गुरुवार, मार्च 28, 2013


प्रगतिशीलता के नैसर्गिक गीतकार भवानी प्रसाद मिश्र


(जन्म:29-3-1913 निर्वाण: 20-2-1985)
जन्मशती पर पुनर्पाठ करते हुए -


*भारतेन्दु मिश्र
बीसवी सदी के अनेकानेक प्रगतिशील कवियों के बीच मध्यप्रदेश की धरती पर जिस कवि ने अपने एक प्रगीत के माद्ध्यम से मंचीय कविता खासकर गवैयो और गलेबाजो की तालीपिटाऊ प्रस्तुतियो की कलई खोली -वह थे भवानी प्रसाद मिश्र । उनकी इस रचना का शीर्षक है-गीतफरोश-
जी हाँ हुज़ूर
मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ
मैं क़िस्म-क़िस्म के
गीत बेचता हूँ

यह एक लंबी गीत कविता है। उन्हे लोग भवानी भाई और मन्ना दादा भी कहते थे। 29 मार्च सन् 1913 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले में जन्मे भवानी प्रसाद मिश्र दूसरे सप्तक के प्रमुख कवि हैं। आपने हिन्दी, अंग्रेजी तथा संस्कृत विषयों से स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
वह दौर था जब आम आदमी राष्ट्रवादी चिंतन की धारा मे बह रहा था। देश आजादी का स्वप्न देख रहा था। तमाम युवा और युवतियाँ महात्मा गान्धी जी के असहयोग आन्दोलन मे कूद पडे थे। एक साहित्यकारो और पत्रकार्रो का समूह भी गान्धी जी के साथ कदम से कदम मिला कर चल रहा था।इसी दौर मे भवानी प्रसाद मिश्र जी पर भी
2 महात्मा गांधी जी के दर्शन का गहरा प्रभाव पडा। भवानी दादा ने सृजन की भावुकता और जीवन की व्यवहारिकता के बीच की इस मनोदशा को इतनी बेबाक़ी से अभिव्यक्त किया कि श्रोता और पाठक दाँतों तले उंगलियाँ दबा लेते थे। सीधा सादा जीवन और साफगोई उनकी कविता की ही नही उनके जीवन का भी अनिवार्य अंग थी।
गांधीवाद की ईमानदारी भवानी दादा के व्यक्तित्व का विशेष अंग बनी थी। इसी ईमानदारी की साफ़-साफ़ अभिव्यक्ति आपके पहले संग्रह ‘गीत-फ़रोश’ में हुई है। गीत फरोश, चकित है दुख, गाँधी पंचशती, अँधेरी कविताएँ, बुनी हुई रस्सी , व्यक्तिगत, खुशबू के शिलालेख, परिवर्तन जिए, त्रिकाल संध्या, अनाम तुम आते हो, इदंन मम्, शरीर कविता फसलें और फूल, मान-सरोवर दिन, संप्रति, नीली रेखा तक और कालजयी उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। 1972 में " बुनी हुई रस्सी " नामक रचना के लिये आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। इसके अलावा उन्हे पद्मश्री सहित अन्य अनेक पुरस्कारो सम्मानों से भी विभूषित किया गया। आपने संस्मरण –निबन्ध और बाल साहित्य भी लिखा। 20 फरवरी 1985 को गीतफरोश का यह अप्रतिम गीतकार हमेशा के लिए अपना अक्षुण्ण कृतित्व छोड कर इस संसार से विदा हो गया।
भवानी प्रसाद जी का सर्वाधिक मार्मिक कविता सतपुडा के घने जंगल है। इस गीत मे कवि की अपनी जातीयता साफ प्रकट होती है। ऐसी गीत रचना कदाचित हिन्दी साहित्य मे दूसरी नही है। कवि ने सतपुडा के जंगलों को कई बार देखा परखा है। यू तो पूरा गीत ही बेहद मार्मिक है लेकिन इसमे जो संवेदना की गहरी परतें और अर्थछायाएँ हैं उनका कहना ही क्या ? कवि के लिए ये जंगल किसी जीती जागती बस्ती की तरह हैं।
