अनुभव की सीढ़ी
(भारतेंदु मिश्र की गीत सर्जना ) - यथार्थ की लोकधर्मी सुवास के गीत
# जगदीश पंकज
अपने समसामयिक
गीत-नवगीतकारों में भारतेन्दु मिश्र ऐसे रचनाकार हैं जो नवगीत-विमर्श पर
पूरी तन्मयता से उपस्थिति देते रहे हैं किन्तु वर्ष 2010 के बाद से उन्होंने गीत
नहीं लिखे।गीत न लिखने के उनके अपने तर्क होंगे किन्तु एक सजग रचनाकार जो लगभग तीस
वर्ष तक गीत-नवगीत लिखता ही नहीं रहा बल्कि नवगीत के प्रत्येक विमर्श में उल्लेखित
भी होता रहा है उसकी रचनाधर्मिता के लिए
यह अकेला तथ्य ही आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है।अपने सृजन-काल के तीन
दशकों में भारतेन्दु मिश्र ने अवधी और हिन्दी में समान रूप से रचना की है जिनमें से
काफी कुछ अप्रकाशित रहा है। डॉ रश्मिशील ने भारतेंदु मिश्र के हिन्दी गीत-नवगीतों
को एक साथ संगृहीत करके 'अनुभव की सीढ़ी'
नाम से संपादित
किया है। संग्रह में भारतेन्दु मिश्र की
गीत सर्जना के सभी प्रकाशित- अप्रकाशित
गीतों को समाहित किया गया है जिससे कि रचनाकार का समग्र रूप से मूल्यांकन
करने में सुविधा हो सके । सम्पादिका ने प्रस्तुत संग्रह में सम्पूर्ण सर्जना को
तीन अलग -अलग दशकों में बाँटा है ताकि कालक्रमानुसार रचनाकार की विकास-यात्रा और
साहित्यिक परिपक्वता का आकलन करने में सुविधा हो सके।प्रथम खंड में प्रारम्भिक गीतसृजन (वर्ष 1980 से 1990 ),द्वितीय गीतसृजन
खंड में समय (1991 से 2000) तथा तृतीय खंड में समय वर्ष (2001 से 2010 ) की रचनाओं
को रखा गया है। कथ्य की दृष्टि से भी
सर्जना को पाँच खण्डों में विभाजित करके प्रस्तुत किया गया है जिससे गीतकार की
वैचारिकता,युगबोध,भावात्मक और
ज्ञानात्मक संवेदनाओं की सार्थक प्रस्तुति तथा कवि की अपनी समकालीनता से जुड़े
सरोकारों और पक्षधरता के बिन्दुओं को समग्रता से समझा जा सके। यह वर्गीकरण इस
प्रकार है -(क) बांसुरी की देह (राग-विराग और गृहरति के गीत-नवगीत) (ख) बाकी सब
ठीक है (नगरबोध विसंगतियाँ और आस्था के गीत-नवगीत) ,(ग) मौत के कुएं
में -(स्त्री मजदूर और किसान चेतना श्रम सौंदर्य के गीत-नवगीत) (घ) जुगलबन्दी (राजनीति-धर्म-दर्शन और
बाज़ारवादी समय के गीत-नवगीत) (ङ) शब्दों की दुनिया (कुछ मुक्तक कुछ अनुभव गीत) ।
संकलन में भारतेन्दु मिश्र के अपने वरिष्ठ एवं समवर्ती रचनाकारों से हुए पत्राचार
के उल्लेख स्वरुप पत्रों को भी स्थान दिया गया है तथा प्रकाशित-अप्रकाशित काव्य
संग्रहों के लिए वरिष्ठ साहित्यकारों द्वारा लिखी गयी भूमिकाओं और समीक्षाओं को
अविकल रूप से प्रस्तुत किया गया है। सम्पादन के दायित्व को सफलता से निभाने के
उद्देश्य से सम्पादिका द्वारा रचनाकार का संक्षिप्त साक्षात्कार भी प्रस्तुत किया
है जिसमें भारतेन्दु मिश्र ने विभिन्न साहित्यिक और गीत-नवगीत से जुड़े प्रश्नों पर
बेबाक विचार व्यक्त किये हैं। किसी भी रचनाकार की सर्जना पर समग्र रूप से विश्लेषण
,मूल्यांकन और समीक्षात्मक निर्णय देने में मैं स्वयं को
असमर्थ पाता हूँ। यह समीक्षा या आलोचना के
किसी स्थापित मानदंड या प्रतिमान के निकष पर आधारित कोई आलेख नहीं है बस
मात्र एक पाठकीय प्रतिक्रिया है। प्रत्येक रचनाकार के लेखन में उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि
,परिवेश ,अध्ययन ,,अनुभव और अभ्यास
के प्रभाव रहते हैं। अतः भारतेन्दु मिश्र की सर्जना में भी निश्चित रूप से परिलक्षित हैं। एक पाठक के तौर
