सोमवार, अगस्त 23, 2010

कामगर हूँ



शून्य हूँ मैं
है न कोई मान अपना
कामगर हूँ
काम पर है ध्यान अपना।
छोड आया बात सब
बीते दिनों की
काठ सी   
संवेदना रीते पलों की
उम्र की आधी सदी को
पार करके
कुछ नही है
जिसे देखूँ ठहर करके
भूल बैठा हूँ
सकल अपमान अपना।
जुडा जिनके साथ
सबके कद बढे हैं
वो दहाई सैकडा
बनकर खडे हैं
जोडते हैं लोग पीछे
साथ अपने
दिखाते हैं
खूब वैभव सने सपने
टूटता है
ठिठक कर हरबार सपना।
लोग मेरी ही
प्रगति को काटते हैं
कुर्सियों के
रोज तलवे चाटते हैं
चिलचिलाती धूप में
चलता रहा हूँ
किरकिरी बन
आँख में खलता रहा हूँ
हर तरह
साधे रहा ईमान अपना।
(आयु के पचास वर्ष बीत जाने पर)