सोमवार, अक्तूबर 21, 2013

बात बोलेगी: अपनी तरह का पहला प्रयोग


समीक्षा

भारतेंदु मिश्र
(समीक्ष्य पुस्तक: बात बोलेगी(साक्षात्कार संग्रह)/प्रश्नकर्ता –डा.योगेन्द्र वर्मा व्योम/प्रकाशक/गुंजन प्रकाशन ,मुरादाबाद/मूय:३००/ वर्ष:२०१३ )
बात बोलेगी,डा.योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा लिए गए पन्द्रह साक्षात्कारों की पुस्तक है| व्योम की इस पुस्तक में संकलित साक्षात्कारों में एक सूत्रता यह कि ये सब छ्न्दधार्मी रचनाकार हैं| इनके नाम क्रमश:शिवबहादुर सिंह भदौरिया,ब्रजभूषण गौतम अनुराग,देवेन्द्र शर्मा इंद्र,सत्यनारायण,अवधबिहारी श्रीवास्तव,शचीन्द्र भटनागर,माहेश्वर तिवारी,मधुकर अष्ठाना,मयंक श्रीवास्तव,कुंअर बेचैन,जहीर कुरेशी ,ओमप्रकाश सिंह,राजेन्द्र गौतम,आनंद कुमार गौरव और कृष्ण कुमार नाज हैं|
इनमे से अधिकांश गीत गजल और नवगीत के चर्चित नाम हैं|कुछ ऐसे भी है जो इन तीनो विधाओं में लिखते हैं| व्योम चूंकि स्वयं गीतकार हैं इस लिए उनकी अपनी पसंद या जुड़ाव जिन लोगो से होगा उन्ही में से साक्षात्कार के लिए चुनाव उन्होंने किया होगा| मेरी दृष्टि में यही इस पुस्तक की सीमा भी है|ज्यादातर पूछे गए प्रश्न एक जैसे हैं| जिनके उत्तर प्राय:एक जैसे ही हैं| लगता है कुछ प्रश्न भेज कर लेख रूप में मंगवाए गए साक्षात्कार भी इसमें शामिल हैं |
बहरहाल ख़ास बात यह है कि व्योम ने इस पुस्तक में अपनी ओर से कुछ नहीं लिखा जिससे पता लगता कि उनका प्रयोजन क्या है इस पुस्तक के मूल में ? इतने साक्षात्कारों के पीछे ,जिनमे कई मंचीय लोग भी हैं, व्योम का क्या सरोकार है? लगता है कई वरिष्ठ कवियों के साक्षात्कार कर लिए तो एक किताब बन गयी |दूसरी बात यह भी चकित करने वाली है कि पुस्तक पर व्योम का कांपीराईट भी छपा है,मुझे लगता है कि व्योम जी का कांपीराईट केवल साक्षात्कार में पूछे गए प्रश्नों तक ही बनता है क्योकि उत्तर देने वाले रचनाकार के विचार तो उसके अपने है|यह भूल कई दिग्गज भी कर रहे हैं अभी नचिकेता जी द्वारा संपादित गीत वसुधा देखने को मिली तो उसमे भी सैकड़ो गीतकारो का सर्वाधिकार नचिकेता जी ने हथिया लिया है|

अब रही बात इस पुस्तक को पढने के बाद हमे नवगीत का विस्तृत इतिहास और गीत की परम्परा का अनेक रूपों में ज्ञान होता है| यदि इस तथ्य को इस पुस्तक की उपलब्धि मान लिया जाए तो उसमे भी अनेक कवियों के वक्तव्यों में परस्पर दुहराव हैं | ये साक्षात्कार अलग अलग प्रकाशित रूप में पढ़े जाए तो यह दुहराव नहीं दिखाई देगा लेकिन एक ही पुस्तक में एक ही तरह के प्रश्नों के कारण यह होना स्वाभाविक ही है|
असल में साक्षात्कार विधा में साक्षात्कार लिए जाने वाले व्यक्ति को पढ़कर उसकी रचनाशैली,विचार,उसके संघर्ष की शैली,सामयिक टकराहटो पर केन्द्रित विषयों से जुड़े प्रश्न सामने रखे जाते हैं ताकि साक्षात्कार द्वारा नए रचनाकार को पुरानी परम्परा के श्रेष्ठ /खतरनाक /संघर्ष मूलक अनुभवो का ज्ञान हो सके| यहाँ इस पुस्तक में ऐसा बहुत कम मिल पाया है| यह पत्रकारिता की विधा है|मुझे लगता है कवियों की गहरी पड़ताल होनी चाहिए जो नहीं हो पायी है,तो बात कम ही बोल पा रही है|
इसके बावजूद मै डा योगेन्द्र वर्मा व्योम की इस पुस्तक का स्वागत करता हूँ|कुल मिलाकर इस पुस्तक से कुछ छ्न्द्धर्मी कवियों के विचार उनका अनुभव और उनकी रचनाशीलता आदि की जानकारी तो मिलती ही है|दूसरी बात यह भी कि डा.व्योम की संभवत:यह पहली पुस्तक है जिसमे छन्दोबद्ध कवियों के साक्षात्कार एकत्र किए गए हैं|गीत नवगीत की दिशा में किए गए इस सार्थक प्रयोग के लिए उन्हें बधाई|ऐसे और सार्थक प्रयोगों की नितांत आवश्यकता बनी हुई है|

संपर्क:
बी २३५/एफ -१,शालीमार गार्डन में गाजियाबाद-२०१००५
फोन-९८६८०३१३८४
ईमेल-b.mishra59@gmail.com


गुरुवार, अगस्त 15, 2013

संभावनाशील नवगीतकार


समीक्षा

भारतेंदु मिश्र
भोपाल के चर्चित गीतकार शिवकुमार अर्चन का पहला गीत संग्रह-उत्तर की तलाश-शीर्षक से प्रकाशित हुआ है|इन पछपन गीतों को पढ़कर अर्चन जी के प्रति गीत के सच्चे साधक होने का विश्वास होता है|कवि के पास गीत का मुकम्मल मुहावरा है | यानी भाषा और छंद में प्रवाह विद्यमान है | प्रक्रति और प्रणय में पगी हुई संवेदना कवि के अनेक गीतों में गृहरति की सार्थक व्यंजना के रूप में प्रतिफलित होती है|यह स्वर समकालीन गीत का मुख्य स्वर बन गया है|असल में निजी संबंधो की संवेदना का वर्तमान सामजिक रूप लगभग एक समय की समष्टि गत पीड़ा बन गया है| यह रंग सार्वजनिक है ,आम आदमी के घर का भी है-
कुछ भी करू /कही भी जाऊ/जब देखो तब पीछे घर|
यहाँ पीछे घर का अर्थ केवल घर पीछे पड़ा है -यही नहीं बल्कि यह भी कि सभी कार्यो के मूल में घर ही है,और घर अपने आप में एक बड़ी कविता है| इसी घर का एक और मधुर चित्र देखें –
सौप गया जबसे इन बाहों को/क्षण अपने उजले निष्कर्ष/रह रह कर खूब याद आए/दूध में नहाए स्पर्श /काम आ गयी कोई दुआ/तुमने जो अधर से छुआ/पोर पोर बांसुरी हुआ|
यहां ध्यान देने की बात है कि-यहाँ कवि दूध में नहाए स्पर्श की बात करता है जो प्रकारान्तर से भरे पूरे घर की ग्रहिणी की ओर संकेत है|प्रणय गीत और गृहरति के गीत में यही भेद है|प्रणय गीत यानी श्रृंगार की सुन्दर अभिव्यक्ति के चित्र भी अर्चन के गीतों में दिखाई देते हैं यथा –
जब जब पत्र तुम्हारे आये /संबंधो की इस धरती पर/ इन्द्रधनुष लहराए|
लेकिन गृहरति की व्यंजना कवि के इन गीतों में अधिक मर्मस्पर्शी होकर उभरती है|यह स्वर आगे जा कर प्रकृति के सौन्दर्य का चित्रण करने में भी अभिव्यक्त हुआ है,गांव की सुबह का एक चित्र देखें कि ताल की छवि कैसे रंग बदल रही है-
अभी श्याम कुछ पीला औ /कुछ ईंगुरिया है ताल/छूटे नहीं आँख से /सपनों के सतरंगी जाल/हवा भरे सिसकारी जैसे /कील चुभी हो पाँव में|
ये जो कील सी संवेदना कवि के हृदय में चुभी हुई है वही कविता का मूल है|तभी वह गीतों के नीलकंठ का पता जानता है,संग्रह के पहले गीत का मुखड़ा देखने योग्य है- गीतों के नीलकंठ/उतर रहे सांस पर/बूँद के बिछौने हैं / नरम हरी घास पर|
इस सुन्दर प्रकृति का अनुशीलन कवि अपने मूल जनपद सागर से लेकर भोपाल तक लगातार करता आ रहा है|अपने युग से भी कवि अनजान नहीं है|समय की विसंगति को लेकर कई गीत इस संग्रह में हैं |एक चित्र देखें – अँधेरे का गीत गाया /सूर्य-पुत्रो ने/सबा सुखी हो,स्वस्थ हो सब/यह कथन कितना स्वगत है/यहाँ समय चट्टानवत है|
तो शिवकुमार अर्चन के गीतकार के पास प्रकृति को चीन्हने की पैनी नजर है|भाषा छन्द लय तो कवी ने साधा हुआ ही है|उत्तर की तलाश का अर्थ है कवि के पास प्रश्न हैं -जो उसके अपने ही नहीं उसके समाज के भी प्रश्न हैं,उनका समाधान हरा संवेदनशील व्यक्ति खोज रहा है|आत्मविमर्श भी कवि करता है और कहता है-
बीज हूँ मैं /एक नन्हा बीज हूँ /वृक्ष बनने की प्रबल संभावना मुझमें |
सचमुच शिवकुमार अर्चन संभावनाशील नवगीतकार हैं |छंद प्रेमियों की ओर से उनके इस पहले गीतसंग्रह का स्वागत है|
शीर्षक :उत्तर की तलाश ,कवि : शिव कुमार अर्चन ,प्रकाशक:पहले पहल प्रकाशन-भोपाल,वर्ष:२०१३,मूल्य:१५०/

शनिवार, अगस्त 10, 2013

उजली परम्परा के नवगीत


समीक्षा

डा.भारतेंदु मिश्र


ब्रजेश श्रीवास्तव की पहली गीत पुस्तक “बांसों के झुरमुट से” प्रकाशित हुई है|ब्रजेश जी के अध्यापक मन और अध्यवसाय की चमक उनके इन गीतों में विद्यमान है |उम्र के पैसठ वसंत बीत जाने के बाद अनुभव की पकी लेखनी उनके पास है|पके हुए अनुभवो के साथ उनके पास बुन्देलखंड की गीत वसुधा का संस्कार है |खासकर ग्वालियर में साहित्य संगीत रंगमंच और शिक्षा की अपनी सुदीर्घ परंपरा है|कवि के इन गीतों में वह सांस्क्रतिक परंपरा सहज ही देखी जा सकती है| वे गीत से नवगीत की यात्रा की और अग्रसर हैं |संग्रह के इन सभी सत्तावन गीतों में जो पाठ्य रूप प्रकट होता है वहा आश्वतिकारी है|भाषा भाव और प्रस्तुति सभी स्तरों पर ये गीत पठनीय और आकर्षक बन गए हैं |सहजता में फूटती व्यंजना की अनेक छवियाँ मनोरम हैं -
हिरना अब तुम मत वन जाओ /बसते वहां शिकारी हैं|
अर्थात जो हिरना मन वाले सहज लोग हैं उन्हें वन जाने की आवश्यकता नहीं है क्योकि शहरों के भेड़िए उनका शिकार करने को आतुर हैं | यह जंगल राज सभी ओर व्याप्त है|इसी प्रकार एक और बिम्ब देखें –
कितने बड़े मकान /किन्तु मन छोटे छोटे /स्वर्णमयी दिखाते हैं/ सिक्के खोंटे खोंटे|
यह आचरण का बौनापन आज हमारी सभ्यता का पर्याय सा बना गया है|व्यंग्य का एक और सुंदर बिम्ब देखें –
आज नेवला मिला रहा है /नागराज से हांथ /हंसा तुम्ही बताओ इसमे /छिपी कौन सी बात| -इस प्रकार की पंक्तियाँ सीधे तौर पर राजनीतिक दलों की अनैतिक गठजोड़ की ओर भी संकेत करती हैं |
कवि के पास व्यंग्य के अलावा ग्रहरति के अमूल्य चित्र भी हैं जो इन गीतों को मार्मिक स्वर देते हैं|देखिए माँ की शिक्षा का संस्कार –
चौका बरतन कपडे धोना /रोटी गोल बनाना/चिट्ठी पत्री लिखना पढ़ना /गुड जैसा बतियाना /मुँह धोकर बच्चे नहलाना /मेरे साथ रहा/माँ ने जो कुछ भी सिखलाया /मेरे हाँथ रहा|
कवि ने अपने हाथ में अपनी माँ की सीख कसकर रखी है|हम यह मान लेते है कि अच्छा अध्यापक अच्छा विद्यार्थी रहा चुका होता है| दूसरी ओर कवि ब्रजेश जी के संस्कारित मन में अभी तक अपने गाँव की मार्मिक उजली यादें बसी हुई हैं –ढूढा करते /तोता कुतरा आम पेड़ के नीचे/दीदी भैया लड़ते रहते/ इन आमों के पीछे /कंकरीट के वन में अटके/ छोडी रजधानी/भूला गया हूँ ताल तलैया /लोटा भर पानी |
इन यादो का अनुकीर्तन ही कवि का लक्ष्य नहीं है बस उसे तो यह कंकरीट का जंगल भाता ही नहीं है|कवि के पास सत्ता से सताई जनता का दर्द भी है और लूटने वाली व्यवस्था के रंगीन चित्र भी सुरक्षित हैं |देखें –
अनगिनत नव योजनाएं घोषणाएं हैं /खेत सूखा है निरी संवेदनाएँ हैं/कर रहे हैं सड़क चौड़ी/झोपडी बेघर /बुझे से चेहरे रुआंसे /खूब देखें हैं /मंच के हमने तमाशे खूब देखे हैं |
इसके अतिरिक्त –गाँव गाँव में बना दिए हैं/छोटे छोटे गाँव |
तो यह शक्ति है कवि ब्रजेश श्रीवास्तव जी के गीतों की| कुल मिलाकर इन गीतों से कवि के मन में नवगीत की उजली परंपरा के प्रति आस्था का भाव प्रकट होता है|

