शनिवार, जनवरी 31, 2015

जय चक्रवर्ती के आगामी नवगीत संग्रह की भूमिका

                       गीत हूं मैं मरूगा नहीं

# डां.भारतेन्दु मिश्र
जय चक्रवर्ती हमारे समय के उन चुनिन्दा नए गीतकारों मे शामिल है जो छन्द और छन्दोबद्ध कविता की पूरी समझ रखते हैं।उनके गीत उनकी साधना की मिसाल हैं।‘थोडा लिखा समझना ज्यादा’ शीर्षक इस गीत संग्रह में कवि के सतहत्तर गीत संकलित हैं। रायबरेली जनपद मे शिवबहादुर सिंह भदौरिया और दिनेश सिह की श्रेष्ठ गीत-नवगीत परंपरा है। उसी परंपरा को प्रशस्त करने वाले इस संकलन के गीत- नवगीत पढकर जय चक्रवर्ती के प्रति सहज ही एक आशवस्ति का भाव मन में उत्पन्न होता है।इससे पहले भाई रामबाबू रस्तोगी के सानिध्य में दोहा सृजन धारा को आगे ले चलने का कार्य वो बखूबी कर चुके हैं। निस्सन्देह छन्दोबद्ध कविता की दृष्टि से भाई जय चक्रवर्ती अपने परिवेष और जनपद के बहुत सार्थक कवि हैं।‘सन्दर्भों की आग’ कवि का बहु चर्चित दोहा संग्रह कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था जिसकी आंच अभी तक महसूस की जाती है।यह सार्थकता कवि के साधना पथ पर किए गए परिश्रम से आंका जाना चाहिए।जिसको छन्द सध जाता है उसके लिए गीत रचना कोई कठिन बात नही ।कठिनाई तो गीत मे ताजगी बनाए रखने और अपनी पीढी की पर्ंपरा को आगे ले जाने में है।जिस कवि के पास अपनी मौलिक भाषा और देशज शब्दावली मे सुवासित संवेदना होती है वही कवि आगे बढता है।यहां जय चक्रवर्ती के पास अवधी की माटी वाली चेतना है ,कन्नौजी बोली की सुगन्ध है ,आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की अच्छी समझ है और हिन्दी साहित्य का अध्ययन उन्होने किया है। रोजी रोटी के लिए संघर्ष करते आम आदमी का जीवन देखिए वह कैसे अपनी ही जगह पर गोल गोल घूम रहा है और अक्सर इसी पुनरावृत्ति को प्रगति समझने लगता है-
नाचरहा है एक कील पर/तकली सा जीवन।
खुशिया आयीं हिस्से/ जैसे कोटे का राशन।
ये जय चक्रवर्ती की जातीय और जनपदीय चेतना का स्वर है।किसी कवि की जातीय और जनपदीय चेतना के आकलन से ही कवि की वास्तविक क्षमता का अनुमान लगाया जा सकता है।चाक और तकली दोनो ही अपनी धुरी पर नाच कर सृजन करते हैं,।रायबरेली के लोग भी अपनी ही जगह पर बॅधकर या फिर गोल गोल घूमकर अपना जीवन चला रहे हैं।जिस तरह के विकास और जीवन शैली की कल्पना अपने लिए आम आदमी करता है वैसा तो नही हुआ। कवि के पास वो चश्मा भी है जिससे जीवन के आर पार की विसंगतियों को जाना समझा जाता है। इसी स्वर को और सार्थक ढंग से जय आगे कहते हैं-
रोज सबेरे दरवाजे पर /दहशत जड जाता शहजादा।
थोडा लिखा समझना ज्यादा।
ये सामंती किरदार रायबरेली में ही नही पूरे समाज मे अपने वर्चस्व के साथ खडे हैं,हालांकि उनका शोषण का तरीका बदला है।नई तकनीकि से वे लैस हैं।वे ही हमारे समय के सूर्य भी माने जाते हैं, वे ही हमारे समाज के नेता है।उनसे डरे बिना हमारा निस्तार नही है। इसी गीत के विस्तार मे कवि कहता है-
