी जल जाती है

सीधे सच्चे इंसानों के 
हाथों में कुछ काम नहीं है

नगरीय परिस्थितियों में मनुष्य मशीन बन गया है। भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। वह तो पूरी तरह रोबोट बन गया है। करुणा संवेदना जैसे मानवीय दृष्टिकोण को लोग मूर्खता समझते हैं। जिस कन्धे का सहारा लेकर लोग आगे बढते हैं उसी को ठोकर मार देते हैं। आपसी प्रेम सद्भाव रिश्ते नाते सब जगह केवल स्वार्थ ही व्यापत है। समय से उठना समय पर तैयार होकर काम पर निकलना अपरिहार्य है। तनिक भी विलम्ब होने से दिनचर्या भंग हो जाती है जिसका परिणाम उसदिन की कमाई न हो पाना और भूखे रह जाना भी हो सकता है। मनुष्य इस कसी हुई दिनचर्या में निश्चिंत होकर विश्राम भी नहीं कर पाते जिसे डा. मिश्र जी इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं-

अरे अभी समाचार पत्र 
तक नहीं आया
तनिक और सोने दो

धुआँधार साँस लिये
कानों में शोर भरे
लुटा पिटा चुका बुझा
देर रात लौटा था
पौ फटने तो ठहरो कुछ 
उजास होने दो

बबुआ की खाँसी में
रात भर नहीं सोया
मुनिया के रिश्ते की 
बात भी चलानी है
अभी बहुत समय पड़ा 
करवट ले लेने दो

रोज सुबह पलकों से 
इन्द्रधनुष झर जाते
रोटी का डिब्बा ले 
बस पर चढ़ जाता हूँ
पलभर तो इन आँखों में  
गुलाब बोने दो

जाग्रत अवस्था में चिंतायें हैं। उत्तरदायित्वों का बोझ है, काम पर समय से पहुँचने की हड़बड़ी है। केवल सुप्तावस्था में ही सपनों की दुनिया में आम आदमी को सुकून मिल पाता है। वैश्विक बाजार बढ़ती महँगाई, अपराधों का राजनीतिकरण, उद्योगपतियों की निरंतर बढ़ती धनलिप्सा और किसानों, मजदूरों का शोषण आदि ऐसी परिस्थितियाँ इस भ्रष्ट व्यवस्था में बन गयी हैं कि जिसमें सर्वहारा का सुखी होना असंभव है। जिसे डा. मिश्र ने निकट से देखा है और जाँचा परखा है। 

मौत के कुएँ मेंखंड के अंतर्गत इसी शोषित वर्ग अर्थात नारी-मजदूर-किसान चेतना के रूप में सहेजी गयी समस्त संवेदनाओं को श्रम सौन्दर्य की गरिमा प्रदान की गयी है। सृष्टि के प्रारंभ में समाज मातृमूलक हुआ करते थे । नारी ही परिवार की धुरी होती थी। अब भी भारत ही नहीं विश्व के अनेक देशों में मातृमूलक परिवार पाये जाते हैं। किंतु धीरे धीरे मनुष्य ने शक्ति के आधार पर नारी से सत्ता छीन ली और उसे घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया। तभी से नारी की दुर्दशा प्रारंभ हो गयी। नारी को उत्पीड़ित करने और दासता की हथकड़ी बेड़ी लगाने की कोई सीमा न रही। पुरुष ने नारी का जीवन नरक बना दिया। नारी पर अनेक अंकुश लगाकर पुरुष निरंकुश हो गया। इसी तथ्य को डा. मिश्र निम्नांकित रूप से व्यक्त करते हैं-

चुप्पी सन्नाटे दहशत में
सहमी-सहमी डरी चाँदनी
देर रात हँसकर बतियाकर
धीरे धीरे ढरी चाँदनी

पलकों पर गुलाब के काँटे
बार बार मौसम ने बाँटे
आग भरे बेला नस नस में
बूढी पाकर के खर्राटे

भोर पहर तक तड़प-तड़प कर
ढेर हो गयी कला कामिनी

मधुर आम की महक नहीं अब
साँसों में खटास इमली की
गीदड उल्लू बाँच रहे हैं
व्यथा कथा इस करमजली की