शीर्षक :बांसों के झुरमुट से ,कवि :ब्रजेश श्रीवास्तव,
प्रकाशन:उत्तरायण प्रकाशन,लखनऊ -२२६०१२,
मूल्य-२५०/,वर्ष:२०१३


<

बुधवार, अगस्त 07, 2013

नहीं रहे संवेदना की नदी बहाने वाले नवगीतकार :शिवबहादुर सिंह भदौरिया


अभी प्रात:रायबरेली के डा ओमप्रकाश सिंह और जय चक्रवर्ती भाई द्वारा प्रसिद्ध नवगीतकार डा.शिवबहादुर सिंह भदौरिया जी के निधन का दुखद समाचार मिला|वे नवगीत दशक -१ के यशश्वी नवगीतकार थे|उनका जन्म १५ जुलाई १९२७ को जिला रायबरेली में हुआ था|शिन्जिनी ,पुरवा जो डोल गयी,नदी का बहना मुझमे हो आदि उनके चर्चित गीत/नवगीत संग्रह है|अभी कुछ ही दिन हुए भाई विनय भदौरिया से उनके स्वास्थ्य को लेकर बात हुई थी |यह संयोग ही है कि अभी कुछ ही दिन हुए डा .ओम प्रकाश अवस्थी के संपादन में उनके समग्र रचनाकर्म पर केंद्रित पुस्तक राघव रंग का प्रकाशन हुआ था|ईश्वर से प्रार्थना है कि वह उनकी आत्मा हो शान्ति प्रदान करे|

सोमवार, जुलाई 29, 2013

माहेश्वर तिवारी की नवगीत चेतना


(चौहत्तरवें सावन पर विशेष)

भारतेन्दु मिश्र

कैद हुए हैं जब से बुने हुए घेरे में
गर्म-गर्म साँसों के शब्द हैं अँधेरे में
बहुत बहुत दिन हुए
कन्धों को सौंपते जुए।

अब इस समय यह पूरा गीत तो याद नही है लेकिन मेरी दृष्टि में माहेश्वर तिवारी जी के एक नवगीत की ये अत्यंत महत्वपूर्ण और चर्चित पंक्तियाँ हैं।इस केन्द्रीय भावना वाले नवगीत कवि के पास निम्नमध्यवर्ग के श्रमजीवी -आम आदमी की मार्मिक संवेदना है इस बात का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है।यहाँ कन्धों को जुए सौंपने का जो बिम्ब है, वह हमारी जातीय या कहें कि मूल किसान चेतना की अवधारणा से सीधे तौर पर जुडा हुआ है।इसे हम यथास्थितिवाद से भी जोडकर नहीं देख सकते । काव्य हो कोई अन्य कला माध्यम कलाकार अपने समय से ऊबकर या अपनी परिस्थिति मे डूबकर भी अपने समाज को आइना दिखाने का काम करता है। यहाँ माहेश्वर जी नवगीत के माध्यम से जीवन की जडता से संघर्ष का रास्ता खोजते हुए नजर आते हैं।अपने समय के मनोविज्ञान को चित्रित करते सकारात्मक सूक्ष्म संवेदना वाले ऐसे उनके अनेक गीत हैं।
पाँच जोड बाँसुरी के बाद विशेषत: नवगीत दशक -2 से नवगीत की चर्चा मे आए नवगीतकार माहेश्वर तिवारी उन नवगीतकारो मे है जिन्होने नवगीत की विशाल भूमिका तैयार करने मे सतत योगदान भी किया। हरसिंगार कोई तो हो,नदी का अकेलापन,सच की कोई शर्त नही,और फूल आए हैं कनेरो पर शीर्षक से उनके कई नवगीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। हिन्दी नवगीत की दीर्घ सेवा मे माहेश्वर तिवारी जी का नाम बडे आदर से लिया जाता है। असल मे नवगीत आन्दोलन जिन कुछ कवियो की सतत रचनाशीलता के कारण स्थिर हुआ है माहेश्वर तिवारी उनमे से एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। डाँ शम्भुनाथ सिंह ने जिन प्रमुख नवगीतकारों को लेकर नवगीत दशकों की योजना बनाई थी उनमे माहेश्वर तिवारी जी की एक खास भूमिका रही है।
बीती सदी के सातवें दशक के उत्तरार्ध और आठवें दशक के मध्य तक नवगीत दशक और नवगीत अर्धशती का प्रकाशन हो पाया। यह नवगीत के व्याकरण को स्थापित करने और नवगीतकारों की रचनाशीलता को रेखांकित करने की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ समय था। इसी बीच माहेश्वरजी के नवगीत भी पत्र पत्रिकाओ मे प्रकाशित होने लगे थे।लेकिन उनकी पहला नवगीत संग्रह सन 1981 मे हरसिंगार कोई तो हो-शीर्षक से प्रकाशित हुआ।संकलन समय पर छप जाना या बाद मे छपना कोई विशेष अर्थ नही रखता किंतु रचनाकार के बारे मे मुकम्मल धारणा बनाने मे संग्रह का अपना महत्त्व होता है,यह तो निर्विवाद है। यहाँ मै यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ कि नवगीत दशको की योजना मे कुछ नाम शम्भुनाथ जी ने भर्ती के भी शामिल किए लेकिन माहेश्वर जी का नाम उस योजना मे चार चाँद लगाता है। उनकी रचनाएँ अपनी अलग छवि के कारण नवगीत दशको के कई कवियो की तुलना मे अधिक चर्चित हुईं।माहेश्वर जी के गीतो मे संवेदना की सूक्ष्मता के अनेक बिम्ब बहुत आकर्षित करते हैं।यह दृष्टि बहुत साधना के बाद निखरती है –
उंगलियों से कभी
हल्का-सा छुएँ भी तो
झील का ठहरा हुआ जल
काँप जाता है।
एक हल्की सी क्रिया की गहरी प्रतिक्रिया सुनी तो जाती है लेकिन उसे इतने सादे ढंग से सूक्ति बद्ध करना सबके बस की बात नही है। एक हल्के स्पर्श द्वारा मन की गहरी झील को कँपा देनी की संवेदना का पता हमे इस दौर के बहुत कम नवगीतकारों मे मिलता है,यह माहेश्वर जी की खूबी है। एक और ऐसा ही सुकुमार मन वाले पेड का चित्र देखिए- जंगल का घर छूटा
कुछ कुछ भीतर टूटा
शहरों में
बेघर होकर जीते
सपनों में खोये हैं पेड़/कोहरे मे सोए हैं पेड.।
जंगल से बिछुडकर शहरों में पेडों का जीवन कवि मनुष्य की संवेदना से ।देखता है।लगता है कि मनुष्य भी सपनो मे खो जाने और कोहरे मे सो जाने के लिए विवश है।आजकल शहरो मे बार बार पुनर्वास की पीडा हम सभी को भोगनी पड रही है।बार बार बेघर होने की संवेदना पूरब के अधिकांश लोगो की निजता मे शामिल हो गयी है। पुरानी घर गाँव की यादों की संवेदना जिसे व्यापक रूप मे गृहरति से जोडकर देखा जाता है,-का व्यापक चित्रण माहेश्वर जी के अनेक नवगीतों मे देखने को मिलता है।जैसे-
याद तुम्हारी जैसे कोई/कंचन-कलश भरे।/जैसे कोई किरन अकेली/पर्वत पार करे।
यह माहेश्वर जी की अपनी भूमि या कहें कि उनकी निजता है।किरन का अकेले पर्वत पार करना तो मानो सूक्षम संवेदना की सघन सौन्दर्य चेतना है।यहाँ जो याद के कारण उपजी चिंता और उस चिंता से उपजा एक अनजाना भय हम सबको गहरे तक मथ जाता है,वह देखने योग्य है।अपने घर परिवार गाँव जवार की याद को नास्टेल्जिया के तौर पर भारतीय कविता के मानस मे नही देखा जा सकता। यह पलायन वाद भी नही है।मै तो इसे गृहरति की व्यापक व्यंजना के तौर पर ही गृहण करता हूँ,और कमोबेश हर संवेदन शील कवि मे यह व्यंजना होती है-
हँसी के झरने,
नदी की गति,
वनस्पति का
हरापन
ढूँढ़ते है फिर
शहर-दर-शहर
यह भटका हुआ मन
छोड़ आए हम हिमानी
घाटियों में
धार की चंचल, सयानी छाँह।
बल्कि यही गीत नवगीत चेतना का मूल बिन्दु है ।अपनी निजता की खोज हम सभी अपने तौर पर करते ही रहते हैं। यह मनुष्य का स्वभाव है।कंकरीट के शहरी जंगल में हँसी का एक पल,एक बालिश्त हरापन,एक अदत सयानी छाँह जब तक अपने लिए मनुष्य खोजता है तभी तक वह सच्चे अर्थ मे संवेदनशील मनुष्य है।देखी भोगी हुई प्रकृति की चाह किसे नही होती।
दूसरी ओर नगर बोध एक डरावनी बिल्ली की तरह हमे हर वक्त सजग रहने के लिए विवश करता है। यहाँ शातिर लोग हमारी मनुष्यता को नोचते जा रहे हैं और हम उनके चालाक पंजो मे अपनी चेतना को फँसा हुआ देख रहे हैं।हमारी अपनी मनुष्यता भी छीज रही है। माहेश्वर जी का अनुभव हम सबका अनुभव है देखिए-
हम पसरती आग में
जलते शहर हैं
एक बिल्ली
रात-भर
चक्कर लगाती है
बात यहीं खत्म होने वाली नही है। यह दुनिया नदी की धार की तरह सदैव चलायमान है कुछ भी स्थिर नही है।इस समय की नश्वरता का बिम्ब देखें कितना मार्मिक है-
न मछली
न बादल
न गहरा अतल-तल
थिर नहीं होता कहीं कुछ
नदी के जल में
मार्मिकता तब और बढ जाती है जब माहेश्वर जी अपने वर्तमान को सहज व्यंजना शक्ति के माद्धयम से महानगर बोध को ऐतिहासिक दृष्टि से देखते हैं।–
इतिहासों के
कूड़ाघर में
पड़ी आम्रपाली .
बुद्धं शरणम को
अगोरती
स्मृतियाँ काली ,

मंत्रि परिषदें ,गणाध्यक्ष
बस खुशहाली में हैं |
............................ श्रेष्ठिजनों ,भूखों में
बस्ती का है
बंटा समाज
सड़कों -गलियों में
शव रखकर
भाग रहे सब
आज |

पहले जैसा अब
काशी का नहीं समाज रहा |
इन उदाहरणो मे इतिहास बोध तो है लेकिन इतिहास की शव साधना नही है।जैसा कि आजकल तमाम गीतकार /कवि इतिहास बोध के रूप मे सांस्कृतिक उद्धार की दृष्टि से अपना कुछ खास एजेण्डा लेकर चल रहे हैं।माहेश्वर जी के पास संवाद करती हुई भाषा का जादू है,और संवेदनशील लोगो के बीच संवादहीनता की चिंता भी है।हम बढती भीड मे कितने अकेले हो गए हैं यह महानगरीय जीवन का दैनन्दिन स्वर है जो हमारी संवेदना को लगातार झकझोरता है ।बहरहाल यह तो सच है कि हम महानगर के लोग अपने मे इतना खो गये हैं कि सहज बतकही तक का अवकाश अब किसी के पास नही रहा-
खुद से खुद की
बतियाहट हम
लगता भूल गए। माहेश्वर जी के पास नवगीत की सशक्त भाषा है-सधा हुआ छन्द है-नित नूतन युगबोध का मुहावरा है और सूक्ष्म सहज अभिव्यक्ति है की संवेदना है ।आम आदमी के दुखदर्द का पता इन नवगीतों मे साफ दिखाई देता है।रमेश रंजक,वीरेन्द्र मिश्र,देवेन्द्र शर्मा इन्द्र,उमाकांत मालवीय आदि नवगीतकारो की श्रेष्ठ काव्य परंपरा को कुमार रवीन्द्र और माहेश्वर तिवारी जी आगे ले जाते हैं।देखें समय की विडम्बना ढोते दिन का चित्र- सूखे मे बाढ में फँसे हैं दिन/अजगर की दाढ मे फँसे हैं दिन/आसमान से टपके थे भविष्य बनकर जो/सुनते हैं ताड. में फँसे हैं दिन।
असल में दिन नहीं हमारा पूरा जीवन आसमान से टपक कर ताड मे फँसा हुआ सा नजर आता है। कवि की सूक्ष्म चेतना दिन के कई हिस्सो तक जाती है और वहाँ से लौटकर क्षणवादी विसंगतियों के साथ यथास्थिति और निरर्थकता बोध को मानवीय सरोकारो के समक्ष रखकर उसकी समीक्षा करती है।कमोबेश यही स्थिति हम सभी संवेदनशील रचनाकारों/बुद्धिजीवियों की है-
धूप थे बादल हुए तिनके हुए/सैकडो हिस्से गये दिनके हुए/दफ्तरो से लौट आया है शहर/हम कभी इनके हुए उनके हुए।
अंतत:माहेश्वर तिवारी जी की नवगीत यात्रा हमें नवगीत के उस पडाव के रूप मे नजर आती है जहाँ से नए नवगीत कवियों के लिए अनुभव की सहस्र-धाराएँ फूटती हैं।मेरी दृष्टि में वे जनपक्ष के नवगीतकार हैं और श्रम सौन्दर्य के अनुपम चित्रकार भी हैं। किंतु वे जनवादी राजनीति के अनुरूप जनगीतकार नहीं हैं। वे अपने जन और लोक ,समय और समाज के लिए आज भी रच रहे हैं। हमें विश्वास है कि वे शतायु होकर भी अपनी रचना धर्मिता से हमे प्रेरित करते रहेंगे।