फन फैलाए डर /आंखों से रात नही जाती/सुख के सपनो की संचित /आशाएं धुंधुवाती /
यहां जय चक्रवर्ती धुंधुवाती शब्द का प्रयोग करते हैं ,वह संभवत: उनकी मातृभाषा कन्नौजी(अवधी) से अर्थात अपने लोक से लिया गया है। इस अस्थिरता के डर की अभिव्यक्ति के लिए इससे बढिया कोई शब्द हो ही नही सकता।अभी तो धुआं ही धुआं फैला है लेकिन सपनो की संचित आशाएं प्रकाश हो जाने या आग जल जाने की प्रतीक्षा भी कर रही हैं। किसी भी हवा के झोंके से धुंआ आग मे बदल सकता है। इसी के साथ यह भी हो सकता है कि लगातार धुंआ ही फैलता रहे और मनचाही रागात्मकता की आंच कभी न मिल सके । जो कवि अपने परिवेश की संवेदना के लिए अपनी जनभाषा की शक्ति को जान समझकर प्रयोग करते हैं उन्ही की कविताई सफल मानी जाती है।कवि के पास रचाव का धैर्य है।छन्द की सिद्धि और अवधी का आस्वाद इन गीतों की रसपेशलता मे अभिवृद्धि करता है।मेरा मानना है कि जो कवि अपनी मातृभाषा और अपने परिवेश की पारंपरिक भाषा- बोली से अपनी संवेदना को नही जोड पाता वह कवि सफल नही हो पाता,यदि कविताई करने भी लगे तो छन्दोबद्ध कवि के रूप में तो बिल्कुल ही सिद्ध नही हो सकता।अच्छा नवगीत- परंपरा की माटी में नई संवेदना के बीज ,विकास की नई किरणों के ताप ,नई चेतना की खाद और नए विचारों के पानी से ही उगता है। जय चक्रवर्ती को इस सत्य और तथ्य  का ज्ञान है।इस लिए वे सही दिशा में सक्रिय हैं।बाजार के गांव तक पहुंच जाने का विरल चित्र देखिए-
लगी सजने कोक पेप्सी/ब्रेड बर्गर और पिज्जा की दुकानें/आंख मे पसरे हुए हैं /स्वप्न मायावी प्रगति की/ छतरियां ताने/आधुनिकता का बिछा है जाल मेरे गांव में।
गांव मे माल का खुलना हमारे समाज की जातीयता को लील जाने के लिए ही हुआ है लेकिन हम उसका चाह कर भी विरोध नही कर सकते। नवसामंतों से हमारे लोक को और देश के लोकतंत्र को जो खतरा है वह गीतकार के स्वर में कई जगह एकाकार हो गया है। अवध के मुहावरे कवि की कविताई में सौन्दर्य पैदा करते हैं।इन गीतों की लय वैचारिकता के डंडे से घुमाई जाने वाली चाक की तरह मुग्ध करती है। भाषा भाव छन्द नवता आदि का समवाय ही नवगीत की प्रतिष्ठा का मूल हेतु है।देखिए एक चित्र—
-तीर कपोतो पर ताने/गिद्धों को पाले हैं/राजाजी हैं धन्य कि उनके खेल निराले हैं।
कवि ने सामयिक विसंगतियों के अनेक बिम्ब रचे हैं।भ्रष्ट राजनीति को लेकर कवि के अनेक गीत हैं इस विषयवस्तु पर और भी अनेक कवियों ने गीत लिखे होंगे लेकिन जय चक्रवर्ती की बात कुछ और है।कवि की संवाद शैली देखिए-
कहो रामफल/ इस चुनाव में /किसे वोट दोगे/
गणित लगाना /आजादी के /क्या क्या सुख भोगे ?
और देखिए-
दीखती तुमको सुखी सारी रियाया/है तुम्हारे पास मालिक कौन सा ऐनक ?
