सम्बन्धित रचनाकार से अनुमति प्राप्त किए बिना 'छंद प्रसंग' में प्रकाशित किसी भी रचना या उसके किसी अंश का व्यावसायिक उपयोग कॉपीराइट एक्ट का उल्लंघन माना जाएगा।
रविवार, अप्रैल 22, 2012
रविवार, अप्रैल 15, 2012
समीक्षा:-
बुन्देली लय के नवगीत
महेश अनघ हमारे समय के एक महत्वपूर्ण नवगीतकार हैं। झनन झकास के बाद अब कनबतियाँ शीर्षक से उनका दूसरा नवगीत संग्रह प्रकाशित हुआ है। महेश जी अपनी माटी के गीतकार हैं उनके इस संग्रह मे भी बुन्देली भाषा की लय और बिम्ब साफ दिखाई देते हैं। महेश जी के नवगीत ग्वालियर और उसके आसपास की माटी की खुशबू लिए हुए हैं। इसका अर्थ यह नही कि वे बुन्देलखंड तक सीमित है बल्कि कवि का अपनी जमीन पर जमे रहकर पूरे परिवेश को सम्बोधित करना बडी बात होती है। अपने पहले गीत मे महेश जी कहते हैं- समाधान तो नही/मगर जीने की कोशिश है
हरी भरी उम्मीदें हैं/लय भी है-बन्दिश है खारे जल से मै खुशियो के /पाँव पखारा करता हूँ।
खारे जल से खुशियो के पाँव पखारने का अर्थ है आँसुओ से खुशियो का स्वागत करना या दु में सुख के पल जी लेना। ऐसा तब होता है जब मनुष्य को बहुत बडे श्रम के बाद किसी सुखद क्षण की प्राप्ति या उसकी प्रतीक्षा होती है। इस तरह कवि और आगे अपने कविताई के प्रयोजन को स्पष्ट करने का प्रयास करता है।साधना के बिना सुन्दर गीत नही बनते।गोदोहन का विरल चित्र देखिए इसे-भारतीय आंचलिक सांस्कृतिक पहचान और सन्दर्य-छवि के रूप मे देखिए- नन्हे की किलकारी सुनकर/गैया रम्भाई चारो थन पी लें/दोपाए चौपाए भाई भौजी दूध नहाई अम्मा मुस्काई किस्से चले कवित्त चले चुटकुले चले। हामारा लोक अभी बहुत कुछ वैसा ही है जैसा कि हमारे बडे बुजुर्गो के मुहावरो मे सुना जाता रहा है। दूधो नहाना सांस्कृतिक रूप से समृद्धि का प्रतीक है। महेश अनघ के गीतो की यही खूबी मन को सहज रूपसे आकर्षित करती है ।महेश के गीतो मे ध्वन्यालंकार की बडी मोहक शब्द योजना रहती है-मानो शब्द बजते हैं।छन्द एकदम सधा होता है।गेयता की दृष्टि से भी कोई कमी नही होती लेकिन अक्सर महेश जी के गीतो मे समानार्थी शब्दो का ध्वन्यात्मकता के लिए निरर्थक प्रयोग भी मिलता है उदाहरणार्थ-खनन-खनन,चिहुँक-चिहुँक,ठुमक-ठुमक,फुदक-फुदक , जगमग -जगमग,
सोन्धी-सोन्धी आदि। अब देखिए महेश जी कहते हैं- बारहमास रजो गुण है/हम हर मौसम में फलते हैं दाने का न्योता देने/फूलो की तरह निकलते हैं माटी सूरज हवा नमी है/साहब जी आना पकी फसल जैसा/पकने का मन हो।
यहाँ पकने की जगह चखने हो सकता है।यह तो हुई प्रूफ की गलती उसके लिए महेश जी से क्या कहें लेकिन हर समय रजो गुणी होना यानी हर समय गीत लिखते रहना खतरनाक है। हर समय खिलनेवाले फूल की तरह हर मौसम मे यदि गीत पैदा हो भी रहे हैं तो उनमे क्या नैसर्गिक कविताई की गन्ध और अर्थवत्ता बची रह सकती है।यह महेश जी को बताना होगा। इसके बावजूद महेश अनघ के इन गीतो में जो गीत बिम्ब उभरते हैं वे उनके अपने निजी परिवेश के हैं,जिनका चयन बहुत ईमानदारी से किया गया है।कही कही पर समानार्थी शब्दो का दुहराव भी गीत की कलात्मकता को क्षीण करता है। यथा-इसके विपरीत जहाँ कहीं महेश जी अपने मूल सांस्कृतिक बिम्ब को पकडते हैं वहाँ वो मार्मिक हो जाते हैं- नैना मूँदो नेह उघारौ/महके मान तुम्हारो रण से जो मोती लाये हो/हमरे आँचल डारौ जो जीतीं नीरा जागीरें/रस- चौरस पर हारौ।