संपर्क:
बी-235/एफ-1,शालीमार गार्डन मेन,गाजियाबाद,-5,उ.प्र.
b.mishra59@gmail.com
9868031384

शुक्रवार, जुलाई 19, 2013

मूकसरस्वती के साधक :देवेन्द्रशर्मा इन्द्र (अस्सीवें वर्ष में प्रवेश पर विशेष)

>मूक सरस्वती के साधक : देवेन्द्र शर्मा इंद्र
डाँ भारतेन्दु मिश्र

कविवर देवेन्द्र शर्मा इन्द्र समकालीन कविता मे गीत नवगीत के केन्द्रीय स्वर के रूप मे प्रतिष्ठित वह नाम हैं जिन्होने शताधिक कवियो की भूमिकाएँ लिखकर उनका पथ प्रदर्शन किया है। नवगीत दशक 1 के यशस्वी कवि के रूप मे उनका आदर साहित्य के सभी छन्दधर्मा कवि कई दशकों से करते आए है।उन्होने विपुल मात्रा मे नवगीत दोहे और गजले कहीं हैं।अभी लगातार वे लिख रहे हैं।सैकडो की सख्या मे उनके गीत/गजले और हजारो दोहे अभी अप्रकाशित हैं इस सबके बावजूद वे सतत लेखन रत हैं।कुछ और नए कीर्तिमान बन जाने की सहज आशा बनती है।उनकी यह कविताई ही उनकी जीवनी शक्ति है।हिन्दी कविता के आलोचक उनकी कविताई को किस तरह से देखते हैं और उनके विषय मे क्या टिप्पणी करते हैं यह तो समय ही बताएगा।अभी उनका अधिकांश कविकर्म प्राय: असमीक्षित ही है।यद्यपि उनके कविकर्म को केन्द्र मे रखकर देश भर के विभिन्न विश्वविद्यालयो से एक दर्जन से अधिक शोध कार्य हो चुका है। समकालीन हिन्दी कविता में गीत/नवगीत/दोहा और गजल की जो छटा दर्शनीय है उसका एक हिस्सा कविवर देवेन्द्र शर्मा इन्द्र की सतत छन्द साधना पर केन्द्रित है।जैसे जैसे यह दुनिया तकनीकि के ढब से विश्वग्राम मे तब्दील हुई है उत्तर आधुनिकता के दौर में हिन्दी कविता के क्षेत्र मे एक खास तरह का इजाफा भी हुआ है।हालाँकि कविता के कई खेमे कई आन्दोलन और पडाव हमे देखने को मिलते हैं,लेकिन छन्दोबद्ध कविता की बात ही और है।जबकि एक ओर कुछ तथाकथित विचारक कहते पाए गए कि कविता मर चुकी है,कुछ चुके हुए गीतकारो ने इसी सुर मे कहा कि नवगीत मर चुका है।दूसरी ओर सबसे अधिक कविता की किताबें ही प्रकाशित होने की सूचना प्रकाशको से मिलती है। प्रकाशक कवियो से ही पैसा लेकर कवियो को ही वो किताबे बेच भी रहे हैं,परंतु कविता की रचनात्मक विकास यात्रा अवरुद्ध नही हुई।यह कहा जा सकता है कि यह गद्य का युग है लेकिन इस युग मे भी गैर मंचीय सार्थक छन्दोबद्ध कविता की ध्वजा को फहराते रहने का का कठिन कार्य आदरणीय इन्द्र जी कर रहे हैं।इसी बीच इन्द्र जी के व्यक्तित्व की परिधि का भी विस्तार हुआ है।अपनी सतत रचनाशीलता के अलावा उनके द्वारा संपादित-यात्रा मे साथ साथ-(समवेत -नवगीतसंकलन )हरियर धान रुपहरे चावल(समवेत नवगीतसंकलन)और सप्तपदी (दोहा संकलन) के सात खण्डों की व्यापक योजनाओ का साहित्य मे अलग महत्व है। श्रेष्ठ छन्दोबद्ध कविता की पहचान और कवि के चयन को लेकर उनकी प्रतिभा और क्षमता पर कोई सन्देह नही कर सकता। अपने मित्रो और प्रिय कनिष्ठो को लेकर उन्होने कभी कभी समझौते जरूर किए लेकिन उनका निर्वाह भी किया।इन्द्र जी छह दशको से लगातार छन्दप्रसंग की धूनी रमाते आ रहे हैं।इस नितांत वैयक्तिक काव्य यात्रा मे वे अकेले नही हैं उनकी एक बेटी है जो मूक सरस्वती की तरह लगातार उनकी इस काव्ययात्रा की प्रेरक और सहभागी है।इन्द्र जी उसे गोले कहकर संबोधित करते हैं,आयु के आठ दशक पूरे करने जा रहे इन्द्र जी के सृजन कर्म की वह प्रतिपल साक्षी है।गोले उनके सृजन कार्य मे बाधक भी है और साधक भी है।यही तो जीवन है ,बाधाओ मे साधना खण्डित होती दिखाई देती है पर वह खण्डित हो नही पाती ।लेकिन यदि साधना मे बाधा न आए तो फिर साधना का क्या आनन्द ? बाधाएँ सबके जीवन मे हैं लेकिन उनकी यह बाधा कुछ अलग किस्म की है। इसीलिए उनकी छन्दसाधना भी कुछ अलग किस्म की है। यह बालिका अब उम्र के 50 से अधिक वर्ष पूरे कर चुकी है किंतु छह माह के शिशु सा आचरण उनके सृजन क्षणो मे अक्सर बाधक बन जाता है।उसे खाना खिलाने से लेकर शौच आदि कराने तक प्राय: सभी कार्य वे सहज रूप से अपना दायित्व समझ कर करते हैं।वह उनसे इतना हिली हुई है कि परिवार के अन्य सदस्यो की अपेक्षा इन्द्र जी से ही प्रत्येक सेवा की अपेक्षा करती है।गोले निर्द्वन्द्व भाव से उनके पैरो पर झूलती है।जिन मित्रो का उनके घर आना जाना है वे सब प्राय: इस तथ्य से और उनके जीवन के इस कटु सत्य से परिचित हैं। मेरी दृष्टि मे यही उनकी तपश्चर्या है।वे सिद्ध है ,वे शब्द योगी हैं वे छन्दप्रसंग की अखंड धूनी रमाए हुए हैं।उनके विशाल काव्य वितान को गंभीर होकर पढने/समझने की आवश्यकता है।ऐसी मनोदशा मे जीने वाला कवि कह सकता है- घाटियों मे खोजिए मत
मैं शिखर पर हूँ।
धुँए की पगडण्डियों को बहुत पीछे छोड आया हूँ रोशनी के राजपथ पर
गीत का रथ मोड आया हूँ
मै नही भटका रहा चलता निरंतर हूँ।
यह सच बात है इन्द्र जी ने समकालीन छन्दोबद्ध कविता के रथ को बहुत आगे तक पहुँचाने का प्रयत्न किया है।इस रथ पर अनेक नए पुराने गीतकार सवार हैं इन्द्र जी ने कुशल सारथी की तरह इस रथ को राजपथ की ओर मोड दिया है। अब आगे के गीतकार उस रथ को कहाँ ले जाएँगे यह तो समय ही बताएगा।
इन्द्र जी के व्यक्तित्व की एक और खास बात है कि वे जिसे अपनाते हैं उसे पूरे मन से जोड लेते हैं और ऐसा जोडते हैं कि वो चाह कर भी उनसे विलग नही हो पाता।हालाँकि शातिर मंचीय गवैयों और आत्मसम्मोहन के नशे मे बौखलाए कवियो से वे स्वयं को बचा पाने मे सफल हुए हैं, तथापि कुछ मंचीय घुसपैठिए भी उनके दरबार मे आते जाते रहते हैं लेकिन उन्होने छन्दोबद्ध कविता को और अपने आपको भी अभी तक बचाया हुआ है।
इन्द्र जी का पूरा का पूरा कविकर्म देखें तो उनके अंतरमन की सघन गीतोन्मुखी संवेदना कैसे उनकी स्थायी मित्र और आत्मजा गोले के साथ अनंत व्यापी होकर चक्राकार लेकर घूमती है।देखिए जरा ध्यान दीजिए अनादि संवेदन पर- मै रचता,तोडता रहा/देश काल की सीमाएँ/लयवंती मुझसे होतीं/सर्जन की गीताभाएँ/मै अनादि संवेदन हूँ/मै अनंत हूँ/अपने एकांत पीठ का /मै महंत हूँ।
ऐसा स्वर उनकी कविताई को ही शोभा देता है। वे निरंतर सर्जन की नई गीत प्रतिभाएँ और गीत छवियो की तलाश की ओर अग्रसर हैं।कुछ मित्रो को लग सकता है कि वे कहीं कहीं स्वयं को दुहरा रहे हैं,लेकिन अक्सर वैसा होता नही।अपने जीवन और कवि कर्म के प्रति ईमानदारी उनकी खास पहचान है। वे पुरस्कार सम्मान आदि के प्रति सदैव उदासीन रहे।उत्तर प्रदेश सरकार से जब उन्हे साहित्यकार सम्मान मिला तब वे उसे गृहण करने लखनऊ नही जा पाए।मूल मे थी गोले –लखनऊ वे गोले की चिंता से मुक्त हुए बिना नही जा सकते थे,उसके साथ तो बिल्कुल ही नही जा सकते थे।तो गत पचास वर्षो मे इन्द्र जी के व्यक्तित्व की निर्मिति का मूल कारण गोले को कहा जा सकता है।गोले के प्रति वात्सल्य का भाव उनके मन मे स्पष्ट तौर से देखा जा सकता है।गोले उनके लिए मूक सरस्वती है और वो उस सरस्वती के मुखर कवि।जरा उनकी अधिकांश काव्य कृतियो के नाम देखिए- पथरीले शोर में,पंखकटीमेहराबें,दिन पाटलिपुत्र हुए,कुहरे की प्रत्यंचा,चुप्पियो की पेंजनी,आँखों मे रेत प्यास,पहनी हैं चूडियाँ नदी ने, हम शहर मे लापता हैं,धुँए के पुल,आँखों खिले पलाश,एक दीपक देहरी पर -आदि शीर्षकों को जरा इन्द्र जी की गोले के प्रति संवेदना को जोडकर देखिए तो इन अनेक गीत गजल और दोहा संग्रहो की रचनाओ के वास्तविक अर्थ खुलने लगते हैं।सतही तौर से लगता है कि एक अनवरत शांति और निराशा की अनंत काव्य राशि अनेक छवियो मे यहाँ बिखरी पडी है,परंतु वैसा है नही।वे समग्र जीवन की संवेदना के बडे गीतकार हैं।जैसा कि हमारे आसपास जीवन की विसंगतियाँ और विडम्बनाएँ चतुर्दिक पसरी हुई हैं वह सब भी इन्द्र जी के काव्य मे सतत स्वाभाविक रूप मे विद्यमान है।अर्थात युगबोध के बडे नवगीतकार तो वे हैं ही।इस अस्सी की उम्र मे उनका तेवर तो देखिए-
अस्तमित होते समय के
सूर्य है हम/जिसे जितनी चाहिए वह रोशनी ले ले।