यही असल कविताई है जिसे नवगीत कहें चाहे जनगीत कहें ।ये समकालीन गीत सृजन के समुचित प्रतिमान हैं। हमारे आंचलिक परिवेष मे बहुत कुछ वैसा नही बदला है जिसे हम मीडिया और फिल्मों में देखते हैं,जैसा हमें प्रगति की कथाओं में दिखाया जाता है।एक चित्र देखिए-
मुस्कुराकर बात करने लग गए हैं भेडिए/मानिए खतरा बहुत नजदीक है।
और देखिए-
इतना समझो राम भरोसे /राजनीति की यही रीति है।
कवि लगातार चेताना चाहता है आम जन को, लेकिन उनकी नियति तो भेडियों के चंगुल मे फंसना ही है।बहरहाल अपने संकोच,अपने स्वाभिमान अपनी अकड मे टूट कर बिखर जाने वाले चरित्र अवध के गांवो मे आज भी देखने को मिल जाते हैं।चाहे वो किसान हो,बढई हो,लुहार हो ,कुम्हार हो या कोई और कारीगर -श्रम सौन्दर्य का पता ऐसे ही आंचलिक जातीय चेतना वाले लोगों के पास होता है।यह आंचलिक जातीय चेतना ही राग व्यंजक होती है।ये राग व्यंजकता ही गीत की संवेदना का मूल है।भाई जय का गीतकार इसी प्रकार की गीत संवेदना से लैस है।कहीं कहीं तो लगता है मुहावरे और नई संवेदना की भाषा कवि के गीतों में अनायास ही लय के विविध रूपाकारो का सृजन करती है।अपने पिता को समर्पित एक गीत का तेवर देखिए-
फरमाइशें जिदें जरूरतें/कन्धो पर लादे
एक सृष्टि के लिए/वक्ष पर एक सृष्टि साधे/सबको भरते रहे /मगर खुद रीते रहे पिता।
हिन्दी नवगीत मे अनेक नए पुराने गीतकारों ने गृहरति के अनगढ बिम्ब रचे हैं।इस संकलन में जहां अपने समय से संवाद करने वाले गीत बिम्ब हैं वहीं अपने घर आंगन की आंच पारिवारिक चेतना की समझ बेहद अपनेपन के साथ अभिव्यक्त हुई है। यही रागात्मकता का संसार महंगाई भत्ता बढने से लहलहा जाता है।सरकारी नौकरी करने वाले तमाम हमारे साथियों की गृहस्थी का गणित सचमुच कुछ सुधरा हुआ लगने लगता है।तमाम अधूरे सपने जीवंत हो उठते हैं।देखिए-
बहुत दिनों के बाद /बढा कुछ मंहगाई भत्ता/हरा हुआ सपनों की /बगिया का पत्ता पत्ता।
इसके साथ ही मां को लेकर लिखे कवि के गीत का उल्लेख भी करना आवश्यक है क्योकि मां जैसा दूसरा कोई नही होता। जय चक्रवर्ती के शब्दों में देखें-
धरती नदिया /धूप चांदनी खुशबू शीतलता/धैर्य क्षमा करुणा ममता/शुचि स्नेहिल वत्सलता/किसके हिस्से है/उपमा का /यह अनुपम दोना/मां होना ही /हो सकता है /मां जैसा होना।
गीत की अकुंठ अनन्य साधना के बाद ही कोई कवि कह सकता है कि वह स्वय्ं गीतमय हो गया है। जो अमर हो चुका है उसे मौत से क्या डर हो सकता है ,यहां कवि नहीं वरन उसकी रचनात्कता के अमर हो जाने की बात कही जा रही है जैसा कभी कबीर ने कहा था ‘हम न मरै मरिहै संसारा’ उसी चेतना की साधना करते हुए जय चक्रवर्ती का कवि मन कहता है-
मौत से मत डराओ मुझे /गीत हूं मैं मरूगा नहीं।
संग्रह में भाई जय चक्रवर्ती की पहली गीत रचना इसी संकल्प के साथ शुरू होती है जो लगातार अपनी लय यात्रा मे आगे बढती हुई कवि के कौशल के प्रति आकर्षित करती जाती है।बहुत प्रयत्न करके खोजने के बाद भी मुझे इन गीतों मे कोई कमी या दोष कहीं नहीं दिखाई दिया।मेरी दृष्टि में इस संकलन के अधिकांश गीत समकालीन नवगीत चेतना के श्रेष्ठ प्रतिमान हैं।नए तुकांत/नई संवेदना की पडताल /नए कथ्य और गीत की संवेदना के अनुरूप जनभाषा द्वारा ही इन गीतों का सौन्दर्य रेखांकित किया जा सकता है।अंतत: इस प्रथम नवगीत संग्रह के प्रकाशन हेतु भाई जय चक्रवर्ती को बधाई।
 
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