मंगलवार, मार्च 03, 2015

 नवगीत का नया सन्दर्भ:रमाकांत

 #  डा.भारतेन्दु मिश्र
बाजार हंस रहा है :यदि  शीर्षक लघु पत्रिका के संपादन से जुडे भाई रमाकांत के बारे मे बहुत दिनो से कोई समाचार नही मिला था, अभी हाल की रायबरेली यात्रा मे अनायास यकायक एक समारोह मे उनसे मुलाकात हुई उन्होने मुझे अपना नवगीत संग्रह समीक्षार्थ दिया।बाजार हंस रहा है के गीतो को पढकर पता लगा कि सचमुच मै अबतक उनके रचनात्मक वैभव से अनजान था।इस संग्रह मे उनके लगभग 70 गीत संग्रहीत हैं।बीसवीं सदी के अंतिम दशक से लेकर नई सदी के प्रथम दशक त्क की अवधि मे रचे गए ये गीत बहुत आकर्षक हैं।रचनात्मक वैभव के आधार पर कहा जा सकता है कि भाई रमाकांत का नाम अग्रणी नवगीतकारो की सूची मे शामिल किया जाना चाहिए।कवि के पास रायबरेली की नवगीतधर्मी परंपरा का उजास भी है जिसमे शिवबहादुर सिंह भदौरिया,दिनेश सिंह,जय चक्रवर्ती आदि का संग साथ भी उसे मिला।सामाजिक सरोकारो की समग्र लय रमाकांत के गीतों लगातार बजती है और मनुष्यता की परख करती चलती है।रमाकांत बोलती हुई पंक्तियों के गीत कवि हैं-
सपने टूटे/फिर भी सपनों का/ सत बाकी है/बाकी है कितना कुछ /श्रम के नायक का/अधिनायक कोई हो /हक देना होगा उसका/वर्ना आने को /अब केवल आफत बाकी है।–
ये जो सपनो का सत है असल मे वही कवि से कविताई करवा रहा है।कवि के पास नए नए भेस मे व्यापारी खडे हैं और बाजार हंस रहा है।हम सब केवल बिके हुए माल की तरह इधर उधर बिखरे पडे हैं।इस उपभोक्तावादी समय मे अपना स्वाभिमान बचाकर जीना सरल नही है।पंक्तियां देखें-
सोचो कब तक और सहोगे/मालिक के कोडे/बहुत समय गुजरा है/तुमको अपना हक छोडे। इसी क्रम में कवि के पास श्रम सौन्दर्य को चीन्हने वाले बिम्ब भी चमकते दिखाई देते हैं-भूख को हरदिन/गुजरना है पसीने से/गुम हुए इतवार सब बारह महीने से।
कवि के पास अपने भक्तो छोडकर भागने वाले बाबाओ का भी पता है-बाबा रे बाबा/क्यो सलवार पहन कर भागा।–हालांकि एक आध जगह पर छन्द की मात्राओ मे कमियां दिख जाती हैं लेकिन कविता की विषय वस्तु और उसके निर्वाह को लेकर कवि आश्वस्त करता चलता है।
    संग्रह का दूसरा गीत-हे गरीब भी बहुत मार्मिक है एक अंश देखें-प्यासो के घर पानी/कैसी बातें करते हो।वंचितो को उनका अपना हक मिले इसी दिशा मे आगे बढता नजर आता है।संग्रह का पहला गीत ही भीख मांगती महिला की विवशता का रेखाचित्र प्रस्तुत करता है।इसीलिए संग्रह की भूमिका मे आदरणीय गुलाब सिंह ने रमाकांत के इन नवगीतो को अपेक्षित परिवर्तन के आग्रही नवगीत कहा है।मेरी दृष्टि में रमाकांत जीवन की विरूपता और सर्वहारा के सामान्य सुख दुख के सजग नवगीतकार हैं।जनपक्ष उनके इन गीतो को पठनीय और संग्रहणीय बनाता है।कुछ और पंक्तियां देखिए-मैं जैसा हूं/लगभग वैसा मेरा कमरा है।और एक उद्धरण देखें-हम टूटे हैं/पर अब भी जीवन है बाकी। अब जरा इन पंक्तियो को सपनो के सत से जोडकर देखिए तो लगेगा कि कवि रमाकांत मध्यवर्ग के सपनो से जूझते हुए मनुष्य के साहचर्य की गीत कविता को स्वर देते हुए मिलेंगे।इस वर्गीय चरित्र को नवगीत के पाठ के रूप मे प्रस्तुत करने वाले कवि को बधाई ,रमाकांत के नवगीतकार से अभी और सर्जनात्मक आशाए की जा सकती हैं।
बाजार हंस रहा है:नवगीत संग्रह,
कवि:रमाकांत,/प्रकाशन:अनुभव प्रकाशन,गाजियाबाद/वर्ष;2014/मूल्य:रु.140/
  



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