सुख सपनों को तोड़, छोड़ सब
बूढ़ी होकर मरी यामिनी

डा. मिश्र ने संकेत में प्रकृति के अनेक बिम्बों के माध्यम से नारी जीवन की संपूर्ण कथा कह दी है। वास्तव में नवगीत की विशेषताओं में सांकेतिकता प्रतीक और बिम्ब महत्वपूर्ण अवयव हैं। नवगीत में इतिवृत्तात्मक शैली अर्थात अभिधा में उपमा आदि अलंकारों के प्रयोग से बहुत लंबे गीत प्रस्तुत करने का निषेध है। न्यूनतम शब्दों में कथ्य को व्यंजना के शिल्प में इस प्रकार अभिव्यक्त करना कि उसकी संवेदना पाठक ग्रहण कर स्वयं ही संवेदित हो जाये ही नवगीत का प्रमुख लक्षण है। प्रस्तुत संग्रह की अधिकांश रचनाएँ नवगीत हैं। ध्यातव्य है कि व्यंजना ही नवगीत को स्वर प्रदान करती है। साहित्यकार  उपदेशक अथवा नेता नहीं है। लेखन की प्रक्रिया में साहित्यकार परोक्ष रूप से वास्तविकता को पाठक के समक्ष रख देता है। समाधान हेतु समयानुसार चिंतन मनन द्वारा परिवर्तन का मार्ग सुनिश्चित करना पाठक और पूरे समाज का कार्य है। यह बदलाव की प्रक्रिया यद्यपि तीव्र नहीं होती किंतु होती अवश्य है। इतिहास साक्षी है कि गीतों ने अनेकबार क्रांति को प्रोत्साहित कर साकार रूप दिया है। नवगीत का भी यही लक्ष्य है यही उद्देश्य है। जहाँ तक मैं समझता हूँ डा. मिश्र इसी कारण नवगीत विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उदाहरणार्थ एक नवगीत नारी के जीवन पर देखिए जिसमें अपने ही लोग उसे कैसे पीड़ित करते हैं-

सपनों की किरचों पर 
नाच रही लड़की

अपने ही झोंक रहे
चूल्हे की आग में
रोटी पानी ही तो
है इसके भाग में
संबन्धों के अलाव
ताप रही लड़की 

ड्योढ़ी की सीमाएँ
लाँघ नहीं पायी है
आज भी मदारी से
बहुत मार खाई है
तने हुए तारों पर 
काँप रही लड़की

तुलसी के चौरे पर
आरती सजाए है
अपनी उलझी लट को 
फिर फिर सुलझाए है
बचपन से रामायन  
बाँच रही लड़की

लड़की जहाँ माँ पिता के लिए बोझ है और कन्या भ्रूण की हत्या करा दी जाती है वहीं सयानी होने पर उसका विवाह भी परिवार के लिए एक समस्या बन जाता है। समाज में व्याप्त कुरीतियाँ दहेज दानव से जहाँ परिवार दुखी है वहीं अनजान व्यक्ति से विवाहोपरांत वह दूसरे परिवार में गुलाम बन जाती है। निशुल्क आजीवन दासता और ऊपर से गालियाँ तथा पिटाई। यह नारी जीवन का दुखद पक्ष है। उसका संपूर्ण जीवन अभिशाप बन जाता है। बचपन से पुण्य कर्म करते रहने पर भी उसके शोषण उत्पीड़न और दासता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। नारी के संपूर्ण जीवन की भयंकर पीड़ा को छोटे से गीत में पिरो कर डा. मिश्र ने अपनी प्रतिभा का परिचय बीस वर्ष पहले ही दिया था। उनकी रचनाओं में एक तीखी चुभन है जो मर्माहत कर देती है। सहज सरल प्रवाहपूर्ण भाषा में न्यूनातिन्यून छन्दों में गंभीर कथ्य को संप्रेषणीयता के साथ प्रस्तुत करना उनकी विशेषता है। वास्तव में यह भाषा की व्यंजनात्मक शक्ति ही है जो शब्दों को सन्क्षेप में समेटने की कहन से चमत्कार उत्पन्न करती है-जिसमें शब्दों के अभिधामूलक अर्थ तिरोहित हो जाते हैं। फिर उनके स्थान पर वक्रोक्ति कथन से उत्पन्न स्वर ही उचित अर्थ देने लगता है। डा.  मिश्र दिल्ली जैसे महानगर में रहते हैं और आम आदमी के बुनियादी सवालों से रूबरू होते हैं। इसीलिए नगरबोध की रचनाओं में अपनी तीक्ष्ण अनुभूतियों के यथार्थ को सहेजने में सिद्ध हैं। एक उदाहरण निम्नांकित है- 

देखता हूँ इस शहर को
रोज जीते रोज मरते
उम्र यों ही कट रही है 
सीढ़ियाँ चढ़ते उतरते

फिर कपोतों की उम्मीदें
आँधियों में फँस गयी हैं
बया की साँसें कहीं पर 
फुनगियों में कस गयी हैं