ये जो सूर्य मुखी चेतना के गीत हैं वो उनकी प्रिय भूमि है क्योकि जहाँ तक मुझे याद है नवगीतदशक -1 मे भी कवि के सूर्यमुखी गीत संकलित हैं।उल्लास के स्वर प्राय: इन्द्र जी के गीतो मे कम ही देखने को मिलते हैं।इसका प्रमुख कारण उत्सवधर्मी उल्लास से उनकी वितृष्णा ही है। यह उत्सवधर्मी उल्लास के प्रति वितृष्णा का बोध उनकी अनेक रचनाओ मे साफ तौर पर देखा जा सकता है।निराला उनके आदर्श कवि हैं,लेकिन तमाम साहित्यकारों की तरह वे केवल निराला का नाम नहीं जपते वरन वे निराला को गहरे तक हृदयंगम करते हैं।इसका प्रमाण उनका कालजयी (खण्डकाव्य) है,जो निराला के प्रिय तुलसीदास वाले छन्द मे ही रचा गया है।देखें मनोहरा की छवि- सम्भ्रांत विप्र कुल की कन्या गुणवंती यथा नाम धन्या नागरी लता पर स्मित-वन्या-कलिका सी। अपरा-सरस्वती-ऋतंवरा सिद्धार्थमना ज्यों यशोधरा नव सूर्यकांत की मनोहरा-अलिका सी॥
निराला के अतिरिक्त इन्द्र जी ने डाँ.रामविलास शर्मा जी की आगरा कालेज वाली छवि बहुत करीब से देखी सुनी है।तात्पर्य यह कि उनके मन मे सचमुच निराला के प्रति अगाध श्रद्धा का भाव जीवंत है। इसके अतिरिक्त कई गीत निराला को स्मरण करते हुए इन्द्र जी लिखे हैं। जैसे निराला अपनी पुत्री को लेकर सरोज स्मृति जैसी शोक की महान कविता हिन्दी साहित्य को दे गये उसी परम्परा मे इन्द्र जी अघोषित रूप से गोले को लेकर सृजन रत हैं।अभी कुछ दिन हुए उन्होने निराला पर लिखी रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल,नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह,धर्मवीर भारती,हरिवंशराय बच्चन,शील,नरेन्द्र शर्मा और आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जैसे तमाम नए पुराने कवियो की कविताओ का संकलन वसंत का अग्रदूत शीर्षक से किया है जो हिन्दी साहित्य मे एक सन्दर्भ पुस्तक के रूप मे आदर पा रही है।
अंतत: उनके इस अनवरत अप्रतिम सृजन संसार के प्रति शुभकामनाएँ।ईश्वर से प्रार्थना है कि उन्हे शतायु करे तथा उनके सृजन को और भी दीर्घायु करे।


संपर्क:बी-235/एफ-1,शालीमार गार्डन,मेन,गाजियाबाद-5
फोन-9868031384

शनिवार, जुलाई 13, 2013


एक महत्वपूर्ण पुस्तक
गद्यकार आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री
लेखक:पाल भसीन/प्रकाशक:प्रकाशन संस्थान,नई दिल्ली-110002/मूल्य-500/
पुस्तक परिचय
भसीन ने आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के गद्य साहित्य की गुत्थियों को स्वयं आचार्य के साथ “प्रहर दिवस मास” का उपनिषद करके ही सुलझाया है।यह ग्र्ंथ आत्मीय तटस्थता का परिणाम है।संस्मरण,आलोचना,कहानी,उपन्यास आदि को आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने अपनी ही मान्यताओं के आलोक में सिरजा है।इस ग्रंथ के माद्ध्यम से पाल भसीन ने शास्त्री जी के गरिष्ठ गद्य साहित्य का संवेदनात्मक विश्लेषण कर ऐतिहासिक महत्व का कार्य किया है।शास्त्री जी के साहित्य कानन मे प्रवेश के इच्छुक के लिए यह एक उपयोगी ही नही अनिवार्य ग्रंथ है।
-डाँ राजेन्द्र गौतम (पुस्तक के फ्लैप से)

सोमवार, जुलाई 08, 2013

समीक्षा : गँवई मन के गीत


भारतेन्दु मिश्र
हिन्दी गीत /नवगीत के सन्दर्भ में अत्यंत सार्थक नाम अवध बिहारी श्रीवास्तव का है।हल्दी के छापे के लगभग दो दशक बाद पिछले दिनों “मंडी चले कबीर” नाम से अवधबिहारी जी का दूसरा गीत संग्रह प्रकाशित हुआ है।इस संग्रह मे कुल 77 गीत हैं।इन गीतों का स्वर अवध के किसानों के बदलते परिवेश से हमें जोडता है।कवि अपने समाज की विडम्बनाओ को और आम गँवई मन को बडे मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करता है।गँवई मन का अर्थ है-किसान चेतना,गाँवों का बिखराव,आर्थिक सामाजिक असंतुलन,छीजती ग्राम्य संस्कृति और इस दौर की बाजारवादी प्रगति के बीच में फँसा गँवई मन वाला आम आदमी।रीतिकालीन कविता मे सेनापति का बारहमासा बहुत चर्चित रहा है किंतु अवधबिहारी जी ने नवगीतों के माध्यम से जो समसामयिक बारहमासा प्रस्तुत किया है वह भी बहुत स्वागत योग्य है।जिस प्रकार कैलाश गौतम और महेश अनघ जैसे नवगीतकारों ने नवगीत के ग्राम्य और आंचलिक पक्ष को हमारे सामने उजागर किया है कदाचित उसी क्रम में अवधबिहारी जी समकालीन किसान चेतना की गीत परम्परा को आगे ले जाते हुए दिखाई देते हैं,मगर वो जनवादी राजनीति के जन गीतकार नही हैं।
प्रगतिशील चेतना के गीत को ही नवगीत कहा जाता है।मंडी चले कबीर के अधिकांश गीत हमारी गँवई चेतना की मर्मव्यथा को बहुत सहज ढंग से झकझोरते हैं।अवध के गाँवों की बोली और लोक जीवन की विविध छवियाँ तथा उन छवियों में से झाँकता सजग कवि मन सबको आकर्षित करता है।भाषा शिल्प और छन्द तो कमाल का है ही।अनेक गीतों मे तुलसीबाबा वाला चौपाई छन्द कवि की कविताई मे चार चाँद लगा देता है- मुझे सुखी रखता है मेरा/अपना गँवई मन।/सीखा नही व्याकरण कोई/पहना नही आभरण कोई/कविता मे सच कहना सीखा/तुलसी बाबा से/गाँधी बाबा से सीखा है/सादा रहन सहन।कवि ने चैत-बैसाख-असाढ-सावन से लेकर फागुन तक जो ऋतु परिवर्तन के ब्याज से गँवई मन की संवेदना के अनेक गीत रचे हैं,उनका अलग ही महत्व है।ये गीत- नवगीत के खाते में अवध के गाँव को देखने समझने की एक नई दृष्टि से हमें जोडते हैं।जैसे-
उतरा बहुत कुँओं का पानी/जेठ तप रहा गाँव में। पूस माह का एक चित्र देखें- गन्ने के रस पर दिन बीता/रात बिताएँगे नारायण/काकी कठरी ओढे चुप है/काका बाँच रहे रामायण/हाँथ पसारें कैसे ?जकडी मर्यादाएँ पाँव में/काँधे पर अभाव की लाठी/पूस घूमता गाँव में। क्वार का एक चित्र इस प्रकार है-
पकने लगी धान की बाली /थिरने लगा ताल का पानी/दिखने लगीं मछलियाँ जल में/फसलें अब हो गयीं सयानी/कच्चे दूधो वाले दाने/भुने नीम की छाँव में/नए अन्न की गमक उड रही/क्वाँर आ गया गाँव में। हालाँकि गाँव मे लगातार बदलाव हो रहे हैं बिखराव के बावजूद अभी तक प्राकृतिक रूप में बहुत कुछ बचा हुआ है।वहाँ लोग अक्सर बैठते बतियाते हैं।कवि ने बारहों महीने मे आने वाले बदलाओ की सुन्दर प्रस्तुति यहाँ की है।इसके अतिरिक्त सत्यनाराण की कथा,नदी का घाट,बाबा की उदासी-बहू-कोठरी-लडकी के कई बिम्ब इस संग्रह में हैं।शीर्षक गीत का अंश देखिए- कपडा बुनकर थैला लेकर/मंडी चले कबीर/कोई नहीं तिजोरी खोले /होती जाती शाम/उन्हे पता हिअ कब बेचेंगे/औने-पौने दाम/रोटी और नमक थैलों को/ बाजारों को खीर। कामगर को वाजिब दाम कभी नही मिला हमारे देश में।व्यापारी कामगर के हिस्से की सारी मलाई सदैव उडाते रहे आज भी यही कुछ चल रहा है।ये गीत अवधबिहारी जी की ही तरह बहुत सहज सरल हैं।यह अनगढ सहजता उनकी कविताई की सीमा भी है।लाक्षणिकता और जटिल बिम्बो की ओर कवि नही जाता।प्रतीको वाली भाषा यहाँ कवि नही अपनाता।अर्थात कवि अपनी और अपने पाठको की तमाम काव्य क्षमताओ को भी जानता है।देश काल बोध के गीत तो यहाँ हैं ही।उडीसा की सुमित्रा बेहरा का पता भी अवधबिहारी जी को मालूम है जिसने भुखमरी के चलते अपनी लडकी को बेच दिया था।उस मार्मिक संवेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति देखिए- मैं उडीसा की सुमित्रा बेहरा हूँ/माँ नहीं/रोटियों के लिए मैने/ बेच दी हैं लडकियाँ।
अंतत: सभी गीत प्रेमियो को अवधबिहारी जी के इस गीत संग्रह का स्वागत करना चाहिए।
शीर्षक:मंडी चले कबीर/कवि:अवधबिहारी श्रीवास्तव/संस्करण;2012/मूल्य:200/
प्रकाशक:मानसरोवर प्रकाशन248/12,
शास्त्री नगर,कानपुर


गुरुवार, मार्च 28, 2013


प्रगतिशीलता के नैसर्गिक गीतकार भवानी प्रसाद मिश्र


(जन्म:29-3-1913 निर्वाण: 20-2-1985)
जन्मशती पर पुनर्पाठ करते हुए -


*भारतेन्दु मिश्र
बीसवी सदी के अनेकानेक प्रगतिशील कवियों के बीच मध्यप्रदेश की धरती पर जिस कवि ने अपने एक प्रगीत के माद्ध्यम से मंचीय कविता खासकर गवैयो और गलेबाजो की तालीपिटाऊ प्रस्तुतियो की कलई खोली -वह थे भवानी प्रसाद मिश्र । उनकी इस रचना का शीर्षक है-गीतफरोश-
जी हाँ हुज़ूर
मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ
मैं क़िस्म-क़िस्म के
गीत बेचता हूँ

यह एक लंबी गीत कविता है। उन्हे लोग भवानी भाई और मन्ना दादा भी कहते थे। 29 मार्च सन् 1913 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले में जन्मे भवानी प्रसाद मिश्र दूसरे सप्तक के प्रमुख कवि हैं। आपने हिन्दी, अंग्रेजी तथा संस्कृत विषयों से स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
वह दौर था जब आम आदमी राष्ट्रवादी चिंतन की धारा मे बह रहा था। देश आजादी का स्वप्न देख रहा था। तमाम युवा और युवतियाँ महात्मा गान्धी जी के असहयोग आन्दोलन मे कूद पडे थे। एक साहित्यकारो और पत्रकार्रो का समूह भी गान्धी जी के साथ कदम से कदम मिला कर चल रहा था।इसी दौर मे भवानी प्रसाद मिश्र जी पर भी
2 महात्मा गांधी जी के दर्शन का गहरा प्रभाव पडा। भवानी दादा ने सृजन की भावुकता और जीवन की व्यवहारिकता के बीच की इस मनोदशा को इतनी बेबाक़ी से अभिव्यक्त किया कि श्रोता और पाठक दाँतों तले उंगलियाँ दबा लेते थे। सीधा सादा जीवन और साफगोई उनकी कविता की ही नही उनके जीवन का भी अनिवार्य अंग थी।
गांधीवाद की ईमानदारी भवानी दादा के व्यक्तित्व का विशेष अंग बनी थी। इसी ईमानदारी की साफ़-साफ़ अभिव्यक्ति आपके पहले संग्रह ‘गीत-फ़रोश’ में हुई है। गीत फरोश, चकित है दुख, गाँधी पंचशती, अँधेरी कविताएँ, बुनी हुई रस्सी , व्यक्तिगत, खुशबू के शिलालेख, परिवर्तन जिए, त्रिकाल संध्या, अनाम तुम आते हो, इदंन मम्, शरीर कविता फसलें और फूल, मान-सरोवर दिन, संप्रति, नीली रेखा तक और कालजयी उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। 1972 में " बुनी हुई रस्सी " नामक रचना के लिये आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। इसके अलावा उन्हे पद्मश्री सहित अन्य अनेक पुरस्कारो सम्मानों से भी विभूषित किया गया। आपने संस्मरण –निबन्ध और बाल साहित्य भी लिखा। 20 फरवरी 1985 को गीतफरोश का यह अप्रतिम गीतकार हमेशा के लिए अपना अक्षुण्ण कृतित्व छोड कर इस संसार से विदा हो गया।
भवानी प्रसाद जी का सर्वाधिक मार्मिक कविता सतपुडा के घने जंगल है। इस गीत मे कवि की अपनी जातीयता साफ प्रकट होती है। ऐसी गीत रचना कदाचित हिन्दी साहित्य मे दूसरी नही है। कवि ने सतपुडा के जंगलों को कई बार देखा परखा है। यू तो पूरा गीत ही बेहद मार्मिक है लेकिन इसमे जो संवेदना की गहरी परतें और अर्थछायाएँ हैं उनका कहना ही क्या ? कवि के लिए ये जंगल किसी जीती जागती बस्ती की तरह हैं।
सतपुड़ा के घने जंगल।
नींद मे डूबे हुए से/ ऊँघते अनमने जंगल।
झाड ऊँचे और नीचे,/चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है/मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,/धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल/ऊँघते अनमने जंगल।
ये जो अनमने ढंग से ऊघने का संकेत है वह मध्यभारतीय मनुष्य की जिन्दगी का सत्य है। सब कुछ सहज ईश्वर आधीन निश्चिंत सा,लेकिन आम आदमी अपनी जातीयता के गर्व से लैस भी है ।हमारे दार्शनिक बोध की ही तरह यह जंगल बेहद गहन भी है,बिना उसमे घुसे उसकी पहचान नही की जा सकती। किसी दलित बस्ती जैसा भाव-निम्न पंक्तियो में सहज रूप से दृष्टिगत होता है। लेकिन
3
यहाँ कवि दलित चेतना से बेखबर है। यहाँ तो कवि कहना चाहता है कि इन पत्तो को जितना दल सको दलो ताकि ये नए और पुराने सभी पेडो और वनस्पतियो के लिए खाद बन सकें।
सड़े पत्ते, गले पत्ते,/ हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढँक रहे से/पंक-दल मे पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,/दलो इनको दल सको तो,
सहज स्त्रीभाव-का स्वर भी इसी गीत मे उल्लेखनीय है। बिना स्त्री के जैसे समाज की संभावना नही की जा सकती वैसे ही लताओ के बिना जंगल की कल्पना व्यर्थ है। ये लताएँ जंगल के वृक्षो से ही अपना भोजन पानी लेती हैं। ये अचानक किसी को भी पकड सकती हैं और अपने मे उलझा लेती हैं। तो ये लताएँ हमारे समाज की स्त्रियो के भाँति है जिनके बिना समाज की रचना नही हो सकती और भरण पोषण तो दूर की बात है--
अटपटी-उलझी लताऐं,/डालियों को खींच खाऐं,
पैर को पकड़ें अचानक,/प्राण को कस लें कपाऐं।
सांप सी काली लताऐं/बला की पाली लताऐं
लताओं के बने जंगल।
यह संसार सहज दुख का भवसागर है ।दुख झेलते हुए आगे बढना ही मनुष्य स्वभाव है तो कवि इन जंगलो को सहज कष्टो से सना हुआ देखता है परंतु वो चाहता है कि लोग इसे अगम न माने। आम आदमी को इसके भीतर से होकर चलने की प्रेरणा कवि देता है। असल मे यही सच्ची प्रगतिशीलता है। अपने आप मे सहज दुख सुख वाली सांसारिकता को स्वीकार कर आगे बढते रहना--
मकड़ियों के जाल मुह पर /और सर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले /दाग काले-लाल मुँह पर,
वात- झन्झा वहन करते,/चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल।
भूकम्प से कुनमुनाए हुए हैं- ये जंगल अजगरो,बाघो,और दुर्गम पहाडो से भी भरे पडे हैं लेकिन मनुष्य वही है जो इसका साहसपूर्वक सामना करे और इसमे प्रवेश करे। ये अगम्य लगते हैं पर है नहीं।
अजगरों से भरे जंगल/अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,/बड़े छोटे झाड़ वाले,