सब दरबार उठी राजा जी /अब रनिवास पधारो।
तो ये है असली बुन्देली संस्कृति की गीत पंक्तियाँ। इसी प्रकार गीतो से सार्थक होता है इस संकलन का शीर्षक-कनबतियाँ-अर्थात कान मे कही सुनी जाने वाली बातें। इन कनबतियों मे प्यार है-शिकायत है-चुहल है –उत्सवधर्मिता है-सत्ता की आलोचना है-माने वह सब कुछ है जो एक श्रेष्ठ नवगीत संकलन से आपेक्षित है।कनबतिया का अर्थ कुछ कुछ गजल जैसा (कान मे की जानेवाली गुफ्तगू) यानी एकांत में निवेदन की जाने वाली बात होता है। बतिया है तो संवादधर्मिता स्वयमेव आ गयी है।बहरहाल इस संकलन मे कवि के 101 गीत नवगीत संग्रहीत हैं। एक और कनबतिया में दरबार का रूप देखें यहाँ मंत्री राजा के ऊपर बैठे हैं सामंत हैं हाकिम हैं सब अपने मन के मालिक हैं बिल्कुल अन्धेरनगरी के चौपटराजा की तरह जहाँ गरीब के छप्पर /छत की मरम्मत की अर्जी पर सुनवाई करने वाला कोई नही है-
एक छोर सामंत विराजे/एक चोर पर हाकिम थे एक चूर पर चारण चाकरब रूर मे रिमझिम थे चौथा खम्भा बजा रहा था/जैजैवंती धुन।
.......... चर्चा मे शामिल थे दादुर/मसला टाँग खिचाई था जिसकी चली दलील अंत में/वह जोरू का भाई था फटी छान की अर्जी लेकर/ठाडे रहे अपुन।
श्रमजीवी महिला घूरनी ,रमकलिया जैसे पात्र और तमाम ऐसे घर-खेत-ओसारे-खलिहान-गाँव के गीतचित्र महेश अनघ के इस दूसरे गीत संग्रह मे बखूबी देखने को मिलते हैं।
कवि: महेश अनघ
प्रकाशन:अनुभव प्रकाशन,गाजियाबाद
मंगलवार, अप्रैल 03, 2012
केदारनाथ अग्रवाल की गीत चेतना
मैं /समय की धार में
धँसकर खड़ा हूँ।
मैं/छपाछप/छापते
छल से/लड़ा हूँ
क्योंकि मैं
सत् से सधा हूँ-
जी रहा हूँ;
टूटने वाला नहीं
कच्चा घड़ा हूँ।
केवल और केवल अपनी कविता के सत्व के बल पर संघर्ष के लिए खडे कवि केदारनाथ अग्रवाल हमारे समय के उन जरूरी कवियो में से एक रहे हैं जिनसे लगातार हमे सीखना चाहिए। उनकी कविता मे जो गीतचेतना चमकती है वह विशिष्ट है। केदार बाबू अपने घर-गाँव –जनपद- अपनी केन नदी और अपने श्रमजीवी समाज के कवि हैं। वे केवल मार्क्सवादी चेतना के कारण बडे कवि बन गये यह कहना सरलीकरण होगा। दरअसल हुआ ये कि जिन कवियो ने मार्क्सवादी चश्मे से अपने भारतीय परिप्रेक्ष्य यानी -घर-गाँव और अपने आसपास के लोगो को देखा और जिया वे ही वास्तव मे प्रगतिशील रचनाकार के रूप मे चमकते हुए दिखाई देते हैं। केदार जी उन विरल कवियो मे से एक हैं।इसके बावजूद केदार जी के सरोकार अपने घर –गाँव- जवार और किसान से सीधे जुडे हैं –यही कारण है कि केदार जी केन नदी पर कविता लिखत हैं। केन नदी उदासी का एक बेहद मानवीय गीत बिम्ब देखिए-
आज नदी बिलकुल उदास थी।
सोई थी अपने पानी में,
उसके दर्पण पर-
बादल का वस्त्र पडा था।
