तीन वर्षा गीत
:
1.दिन ये बरसात के
कीचड के बदबू के/रपटीली
रात के
दिन ये बरसात के/ये
दिन बरसात के।
माटी की गन्ध
गयी
डूब किसी नाले में
माचिस भी सील गई
रखे
रखे आले में
आंधी के ,पानी के
दुरदिन सौगात के
दिन ये बरसात के /ये
दिन बरसात के।
पुरवाई पेंग भरे
अंबुआ
की डालपर
झींगुर दादुर गाते
संग संग ताल पर
झूलों के फूलों के
अन्धेरे प्रभात के
दिन ये बरसात के/ये
दिन बरसात के।
2.आवारा बादल
खारे जलनिधि से उपजा
हूं,मधुर माधुरी घोल रहा हूं
खट्टे कडुवे अनुभव
लेकर तैर रहा हूं,डोल रहा हूं।
तन मन से सजल जलद
मैं ऊंचे शिखरों से टकराता
बिखर गया हूं बरस
गया हूं,फिर भी रोब नही सह पाता
पवन उडा ले जाता
मुझको किंतु गरज कर बोल रहा हूं।
एक चातकी रट सुनने को
व्याकुल होकर तरस गया हूं
आवारा बादल बन कर मै
हर स्वाती मे बरस गया हूं
बस मन की सच्ची भाषा
पर अपना सब कुछ तोल रहा हूं।
आंखों के खारे जल से
भी कितने मेघ नित्य बन जाते
शून्य व्योम में
स्वर्णिम सपने जैसे बिखर बिखर रह जाते
मैं अपने जीवन की
पुस्तक धीरे धीरे खोल रहा हूं।
तुम मेरे जैसे
सैलानी या मैं तुम सा आवारा हूं
तुम भी भटक रहे हू
प्रतिपल मै भी थका और हारा हूं
किंतु हार कर भी
जीवन में अपनी शक्ति टटोल रहा हूं।
3.पावस परिणय
वर अम्बर वधु वसुधा
के आया द्वार है
मालती लता जैसे शुभ
वन्दनवार है।
ताडपत्र करवाते मंडप
का भान
कदली के पत्तों से
छा गया वितान
पावन अभिषेक हेतु
पावसी फुहार है।
बाराती सकल वृक्ष आम
औ पलाश
समधी बनकर आया
द्वारे मधुमास
बेले की लतिका या
सुन्दर सा हार है।
निर्झर के रुनझुन सी
बजती शहनाइयां
चपला सी चमक रही
आतिश चिनगारियां
मेघ गर्जना शंख
ध्वनि बार बार है।
दादुर की पंक्ति पढे
मंत्र लगातार
मोर मोरनी करते नर्तन
व्यापार
परिणय की भूमि बनी
दूर क्षितिज पार है।
कमल और सूर्यमुखी
केतकी गुलाब
सेवा मे तत्पर है
पुष्प का समाज
सखी दिशाओं में भी
सुख का अधिकार है।
रचनाकार:भारतेन्दु मिश्र
रचनाकार:भारतेन्दु मिश्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें