न होना नईम का
भारतेन्दु मिश्र
गीत नवगीत की समकालीन काव्य धारा के प्रमुख कवि नईम नही रहे। जैसा कि उनके गीत की निम्न पंक्तियों में ध्वनित होता है-
काशी साधे नही सध रही, चलो कबीरा मगहर साधें
सौदा सुलुफ कर लिया हो तो, चलकर अपनी गठरी बाँधें ।
अपनी गठरी हर इंसान को बाँधनी होती है।और एक नएक दिन हर इंसान को इस बाजार से जाना ही है फिर भी आदरणीय देवेन्द्र शर्मा इन्द्र ने फोन द्वारा जब सूचित किया तो सहसा एक झटका सा लगा –कि नवगीत की एक और अपूरणीय -क्षति हुई और दूसरे क्षण तुरंत नईम जी के गीत की यही उपर्युक्त पंक्तियाँ उभर आयीं। नईम हमारे समाज के सहज और गंभीर कवि थे। सहज और गंभीर दोनो एक साथ होना आसान नही होता। पिछले ढाई महीने से वे ब्रेनहैमरेज के बाद इंदौर के एक अस्पताल में जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहे थे,परंतु अपनी गठरी बाँधकर वे इतनी जल्दी चल देंगे यह विश्वास किसी को नही था। यह सूचना तो मुझे थी कि वे लम्बे समय से अस्वस्थ चल रहे हैं और कॉमा में हैं। सच्चा रचनाकार जब जाता है तो अपने पीछे अपनी यश-काया छोड़ कर जाता है। नईम नवगीतदशक परंपरा के अग्रणी कवि थे। डाँ.शंभुनाथ सिंह ने आदरपूर्वक नवगीतदशक (1) में उनके नवगीत समेकित किये थे। आज जो कुछ हिन्दी नवगीत में प्रगति के स्वर दिखते हैं उस विकास यात्रा में नईम का भी बहुत योगदान रहा है-
जिन्दगी में जो भी लय है वह सब नवगीत में है। संगीतात्मकता की दृष्टि से देखें तो पायेंगे कि भातखण्डे स्कूल वाले नवगीतकारों को भीतर पैर नहीं रखने देंगे,क्योंकि क्लासिकल के साथ लोकगीतों से जो जीवंतता कुमार गंधर्व ने ग्रहण की है,वही नवगीतों में दिखायी देती है।(नवगीत दशक 1,दृष्टिबोध ,नईम)
नईम नवगीत में लोकोन्मुखता जीवंतता और गेयता के प्रबल पक्षधर थे। भाई राजगोपाल सिंह के आवास पर उनसे लगभग बारह वर्ष पहले मुलाकात हुई थी। दुबारा जब वो उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का साहित्यभूषण सम्मान ग्रहण करने लखनऊ पहुँचे थे।यह घटना सन् 2007 की है। इसी समरोह में आदरणीय रामदरश मिश्र को भारत भारती तथा कुमार रवीन्द्र, सुधांशु उपाध्याय को भी पुरस्कार मिलना था। मै संयोगवश उस दिन लखनऊ में ही था। यह नईम जी से मेरी दूसरी मुलाकात थी। यह मेरे लिए बड़े हर्ष की बात थी कि एक साथ इतने सारे मेरे परिचित गीतधर्मी कवियों को पुरस्कार मिल रहा था। नईम जी के गीत तो बहुत पहले से ही पढ़ता आ रहा हूँ। इन दोनो मुलाकातों में समय का बहुत अंतराल रहा । पहली बार जब उनसे मिला था तब वे उनदिनों अपने कालेज से रिटायर हो चुके थे और कविता के साथ-साथ काष्ठशिल्प के माध्यम से भी अपनी अभिव्यक्ति कर रहे थे। काठमारे हुए आदमी की पीड़ा काष्ठशिल्प से और बेहतर ढंग से अभिव्यक्त की जा सकती है संभवत: ऐसा ही विचार उनके दिल में रहा होगा। उनका काष्ठशिल्प भी मानवीय सरोकारों के साथ सदैव जुड़ा रहा। उनकी मस्त और निरभिमानी छवि उनकी कृतियों में तैरती दिखायी देती है। फोन से भी उनसे जब बातें हुईं तो वे बहुत सहज और आत्मीय लगे। वे साहित्यालोचन की राजनीति से सदैव अलग रहे। वे सच्चे सर्जक थे,जो लय उनकी कविता में विद्यमान है वही लय उनके काष्ठ शिल्प में भी उभरती है। उनके प्रथम गीतसंग्रह पथराई आँखें की भूमिका त्रिलोचन शास्त्री जी ने लिखी थी। नईम की गीतधर्मिता के विषय में त्रिलोचन जी ने लिखा था-