4
शेर वाले बाघ वाले,/गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल।
भवानी प्रसाद मिश्र की जातीयता को जाँचने परखने की नजर से यह गीत बहुत गम्भीर होकर पढने की आवश्यकता है। एक गीत- जाहिल के बाने- में वो कहते हैं-
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाये हूँ याने ।
अर्थात अपनी जातीयता के साथ ही मिश्र जी पर गान्धीदर्शन का सीधा प्रभाव दिखता है। खासकर श्रम के आकलन को लेकर गान्धी जैसा सोचते थे वह बाद के नेताओ ने विस्मृत कर दिया जिसका परिणाम हमारे समाज मे घृणा और नफरत के रूप मे दिखाई देने लगा है।जबकि यह हमारे परावैदिक युग की सामाजिकता की पहचान रही है।मार्क्सवादी चिंतक डाँ.रामविलास शर्मा के अनुसार -वैदिक युग मे शारीरिक और मानसिक श्रम मे भेद नही था। -यहाँ महात्मा गान्धी इसी विचार का प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने आश्रम के सभी काम स्वयं करते हैं। किसान मजदूर के प्रति जो सहज आदर का भाव होना चाहिए वह हमारी तथाकथित पढी लिखी पीढी भूल गयी है।गान्धी के प्रति भवानी दादा की एक कविता का अंश देखिए-
जिल्द बाँध लेना पुस्तक की / उनको आता था
भंगी-काम सफाई से/ नित करना भाता था ।
ऐसे थे गाँधी जी/ ऐसा था उनका आश्रम
गाँधी जी के लेखे/पूजा के समान था श्रम ।
तो ये श्रम और उसके प्रति आदर का भाव जो गान्धी के आश्रम मे था वह अब आधुनिक गान्धीवादियो का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं में समाप्त हो गया है।
एक और भवानी दादा का लम्बा गीत है -घर की याद। कवि की जातीय चेतना को और अधिक साफ करनेवाला यह गीत उनकी पारिवारिक स्थिति का पूरा परिचय देता है।
हिन्दी कविता के उस दौर मे लम्बी कविताए लिखी जा रही थीं। कुछ कवियो ने उस समय ऐसी छन्दोबद्ध गीतात्मक कविताएँ भी लिखीं जो बाद मे मील का पत्थर साबित हुईं। घर की याद अपने आप मे इसी कोटि की स्मृति आख्यान धर्मी कविता है। वस्तुत: यह केवल कविता नही बल्कि संस्मरणात्मक आख्यान भी है। गृह रति की व्यापक संवेदना इस कविता मे बहुत सुन्दरता से उभरती है। गाँवो मे अभावो के कारण बरसात के दिन प्राय: कष्ट भरे होते हैं ऐसे मे भवानी दादा अपने घर को याद करते हैं-
5
गिर रहा पानी झरा-झर,/हिल रहे पत्ते हरा-हर,
बह रही है हवा सर-सर,/काँपते हैं प्राण थर-थर,
बहुत पानी गिर रहा है,/घर नज़र में तिर रहा है,
घर कि मुझसे दूर है जो,/घर खुशी का पूर है जो,
घर से बाहर रहने वाले लोगो को जो अपनो की याद सताती है वह इस कविता का केन्द्रीय भाव है।इस कविता में भवानी प्रसाद मिश्र जी अपने चार भाई और बहिनो के साथ माता और पिता को याद करते हैं-
आज का दिन दिन नहीं है,/क्योंकि इसका छिन नहीं है,
एक छिन सौ बरस है रे,/हाय कैसा तरस है रे,
घर कि घर में सब जुड़े है,/सब कि इतने कब जुड़े हैं,
चार भाई चार बहिनें,/भुजा भाई प्यार बहिनें,
और माँ‍ बिन-पढ़ी मेरी,/दुःख में वह गढ़ी मेरी
माँ कि जिसकी गोद में सिर,/रख लिया तो दुख नहीं फिर,
इसके आगे देखें पिता का रेखाचित्र, पिता को स्मरण करते हुअ कवि कहता है कि वो जितने भोले हैं उतने ही बहादुर भी है।कितना मार्मिक है यह चित्र-
पिताजी भोले बहादुर,/वज्र-भुज नवनीत-सा उर,
पिताजी जिनको बुढ़ापा,/एक क्षण भी नहीं व्यापा,
जो अभी भी दौड़ जाएँ,/जो अभी भी खिल-खिलाएँ,
मौत के आगे न हिचकें,/शेर के आगे न बिचकें,
बोल में बादल गरजता,/काम में झंझा लरजता,
आज गीता पाठ करके,/दंड दो सौ साठ करके,
इसी कविता का अंश और आगे देखिए माँ के साथ अन्य परिवार के लोगो को याद करते हुए कवि को लगता है कि केवल वही नही उधर से उसके परिजन भी इस बरसात में उसे उतना ही याद करते होंगे--
भाई पागल, बहिन पागल,/और अम्मा ठीक बादल,
और भौजी और सरला,/सहज पानी,सहज तरला,
शर्म से रो भी न पाएँ,/ख़ूब भीतर छटपटाएँ,
आज ऐसा कुछ हुआ होगा,/आज सबका मन चुआ होगा ।
पिता का मन तो साक्षात बरगद जैसा हो गया होगा। जिसे अनादि वृक्ष की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। जिसके पोर पोर से संवेदना का दुग्ध सदैव प्रवाहित होता रहता है। उसे किसी पत्ते का
6
बिछोह सहन नही है। जबकि वह यह भी जानता है कि हर बार पत्ते का बिछुडना ही उस वृक्ष की नियति है-
एक पत्ता टूट जाए/बस कि धारा फूट जाए एक हल्की चोट लग ले /दूध की नद्दी उमग ले।
मेरी दृष्टि मे यह लम्बी गीतात्मक कविता भवानी प्रसाद मिश्र जी के मन मे बसी पारिवारिक संवेदना की नदी का पता बताती है। इन कुछ गीत कविताओ के अलावा उनके संकलनो मे अनेक नवगीतात्मक कविताएँ भी मिलती हैं। परंतु उन्हे शुद्ध गीतकार कहना सही नही होगा। उनकी एक नवगीतात्मक कविता का अंश देखें- बूँद टपकी एक नभ से/किसी ने झुककर झरोखे से /कि जैसे हँस दिया हो। हँस रही सी आँख ने जैसे /किसी को कस दिया हो। यहाँ नवगीतात्मकता की छवि साफ तौर से भवानी दादा की कविताओ मे देखी जा सकती है।
एक दरिदा शीर्षक कविता मे गीतात्मकता का प्रयोग देखिए कितनी सहजता से कवि ने मनवता पर आए आसन्न संकट का खुलासा किया है-
दरिंदा/आदमी की आवाज़ में/बोला
स्वागत में मैंने/अपना दरवाज़ा/खोला
और दरवाज़ा/खोलते ही समझा/कि देर हो गई
मानवता/थोड़ी बहुत जितनी भी थी/ढेर हो गई !
भवानी दादा का उनकी जन्मशती के अवसर पर स्मरण करते हुए मुझे लगता है कि उनके पुनर्पाठ की आवश्यकता लगातार बनी हुई है उन्होने बच्चो के लिए भी गीत लिखे थे।बडे कवि लेखक वही होते हैं जो बच्चो के लिए भी लिखते हैं। मुझे लगता है कि बच्चो के लिए लिखना यानी अपने भविष्य से संवाद करने जैसा होता है। यह काम समर्थ रचनाकार ही कर सकता है। नागार्जुन त्रिलोचन शमशेर आदि सबने बच्चो के लिए लिखा है।मिश्र जी के एक बाल गीत की पंक्तियाँ देखें- साल शुरू हो दूध दही से साल खत्म हो शक्कर घी से। ऐसे समर्थ कवि भवानी प्रसाद मिश्र हिन्दी के पुरस्कर्ता गीत कवि हैं।मै गीत कवि इसलिए कह रहा हूँ क्योकि वे मूलत: गीत और छन्द लय के रचनाकार हैं उनकी बाद की तमाम कविताओ मे भी अप्रकट रूप मे लय और छन्द की छाया विद्यमान है।अंतत: उनकी पावन स्मृति को प्रणाम।