यहाँ तोते बाज से मिल 
पंछियो के पर कतरते

कंपकंपाते होंठ नाहक
थरथराती देह है
और कुरते पर चढ़ा बस
इस्तरी सा नेह है

पूछिए मत हाल बस
हर हाल में सजते सँवरते

लूटकर लाए पतंगे
लग्गियों से जो यहाँ
कैद उनकी मुट्ठियों में 
आजकल दोनों जहाँ

कुछ धुआँते पेड़ उन 
पगडंडियों को याद करते

गीत के जितने प्रबल मंचीय नक्षत्र थे वे धीरे धीरे अस्त हो गये। मंच से गीतों का अवसान हो गया। गीत समय के अनुसार अप्रासंगिक होते गये और नयी कविता की वैचारिक प्रबुद्धता ने भी गीतों को प्रकाशन से परे धकेल दिया। नीरज जैसे गीतकार को भी स्वीकार करना पडा कि-मंचो पर अच्छी रचनाओं पर श्रोता ताली नहीं बजाते बल्कि अश्लील लतीफों और चुटकुलों के शौकीन हो गए हैं। डा. भारतेन्दु मिश्र ने भी विचार व्यक्त किया कि अब मेरी मान्यता है कि मंच के प्रपंच सुनकर तो घृणा ही की जा सकती है।माहेश्वर तिवारी और रामदरश मिश्र जैसे गीतकारों ने भी मंच से दूरी बना ली है। ऐसी परिस्थितियों ने भी नवगीत के अभ्युदय का अवसर प्रदान किया है। गीत के स्थान पर नवगीत युगसत्य है। जो समय के साथ नहीं चल पाता वो वह पिछड़ जाता है। इसीलिए पारंपरिक गीत इतिहास की बात हो गये। नवगीत ने गीत, गज़ल, दोहा और नयी कविता सभी को अपने शिल्प कथ्य एवं भाषा में समेट लिया। इतना ही नहीं इसमें अनेक शाखाएँ भी निकल आयी हैं जैसे जनवादी गीत, सहज गीत, समकालीन गीत आदि। डा. भारतेन्दु मिश्र गीत के ऊपर आई त्रासदियों का प्रतिरोध कर नवगीत को परिवर्तित रूप में जीवित रखने में सफल हुए हैं। उनके विषय में इन्द्र जी कहते हैं-भारतेन्दु मिश्र के गीतों पर कहीं भी सपाटबयानी का आरोप नहीं लगाया जा सकता। इन गीतों की अभिधा की पोर पोर में लाक्षणिक व्यंजकता बसी हुई है। इन गीतों की भाषा आम जनता से संवाद करने वाली है। स्निग्ध मसृण बिम्बों की श्रृंखला बनाकर वे अपने गीतों के पैरों में आलक्तक पैजनियाँ नहीं पहनाते। व्यंग्य इन गीतों का प्रभावशाली और वेधक हथियार है। जिसके उपयोग से ये गीत दूर मारक क्षमता संपन्न हो गये हैं।डा.  मिश्र ने इन्द्र जी के शब्दों को सार्थकता प्रदान की है जिससे उनके पुराने गीत भी अद्यावधिक प्रतीत होते हैं- 

अब तरंगें ताल के तट पर खड़ी
आप ही सिर धुन रही हैं
मछलियों के ही लिए 
कुछ मछलियाँ
जाल प्रतिपल बुन रही हैं

शून्य है आकाश पर
पहरा लगा है
सूर्य को धक्का कहीं
गहरा लगा है
पंछियों के पर कतर 
डाले हवा ने
आदमी पर सुअर का 
चेहरा लगा है

चीख में डूबे समय के गीत को
चेतनाएँ सुन रही हैं

सभ्यता के शब्द नंगे 
हो रहे हैं
ताल में सब धरम धन्धे 
हो रहे हैं
नीति गिरवी रख
खडे हैं वृक्ष सारे
जातियों के लिए दंगे 
हो रहे हैं

