सोमवार, अक्तूबर 14, 2019


नवगीत की अरगनी पर टंगी गजलें
# भारतेंदु मिश्र
गीत नवगीत की दुनिया से जुड़े तमाम रचनाकारों से मेरा रचनात्मक जुड़ाव होना स्वाभाविक है,लेकिन बहुत कम ऐसे लोग मिले जो सचमुच में हिन्दी की गजलें लिखते हैं| वशिष्ठ अनूप  उनमें से एक हैं| जब हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के लिए खडीबोली में नए प्रयोग किये जा रहे थे तभी बीसवीं सदी में इसी क्रम  में निराला और जयशंकर प्रसाद जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने भी गजलें लिखीं| तब हिन्दी वादियों ने ग़जल को ‘गीतिका’ नाम देकर अपनाया| उस समय के रचनाकार हिन्दी की साहित्यिक विधाओं में अन्य भाषाओं में प्रचलित साहित्यिक विधाओं का भावानुवाद जैसा काम भी अभिनव प्रयोग समझ कर रहे थे| तभी हिन्दी ग़जल का प्रयोग भी आरम्भ हुआ|  प्रयोगधर्मिता की दृष्टि से हिन्दी में यह नवलेखन का ही परिविस्तार है|खड़ीबोली का छायावादी गीत अपनी प्रयोगधर्मिता के कारण  नवगीत बना,हाइकू और सानेट जैसे छंद आये, नव दोहा अभियान आरम्भ हुआ|भाषा –छंद लय सन्दर्भ आदि में भी नवता आयी| इन साहित्यिक परिस्थितियों को पचाकर और खुद को  बचाकर जो कवि आगे बढे उनकी कविता में स्वाभाविक चमक बनी रही| गजलकारों ने भी नए प्रयोग किये| सूर्यभानु गुप्त,जहीर कुरेशी,ज्ञान प्रकाश विवेक,हस्तीमल हस्ती,शिव ओम अम्बर ,कैलाश गौतम,राजेश रेड्डी ,मयंक श्रीवास्तव,अशोक रावत,योगेन्द्र दत्त शर्मा ,लक्ष्मीशंकर बाजपेयी,आदि अनेक सार्थक नाम हिन्दी गजल में नए प्रयोग के लिए सम्प्रति चर्चित हैं| भाई विज्ञान व्रत ने छोटी बहर में बहुत सार्थक ऐतिहासिक प्रयोग किया| हिन्दी में दिनेश शुक्ल जैसे कुछ्लोगों ने दोहा छंद में भी गज़लें लिखी हैं,हिन्दी में गजल लिखने वालों के पास उर्दू के अलावा हिन्दी छंदों की भी कभी कमी नही रही| दुष्यंत कुमार के बाद आदम गोंडवी  से प्रेरणा लेकर आधुनिक समय के अनेक कवियों ने हिन्दी गजल में हिन्दी के मुहावरे और हिन्दी की लोक भाषाओं के ठसक दार शब्दों को बहुत सुन्दर ढंग  से पिरोया है | नई पीढी के हिन्दी गजलकारो में वशिष्ठ अनूप उनमें से एक हैं| उनके पास हिन्दी गजल की विशाल परंपरा के अनुभव और अपनी हिन्दी की तत्सम शब्द संपदा का बेहतर प्रयोग भी है-
अक्षत चन्दन मन्त्र पुष्प नैवेद्य अग्नि कुमकुम
ख्वाबो में भाँवरे लगाना अच्छा लगता है|
मन में यदि संकल्प भरे हों सुन्दर दुनिया के
तूफानों से भी टकराना अच्छा लगता है| (-रौशनी की कोपलें)
मुझे लगता है कि जैसे जैसे हिन्दी गद्य का विकास हुआ वह राजभाषा का चरित्र गृहण करती गयी उसका गद्य रूप अधिक विकसित होता गया,लेकिन दूसरी ओर  वह मानकीकृत भाषा का स्वरूप मौलिक लयवंती संवेदनाओं से दूर होता गया| कविता की भाषा खुरदरे गद्य में तब्दील होती गयी|यही कारण है कि अकविता की तर्ज पर लिखी गयी खबरनुमा कवितायेँ लोक संवेदनाओं से असम्पृक्त होती गयीं| इसके बावजूद दूसरी ओर  छंदोबद्ध कवियों ने  आंचलिक आलोक में अपनी लोक भाषाओं को जीवंत रखा| कविता लोक से संपृक्त होकर ही हरियाती है| वशिष्ठ अनूप के पास भी प्रारम्भिक अवधी से लेकर अपनी मातृभाषा के लोक का आलोक और उसका भरा पूरा संवेदना संसार है| जहां कहीं वो अपनी मूल मौलिक भाषा संवेदना को छू पाते हैं वहां उनकी कविताई में चमक पैदा हो जाती है-
भूख मदारी सी डुगडुगी बजाती जब
नंगा होकर पेट दिखाना पड़ता है|
सारे  काम कहाँ होते आसानी से
कभी कभी आस्तीन चढ़ाना पड़ता है| (-रोशनी खतरे में है)
भगवान के घरों में भी है चिल्ल पों मची
अल्लाह के घरों में बहुत शोर है मियाँ|
पढ़ लिख के अभी सभ्य कहाँ हो सके हैं हम
हर बात पे अब भी तो तोर मोर है मियाँ ||(-तेरी आँखें बहुत बोलती हैं )
 असल में ये ‘तोर-मोर’ जैसे देशज शब्दों की मिठास कविताई को प्रभावशाली स्वरूप देती है| छंदहीन कवियों की कविता में ये बात नही दिखाई देती| खासकर छंदहीन कवियों ने कविता को अनुवाद किये जाने के लिए अधिक लिखा या विदेशी भाषाओं के साहित्यकारों से हिन्दी में अनुवाद करते हुए कविताकामिनी को हृदयंगम किये जाने का बड़ा स्वांग रचा और सम्मानों -पुरस्कारों तथा विदेशी यात्राओं के मार्ग खोजे| यह हिन्दी के व्यापक प्रचार प्रसार के हित में भले ही बड़ा काम दिखाई देता हो, किन्तु लोकोन्मुख हिन्दी की कविताई तो लोक भाषाओं के संस्कार से अनुप्राणित हुए बिना पहले भी संभव न थी और आज भी संभव नहीं है| इसीलिए नागार्जुन,केदार बाबू और त्रिलोचन जैसे प्रगतिशील कवियों ने कभी लोक भाषा और आंचलिक शब्दसंपदा से अपना संपर्क नहीं तोड़ा| परन्तु कुछ अतिवादी  समकालीन मुक्तछंद कवियों ने नामवरी आलोचना की छत्रछाया में अपने निजी विकास को ही गाया बजाया और व्यूह बनाकर छंदोबद्ध कवियों की उपेक्षा भी की |
गीत और गजल में हिन्दी और उर्दू की परंपरा का अंतर ही नहीं दोनों में छंदों के कहन और विषय वस्तु आदि का भी फ़र्क होता है रचाव में तो अंतर होता ही है| कुछ छंदोबद्ध कवियों ने केवल तुकों के सहारे छंदों की बेहिसाब जुगाली की है,मैं ऐसे कवियों को कविराज की श्रेणी में रखना चाहता हूँ, भगवान बचाए ऐसे कविराजों से| इसके अतिरिक्त  मंचीय तालीपिटाऊ, गलेबाज कवियों से भी हिन्दी गजल को सुरक्षित करने की आवश्यकता है| ये गलेबाज कविसम्मेलनों में अपनी आलाप वाली गायकी से छंदों में दो चार मात्राएँ तो आसानी से बढ़ा घटा लेते हैं|हिन्दी गजल में हिन्दी का रदीफ़ और काफिया भी वशिष्ठ अनूप के यहाँ साफ दिखाई देता है-
ये फूल बच्चियां नदियाँ पहाड़ यह सागर
ये सब बचेंगे तो सारा जहां सुरक्षित है|
चलो कि मिलके कहीं घोसला बनाए हम
बगैर प्यार के कुछ भी कहाँ सुरक्षित है|(-तेरी आँखें बहुत बोलती हैं)