मैंने उसको नहीं जगाया,
दबे पांव घर वापस आया।
यह कविता अपने गीत के परिवेष मे अपनी लय और अपनी छान्दस चेतना के आथ जितनी मार्मिक बन पडी है उतनी ही सौन्दर्य व्यंजक भी है। उदासी का सौन्दर्य विरल बिम्ब है केन नदी का। अनुभूति के स्तर पर कहा जा सकता है कि केदारबाबू को तुलसी और निराला की कबिताई से बहुत कुछ मिला होगा। यह छन्द की ही शक्ति है कि केदारबाबू की कविताएँ नदी के प्रवाह की तरह हमें भिगोती हुई बहती हैं।छन्द की शक्ति हमें भिगोती है-डुबो लेती है और लय से नियंत्रित करती है, हम उसमे से जीवन के आस्वाद का अवगाहन करके निकलते हैं।नागार्जुन ने भी बहुत सुन्दर गीत रचे हैं लेकिन नागार्जुन के यहाँ कई बार नारेबाजी और चीखते हुए शब्द भी दिखाई देते हैं जो केदार बाबू की कविताओ मे नही पाये जाते। बहरहाल केदारबाबू की कविताओ मे जो एक सतत गीत की नदी बहती है। हमारे समय के प्रगतिशील आलोचको ने उस ओर इंगित नही किया है। क्योकि कुछ मूर्ख प्राध्यापको/आलोचको की लम्बे समय तक यह आवधारणा रही है कि गीत कविता ही नही है।इस प्रकार के तर्क वो लगातार कई दशको तक अपने विद्यार्थियो के सामने रखते रहे।परिणाम यह हुआ कि नया अध्यापक भारतीय कविता की छन्दोबद्ध परम्परा से कट गया। आज स्थिति यह है कि विश्वविद्यालयों मे छन्दोबद्ध कविता का सस्वर वाचन करने वाले अद्ध्यापक नही रहे। पाठ्यक्रम तो पहले से ही अज्ञेय और नामवरी चेतना के चलते बदल डाले गये थे। केदारनाथ अग्रवाल की कविता की शक्ति उनके जन के श्रम सौन्दर्य मूल्यों में और लय की गहरी पकड के साथ भासित होती है।केन नदी का एक और चित्र द्खें-
चली गई है कोई श्यामा,/आँख बचा कर, नदी नहा कर
काँप रहा है अब तक व्याकुल/विकल नील जल ।
तो ये जो नीलजल का व्याकुल होकर काँपना और विकल होना है वही कविता का मर्मस्थल है।अधिकतर उनके गीत एक अंतरा के हैं-यहाँ यह भी समझने की जरूरत है कि वे गीत के शिल्प आदि को लेकर बहुत आग्रही नही हैं बल्कि गीतात्मकता उनकी जातीयता की तरह चुपके से उनकी कविताओ मे स्वयं आ जाती है और उनकी कविता के सौन्दर्य को द्विगुणित करती है।,देखें-
जिसने सोने को खोदा,
लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का
घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा।
अर्थात जिन कविताओ में इस प्रकार की दुर्दाम जीवन की लय होती है वे ही अमर पंक्तियाँ होती है उन्हे कोई मार नही पाता।केदारनाथ अग्रवाल की अधिकांश पुस्तकें किसी बडे प्रकाशक से नही छपीं।वो अपने आप को स्थापित करने के लिए किसी बडे शहर को नही गये। ईमानदार रचनाकार के लिए हमेशा से दिल्ली और दिल्ली के प्रकाशक दूर ही रहे हैं।आज तो खुले आम बडे प्रकाशको की जुगलबन्दी अधिकारी टाइप साहित्यकारो के साथ होने लगी हैं। बडे प्रकाशक से किताब आ जाये और उस पर इंडिया हैबीटाट मे संगोष्ठी भी हो जाये उसमे किराया देकर तथाकथित आलोचक भी बुला लिए जायें-- तो क्या होता है? निस्तेज कवि निस्तेज कविताएँ निस्तेज किताबें सब मिलकर साहित्य के नाम पर एक तरह का कचरा भर रहे हैं। प्रकाशन व्यवसाय है किताबो का बाजार बढ रहा है।