दग्ध वन में गूँजता है गीध स्वर
ग्रास लपटें चुन रही हैं

चारों ओर मनहूसियत का साया है। मनुष्य ही मनुष्य का शत्रु बन गया है। यद्यपि चेतनाएँ समय की त्रासदी को सुन रही हैं किंतु उनके पास शक्ति नहीं है। भविष्य के प्रति कोई आशा शेष नहीं है। अब तो सुनहले सपने भी नहीं दिखाई पड़ते। सांप्रदायिक दंगे, जातियों और राजनीतिक दलो की दलदल में फँसे हुए लोग मानवता के शत्रु हो गये हैं। सामाजिक वातावरण विषाक्त हो गया है। विषमता विसंगति और विघटन से समाज का प्रेम एवं सद्भाव का ताना बाना नष्ट हो चुका है। बस उसकी विद्रूपता चेतनाओं पर भारी है। अनुभव के सोपान और ऊँचे और ऊँचे चढ़ते चले जाते हैं डा. मिश्र और दिन पर दिन उनके नवगीतों की तीक्ष्ण धार तेजतर होती गयी है। क्रांति का उद्घोष करने वाले शंख गूँगे हो गए हैं और भाट इस त्रासद समय की सत्य कथा सुना रहे हैं। दुर्घटना हो, हत्या या आत्महत्या लोग देखकर भी सहायता नहीं करते और अनदेखी कर चले जाते हैं। संपूर्ण जीवन एक अग्निपथ है। अभी केजरीवाल की सभा में गजेन्द्र की आत्महत्या इसका प्रमाण है कि कई हजार की भीड़ में मीडिया जहाँ लोगों को आत्महत्या का आँखों देखा हाल सुनाने में व्यस्त था, पुलिस मूकदर्शक थी और नेता मात्र मौखिक अपील कर रहे थे। सुना तो यहाँ तक जा रहा है कि कुछ लोग उकसा भी रहे थे तथा आत्महत्या के दृश्य पर ताली भी बजा रहे थे। तब मानवीय संवेदना और जीवन मूल्य की आवश्यकता लोगों ने महसूस नहीं की। इसी प्रकार जब भारतेन्दु मिश्र लिखते हैं-

इसी गाँव में नागार्जुन को 
हँसी खेल में
तिल तिल कर मरते देखा है
दो रोटी के समीकरण में
जीवन और मृत्यु के रण में
पीपल को भी रक्तस्नात हो
मूक भाव से
पात पात  झरते देखा है

तो इस यथार्थ दृश्य की पीड़ा पाठक को मर्माहत कर देती है। वास्तव में कवि की सोच दूरगामी होती है। अन्यथा सन १९९९ की रचना वर्तमान में अपनी सार्थकता खो चुकी होती। इसी से प्रतीत होता है कि डा.  मिश्र के गंभीर चिंतन अनुभूति एवं रागात्मक संवेदना से उपजी प्रस्तुत संग्रह की रचनाएँ कालजयी हैं। ऐसी त्रासद परिस्थिति में कवि क्या करे? डा॰ मिश्र कहते हैं कि वे तरह तरह के रोज नये चेहरों पर लिखी वेदनाएँ पढ़ करके अपनी संवेदनाओ को समृद्ध करते हैं और अनुभव के नए सोपानों पर चढ़ते हुए समाज को सन्देश देते हैं-

रोज नया चेहरा पढता हूँ
इधर उधर सब देख समझकर
मन बेमन आगे बढता हूँ

कुछ अपने कुछ बेगाने हैं
कुछ परिचित कुछ अंजाने हैं
कुछ झूठे कुछ बिल्कुल सच्चे
कुछ बूढ़े, जवान कुछ बच्चे

इन्हें भागता हुआ देखकर
अनुभव की सीढ़ी चढ़ता हूँ

कुछ तीखे कुछ मीठे चेहरे
कुछ बड़बोले मन के गहरे
कहीं जानवर, कहीं देवता
कहाँ जा रहे किसे क्या पता

जो पूरा मनुष्य सा दीखे
माटी का पुतला गढ़ता हूँ

कुछ वर्दी कुछ दाढ़ी वाले
कुछ टाई कुछ कुर्ते वाले
कुछ बूढ़ी तो कुछ बालाएँ
पंख कटी उड़ती महिलाएँ

मैं आँखों देखी तस्वीरें
मन के शीशे में मढ़ता हूँ

गीतों-नवगीतों के अतिरिक्त इस महाकाव्यीय संग्रह में अंत में कुछ मुक्तक, कुछ समीक्षाएँ और कुछ महत्वपूर्ण पत्र भी संग्रहीत हैं, जो अपने समय के साक्ष्य हैं। 

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गीत- नवगीत संग्रह - अनुभव की सीढ़ी, रचनाकार- डॉ. भारतेन्दु मिश्र, संपादक- डॉ. रश्मिशील, प्रकाशक- नवभारत प्रकाशन, दिल्ली-११००९४, प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य- रूपये ४००/-, पृष्ठ- ३००, समीक्षा - मधुकर अष्ठाना।
प्रस्तुतकर्ता नवगीत की पाठशाला पर 8:04 pm 
3 टिप्‍पणियां:
1.     https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjn3toWkBJ97kTYxvpUtTiYsBD84mkB7DnPTx0TajCDH3cJGLKvoq2aBclJFNKkjhRDhmH8ig9zkY-7qINdDGdfilJyAkHY_LzZDTVEjSugFbVhwxdT2XzYL2ZeOTCSAjNulyPjwXTvGwQ/s35/DSC06904.JPG
डॉ भारतेन्दु ग्राम्य जीवन से लेकर महानगर तक के अनुभवी चितेरे हैं।इनमें लोक भी है और उसका प्रतिभासित आलोक भी। इनके यहाँ दृष्टि का व्यक्तिगत नहीं वस्तुगत उपयोग होता है। इसीलिए गई सदी की 'कुछ बूढ़ी तो'उत्तर आधुनिक समय की अनावश्यक बनाव सिंगार के साथ ध्यान खींचती 'कुछ बालाएँ'और धर्म संप्रदायों और वर्गों का प्रतिनिधितत्व करते पुरुष 'कुछ वर्दी कुछ दाढ़ी वाले
कुछ टाई कुछ कुर्ते वाले'जो भी हैं जैसे भी हैं,अपने पूरे वज़ूद के साथ जगह पाते हैं।
गीतकार देखता है कि उजाले का देवता ही लुट गया है।जीवन से उसका व्याकरण ही छिन गया है। आलोक के अभाव में मूल्यों के पाठ पढ़े नहीं जा पा रहे हैं-
"पंख कटी उड़ती महिलाएँ/सूरज के हाथों में
अब किरण नहीं है।"
जीवन है जीवन का
व्याकरण नहीं है।"कवि को चिंता है कि अब यह संस्कारों के व्याकरण से हीन होता आदमी ज़रूर गंदगी समेटेगा क्योंकि वह देखता है कि जिसने सूअर को पसंद कर लिया है उसे उसका आचरण भी ज़रूर रास आया होगा ,"आदमी पर सुअर का
चेहरा लगा है।"इस प्रदीर्घ आलेख में एक ओर इंसान को इंसान बनाए रखने की पूरी कवायद के साथ गीत रचते गीतकार डॉ भारतेन्दु मिश्र के नवगीतों की कुशल संपादक रश्मिशील का संपादन कौशल अपने श्रम स्वेद के साथ झलकता हुआ दिखता है तो दूसरी ओर एक गीतकार की सम्मोहित करती आलोचना दृष्टि चमत्कृत करती हुई मिलती है । अपने समानधर्मा गीतकार के साथ संपूर्ण न्याय करते हुए स्वयं समर्थ नवगीतकार मधुकर स्थाना जब इनके गीतों को कालजयी कहते हैं तो उसका एक अर्थ होता है।आलोचना से अधिक पाठक के लिए राग से उपजे राग का सीधा नेह निमंत्रण यहाँ मनोमुग्धकारी है। भाषा को दुरूहता छू तक नहीं पाई है। प्रायः आलोचक पांडित्य प्रदर्शन में भारीभरकम शब्दों से आलोचना को लादकर उसकी पहुँच या संप्रेष्यता को केवल विशेष वर्ग तक सीमित कर देते हैं। शेष पाठक वर्ग उस आलोचना के देह दर्शन यानी पाठ भर से ही मन भर लेता है। लेकिन इस आलोचना में ऐसा नहीं है। सही अर्थों में शेष और विशेष दोनों वर्गों की आलोचना है यह। भारी-भरकम अकादमिक आलोचना का लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ यहाँ भयभीत नहीं करता है। यहाँ पाठ का सीधा और रागात्मक रूढ़ार्थ है, जिसमें सहज विश्वास पैदा हो जाता है - "गंभीर चिंतन अनुभूति एवं रागात्मक संवेदना से उपजी प्रस्तुत संग्रह की रचनाएँ कालजयी हैं।"कवि और आलोचक दोनों को हार्दिक बधाई!-डॉ. गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर,चीन
1.     https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhELkOqCdeXIL_0Xd37AaB_xVNF4Dp_HNv4fzYPJTShMsxIztYf8ISPZrbx5VZiKC60m-m_su6sFTrJ1TJFetAxGjLdaHj6cvCLgQ_ApGE_pr-VFg5YZNVzgQPF799VxHa4UtyvMkuA5Mi4/s35/b.misra1.jpg
इस टिप्पणी के लिए ..धन्यवाद भाई शर्मा जी।
2.     https://lh5.googleusercontent.com/-TDZdcYT2JSk/AAAAAAAAAAI/AAAAAAAAACU/1LnApNwEUUU/s35-c/photo.jpg
बेहतरीन पुस्तक