रविवार, अप्रैल 22, 2012


  
                   (1916-2011)

 एक पुराना साक्षात्कार

सम्बन्धो को भुनाया जाता है।

                     *आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री हिन्दी के उन बडे साहित्यकारो मे गिने जाते हैं जिन्होने अपने समय मे हिन्दी साहित्य मे हो रहे तमाम परिवर्तनो को जिया था। वे निसन्देह स्वाभिमानी और अजातशत्रु रचनाकार थे। बार बार निराला मानो उनके सिर पर सवार होकर नाचते थे। वे निराला के ही कहने से संस्कृत से हिन्दी मे आये थे।पद्मश्री से लेकर भारतभारती तक अनेक साहित्य के सम्मानो से सम्मानित रचनाकार के रूप मे उनकी याद सदैव आती रहेगी और यह भी कि उन्होने पद्मश्री स्वीकार करने से मना भी कर दिया था । साहित्य जगत मे महाप्राण निराला के साथ उनके प्रसंग  जहाँ कौतूहल का विषय रहे तो वहीं -हंस बलाका- मे उनके संसमरण धर्मा ललित गद्य से उनकी अलग पहचान बनी। राधा सात खंडो मे प्रकाशित उनका महाकाव्य है। कई उपन्यासे जिनमे कालिदास विशेष रूप से चर्चित रहा। बेला का निरंतर संपादन और अंतिम पुस्तक अनकहा निराला ने उन्हे बहुत यश दिलाया।
 एक बार जब (सन-1987-88)आचार्य जी के कूल्हे की हड्डी टूट गयी और पटना के चिकित्सक उनहे ठीक नही कर सके तब वे अग्रज भाई पाल भसीन के आग्रह पर दिल्ली आये भसीन जी उनके गद्य साहित्य पर शोध कर रहे थे। और उनका अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान मे इलाज हुआ। मुझ सरीखे तमाम नौसिखिए उनदिनो उनके दर्शन हेतु पहुँचते थे। उसी अवसर पर (फरवरी-1988) जब आचार्य जी स्वास्थ्यलाभ कर रहे थे तभी एक दिन उनसे तनिक देर बातचीत करने का मौका मिल पाया था। जो इस प्रकार है-
  भा.मि.- 
आचार्य जी आपकी सद्य:प्रकाशित गीत पुस्तक-श्यामा संगीत-में नील सरस्वती की परिकल्पना आपने की है,जबकि श्यामा सरस्वती के स्थान पर श्वेतवसना सरस्वती की ही क्ल्पना प्राय: साहित्य समाज मे मिलती है। फिर श्यामा सरस्वती से आपका क्या अभिप्राय है..?
  शास्त्री जी --
आप तो संस्कृत के विद्यार्थी हैं..शैव मत से परिचित होंगे-शैव मत मे शिव की शक्ति को श्यामा ही कहा जा सकता है।..फिर जिस काली की कृपा से कालिदास कालिदास बने वह भी तो नील सरस्वती ही है। वही महाकाली है उसे ही निराला ने नीलवसना कहा है।उसको मैने नील सरस्वती के रूप मे श्यामा संगीत मे प्रस्तुत किया,बल्कि स्मरन किया है-
माम श्यामा जान गया/श्याम गगन क्यो है
क्यो सागर श्याम/श्याम मेरा मन क्यो है ?
  भा.मि.
नयी कविता जो छप रही है या जो कविसम्मेलनो मे चल रही है क्या आप उससे संतुष्ट हैं-?

  शास्त्री जी-
कविसम्मेलनो मे जो कविताएँ चल रही हैं वे कविताएँ नही हैं..और छपने वाली कविताओ मे नब्बे प्रतिशत नकल है। बचा दस प्रतिशत वो समसामयिक है। सम्मेलन की कविताएँ तो अनुरंजन के लिए हैं पैसे वाले श्रोताओ के लिए हैं उनको तुकबन्दी कहा जा सकता है कविता नही। छपने वाली कविताओ मे सम्बन्धो को भुनाया जाता है इसीलिए कुछ शाश्वत मौलिक उभरकर सामने नही आता।
  भा.मि.
क्या आप कभी साहित्य के वादो से प्रभावित रहे हैं जैसे प्रयोगवाअ-प्रगतिवाद-जनवाद आदि ?
  शास्त्री जी-
देखिए ये युग का तकाजा है-रचनाओ को कहाँ रखे,इसके लिए समीक्षक को नया स्थान बनाना पडता है इसीलिए समय समय पर ये वाद खडे होते रहते हैं। मै किसी वाद का हामी नहीं हूँ बल्कि समग्रता मेरा उद्देश्य है इसकारण किसी को मेरी रचना घासलेटी लगे तो मै उसकी चिंता भी नही करता।...अब मै त्रिकाल सन्ध्या करता हूँ तो करता हूँ-युग क्यो करे.?.उसी प्रकार मै अपने ढंग से अपना काम करता हूँ उसके साथ कोई वाद जुडे या न जुडे।..प्राचीने कवियो ने जीवन को समग्रता मे ही देखा व जिया था,समग्रता ही मेरी जमीन है,मै अपनी इसी जमीन को स्वीकारता हूँ परंतु किसी पर आरोपित नही करता।
भा.मि.
महाप्राण निराला से आपको हिन्दी मे कविता लिखने की प्रेरणा मिली,क्या यह सत्य है ?
शास्त्री जी-
 निराला जी से परिचय से पूर्व काकली छप चुकी थी,सुधा के सम्पादक थे निराला उनदिनों। दो चार पत्रो द्वारा प्रारम्भिक विमर्श हुआ पुन; वे यकायक बनारस पहुँच गये। वहाँ और तमाम बातो के बीच उन्होने मुझसे मुख्यत; एक ही बात कही-there is nether platform nor place in Sanskrit. अर्थात संस्कृत (कविता करने के लिए)  मे न तो कोई स्थान है और न कोई प्लेटफार्म। उनकी इस बात को मैने गाँठ बाँध लिया और संस्कृत छोडकर हिन्दी मे निकल आया। निराला जी की मातृभाषा बांग्ला थी, संस्कृत मे वे पत्र लिखते थे अंग्रेजी धाराप्रवाह बोलते थे। अनेक भाषाओ पर उनका अधिकार था परंतु कविता के लिए हिन्दी को उन्होने स्वयं चुना और मुझे भी प्रेरित किया।

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