खरीद फरोख्त बढ रही है। पाठक गायब है।विद्यार्थी भी बिना पढे अपना काम चला रहा है। ऐसे वातावरण मे केदारनाथ अग्रवाल जैस बडे कवि की छोटी कविताओ के मार्मिक निहितार्थ तक कोई कैसे पहुच पायेगा ? लेकिन यह तय है कि जो जनकवि की मार्मिकता तक नही पहुँच पाते वे विलीन हो जाते हैं। केदार बाबू तो सूक्तियाँ गढते हैं। जो इतनी दुर्दाम जिजीविषा वाला मज्दूर है -किसान है-श्रमजीवी है वह जन समय से लडकर हमेशा आगे बढा है। तात्पर्य यह कि केदार जी की कथनी और करनी मे भेद नही है।यह आस्था की लय जिस कवि के पास होती है वही बडा होता है। अपने गाँव की धूल को लेकर देखें एक गीत बिम्ब-
लिपट गयी जो धूल पांव से/वह गोरी है इसी गांव की
जिसे उठाया नहीं किसी ने/ इस कुठांव से।
ऐसे जैसे किरण/ ओस के मोती छू ले
तुम मुझको/ चुंबन से छू लो
मैं रसमय हो जाऊँ!
इस गीतबिम्ब मे रोमानियत और अपनी जातीयता के प्रति जिस निष्ठा का प्रकटीकरण हुआ है वह अद्भुत है।वह स्त्री ही है जो गाँव की माटी के रूप मे प्रतिफलित होती है। उस जातीयता को पददलित होने से बचाने की चिन्ता कवि की है।किरण जैसे ओस की बूँद का स्पर्श करती है तो उसका जीवन सतरंगी हो जाता है वैसे ही गोधूलि वेला मे कवि रसमय होना चाहता है।प्रकृति के जितने सुन्दर सहज और श्रम सौन्दर्य व्यंजक बिम्ब केदार बाबू के यहाँ मिलते हैं वैसे अन्यत्र दुलभ हैं।एक लोहार के घर में बच्चा जनमा है तो कवि केदार बाबू का गीत देखिए,यह कविता यदि गीत के फार्म में न होती तो इसकी मार्मिकता और अंतर्निहित पाठ का मायने और इसकी प्रभावोत्पादकता शायद ऐसी न होती–
हाथी-सा बलवान, जहाजी हाथों वाला और हुआ
सूरज-सा इंसान, तरेरी आँखों वाला और हुआ
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ
माता रही विचार अंधेरा हरने वाला और हुआ
दादा रहे निहार सवेरा करने वाला और हुआ
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ
जनता रही पुकार सलामत लाने वाला और हुआ
सुन ले री सरकार! कयामत ढाने वाला और हुआ
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ।
तात्पर्य यह कि कवि की संवेदना जब उसके परिवेषगत सरोकारो और उनसे जूझते मनुष्य की संवेदना से जुडती हैं तो वे कविताएँ अनंत सौन्दर्य का सृजन करती हैं। इसे ही हम जनवादी सौन्दर्य चेतना भी कह सकते हैं। गाँव के लोग गीत के माद्ध्यम से इसे गाकर बारबार प्रचारित और प्रसारित भी कर सकते हैं/करते हैं।छन्द मे होने से इसका महत्व कई गुना बढ गया है। केदारनाथ अग्रवाल उन चन्द बडे कवियो मे से एक हैं जिन्होने अपनी माटी और अपना स्वाभिमान कभी नही छोडा। दिल्ली-मुम्बई मे जाकर वहाँ अपने लिए मिथकीय संजाल रचने वाले और सीधे सरकार को गरियाने वाले कवि भी हिन्दी मे हुए हैं। अर्थात चर्चा मे रहने के लिए उन्होने सस्ते टोटके कभी नही अपनाए। बडे कवि का बडा होना इस पैमाने से भी देखा जाना चाहिए। उनका तो लक्ष्य ही अपना घर-गाँव-जनता-नदी-खेत और जीवन का समग्र सौन्दर्य श्रमजीवी किसान मज्दूर रहा। केदार बाबू सच्चे अर्थ मे अपने समाज के कवि हैं। देखें उनका बहु चर्चित माँझी गीत-
