समीक्षा:
कुछ और बात होती
डाँ.भारतेन्दु मिश्र
बना
रह जख्म तू ताजा-सुभाष
वसिष्ठ का पहला गीत संग्रह है। हालाँकि सुभाष वसिष्ठ जी पिछले कई दशको से साहित्य
और रंगमंच पर अनेक भूमिकाओ मे सक्रिय रहे हैं। कवि के इन 46 गीतो की रचना बीती सदी
के सातवे दशक और आठवे दशक मे हुई
है।अर्थात इस पुस्तक का प्रकाशन दो दशक पूर्व हो जाना चाहिए था जो किन्ही
कारणो से अब हो पाया है।बहरहाल कवि गीत की संवेदना को जख्म की तरह गाता रहा है और
उसका शायद यह भी मानना है कि यह संवेदना का जख्म सदैव ताजा बना रहे तभी कविता हो
सकती है।
रंगमंच से गहरा जुडाव कवि की प्राय: इन
अधिकांश गीत रचनाओ मे साफ तौर पर देखने को मिलता है। अनेक गीत -नाट्य संवाद या
ड्रमेटिक मोनोलाँग जैसे भी दिखाई देते हैं यदि इन गीतो के साथ पात्रो का रूपक भी
शामिल होता तो सम्भवत: इन गीतो की छवि और भी भास्वर हो जाती। दूसरी विशेष बात यह
भी है कि इन गीतो को एक बैठकी मे पढ समझ लेना सहज नही है।ये गीत पाठक से तनिक
सजगता की माँग करते हैं।भाषिक संरचना की दृष्टि से कवि ने संवेदना के आवेग को नई
शब्द व्यंजना दी है।यह भी कह सकते हैं कि कई बार शब्दो का कान उमेठकर अभीप्सित
व्यंजना अर्जित की गई
है।उदाहरणार्थ-संस्तुतिया-कागज,ध्वस्तेंगी,स्याहिया-जहर,ढिलियाईशासित
सहेलियाँ,अतलाए सरगम मधुमासित हो सब-इत्यादि शब्द और वाक्यांश कवि की अनगढ संवेदना
का पता बताते हैं तो किसी सामान्य पाठक को ये प्रयोग अटपटे लग सकते हैं।
इसके बावजूद सुभाष वसिष्ठ के इन गीतो मे जहाँ
एक ओर सातवे आठवे दशक के नवगीत का भाषिक मुहावरा देखने को मिलता है वही समकालीन
जीवन का गहन द्वन्द्व बखूबी उभरता है। इसीलिए मुझे लगता है कि ये गीत गम्भीरता से
पढे जाने की माँग करते हैं।कवि के सामने कोई नया रूपक खोजने की छटपटाहट साफ तौर पर
पहले गीत से ही दिखाई देती है-साँस ही मुश्किल/नियत आन्दोलनो आबद्ध/पारा
कसमसाता है
धुन्ध के आगोश मे जकडा/ठिठुरता गीत अग्नि ले
मुस्कराता है।
दिनभर मनुष्य कैसे वस्तु मे ढल कर श्रम करता
है यह हम सभी जानते हैं देखिए कवि के शब्दो मे -शुरू हुई दिन की हलचल/गये सभी
लोहे मे ढल।
कितनी मार्मिक है यह सहज अभिव्यक्ति।यह
यांत्रिकता हमारे जीवन खासकर महानगरीय जीवन की तो कडुवी सच्चाई है।लगातार विभाजित
जीवन की त्रासदी से उपजे मानसिक द्वन्द्व को कवि बेहतर ढंग से स्पष्ट करते हुए जो
चित्र उपस्थित करता है वह अद्भुत है-
चटक धरती ने कहा /सब/बिन कहे जैसे/हम विभाजित
जिन्दगी को जी रहे ऐसे
जुडेपन की प्यास टूटा मन सहे जैसे। इसी प्रकार आम आदमी की तरफ से सकारात्मक
सार्थक सोच रखते हुए कवि एक अन्य गीत मे कहता है-एक खुशबू के लिए हम जी रहे
हैं/जहर सारा जिन्दगी का पी रहे हैं। ये जो जिन्दगी का जहर है वह हर रचनाकार
को पीना होता है यदि वह वास्तव मे कवि है तो उसे दुखो की संवेदना का अनुभव तो करना
ही पडता है। सुख की एक क्षणिक सुगन्ध के लिए नमालूम कितने कष्ट सहने का नाम ही तो
जीवन है।या सच है कि कवि के पास दुख को माँजने और सुख का पल खोज लाने वाली दृष्टि
है। किसी भी रचनाकार के लिए इस दृष्टि का होना ही बडी बात है।जिन्दगी की तल्खियो
से प्यार यू ही नही करने लगता है कवि ।सुभाष वसिष्ठ के पास मार्मिक संवेदना के
अनेक अनुभव हैं देखिए-कागजी मुस्कान के मधुमास मे खोए/पर तुम्ही ने/सहीपन के
बिन्दु कुछ बोए/फैलकर जो हो गये संसार/ओ दरकती जिन्दगी की तल्खियों!/सच/तुम्ही से
प्यार। इसी क्रम मे कवि के मन मे आशा का स्वर भी प्रबल होकर उभरता है-
ओ रे मन/होता क्यो इस कदर अधीर/आकाशी पंखो को
कभी तो किरन होगी
कभी तो मिटेगी यह स्याहिया लकीर।
संग्रह मे पिता को समर्पित गीत बहुत मार्मिक
है।कवि ने पिता को संस्कार देने वाले और आदर्श का पाठ पढाने वाले व्यक्ति के रूप
मे स्मरण किया है,सम्भवत: अब जीवन मे वैसा आदर्श नही रहा-ओ
पिता /तुमने सदा ही
सलवटे देखीं कमीजो की/और मेरी जिन्दगी जीवंतता को रही मरती।
ताजे जख्म की संवेदना को लगातार माँजते रहने की कोशिश करते हुए कवि सुभाष वसिष्ठ के ये गीत/नवगीत अपनी संवाद धर्मिता के कारण आकर्षक बन गये हैं।यह संग्रह दो दशक पूर्व आया होता तो कुछ और बात होती फिर भी इन गीतो द्वारा नए गीतकारो को सक्षेप मे और लघु फलक मे अपनी बात कहने का सलीका सीखने का अवसर अवश्य मिलेगा।
शीर्षक:बना रह जख्म तू ताजा
कवि:सुभाषवसिष्ठ
प्रकाशक:शब्दालोक,दिल्ली110094
मूल्य:120/,प्र.वर्ष:2012
|
बहुत अच्छा
जवाब देंहटाएं