नईम छंद की आंतरिक लय और भाषा की लय से परिचित हैं, इसीकारण उनकी कविता स्वरूपत: स्पष्ट और गुणयुक्त है।
वास्तव में नईम के गीत अपने लोक की अभिव्यक्ति हैं। नईम का जीवन बुंदेलखंड और मालवा मे बीता इस लिए उनके नवगीतों में नदिया -ताल –झरने की तरलता और पठार की धरती वाली स्पष्टता साफ दिखयी देती है। महुआ और टेसू की गंध के आस्वाद से उनके गीत महकते हैं। छंद साधना कोई हँसी खेल कभी नही रहा । छंदपूर्ति तो लगातार लोग करते रहते हैं। नईम काव्य-साधक कृती रचनाकार थे-
साधते जितना बना
साधा पुरानों से
नये रिश्ते लगाये।
नईम के गीतों में मालवा का सांस्कृतिक वैभव और लोकजीवन एक साथ भास्वर होता चलता है। नवगीत की यही तो प्रमुख विशेषता रही है। शब्द की लय अर्थ की लय और बिंबों की लोकधर्मी बुनावट नईम के यहाँ अद्भुत है । उनके गीतों का ग्राम्यचरित्र, लोकवादी सौंदर्यशास्त्र और सहजात रचना विधान उनको तमाम नवगीतकारों में अलग से चीन्हने में सहायता करता है--
नीले जल झीलों के ,बतखों सी तैर रही ,पुरवइया क्वार की।
नैहर के अल्हड़पन ,पीहर शर्माये मन, रूठ-रूठ जाती है , बेला में हार की।
कुछ इसी प्रकार की एक कविता केदारनाथ सिंह ने भी लिखी थी वसंती हवा किंतु उस कविता में वर्णन का विस्तार और खिलंदड़ापन है। जबकि नईम के यहाँ खिलंदड़ेपन के अलावा क्वार की पुरवइया में सघन रूप छवियों के अनेक बिंब जगमगाते हैं। छीजते मानवीय संबंधों की चिंता प्राय:सभी छंदोबद्ध कवियों में एक प्रवृत्ति के रूप में उभरती है। छंदोबद्ध कवि नवगीत रचे चाहे दोहा या फिर गज़ल वहाँ संवेदना की अनुगूँज कई परतों और अनेक भंगिमाओं में प्रकट होती है। यह व्यंजना की जादूगरी का कमाल छंदहीन कविताओं में कभी नही उभर पाता । छंदोबद्ध कवि संवेदनाओं की घनीभूत भाषिक संरचना के माध्यम से ही अपनी बात समाज तक पहुँचाता है। उसके पास नीरस सपाट भाषा नही होती ,परंतु लोक में व्याप्त मुहावरे उसके लिए जनवादी लोकोन्मुख नये सौन्दर्यशास्त्र की छवियाँ निर्मित करते चलते हैं। नईम इस लिहाज से बड़े कवि थे। उनके नवगीत मालवा और बुन्देली भाषा की आंचलिकता से सीधे जुड़े हुए हैं--
पूनम और अमावस की क्या? ,हरियाले सावन गाने के- दिन अब नही रहे
इज्ज़त रहते उठजाने के , दिन अब नही रहे।
लोक बदल रहा है। नईम का गाँव समाज भी इस बदलाव से अछूता नहीं होगा। यह बिखराव और विस्मृति का युग है कवि इस मौसम में अपने परिवेष को याद करना चाहता है । जिसने बुन्देलखंड की धरती नही देखी वह महुए के टपकने से उत्पन्न सुगंध की घ्राण संवेदना के मर्म को नही जान सकता। कोसों तक फैलने वाली सुगंध मे रचनाकार का लोकवादी सौन्दर्य दर्शन एकाकार हो उठा है-
याद मुझे आता है
याद तुम्हें भी होगा, महुए सा टपकता हुआ मौसम।