माँझी न बजाओ वंशी/मेरा मन डोलता
मेरा तन डोलता है जसे जल डोलता।
जल का जहाज जैसे पल पल डोलता।माँझी..
माँझी न बजाओ वंशी/मेरा प्रन टूटता
मेरा प्रन टूटता है जैसे तृन टूटता
तृण का निवास जैसे वन वन टूटता।माँझी..
माँझी न बजाओ वंशी/मेरा तन झूमता
मेरा तन झूमता है तेरा तन झूमता
मेरा मन तेरा तन एक बन झूमता।माँझी..
ऐसे और भी अनेक गीत हैं केदार जी के जो गीतकारो को लगातार प्रेरणा देते हैं।वसंती हवा उनका लम्बा प्रगीत है। जिस पर आलोचको ने कम ध्यान दिया है। लम्बी और सूत्रात्मक कविता दोनो तरह की कविता का अपना प्रयोजन होता है। केदार बाबू ने दोनो तरह कविताएँ रची हैं।वसंती हवा मे जिस कृषि चेतना और ग्राम्य संस्कार के सौन्दर्य का पर्यवेक्षण कवि कराता है वह हिन्दी मे अन्यत्र नही मिलता। अल्हड बाला की तरह मानवीकृत वसंती हवा का झूमना खेलना नाचना और प्रकृति के आनन्द के साथ साहचर्य स्थापित करना और कविता के माद्ध्यम से पाठकों और अपनी जनता को इस उल्लास का अनुभव काराना आसान बात नही है। यह तुलसी और निराला की धरती का प्रभाव भी है जो केदार बाबू को संस्कार रूप मे मिला-
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!
वही हाँ, वही जो युगों से गगन को
बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए हूँ;
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
वही हाँ, वही जो धरा का बसन्ती
सुसंगीत मीठा गुँजाती फिरी हूँ;
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
वही हाँ, वही, जो सभी प्राणियों को
पिला प्रेम-आसव जिलाए हुए हूँ,
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ।
कसम रूप की है, कसम प्रेम की है,
कसम इस हृदय की, सुनो बात मेरी
अनोखी हवा हूँ, बड़ी बावली हूँ!
बड़ी मस्तमौला, नहीं कुछ फिकर है,
बड़ी ही निडर हूँ, जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ, मुसाफ़िर अजब हूँ!
न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की, न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ!
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
जहाँ से चली मैं, जहाँ को गई मैं
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं, झुमाती चली मैं,
हवा हूँ, हवा, मै बसंती हवा हूँ।
चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया,
गिरी धम्म से फिर,चढ़ी आम ऊपर
उसे भी झकोरा,किया कान में 'कू',
उतर कर भगी मैं हरे खेत पहुँची
वहाँ गेहुँओं में लहर खूब मारी,
पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं।
खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी!
हिलाया-झुलाया,गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों,
मज़ा आ गया तब,
न सुध-बुध रही कुछ,
बसन्ती नवेली भरे गात में थी!
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!