पर मैं पहलेभारतेन्दु मिश्र की सर्जना पर अपनी संक्षिप्त प्रतिक्रिया देना उचित
समझता हूँ।
(क) बांसुरी की देह
खंड में कवि के राग-विराग और गृहरति के
गीत-नवगीत प्रस्तुत किये गए हैं। जैसा कि
खंड के शीर्षक से स्पष्ट है इसमें कवि ने पारम्परिक गीतों की भाषा-शैली का प्रयोग
करते हुए वैयक्तिक भावनात्मक संवेदनाओं के गीत रचे हैं जिनमे प्रणय की रागात्मक
प्रस्तुति कलात्मक रूप से की गयी है। तथा अपनी मान्यताओं को भी यत्र-तत्र व्यक्त
किया है। यथा-
''सांकेतिक
भाषा पर आता
विश्वास नहीं
मौखिक अभिव्यक्ति कभी बनती इतिहास नहीं ''
प्रणय गीतों में कस्तूरी वाली हिरनी को बेचारा हिरन खोजता फिर रहा है ,,
'' कुंज-कुंज को /लता-लता को /सूँघ-सूँघ कर रह
जाता /आती-जाती /हर हिरनी को देखे रोज़ थका हारा ''
'झूमते महुए लबार' गीत में सुन्दर चित्र उकेरा है ,
''धुप ने जब से/बसंती फ्रॉक पहनी है /यह हवा भी
/पाँव में नूपुर सजाये है ''
'कक्षा अध्यापक' शीर्षक के गीत
में भारतेन्दु जी के लिए कक्षा के बच्चे सिर्फ पढ़ते ही नहीं बल्कि बच्चे अध्यापक
के लिए पाठ की भूमिका भी निभा रहे हैं और वह अपने छात्रों को पढ़कर स्वयं सीख रहा
है। एक मनोवैज्ञानिक तथ्य को सरलता से व्यक्त किया है।
इस खंड में 'कक्षा अध्यापक','गोद बुआ की','हम सभी खिलौने
हैं' , 'उडी चाँदनी धनपति के संग ' ,'हम न होंगे गीत
होंगे ' , 'एक भरम टूट गया', ' गाँठ कसी है'
,'कमल की पाँखुरी पर ' और 'नवगीत के अक्षर'
अच्छे गीत हैं। 'कमल की पाँखुरी
पर ' गीत की पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं ,
''खुशबुओं के खत /किरण फिर /बाँच पाएगी न जाने।
...... रक्तरंजित /सूर्य होगा /हर तरफ होगा कुहासा/दूब की जड़ /इंद्रधनुषी-/आंच
पाएगी न जाने। ''
(ख) बाकी सब ठीक है ' खंड में नगरबोध विसंगतियां और आस्था के गीत-नवगीत संकलित किये गए हैं। महानगरीय जीवन की विद्रूप
शैली और जूझती मानसिकता के गीतों में कवि
का आत्मानुभव व्यक्त है इन रचनाओं में। 'शूल हुए बिस्तर'
गीत की पंक्तियाँ
-
''अब तो चुभने लगे /गुलाबी शूल हुए बिस्तर /बांह
नहीं उठती है /इतने सूज गए नश्तर। ........... अपनों के ही उष्ण रक्त से /सड़क हो
रही तर। ''
'राहजनी करती
दोपहरी ' , 'कागज़ के फूल ' जहां बदलते परिदृश्य को चित्रित करते हैं वहीँ 'देह का इतिहास'
और 'शंख '
,'चन्दन भी हो गया विषैला ' ,'अंधी हुई दिशाएँ 'जैसे गीत मानवीय चेतना पर हो रहे संघात से द्वन्द्व में
घिरी पीढ़ी की उहापोह को भी व्यक्त कर रहे हैं ।
''एक अधूरापन जीवन का /बार-बार खलता है /कभी-कभी
जब अपना साया /साथ छोड़ चलता है। ''
'मैं छोटा सा एक सिपाही','कबीर चाहिए'
,'चूक मत अच्छा समय है ','आज सोमवार है','करुण त्रासदी ','पाँव की बिवाइयाँ
','ऊंटों के परिणय में ',' धूल बरसती है','विश्व ग्राम ','फागुन में','बेपेंदी के लोटे','रात गयी बात गयी','बाकी सब ठीक है',और 'वाल्मीकि व्याकुल
है' शीर्षक के गीत अपने कथ्य और शिल्प दोनों तरह से आकर्षित
करते हैं।'बेपेंदी के लोटे' गीत की
पंक्तियाँ देखिये -
''जिनकी चर्चायेँ होती हैं /बेपेंदी के लोटे हैं
वो। ....... अपने मन का कोई निर्णय /लेने
की सामर्थ्य नहीं है /सभासदों में शामिल हैं /पर इनके मत का अर्थ नहीं है/ अफसर की
जूती में चस्पाँ /या कि सुनहरे गोटे हैं वो '' .