सोमवार, मार्च 11, 2013


टिप्पणी:
सोलह गीत स्वर

भारतेन्दु मिश्र
वरिष्ठ नवगीतकार आदरणीय देवेन्द्र शर्मा इन्द्र द्वारा सम्पादित हरियर धान रुपहरे चावल- सोलह नये पुराने गीतकारों के दस-दस गीतों / नवगीतों का संकलन है। इन्द्रजी समकालीन छन्दोबद्ध कविता के केन्द्रबिन्दु के रूप में जाने जाते हैं। नवगीतदशक -1 के यशस्वी कवि तो वे हैं ही। यहाँ इन सोलह गीत स्वरों में उनके अलावा इस समवेत संकलन में जिन पन्द्रह गीतकारों को शामिल किया गया है वरिष्ठता क्रम में उनके नाम क्रमशःइस प्रकार हैं-जगत्प्रकाश चतुर्वेदी,विद्यानन्दन राजीव,बाबूराम शुक्ल,ब्रजभूषणगौतम, अनुराग, श्रीकृष्णशर्मा,अवधबिहारी श्रीवास्तव,मधुकर अष्ठाना,कुमार रवीन्द्र,राधेश्यामशुक्ल,विष्णुविराट चतुर्वेदी,महेश अनघ,श्याम निर्मम,योगेन्द्रदत्त शर्मा,वेदप्रकाश शर्मा वेद और संजय शुक्ल। इस संकलन की उपलब्धि को यदि रेखांकित किया जाय तो अंतिम दो नाम वेद प्रकाश वेद और संजय शुक्ल के गीत नवगीत के भविष्य के प्रति अधिक आश्वस्त करते हैं। बाकी के अन्य गीतकार/ नवगीतकार किसी न किसी रूप में पहले से ही चर्चित हो चुके हैं।
संकलन मे सबसे कम उम्र के रचनाकार संजय शुक्ल के गीत की पंक्तियाँ देखें- राजतिलक होते ही सारा / मंजर बदल गया/ढूँढ-ढूँढ कर हारी परजा /राजा किधर गया ? अर्थात संजय शुक्ल के पास नवगीत की साफ-साफ दृष्टि मौजूद है। एक और खास बात यह भी है कि संजय के इन गीतों में समकालीन कविता का मुहावरा भी विद्यमान है । वेदप्रकाश शर्मा वेद के गीतों में गीत का पारम्परिक मुहावरा नयी काव्य भाषा में प्रकट हुआ है संकलित गीत का एक अंश देखें- जाने अनजाने में कितने /अर्जुन ब्रहन्नला हो बैठे /कितने अश्वत्थामा अपनी /मस्तक –मणियाँ ही खो बैठे/ सिंहासन हो चला व्यक्ति -भर / पायों को कुछ नाच नचायें ।
योगेन्द्रदत्तशर्मा गीत /नवगीत के स्थापित रचनाकार है इन दिनों वे जो सपने बुन रहे हैं उसका नवगीतात्मक चित्र देखें – चीजों से/जुडता हूँ /बेहद गहराई से /लडता हूँ जीवन की/नंगी सच्चाई से/हर कड्वे अनुभव पर/अपना सिर धुनता हूँ/बुनता हूँ रोज नये सपने/मैं बुनता हूँ। स्व. श्याम निर्मम इस संकलन के महत्वपूर्ण रचनाकार होने के साथ ही इस पुस्तक के प्रकाशन तथा साज सज्जा के प्रति भी उत्तरदायी भी रहे हैं एक गीत अंश इस प्रकार है- फूलों ने /वसंत आने पर/गुलदस्ते बाँटे/पर जाने क्यो/ अपने मन मे/ चुभे बहुत काँटे।
भाई महेश अनघ भी अब हमारे बीच नहीं हैं।नवगीत आन्दोलन के अत्यंत जाज्वल्यमान नक्षत्र के रूप मे महेश जी को हमेशा याद किया जाता रहेगा। उनका एक गीत अंश देखें-हम अभिनय के बाजारो मे/ जख्मों को छीला करते हैं/हम चेहरे नही मुखौटे हैं /जीवन भर लीला करते हैं। इसी नीचे से ऊपर या कहें कि पीछे से आगे जाने के क्रम में अगले कवि विष्णु विराट हैं फिर आगे राधेश्याम शुक्ल हैं,ये दोनो ही कवि बेहतर गीतकार के रूप मे पहले से ही चर्चित हैं।देखें दोनो कवियों का एक –एक अंश-तैरता है हंस का जोडा नदी में/कमल –दल पर/गुनगुनाता भ्रमर आता/मुस्कुराता एक पागल-आदमी।–विष्णु विराट । और-
एक सुनहले मृग के पीछे/पागल हुई अयोध्या सारी/इसे क्या कहें हवस या कि फिर/राजा परजा की लाचारी/सुकूँ खोजते इन्द्रजाल में कितने लव कुश का खो जाना/है कैसा लग रहा राम जी /सरयू का रेती हो जाना।–राधेश्याम शुक्ल।
दो कदम और ऊपर चढने पर कुमार रवीन्द्र और मधुकर अष्ठाना मिलते हैं । इन दोनों के नवगीत हमारे समय की नयी काव्य भाषा रचते हैं, बानगी देखें- वन पवित्र है/ क्योकि पेड हैं सामगान /धरती के साधो/ रोज आरती करते वे/उगते सूरज की/ पूरे दिन कविताये रचते वे अचरज की।– कुमार रवीन्द्र । और-
सूखने को आ गये हैं/नेह के झरने /कि कुछ तो कीजिये /हंस मानस के/चले हाराकिरी करने /कि कुछ तो कीजिये –मधुकर अष्ठाना। थोडा और ऊपर चढने पर लोकधर्मी चेतना के अप्रतिम गीतकार अवध बिहारी श्रीवास्तव और इस संकलन के सम्पादक देवेन्द्र शर्मा इन्द्र के गीत मिलते हैं। दोनो गीतकारों के उद्धरण इस प्र कार हैं –काट रही सोने की फसलें /कब से बिरजू की घर वाली/ गढा रही मन ही मन कंगन/ मँगा रही बिटिया की बाली/ पायल आयी नहीं मगरपायल बजती है पाँव में ।-अवध बिहारी श्रीवास्तव
और-
भिक्षुक है सारी दुनिया/मुझको यह देगी भी क्या/ द्वार –द्वार जाकर मैंने/झोली को कब फैलाया/ सीमित हूँ/फैलूँ तो दिगंत हूँ/ अपने एकांत पीठ का/मैं महंत हूँ ।-देवेन्द्र शर्मा इन्द्र
इसके बाद और ऊपर पांच वरिष्ठ गीतकार दिखाई देते हैँ।आरोही क्रम मे जिनके उद्धरण इस प्रकार हैं- काँपते पाँव /दिग्भ्रांत दृष्टि/है पथ में धुन्ध-अन्धेरी/हम व्यर्थ हुए ज्यों व्यर्थ हुई/सूखे पत्तो की ढेरी।–श्री कृष्ण शर्मा फेरियाँ शीतल पवन की/लग रहीं/हाथ थामें गन्ध/हरसिंगार की/हरी शाखों से लिपट कर तितलियाँ/कर रही अभिव्यक्तियाँ अब प्यार की/सुरसुरी रस गन्ध की ऐसी बही/पाँखुरी दर पाँखुरी खुलने लगी।–ब्रजभूषण गौतम अनुराग।
मछली!तेरे लिए लगाते/रहते ये बंसी पर चारा/जरा जीभ लपती तो/पल मे करते वारा न्यारा/जाल फैकते परम हितैषी/ये कितने मछुवारे।–बाबूराम शुक्ल।
फिसलन है चलते रहना है/कोई और विकल्प नही/भय सता रहा/छूट न जाए/हाँथों से संकल्प कहीं?—विद्यानन्दन राजीव और अंतत: इस संग्रह का पहला गीत जो कि आयु के आरोही क्रम मे अंतिम गीत है उसका अंश देखिए-
आग चूल्हे की चिता की/भेद कितना है/उस ललाई की खबर/आ ही रही होगी/वह सुबह,वह दोपहर,/यह शाम/अब विदाई की खबर आ ही रही होगी।–जगत्प्रकाश चतुर्वेदी। मैने इस किताब को पीछे से पढना शुरू किया क्योकि मुझे नए /युवा स्वर की खोज करनी थी,जहाँ संघर्ष -आस्था -आशा और उल्लास के नवगीतात्मक बिम्ब देखने को मिलें। दूसरी बात यह कि संजय शुक्ल और वेदप्रकाश वेद इन दिनो कैसा लिख रहे हैं उनके लेखन से नवगीत का भविष्य जुडा है। शेष अन्य कवि साठ से ऊपर की आयु के हो चुके हैं।अर्थात नवगीत मे युवा स्वर आगे नही आ रहे हैं यह चिंता भी है। यह सच है कि नई सोच का संबन्ध केवल मनुष्य की आयु से नही होता तथापि यदि कुछ और नए नवगीतकार इसमे शामिल होते बेशक कुछ पुराने छूट भी जाते तो इस संग्रह की महत्ता और बढ जाती। तभी संग्रह का शीर्षक और अधिक सार्थक हो पाता। यहाँ रुपहरे चावल तो कई हैं और उन रुपहरे चावलों की बेहद सुन्दर गीत भंगिमाएँ भी हैं ,लेकिन हरियर धान अर्थात गीत के नए स्वर केवल दो ही हैं। तथापि गीत नवगीत के समवेत संकलनो की श्रंखला मे इस संकलन का अपना महत्व तो है ही।
शीर्षक:हरियर धान रुपहरे चावल
सम्पादक:देवेन्द्र शर्मा इन्द्र
प्रकाशन:अनुभव प्रकाशन,गाजियाबाद
वर्ष:2012,मूल्य रु-300/

गुरुवार, मार्च 07, 2013



नवगीत का नया सन्दर्भ-ग्रंथ
डाँ.भारतेन्दु मिश्र
प्रसिद्ध नवगीतकार एवं उत्तरायण के संपादक निर्मल शुक्ल द्वारा संपादित शब्दायन शीर्षक ग्रंथ गतदिनो प्रकाशित हुआ है बल्कि कहूँ कि निर्मल जी ने स्वयं ही प्रकाशित भी किया है तो सही होगा।कई मायने मे यह संकलन बहुत महत्त्वपूर्ण है।अपने विशाल आकार प्रकार के नाते ही नही इसमे संकलित सामग्री भी नवगीत और समकालीन नवगीतकारो को स्थापित करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।जहाँ कुछ मूर्खो द्वारा आत्म स्थापना के लिए नवगीत आन्दोलन की छवि नष्ट की जा रही है वहीं कुछ लोग निर्मल जी की तरह भी चुपचाप काम कर रहे हैं और जो लगातार अपनी उपस्थिति से नवगीत आन्दोलन की आँच को सुरक्षित रखने का जतन कर रहे हैं। इस ग्रंथ की विशेषता है कि यह कन्हैयालाल नन्दन के संकलन -श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन -की तुलना मे तमाम नए सन्दर्भों से लैस होने के नाते अधिक महत्त्वपूर्ण बन गया है।इस नयी इक्कीसवीं सदी मे अब तक का वृहदाकर नवगीत संग्रह तो यह है ही।एक हजार से अधिक पृष्ठों वाले इस ग्र्ंथ के दो पक्ष हैं-एक नवगीतकारो का नवगीत के प्रति दृष्टिकोण और दूसरा-नए से नए नवगीतकार की उपस्थिति,समकालीन चर्चित नवगीतकार तो इसमे शामिल हैं ही।इस ग्रंथ मे 94 रचनाकारो का गद्य है और वरिष्ठ कनिष्ठ कुल-139 नवगीतकारो के चुने हुए यानी प्रतिनिधि गीत संपादक ने चुनकर संकलित किए हैं। कदाचित नवगीत की दिशा मे निर्मल शुक्ल जी का यह कार्य उनकी प्रतिष्ठा के साथ ही नवगीत आन्दोलन को भी प्रतिष्ठित करने वाला है।पठनीयता और सन्दर्भ के रूप मे संग्रहणीयता इस ग्रंथ की खास विशेषता है।

शीर्षक-शब्दायन पृष्ठ-1064, मूल्य-रु1200/ संपादक- निर्मल शुक्ल
प्रकाशन-उत्तरायण प्रकाशन,लखनऊ-226012