मुझे देखते ही अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,न मानी, न मानी,
उसे भी न छोड़ा
पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला,
हँसी ज़ोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ
हँसे लहलहाते हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी,
बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
इस लम्बे गीत में जिन फसलों फूलों अनाजों का उल्लेख हुआ है वह कोई किसान चेता कवि ही कर सकता है। इससे पहले अवधी के बडे कवि पढीस जी की एक कविता –बिटौनी- हमें देखने को मिलती है जो किसान के आँगन में अपनी मार्मिक उल्लास के साथ प्रकट होती है। हालाँकि पढीस जी को भी आलोचक कम ही जानते हैं। केदार जी कृषि की समृद्धि के गायक हैं,जिसे लेकर सारा गाँव या कहें कि सारा ग्रामीण समाज उल्लसित है।इसी क्रम में और् भी मार्मिक गीतो की संरचना पर विचार करना होगा।देखिए वह चिडिया शीर्षक गीत-
वह चिड़िया जो-चोंच मार कर
दूध-भरे जुंडी के दाने
रुचि से, रस से खा लेती है
वह छोटी संतोषी चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे अन्न से बहुत प्यार है ।
वह चिड़िया जो-कंठ खोल कर
बूढ़े वन-बाबा के खातिर
रस उँडेल कर गा लेती है
वह छोटी मुँह बोली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे विजन से बहुत प्यार है ।
वह चिड़िया जो-चोंच मार कर
चढ़ी नदी का दिल टटोल कर
जल का मोती ले जाती है
वह छोटी गरबीली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे नदी से बहुत प्यार है ।
केदारनाथ अग्रवाल हमारे समय के गीतकारो को प्रेरणा दे रहे थे लेकिन उत्सवधर्मी गीतकारों ने उनके गीतो का मर्म नही जाना,वे मंच की ओर भागते रहे और लडखडाकर कर नवधनाड्यो के चरणो पर गिरकर मस्खरी करते रहे।दूसरी ओर नई कविता के प्रवर अलोचको ने कवि की इस प्रकार की सर्वोत्तम कविताओं को गीत चेतना की शक्ति के रूप में कभी व्याख्यायित ही नही किया, क्योकि भारतीय आलोचना और कविता के मूल्यो के आधार पर यदि वे बात करते तो उनके आलोचकीय व्यक्तित्व मे दरार पड जाती। आम जन की तरह कवि केदारनाथ अग्रवाल भी उस नीले पंखोवाली गरबीली छोटी संतोषी चिडिया की संवेदना के साथ हमेशा जीवंत रहेंगे जो अपनी धुन में अपनी खुशी का गीत गाती है। खेतिहर किसान के सरोकार और आंचलिक जीवन के इस तरह के काव्यबिम्बो से ही भारतीय कविता की पहचान उभरती है।मुझे तो इस उनकी अनेक कविताओ में तुलसी की काव्य प्रेरणा और निराला की अंतश्चेतना साफ दिखाई देती है। एक दुर्लभ काव्य बिम्ब देखें-
एक बीते के बराबर /यह हरा ठिंगना चना
बाँधे मुरैठा शीश पर छोटे गुलाबी फूल का सज कर खडा है।
पास ही मिलकर उगी है/बीच में अलसी हठीली
देह की पतली कमर की है लचीली
नील फूले फूल को सिरपर चढाकर
कह रही है जो छुए यह/दूँ हृदय का दान उसको
और सरसो की न पूछो/हो गयी सबसे सयानी/
हाथ पीले कर लिए हैं/ब्याह मंडप में पधारी...
देखता हूँ मै स्वयंवर हो रहा है।
प्रकृति का अनुराग अंचल हिल रहा है।
तात्पर्य यह है कि केदार जी हमारे समय के बडे कवि हैं और लय सिद्ध कवि है।अभी गीतकारो को केदारनाथ अग्रवाल की कविताओ को नवगीत के नजरिए से देखना बाकी है। हालाँकि डाँ.शम्भुनाथ सिंह ने नवगीत पर काम करते समय उन्हे अवश्य स्मरण किया था।