(ग) 'मौत के कुएँ में'
नाम के इस खंड
में स्त्री-मज़दूर -किसान चेतना:श्रम
सौंदर्य के गीत-नवगीत समाहित किये गए हैं। इन गीतों में कवि ने अपने समय के समाज
में स्त्री और श्रम की विभिन्न श्रेणियों और पेशों से जुड़े लोगों की स्थिति को
सफलता से व्यक्त किया है जगह -जगह व्यंजना के द्वारा पीड़ित की पीड़ा को व्यक्त करते
हुए शोषक वर्ग पर चोट करते हुए अपनी पक्षधरता को प्रकट किया है। 'घासलेट की शामें'
गीत में देखिये
''मैं ही तो लाचार नहीं हूँ /आस-पास भी लाचारी है
/कागज़ पर रह गयी योजना /क्योंकि योजना सरकारी है /लूट रहे वे ही सुविधाएं जो जाने
पहचाने हैं। ''
'हम मजदूर होते हैं' गीत में कहा है ,''रोटियों सी /गोल
है दुनिया /और हम मजदूर होते हैं /देह अपनी /बाँटते हैं हम /और थककर चूर होते हैं।
''
इस खंड की अनेक रचनाएं
अपनी सादगी भरी व्यंजना और स्वाभाविकता से मोहित करती हैं। जमींदार की डोली','रेत पर लिखे हुए
निबंध हैं','यह निगोड़ी नई पीढ़ी ','पारो','दिल्ली कोसों दूर
अभी','मुट्ठियाँ तनी हैं','दिया बनाता
रामधनी',' लड़की','रामधनी की माई','शिक्षक का बेटा '
आदि अच्छी रचनाएं
हैं।
(घ) जुगलबंदी खंड
में राजनीति -धर्म-दर्शन और बाज़ारवादी समय के गीत-नवगीत संकलित किये गए हैं।
वैश्वीकरण और मुक्त बाज़ार व्यवस्था और उससे उपजे विसंगत यथार्थ की रचनाओं में
मिश्र जी ने अपने सजग सोच को व्यक्त किया है। इस खंड में कवि के प्रारंभिक और नए
तथा नवगीत एकादश के अधिकतर गीतों को सम्मिलित गया किया है। इनमें सामाजिक
विद्रूपताओं पर प्रहार करते हुए कवि संघर्ष की ओर आह्वान भी करता है जिससे कवि के
सरोकार और प्रतिबद्धता प्रकट होती है। 'उद्बोधन '
नाम के गीत में
कवि वास्तव में उद्बोधन करते हुए कहता है ,''इस तिमिर से फिर
तुम्हें लड़ना पड़ेगा /आग पर प्रह्लाद सा चलना पडेगा 'और 'धुनते हैं रुई
चेतना ' गीत में ,''सूरज ने धूप बेच
दी/चांदनी पड़ी गिरवी है /जुगनू निर्यात हो रहे /मौसम की बेशर्मी है। ''
'सीढ़ियां चढ़ते उतरते ' गीत में शहर की
भागमभाग में आम आदमी के जीविका के लिए किये जा रहे संघर्ष का सजग चित्र खींच दिया
है। ----
''देखता हूँ इस शहर को/रोज़ जीते मरते /उम्र यूँ
ही कट रही है सीढ़ियां चढ़ते-उतरते ''.