शुक्रवार, फ़रवरी 15, 2013



आज भी प्रासंगिक हैं
गीत निराला के

भारतेन्दु मिश्र

युग बीत गया,निराला की कविता नही रीती। वो आज भी प्रासंगिक हैं उनके गीत कालजयी हैं। छन्दोबद्ध कवियों को निराला से बहुत कुछ सीखना है। सन-1923 में निराला का पहला कविता संग्रह –अनामिका- प्रकाशित हुआ। अनामिका में ही अधिवास शीर्षक एक कविता है जिसमें निराला कहते हैं-
मैने मै शैली अपनायी
देखा दुखी एक निज भाई
दुख की छाया पडी हृदय में झट उमड वेदना आयी।
यह कविता सन 1923 या उससे कुछ पहले की ही होनी चाहिए,बहरहाल निराला की कविता का प्रयोजन उनकी इन्ही पंक्तियों से साफ झलकता है कि निराला दुखदग्ध मनुष्य की वेदना के कवि हैं। असल में निराला करुणा के कवि हैं। सरोज स्मृति हिन्दी का पहला शोक गीत है। घनघोर शोक की दशा में भी निराला छन्द नही तोडते। वे दुख को गरल समझकर पी जाने वाले सिद्ध कवि हैं। वे असहाय दीन दुखियों के दुखों के गीतकार हैं। यह वह समय था जब अधिकांश रचनाकार स्वतंत्रता की लडाई के गीत लिख रहे थे। हालाँकि कुछ कवि धर्म और दर्शन की पहेलियाँ सुलझाने में भी लगे थे।निराला की इसी जमीन पर पढीस और बंशीधर शुक्ल जैसे किसान चेतना के कवि भी इसी समय में हुए। यह वह समय था जब भारतीय जीवन मे बहुत तेजी से बदलाव हो रहे थे,लेकिन निराला ने छन्द नही छोडा बल्कि वो तो नए से नए छन्दविधान को स्वर देने मे लगे थे। अत: निराला छन्द साधना के कवि हैं। जब वो कहते हैं -मैने मैं शैली अपनायी- तो इसका अर्थ यही है कि वो अपने समय के छायावादी कवियों से हटकर अपना मार्ग बना रहे थे। यहीं से उनकी मौलिकता का अन्दाज लगाया जा सकता है। निराला के इसी वाक्य को लेकर कुछ आलोचको ने उन्हे छन्दमुक्त कविता का प्रवर्तक और स्वच्छन्दतावादी कवि सिद्ध करने की कोशिश की है,जबकि यह पूरा सच नही था। यदि ऐसा होता तो निराला छन्दहीन कविताएँ ही रचते रहते। निराला तो संवाद धर्मी गीत लिख रहे थे।
-बाँधों न नाव इस ठाँव बन्धु /पूँछेगा सारा गाँव बन्धु। जैसे अनेक गीत निराला ने रचे हैं।किसान चेतना और ग्राम्य जीवन के बहुत से चित्र निराला के गीतों की शक्ति बनकर उभरते हैं ।
निराला की रचनावली में जो कविताएँ संकलित हैं उन्हे देखकर यह साफ हो जाता है कि वे अंततक छन्दोबद्ध कविताएँ ही लिखते रहे,बल्कि निराला नए छन्दो का सृजन भी करते रहे। कविता की अखण्ड लय ही निराला की साधना का मूल है। वे उन विरल कवियो में से हैं जिन्हे संगीत का भी पूरा ज्ञान है। वे राग रागनियों में निबद्ध गीतो की रचना भी करते हैं। उनके अनेक गीतों का सुर ताल सधा हुआ है। वे पक्के राग मे भी गाये जाते हैं। वे सहज रूप मे ही नवगीत की परिभाषा देते हुए चलते हैं-
नवगति नव लय ताल छन्द नव
नवल कंठ नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृन्द को
नव पर नव स्वर दे।..वरदे वीणावादिनि वर दे।
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने अपनी पुस्तक –अनकहा निराला- मे इस बात पर विशेष बल दिया है और निराला के गीतों मे प्रयुक्त रागों की विस्तार से चर्चा करते हुए वे कहते हैं-‘वैसे तो निराला जी ने चित्र और संगीत हीन एक पंक्ति भी नही लिखी ,किंतु कभी कभी उनमें कुछ ऐसा लोकोत्तर अनोखापन आ गया है कि देखते ही बनता है। पृ.194(अनकहा निराला) निराला महाप्राण हैं क्योकि उनके गीतो में दीन जन के प्राण बजते हुए सुने जा सकते हैं। निर्धन लाचार लोगों की पीडा का स्वर उनके गीतो मे सुना जा सकता है। वे छायावाद के निरे सुकुमार कवि नही हैं,वे रहस्यवाद के चमत्कारी कवि भी नही हैं।वे तो प्रगतिशील चेतना के गीतकार हैं।छायावादोत्तर -नवगीत,जनगीत आदि अनेक प्रगतिशील आन्दोलनो को उर्वर भूमि निराला के गीतों से ही मिलती है। संवेदना का जो मार्मिक विस्तार निराला अपने गीतों द्वारा कर चुके हैं उससे बहुत कुछ आगे हमारे गीतकार नही बढ पाये हैं।वैचारिक स्तर पर निराला समाज के अतिदीन दुखी दलित और अंतिम पंक्ति मे खडे व्यक्ति के दुखों की समीक्षा ही नही करते बल्कि सामंतों को टोकते हुए चलते हैं।सन 1929 के आसपास लिखे गये गीत का अंश देखिए-
छोड दो जीवन यों न मलो
ऐठ अकड उसके पथ से तुम रथ पर यों न चलो।
यह पूरा गीत उस समय के सामंतवादी ठाठ के खिलाफ आम आदमी के साथ खडे हुए निराला की गवाही देता है।यह है निराला की काव्य चेतना सामंतवादी ऐठ अकड के खिलाफ दलित जन का समर्थन करती है। निराला यहाँ सच्चे समाजवादी दिखाई देते हैं।दीन दुखी जन के हित में निराला किसी हठयोगी की तरह डटे हुए दिखाई देते हैं तो कहीं ईश्वर से प्रार्थना करते हुए तुलसी जैसे संत कवियों के समीप खडे मिलते हैं- दलित जन पर करो करुणा दीनता पर उतर आये प्रभु तुम्हारी शक्ति अरुणा। ध्यान देने की बात यह है कि निराला का भक्तिभाव स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करने वाला नही है। वे तो अपने सब संचित फल लुटाने वाले हैं।भिक्षुक शीर्षक कविता भी उनकी प्रारम्भिक कविताओ में है। भिक्षुक की लाचारी का इतना सजीव चित्रण सम्भवत:हिन्दी कविता में निराला से पहले अन्यत्र नही मिलता। कलेजे के दो टुकडे करने वाला मार्मिक डृश्य अपना कलेजा चीर कर निराला देखते हैं और दिखाते हैं। करुणा ही चीत्कार करती है निराला की कविता में। इस पूरी कविता को पढने के बाद उनके समय की भुखमरी से उत्पन्न लाचारी का स्पष्ट आकलन किया जा सकता है। निराला का भिक्षुक आजकल जैसा पेशेवर भिखारी नही है-
वह आता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता
पथ पर आता।
भीख माँगने वाले आज भी कम नही हुए हैं बल्कि पेशेवर हो गये हैं। विचारधाराएँ और सरकारें दमतोड चुकी हैं। निराला के भिक्षुक के मन में पश्चात्ताप है। यह बोध ही उसे पेशेवर भिखारियो से अलग करता है। शायद इसीलिए निराला की करुणा फूटकर बह निकली है। निराला कल्पना की कोई गुलाबी उडान के कवि नही हैं। वे असल मे जनकवि भी हैं,महाप्राणत्व की प्रतिष्ठा भी उन्ही में है। यह कविता निराला के श्रेष्ठ प्रगीतो में से एक है। निराला अपने समय में छायावादी रोमानियत को फलाँग कर आगे बढे हैं। अपने समय मे वैचारिक स्तर पर आगे बढना ही तो प्रगतिशीलता है। किसी दल की सदस्यता लेकर किसी खेमे मे शामिल होकर निराला प्रगतिशील नही बने, बल्कि वे तो प्रगति शीलता के अग्रदूत हैं। इसी क्रम में पत्थर तोडती महिला बिम्ब देखें-
वह तोडती पत्थर
देखते देखा उसे मैने इलाहाबाद के पथ पर।
हिन्दी में इस तरह की छान्दसिक कविताएँ निराला से पहले नही लिखी गयीं जिनमें मज्दूर महिला का श्रम सौन्दर्य अंकित हो। ऐसे प्रगीत लिखना तो बहुत बडी साधना की बात है। उनके गीतो मे बिम्बो और प्रतीको के भटकाऊ जंगल नही हैं। उनकी कविताओ में अंत:सलिला की तरह लय धडकती है। वे सीधी सादी भाषा में सुकोमल और भीषण संवेदना के मर्मस्पर्शी कवि हैं। इसी लिए जानकीवल्लभ शास्त्री उन्हे विरोधो के सामंजस्य का कवि कहते हैं। सुकोमल संवेदना की सहज अभिव्यक्ति की दृष्टि से प्रणय और दाम्पत्य के विरल गीत अपने समय में निराला ने रचे हैं,गृहरति व्यंजना का स्वर देखें-
सुख का दिन डूबे डूब जाय
तुमसे न सहज मन ऊब जाय।
खुल जाय न गाँठ मिली मन की
लुट जाय न राशि उठी धन की
सारा जग रूठे रूठ जाय।
जहाँ सहज सौन्दर्य की उन्नत राशि है और जिस दाम्पत्य में एक मन के साथ दूसरे मन की गाँठ कसी है वह बना रहे बेशक काल्पनिक या अनिर्वचनीय सुख का दिन डूबता है तो डूब जाये। फिर तो निराला सारी दुनिया की भी बात नही मानते। दाम्पत्य बोध का ऐसा सुन्दर गीत अन्यत्र हिन्दी मैने नही पढा। इसी प्रकार एक और गीत में दाम्पत्य बोध का निराला का यही स्वर दृष्टव्य है निराला यहाँ भी अपने समकालीनों से अलग अपनी पहचान के साथ खडे हैं-
जैसे हम हैं वैसे ही रहें लिए हाथ एक दूसरे का अतिशय सुख के सागर में बहें।
एक और चित्र देखें-
पिय के हाथ जागाये जागी
ऐसी मैं सो गयी अभागी।
सहयोग साहचर्य और बहुत कुछ संत मत के निकट के सुन्दर चित्र निराला की कविता मे साफ तौर से दिखाई देते हैं जो अपनी सहजता और अनुभूति के कारण आकर्षक लगते हैं। निराला बहुआयामी कवि हैं उनकी कविता के अनेक स्तर हैं उनकी कविता के अनेक स्वर हैं। वो किसी एक विचार या विचारधारा में बँधकर नही चलते। जो नई राह बनाते हैं वो बनी बनायी राह पर कैसे चल सकते हैं। हम कह सकते हैं कि निराला वसुधैव कुटुम्बकं के कवि हैं। जानकीवल्लभ शास्त्री के अनुसार-“ निराला अद्वैतवादी भी हैं,द्वैतवादी भी हैं,भक्त भी हैं और ज्ञानी भी और क्रांतिकारी भी,लौह प्रहार तथा ललकार भी और और आत्म परमात्म मिलन की मधुर झंकार भी।वह वैयक्तिक अनुभूतियों के स्वर्ग में विचरने वाला मुक्त विहग भी हैऔर पतनोन्मुख रूढ प्रिय संस्कृति की विहग बालिका के लिए भयंकर बाज भी,उसमें लौकिक प्रेम की ललक भी है और आध्यात्मिक भूमि पर अनुभूति का आत्मपुलक भी,निराला विरोधों का स्वयं सामंजस्य और सामंजस्यो का विरोध हैं।“ (पृ.117 अनकहा निराला)
यहाँ साफ शब्दों मे कहें तो निराला सिद्ध रचनाकार साबित होते हैं। वो कुशल रचनाकार की तरह सब विचार धाराओ मे से जन्नोन्मुखी संवेदना का चुनाव करते हैं। कुछ कबीर की तरह ‘ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर’ वाली मुद्रा में। अपनी इन्ही विशेषताओ के कारण निराला आधुनिक युग के विशिष्त और युग प्रवर्तक कवि हैं।उनके गीतो को भी मार्क्स,फ्रायड,लोहिया या विवेकानन्द ,अम्बेडकर अथवा गान्धी में से किसी एक की विचारधारा से जोडकर नही देखा जा सकता। निराला इन सभी अपने समय के महापुरुषों के विचारों को सुन समझकर अपनी राह बनाते हैं सम्भवत: इसी लिए वो कहते हैं-“मैने मैं शैली अपनायी”। निराला को जब जो अपने रचनासमय के लिए उपयुक्त जान पडा उसे गृहण किया और जो अनुपयुक्त जान पडा उसे छोड दिया।
निरला की रचनावली और विशेषकर आराधना में प्रकाशित गीतों को पढने से लगता है निराला भक्त कवि हैं।निराला के गीतों मे सूर तुलसी मीरा आदि भक्त कवियों की सी संवेदना की तडप विद्यमान है।यद्यपि वो धार्मिक कर्मकाण्ड वाली आस्था के कवि नही हैं जहाँ एक ओर कहीं वो अपने गीतों में नाम जपने का संकेत देते हैं तो वहीं दूसरी ताल ठोककर खडे होते हैं। राम की शक्ति पूजा में निराला की ओजस्विता और काव्य शक्ति की अनेक भंगिमाएँ स्पष्ट होती हैं तो दूसरी ओर उनके अनेक गीत सहजा भक्ति के मार्ग का अवलम्बन करते हैं। उदाहरणार्थ-

नाचो हे रुद्र ताल/आँचो जग ऋजु अराल।
++++++++++++++++++++++++++
दुख के सुख पियो ज्वाला/शंकर के स्मर-शर की हाला।
+++++++++++++++++++++++++++
कामरूप हरो काम/जपूँ नाम राम-राम।
+++++++++++++++++++++++++++
वरदे वीणा वादिनि वर दे
+++++++++++++++++++++++++++
भारति जय विजय करे/कनक शस्य-कमल धरे।