सतपुड़ा के घने जंगल।
नींद मे डूबे हुए से/ ऊँघते अनमने जंगल।
झाड ऊँचे और नीचे,/चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है/मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,/धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल/ऊँघते अनमने जंगल।
ये जो अनमने ढंग से ऊघने का संकेत है वह मध्यभारतीय मनुष्य की जिन्दगी का सत्य है। सब कुछ सहज ईश्वर आधीन निश्चिंत सा,लेकिन आम आदमी अपनी जातीयता के गर्व से लैस भी है ।हमारे दार्शनिक बोध की ही तरह यह जंगल बेहद गहन भी है,बिना उसमे घुसे उसकी पहचान नही की जा सकती। किसी दलित बस्ती जैसा भाव-निम्न पंक्तियो में सहज रूप से दृष्टिगत होता है। लेकिन
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यहाँ कवि दलित चेतना से बेखबर है। यहाँ तो कवि कहना चाहता है कि इन पत्तो को जितना दल सको दलो ताकि ये नए और पुराने सभी पेडो और वनस्पतियो के लिए खाद बन सकें।
सड़े पत्ते, गले पत्ते,/ हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढँक रहे से/पंक-दल मे पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,/दलो इनको दल सको तो,
सहज स्त्रीभाव-का स्वर भी इसी गीत मे उल्लेखनीय है। बिना स्त्री के जैसे समाज की संभावना नही की जा सकती वैसे ही लताओ के बिना जंगल की कल्पना व्यर्थ है। ये लताएँ जंगल के वृक्षो से ही अपना भोजन पानी लेती हैं। ये अचानक किसी को भी पकड सकती हैं और अपने मे उलझा लेती हैं। तो ये लताएँ हमारे समाज की स्त्रियो के भाँति है जिनके बिना समाज की रचना नही हो सकती और भरण पोषण तो दूर की बात है--
अटपटी-उलझी लताऐं,/डालियों को खींच खाऐं,
पैर को पकड़ें अचानक,/प्राण को कस लें कपाऐं।
सांप सी काली लताऐं/बला की पाली लताऐं
लताओं के बने जंगल।
यह संसार सहज दुख का भवसागर है ।दुख झेलते हुए आगे बढना ही मनुष्य स्वभाव है तो कवि इन जंगलो को सहज कष्टो से सना हुआ देखता है परंतु वो चाहता है कि लोग इसे अगम न माने। आम आदमी को इसके भीतर से होकर चलने की प्रेरणा कवि देता है। असल मे यही सच्ची प्रगतिशीलता है। अपने आप मे सहज दुख सुख वाली सांसारिकता को स्वीकार कर आगे बढते रहना--
मकड़ियों के जाल मुह पर /और सर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले /दाग काले-लाल मुँह पर,
वात- झन्झा वहन करते,/चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल।
भूकम्प से कुनमुनाए हुए हैं- ये जंगल अजगरो,बाघो,और दुर्गम पहाडो से भी भरे पडे हैं लेकिन मनुष्य वही है जो इसका साहसपूर्वक सामना करे और इसमे प्रवेश करे। ये अगम्य लगते हैं पर है नहीं।
अजगरों से भरे जंगल/अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,/बड़े छोटे झाड़ वाले,

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शेर वाले बाघ वाले,/गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल।
भवानी प्रसाद मिश्र की जातीयता को जाँचने परखने की नजर से यह गीत बहुत गम्भीर होकर पढने की आवश्यकता है। एक गीत- जाहिल के बाने- में वो कहते हैं-
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाये हूँ याने ।
अर्थात अपनी जातीयता के साथ ही मिश्र जी पर गान्धीदर्शन का सीधा प्रभाव दिखता है। खासकर श्रम के आकलन को लेकर गान्धी जैसा सोचते थे वह बाद के नेताओ ने विस्मृत कर दिया जिसका परिणाम हमारे समाज मे घृणा और नफरत के रूप मे दिखाई देने लगा है।जबकि यह हमारे परावैदिक युग की सामाजिकता की पहचान रही है।मार्क्सवादी चिंतक डाँ.रामविलास शर्मा के अनुसार -वैदिक युग मे शारीरिक और मानसिक श्रम मे भेद नही था। -यहाँ महात्मा गान्धी इसी विचार का प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने आश्रम के सभी काम स्वयं करते हैं। किसान मजदूर के प्रति जो सहज आदर का भाव होना चाहिए वह हमारी तथाकथित पढी लिखी पीढी भूल गयी है।गान्धी के प्रति भवानी दादा की एक कविता का अंश देखिए-
जिल्द बाँध लेना पुस्तक की / उनको आता था
भंगी-काम सफाई से/ नित करना भाता था ।
ऐसे थे गाँधी जी/ ऐसा था उनका आश्रम
गाँधी जी के लेखे/पूजा के समान था श्रम ।
तो ये श्रम और उसके प्रति आदर का भाव जो गान्धी के आश्रम मे था वह अब आधुनिक गान्धीवादियो का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं में समाप्त हो गया है।
एक और भवानी दादा का लम्बा गीत है -घर की याद। कवि की जातीय चेतना को और अधिक साफ करनेवाला यह गीत उनकी पारिवारिक स्थिति का पूरा परिचय देता है।
हिन्दी कविता के उस दौर मे लम्बी कविताए लिखी जा रही थीं। कुछ कवियो ने उस समय ऐसी छन्दोबद्ध गीतात्मक कविताएँ भी लिखीं जो बाद मे मील का पत्थर साबित हुईं। घर की याद अपने आप मे इसी कोटि की स्मृति आख्यान धर्मी कविता है। वस्तुत: यह केवल कविता नही बल्कि संस्मरणात्मक आख्यान भी है। गृह रति की व्यापक संवेदना इस कविता मे बहुत सुन्दरता से उभरती है। गाँवो मे अभावो के कारण बरसात के दिन प्राय: कष्ट भरे होते हैं ऐसे मे भवानी दादा अपने घर को याद करते हैं-
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गिर रहा पानी झरा-झर,/हिल रहे पत्ते हरा-हर,
बह रही है हवा सर-सर,/काँपते हैं प्राण थर-थर,
बहुत पानी गिर रहा है,/घर नज़र में तिर रहा है,
घर कि मुझसे दूर है जो,/घर खुशी का पूर है जो,
घर से बाहर रहने वाले लोगो को जो अपनो की याद सताती है वह इस कविता का केन्द्रीय भाव है।इस कविता में भवानी प्रसाद मिश्र जी अपने चार भाई और बहिनो के साथ माता और पिता को याद करते हैं-
आज का दिन दिन नहीं है,/क्योंकि इसका छिन नहीं है,
एक छिन सौ बरस है रे,/हाय कैसा तरस है रे,
घर कि घर में सब जुड़े है,/सब कि इतने कब जुड़े हैं,
चार भाई चार बहिनें,/भुजा भाई प्यार बहिनें,
और माँ‍ बिन-पढ़ी मेरी,/दुःख में वह गढ़ी मेरी
माँ कि जिसकी गोद में सिर,/रख लिया तो दुख नहीं फिर,
इसके आगे देखें पिता का रेखाचित्र, पिता को स्मरण करते हुअ कवि कहता है कि वो जितने भोले हैं उतने ही बहादुर भी है।कितना मार्मिक है यह चित्र-
पिताजी भोले बहादुर,/वज्र-भुज नवनीत-सा उर,
पिताजी जिनको बुढ़ापा,/एक क्षण भी नहीं व्यापा,
जो अभी भी दौड़ जाएँ,/जो अभी भी खिल-खिलाएँ,
मौत के आगे न हिचकें,/शेर के आगे न बिचकें,
बोल में बादल गरजता,/काम में झंझा लरजता,
आज गीता पाठ करके,/दंड दो सौ साठ करके,
इसी कविता का अंश और आगे देखिए माँ के साथ अन्य परिवार के लोगो को याद करते हुए कवि को लगता है कि केवल वही नही उधर से उसके परिजन भी इस बरसात में उसे उतना ही याद करते होंगे--
भाई पागल, बहिन पागल,/और अम्मा ठीक बादल,
और भौजी और सरला,/सहज पानी,सहज तरला,
शर्म से रो भी न पाएँ,/ख़ूब भीतर छटपटाएँ,
आज ऐसा कुछ हुआ होगा,/आज सबका मन चुआ होगा ।
पिता का मन तो साक्षात बरगद जैसा हो गया होगा। जिसे अनादि वृक्ष की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। जिसके पोर पोर से संवेदना का दुग्ध सदैव प्रवाहित होता रहता है। उसे किसी पत्ते का
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बिछोह सहन नही है। जबकि वह यह भी जानता है कि हर बार पत्ते का बिछुडना ही उस वृक्ष की नियति है-
एक पत्ता टूट जाए/बस कि धारा फूट जाए एक हल्की चोट लग ले /दूध की नद्दी उमग ले।
मेरी दृष्टि मे यह लम्बी गीतात्मक कविता भवानी प्रसाद मिश्र जी के मन मे बसी पारिवारिक संवेदना की नदी का पता बताती है। इन कुछ गीत कविताओ के अलावा उनके संकलनो मे अनेक नवगीतात्मक कविताएँ भी मिलती हैं। परंतु उन्हे शुद्ध गीतकार कहना सही नही होगा। उनकी एक नवगीतात्मक कविता का अंश देखें- बूँद टपकी एक नभ से/किसी ने झुककर झरोखे से /कि जैसे हँस दिया हो। हँस रही सी आँख ने जैसे /किसी को कस दिया हो। यहाँ नवगीतात्मकता की छवि साफ तौर से भवानी दादा की कविताओ मे देखी जा सकती है।
एक दरिदा शीर्षक कविता मे गीतात्मकता का प्रयोग देखिए कितनी सहजता से कवि ने मनवता पर आए आसन्न संकट का खुलासा किया है-
दरिंदा/आदमी की आवाज़ में/बोला
स्वागत में मैंने/अपना दरवाज़ा/खोला
और दरवाज़ा/खोलते ही समझा/कि देर हो गई
मानवता/थोड़ी बहुत जितनी भी थी/ढेर हो गई !
भवानी दादा का उनकी जन्मशती के अवसर पर स्मरण करते हुए मुझे लगता है कि उनके पुनर्पाठ की आवश्यकता लगातार बनी हुई है उन्होने बच्चो के लिए भी गीत लिखे थे।बडे कवि लेखक वही होते हैं जो बच्चो के लिए भी लिखते हैं। मुझे लगता है कि बच्चो के लिए लिखना यानी अपने भविष्य से संवाद करने जैसा होता है। यह काम समर्थ रचनाकार ही कर सकता है। नागार्जुन त्रिलोचन शमशेर आदि सबने बच्चो के लिए लिखा है।मिश्र जी के एक बाल गीत की पंक्तियाँ देखें- साल शुरू हो दूध दही से साल खत्म हो शक्कर घी से। ऐसे समर्थ कवि भवानी प्रसाद मिश्र हिन्दी के पुरस्कर्ता गीत कवि हैं।मै गीत कवि इसलिए कह रहा हूँ क्योकि वे मूलत: गीत और छन्द लय के रचनाकार हैं उनकी बाद की तमाम कविताओ मे भी अप्रकट रूप मे लय और छन्द की छाया विद्यमान है।अंतत: उनकी पावन स्मृति को प्रणाम।

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