इस खंड के ,'आवाहन गीत','आत्मबोध','इस बस्ती में','जाने कितनी बार','अवध में',
'ग्वाले रोज़ फूँक भरते हैं ','कापालिक बोल रहे
हैं','यह शहर है ','एक युद्ध शेष अभी'
,'पथराया फूल का शहर','जुगलबंदी'
आदि गीत पठनीय
हैं।
(ङ) शब्दों की दुनिया
शीर्षक के इस खंड में अनुभव गीत और कुछ मुक्तकों को स्थान दिया गया है। इस
वर्ग में विविध रचनाएँ संगृहीत हैं जिनमे 'नागार्जुन को,'
तथा 'अनुभव की सीढ़ी'
शीर्षक का गीत
तथा मुक्तक दिए गए हैं। जिनमे पठनीयता है।
पूरे संग्रह में सम्पादिका ने भारतेन्दु मिश्र के
व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विभिन्न पहलुओं को समेटने का प्रयास किया है फिर भी
बहुत कुछ रह गया है जिसे इस संग्रह की विषयवस्तु बनाया जा सकता था। मेरे अपने विचार से यदि भारतेन्दु जी के अवधी
गीतों तथा गीतेतर सर्जना को भी इसमें स्थान मिलता तो रचनाकार की सृजन प्रक्रिया को
समग्रता में समझने में सुविधा होती। साथ ही यदि साक्षात्कार में और अधिक बिन्दुओं को समाहित करते हुए बढ़ाया
जाता तो अधिक सार्थक हो सकता था।
भारतेन्दु संस्कृत के विद्वान हैं तथा उनकी मात्र भाषा
अवधी है फिर भी अपने गीतों में उन्होंने
सरल हिन्दी को ही अपनाया है जिसमें सफल
सम्प्रेषणीयता और सहज ग्राह्यता की यथार्थपरक गंध के दर्शन होते हैं।जिससे मैं
उनके गीतों को यथार्थ की लोकधर्मी सुवास के गीत कहना उचित समझता हूँ। भारतेन्दु
मिश्र की सर्जना को देखते हुए मुझे यह प्रश्न बार-बार झकझोरता रहा है कि एक समर्थ
रचनाकार जो गीत-नवगीत के सफल प्रयोगों को करता रहा है उसने गीत न लिखने का निर्णय
क्यों लिया। मेरे अपने सोच के अनुसार या तो लेखक स्वयं को चुका हुआ अनुभव करता है
या अपने तात्कालिक युगबोध को व्यक्त करने में असमर्थ पा रहा है या उसकी अपनी
व्यक्तिगत परिस्थितियां उसे ईमानदारी से स्वयं एवं अपने युगबोध को व्यक्त करने से
रोक रही हैं। कारण कुछ भी हो एक ऊर्जावान रचनाकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह
अपनी समकालीनता पर प्रतिक्रिया करते हुए समयगत यथार्थ को समाज के लिए व्यक्त करे।
अतः मैं भारतेन्दु मिश्र को यही परामर्श दे सकता हूँ कि वे अपने निर्णय पर
पुनर्विचार करके गीत-नवगीत लेखन में पुनःसक्रिय भूमिका निभाएं।
अंत में ,मेरा अपना विचार
है कि यह संग्रह भारतेन्दु मिश्र के माध्यम से अपने समय और नवगीत सर्जना को समझने
का अच्छा दस्तावेज है जो गीत-नवगीत के अध्येताओं, शोधार्थियों और
पाठकों के लिए उपयोगी संचयन सिद्ध होगा।
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समीक्षित पुस्तक : अनुभव की सीढ़ी (भारतेन्दुमिश्र की गीत सर्जना )
संपादक : डॉ रश्मिशील
प्रकाशक : नवभारत प्रकाशन ,दिल्ली
प्रकाशन वर्ष : 2015
, पृष्ठ 256 ,
मूल्य : रु. 400/- मात्र
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# जगदीश पंकज
सोमसदन 5/41 सेक्टर -2 ,राजेन्द्र नगर ,
साहिबाबाद ग़ाज़ियाबाद-201005 मोब.08860446774
,
e- mail: jpjend@yahoo.co.in
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