होली का त्योहार नौजवानों में उल्लास भर ही देता है। फिर भी अवस्था के अनुसार लोक के पर्वों का आनंद सभी उम्र के लोग परंपरा से उठाते चले आरहे हैं। ऐसे अवसर पर भौजी और देवर का सदियों पुराना रिश्ता कवि के मन में भी सिहरन पैदा कर देता है। यही हमारे लोक की विशेषता है। निम्न पंक्तियों में भौजी का असमय बुढ़ा जाना कवि की पारदर्शिता का परिचायक है। भौजी की पीड़ा टीस बनकर कवि के मन में उतरती है । असमय बुढ़ा जाने की वेदना में उत्सव का सब चाव चुक गया है-
बुढा गयी भौजी असमय ही
रंगने और रंगाने के सब चाव चुक गये।
देवर और भौजी का जो रिश्ता हमारे गाँव में या कि हमारे लोकजीवन में रहा है वह स्त्री और पुरुष के परस्पर प्रेम और सम्मान का अद्भुत उदाहरण है। पाश्चात्य देशों में ऐसे रिश्ते प्राय: नहीं होते। हमारे विकसित समझे जाने वाले नगरों और महानगरों में भी अब ऐसे मानवीय संबंध केवल कल्पना में रह गये हैं। मेरी समझ से केवल छंदोबद्ध कवि ही हमारी संस्कृति का उद्गाता होता है। नईम सांस्कृतिक बिंबों के अलावा प्राकृतिक बिंबों के सफल नवगीतकार हैं। जैसे ठाकुर प्रसाद सिंह को संथाली लोकजीवन का श्रेष्ठ नवगीतकार माना गया । बहुत कुछ वैसे ही लोकबिंब नईम के नवगीतों में उभरते हैं। वे पाखंड के आलोचक भी रहे है। नईम के गीतों में मालवा के जीवन का लोकपाठ उभरता है। किसान और आमजन की पीड़ा देखिये किस प्रकार निम्न पंक्तियों से प्रकट होती है-
रावण ही रह गये आज प्रभु को उपासने
रुई बंद कर दी देना देशी कपास ने
प्रभु चोरों का भाग्य विधायक
ये कहते हैं ,वो कहते हैं।
असल में रावण ही सब ऒर सफल हो रहे हैं। अर्थात् जनसामान्य की दशा शोषित सर्वहारा की स्थित से ऊपर उठती हुई कभी नजर नही आती। यह जनपक्षधरता रमेश रंजक,नईम और नचिकेता के यहाँ साफ झलकती है।
नईम के पास अपने लोक के अनुरूप नवगीत रचने वाली अपनी काव्य भाषा है। अनुभव की आँख और साधना के ताप में पके हुए नईम के नवगीत -गीतकारौं के लिए आदर्श रहे हैं। बातों ही बातों में और लिख सकूँ तो उनके अन्य गीतसंग्रह हैं।
जंग लगी बाहर से ,भीतर दीमक चाटे
खण्डहर हुए ये दिन,भय भरते सन्नाटे
ब्याज अभी बाकी है, मूल भर चुका हूँ मैं
दीवारों पर खूटी कील सा ठुका हूँ मैं।
खोखले हो चुके जीवन मूल्यों का सामना करते हुए नईम यह कहते हैं। अब उनके न रहने के बाद सचमुच लगता है कि गीत-नवगीत का ब्याज अभी चुकाना बाकी है। यह ब्याज हम छंदोबद्ध कवियों को ही चुकाना होगा । नईम साहित्य अकादमी के कवि नही बने क्योंकि वे लोक के बड़े कवि थे। जैसे लोग कहते हैं कि निराला और रामविलास शर्मा की उस रचनात्मक स्वाभिमानी परंपरा का अवसान हो गया है, आज नईम जैसे कवि के न होने पर यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि गीत-नवगीत को समर्पित मानो कोई एक भरी पूरी नदी सूख गयी है। धीरे-धीरे ऐसे ही छीज रही है गीत नवगीत की काव्य परंपरा। आवश्यक है कि हमसब मिलकर नईम की सुझायी हुई उन खूटियों- कीलों का उपयोग करेते हुए गीत और नवगीत के वितान को साहित्य के आकाश में तानें तथा भारतीय कविता की लोकोन्मुख और शाश्वत परंपरा को जीवंत बनायें ।
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दिल्ली-110095
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bahut achchha lekh.
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