इसी तरह हमारे गाँवों की तस्बीर भी हिन्दी गजलों में अब दिखाई देने लगी है| ये हिन्दी की गजलें अक्सर मुझे नवगीत की अरगनी पर टंगी हुई नजर आती हैं| जाने क्यों मैं हिन्दी कविता की विशाल परंपरा में गीत नवगीत की धारा से ही हिन्दी गजल को जोड़कर देख पाता  हूँ| इन गजलों मे वो पुरानी रोमानियत गुलाब -शराब और नाजों नखरे उठाने वाले बिम्ब अब नहीं दिखाई देते-
फूल खुशबू तितलियाँ अब भी हैं मेरे गाँव में
नेह की पुरवाइयां अब भी हैं मेरे गाँव में |
हैं अभी गाते कबीरा और मीरा के भजन
रस भरी चौपाइयां अब भी हैं मेरे गाँव में |
ऐसा नहीं है कि वशिष्ठ अनूप अकेले ही इस प्रकार की गजलें लिख रहे हैं,और भी हमारे समय के अनेक कवि इस तरह की अभिव्यक्ति अपनी हिन्दी गजलों के माध्यम से सामने रख रहे हैं-हिन्दी कविता के लिए ये बहुत अच्छी बात है-
गदोरी पर रची मेंहदी कि लाली याद आती है
मुझे अक्सर वो लड़की भोली भाली याद आती है|
बहुत सी बिजलियों की झालरे आँखों में जब चुभतीं
तो मिट्टी के दियों वाली दिवाली याद आती है|

(बारूद के बिस्तर पे )
सत्ता से आँख  मिलाकर उसके मर्म को समझने का हुनर भी आज का कवि जानता है| ये सच है कि कलम के सामने तख्तोताज बहुत बौने ही रहे हैं-
कलम को थपथपाती है हुकूमत
कलम से थरथराती है हुकूमत|
फतह करले भले ही मोर्चों पर
कलम से हार जाती है हुकूमत |
हिन्दी की छंदोबद्ध कविता आज इक्कीसवीं सदी के नए दौर में अपनी तमाम अर्थ ध्वनियों, शब्दविन्यास, और लोक भाषा चेतना को  लिए आगे बढ़ रही है| हिन्दी के मुहावरे लेकर लिखी जा रही समकालीन हिन्दी गजल का मैं हमेशा से स्वागत करता रहा हूँ|अंतत: वशिष्ठ अनूप का एक और शेर देखें जो अपनी पोशाक में गजल सा है लेकिन उसमें नवगीत की ऊर्जा भरी हुई है| एक शेर  में गिलहरी और पेड़ के रिश्ते को इस आसान ढंग से कहने की कोशिश कवि ने की है कि उसकी उक्ति वैचित्र्य को सराहे बिना नहीं रहा जा सकता|

कोई चूहा तो नहीं है कि बिल बनाएगी
गिलहरी पेड़ से जाये तो कहाँ जायेगी?
# संपर्क
सी-45 /वाई-4 ,दिलशाद गार्डन,दिल्ली-110095
9868031384




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