यह अपने निजी सुख स्वार्थ पूर्ति या स्वर्ग सुख की कामना या ईस्वर से वरदान माँगने की निरी मानवीय मुद्रा नही है। यह निराला का युगधर्म भी है और व्यक्तिगत जीवन का सत्य भी। निराला के गीतो के पुनर्पाठ और नयी पाठचर्या की आवश्यकता है। उनकी छन्दसिक रचनाएँ ही उनके मनोभावो के भेद खोल सकती हैं। वे निरे
प्रयोगवादी भी नही हैं। निराला साफ करते हैं अपने भक्ति भाव को और कहते हैं-
नर जीवन के स्वार्थ सकल
बलि हों तेरे चरणो पर माँ
मेरे श्रम संचित सब फल।
आम तौर पर भक्ति और प्रगति दोनो पृथक मार्ग हैं किंतु निराला की भक्ति में उनकी प्रगतिशीलता साफ नजर आती है-जब वो कहते हैं नर जीवन के स्वार्थ सकल अर्थात मनुष्य जीवन के असंख्य छोटे बडे व्यक्तिगत स्वार्थ सबका बलिदान करता हूँ। इसके आगे कहते हैं–श्रम संचित सब फल-अर्थात अपने परिश्रम से अर्जित कर्मफल का ही अर्पण है। किसी अन्य पूर्वज या अनुज द्वारा अर्जित किसी फल या सम्पदा की बात नही कर रहे हैं निराला क्योकि मनुष्य का अपने श्रम द्वारा अर्जित फल पर ही नैतिक अधिकार होता है। इसके बदले में किसी फल की कामना तो है ही नही । हम इसे निराला की राष्ट्रीय चेतना के रूप में भी व्याख्यायित कर सकते हैं। तात्पर्य यह कि निराला के गीतो में कथ्य और संवेदना के जितने स्तर हैं कदाचित ही किसी दूसरे कवि के पास हों। अत: यह मान लेना कि केवल वैचारिकता के आग्रह में निराला ने छन्द तोड दिया,सही नही है। इस बात को स्वयं उनके गीत ही प्रमाणित करते हैं जहाँ वो नए शिल्प में नयी लय लेकर उपस्थित होते हैं। निराला अपनी सर्जना से तमाम छन्दविरोधियों को उत्तर देते है जैसे शक्ति पूजा में उन्होने राम को सन्देश दिलाया है-“आराधन का दृढ आराधन से दो उत्तर।“ वो सिद्धावस्था के जाग्रत कवि हैं। इसी लिए निराला नयी कविता ही नही नवगीत,जनगीत जैसे आन्दोलनो के प्रेरणा पुरुष के रूप में देखे जाते हैं। नवगीत जनगीत जैसे आन्दोलनो की जो पृष्ठभूमि सन 1950 के आसपास तैयार हो रही थी निराला उस दिशा में 1943 मे ही सार्थक प्रयोग कर चुके थे। बाद में अणिमा में संकलित उनका यह गीत देखिए-
चूँकि यहाँ दाना है इसीलिए दीन है ,दीवाना है। लोग हैं महफिल है नग्में हैं ,साज है,दिलदार है और दिल है शम्मा है,परवाना है। निराला अपने समाज के उपेक्षित जन के लिए अपनी कविता के औजार से लडते रहे। युगदृष्टा साहित्यकार हमेशा से ही अपने समय की समालोचना में उपेक्षा का शिकार रहा है। निराला भी शिकार हुए तब निराला ने अपने समय के आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सम्बोधित यह गीत लिखा-
जब से एफ.ए.फेल हुआ है/हमारे कालेज का बचुआ
नाक दबाकर सम्पुट साधै/महादेव जी को आराधै
भंग छानकर रोज रात को/ खाता माल पुआ
बाल्मीकि को बाबा मानै/नाना व्यासदेव को जानै
चाचा महिषासुर को,दुर्गा जी को सगी बुआ
हिन्दी का लिक्खाड बडा वह/जब देखो तब अडा पडा वह
छायावाद रहस्यवाद के/भावो का बटुआ
धीरे धीरे रगड-रगड कर/श्री गणेश से झगड झगड कर
नत्थाराम बन गया है अब /पहले का नथुआ।
जिस कवि मे आलोचक से आँख मिलाकर बात करने और ताल ठोककर दो हाथ करने की क्षमता होगी वही निराला के स्वाभिमान और उनके गीत की लय को पकड सकता है। बाद मे शुक्ल जी ने निराला जी को पढा भी और उनपर लिखा भी। समर्थ रचनाकार आलोचना की बैसाखी के सहारे खडा नही होता। निराला को अपनी रचना पर दृढ विस्वास था। यह आत्मविश्वास ही उनकी मैं शैली है। कहना न होगा कि निराला के गीत कहीं न कहीं कालिदास,जयदेव,तो कहीं तुलसी मीरा,तो कहीं गुरुदेव रवीन्द्र की गीत परम्परा को आगे बढाते हैं। निराला के गीत इस सीमा तक अपने कथ्य भाषिक-व्यंजना और सवेदना से नए हैं कि बाद के गीतोन्मुख तमाम आन्दोलन उनकी रचनाशीलता का परिविस्तार ही साबित होते हैं। निराला के परवर्ती प्रमुख कवियों में नागार्जुन,त्रिलोचन,केदारनाथ अग्रवाल आदि सभी प्रगतिशीलो ने भी गीत की शक्ति विस्तार ही दिया। निराला के नवगीतो की बानगी देखें- मानव जहाँ बैल घोडा है कैसा तन मन का जोडा है। तथा- बान कूटता है ऐसे बैठे ठाले सुख का राज लूटता है। मुक्तिबोध कविता में जिस मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र की चर्चा करते हैं और डाँ. रामविलास शर्मा जिस श्रम सौन्दर्य की बात करते हैं उसकी रूपरेखा हिन्दी नवगीत के शिल्प मे निराला की देन है।विशेषता यह भी है कि निराला का चिंतन भारतीय काव्यमूल्यो से अनुप्राणित है। अत: उनके गीतों की विवेचना भी भारतीय परिवेष मे विकसित मूल्यों के आधार पर ही की जा सकती है। निराला की कविता में वाक्य और अर्थ कहीं लँगडाता नही है। विराम और अर्धविराम चिन्हों तक का प्रयोग निराला करते चलते हैं।
तात्पर्य यह कि वो अपने पाठ्य को लेकर पूरी तरह सजग हैं।यही कारण है कि निराला के गीत पाठ्य और श्रव्य दोनो रूपों मे सहृदयो को मंत्रमुग्ध करने की क्षमता रखते हैं। निराला ने अपनी कविता के जो मानदण्ड बनाये वो निभाये। इसे ही उन्होने मैं शैली कहा है।घनघोर निराशा की स्थिति में भी वह आशा की किरण खोज ही लेते हैं।आसन्न मृत्यु की स्थिति में संकट की स्थिति में भी निराला गीत का साथ नही छोडते।अपनी अंतिम गीत रचना में वो कहते हैं-
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है
आशा का प्रदीप जलता है हृदय कुंज में
अन्धकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है
दिंड्निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र –पुंज में।
सम्भवत;यही निराला की अंतिम रचना है जो अगस्त 1961 के आसपास रची गयी और सान्ध्यकाकली में संकलित है। इस कविता में भी दिंड्निर्णय ध्रुव से कहकर अपने अटल विश्वास को दृढ करते हैं। निराला अपनी रचनाशीलता की आग को अपनी मुट्ठी में जीवन पर्यंत कसे रहे। तात्पर्य यह है कि निराला की स्वच्छन्दता को छन्दहीनता से जोडकर देखना अनुचित है। निराला के यहाँ छन्द कमजोरी नही है। वह तो सहृदय को आच्छादित करने या हृदयव्यापी बनाने के अर्थ में है। छन्दो के अनंत रूप हैं निराला की कविता में-कहीं लयांविति के रूप में कहीं सांगीतिक लय के रूप में कहीं संवाद धर्मिता के रूप में वो प्रकट होते चलते हैं। डाँ रामविलास शर्मा से बेहतर शायद ही कोई निराला को जान पाया हो।शर्मा जी ने भी निराला की प्रशस्ति अपने एक गीत से ही की थी-
यह कवि अपराजेय निराला जिसको मिला गरल का प्याला
ढहा और तन टूट चुका है पर जिसका माथा न झुका है
शिथिल त्वचा ढलढल है छाती लेकिन अभी सँभाले थाती
और उठाये विजय पताका यह कवि है अपनी जनता का।
निराला अपराजेय हैं क्योकि वह अपनी रचनाशीलता से लगातार जनता से जुडे रहे हैं। निराला समर्थ गीतकार हैं जो टूटकर भी लगातार आत्मस्वाभिमान से उन्नत मस्तक होकर अपनी जनता के दुखों को अपने गीतों से माँजते रहे।
उनका छन्दसौष्ठव और वाक्य विन्यास देखकर उनकी काव्य प्रतिभा का अनुमान लगाया जा सकता है। निराला की गीत परम्परा का विस्तार प्रगतिशील कवियो ने भी किया। बाद में यही परम्परा आगे जाकर नवगीत और जनगीत के रूप में प्रतिफलित हुई जिसके परिणाम स्वरूप राजेन्द्रप्रसाद सिंह,शम्भुनाथ सिंह,मुकुट बिहारी सरोज,रमेश रंजक,ठाकुर प्रसाद सिंह,वीरेन्द्र मिश्र,नईम,उमाकांत मालवीय,देवेन्द्रशर्मा इन्द्र,माहेश्वर तिवारी जैसे अनेक नवगीतकार जनगीतकार उभरे। नवगीत आन्दोलन के बाद छायावादी गीत परम्परा का लगभग अवसान हो गया। निराला की समर्थ गीत प्रतिभा कहीं न कहीं नवगीतकारो को लागातार प्रेरणा देती रही।नई पीढी के नवगीतकारो मे संवेदना के स्तर पर और नई जमीन देखने को मिलती है किंतु छन्दहीन कवितावादियो ने काव्यं गीतेन हन्यते की गलत व्याख्या करके अपनी सुविधा के आधार पर हिन्दी कविता का बहुत आहित किया। दूसरी ओर नये कवियो मे जो नवगीत लिख रहे हैं उनमे वाक्य गठन,भाषिक रचना,तथा सहज सरल जीवन को मुखरित करने वाली समर्थ छन्द रचना का अभाव दिखता है। नये कवि के पास समय नही है।साधना और अभ्यास की कमी इसका मूल कारण है। किसी भी संवेदना को छन्द मे प्रस्तुत किया जा सकता है बशर्ते साधना और अभ्यास किया जाये। निराला अपनी रचनाओ को बार बार माँजते हुए आगे बढते हैं वो कहीं स्वयं को दुहराते नहीं,विचार- भाव- भाषा-शिल्प आदि के प्रयोग उनके यहाँ नए हैं। निराला के बहुत से गीत हैं जिनकी गहन विवेचना होनी चाहिए। यहाँ इस लेख में निराला के गीतो की शक्ति की ओर ध्यान आकर्षित करना भर ही मेरा उद्देश्य है।निराला के यहाँ जीवन और कविता में फर्क नही है।यही कारण है कि निराला के गीत आज के समय में भी प्रासंगिक हैं उनकी छन्दसिकता और जनपक्षधरता की दृष्टि से भी उनके पुनर्पाठ की आवश्यकता बनी हुई है।

फोन-09868031384
e.mail: b.mishra59@gmail.com



रविवार, फ़रवरी 03, 2013


समीक्षा:
                       कुछ और बात होती
                           डाँ.भारतेन्दु मिश्र
 बना रह जख्म तू ताजा-सुभाष वसिष्ठ का पहला गीत संग्रह है। हालाँकि सुभाष वसिष्ठ जी पिछले कई दशको से साहित्य और रंगमंच पर अनेक भूमिकाओ मे सक्रिय रहे हैं। कवि के इन 46 गीतो की रचना बीती सदी के सातवे दशक और आठवे दशक मे हुई  है।अर्थात इस पुस्तक का प्रकाशन दो दशक पूर्व हो जाना चाहिए था जो किन्ही कारणो से अब हो पाया है।बहरहाल कवि गीत की संवेदना को जख्म की तरह गाता रहा है और उसका शायद यह भी मानना है कि यह संवेदना का जख्म सदैव ताजा बना रहे तभी कविता हो सकती है।
रंगमंच से गहरा जुडाव कवि की प्राय: इन अधिकांश गीत रचनाओ मे साफ तौर पर देखने को मिलता है। अनेक गीत -नाट्य संवाद या ड्रमेटिक मोनोलाँग जैसे भी दिखाई देते हैं यदि इन गीतो के साथ पात्रो का रूपक भी शामिल होता तो सम्भवत: इन गीतो की छवि और भी भास्वर हो जाती। दूसरी विशेष बात यह भी है कि इन गीतो को एक बैठकी मे पढ समझ लेना सहज नही है।ये गीत पाठक से तनिक सजगता की माँग करते हैं।भाषिक संरचना की दृष्टि से कवि ने संवेदना के आवेग को नई शब्द व्यंजना दी है।यह भी कह सकते हैं कि कई बार शब्दो का कान उमेठकर अभीप्सित व्यंजना अर्जित की गई है।उदाहरणार्थ-संस्तुतिया-कागज,ध्वस्तेंगी,स्याहिया-जहर,ढिलियाईशासित सहेलियाँ,अतलाए सरगम मधुमासित हो सब-इत्यादि शब्द और वाक्यांश कवि की अनगढ संवेदना का पता बताते हैं तो किसी सामान्य पाठक को ये प्रयोग अटपटे लग सकते हैं।
इसके बावजूद सुभाष वसिष्ठ के इन गीतो मे जहाँ एक ओर सातवे आठवे दशक के नवगीत का भाषिक मुहावरा देखने को मिलता है वही समकालीन जीवन का गहन द्वन्द्व बखूबी उभरता है। इसीलिए मुझे लगता है कि ये गीत गम्भीरता से पढे जाने की माँग करते हैं।कवि के सामने कोई नया रूपक खोजने की छटपटाहट साफ तौर पर पहले गीत से ही दिखाई देती है-साँस ही मुश्किल/नियत आन्दोलनो आबद्ध/पारा कसमसाता है
धुन्ध के आगोश मे जकडा/ठिठुरता गीत अग्नि ले मुस्कराता है।
दिनभर मनुष्य कैसे वस्तु मे ढल कर श्रम करता है यह हम सभी जानते हैं देखिए कवि के शब्दो मे -शुरू हुई दिन की हलचल/गये सभी लोहे मे ढल।
कितनी मार्मिक है यह सहज अभिव्यक्ति।यह यांत्रिकता हमारे जीवन खासकर महानगरीय जीवन की तो कडुवी सच्चाई है।लगातार विभाजित जीवन की त्रासदी से उपजे मानसिक द्वन्द्व को कवि बेहतर ढंग से स्पष्ट करते हुए जो चित्र उपस्थित करता है वह अद्भुत है-
चटक धरती ने कहा /सब/बिन कहे जैसे/हम विभाजित जिन्दगी को जी रहे ऐसे
जुडेपन की प्यास टूटा मन सहे जैसे। इसी प्रकार आम आदमी की तरफ से सकारात्मक सार्थक सोच रखते हुए कवि एक अन्य गीत मे कहता है-एक खुशबू के लिए हम जी रहे हैं/जहर सारा जिन्दगी का पी रहे हैं। ये जो जिन्दगी का जहर है वह हर रचनाकार को पीना होता है यदि वह वास्तव मे कवि है तो उसे दुखो की संवेदना का अनुभव तो करना ही पडता है। सुख की एक क्षणिक सुगन्ध के लिए नमालूम कितने कष्ट सहने का नाम ही तो जीवन है।या सच है कि कवि के पास दुख को माँजने और सुख का पल खोज लाने वाली दृष्टि है। किसी भी रचनाकार के लिए इस दृष्टि का होना ही बडी बात है।जिन्दगी की तल्खियो से प्यार यू ही नही करने लगता है कवि ।सुभाष वसिष्ठ के पास मार्मिक संवेदना के अनेक अनुभव हैं देखिए-कागजी मुस्कान के मधुमास मे खोए/पर तुम्ही ने/सहीपन के बिन्दु कुछ बोए/फैलकर जो हो गये संसार/ओ दरकती जिन्दगी की तल्खियों!/सच/तुम्ही से प्यार। इसी क्रम मे कवि के मन मे आशा का स्वर भी प्रबल होकर उभरता है-
ओ रे मन/होता क्यो इस कदर अधीर/आकाशी पंखो को कभी तो किरन होगी
कभी तो मिटेगी यह स्याहिया लकीर।
संग्रह मे पिता को समर्पित गीत बहुत मार्मिक है।कवि ने पिता को संस्कार देने वाले और आदर्श का पाठ पढाने वाले व्यक्ति के रूप मे स्मरण किया है,सम्भवत: अब जीवन मे वैसा आदर्श नही रहा-ओ 
पिता /तुमने सदा ही सलवटे देखीं कमीजो की/और मेरी जिन्दगी जीवंतता को रही मरती।
ताजे जख्म की संवेदना को लगातार माँजते रहने की कोशिश करते हुए कवि सुभाष वसिष्ठ के ये गीत/नवगीत अपनी संवाद धर्मिता के कारण आकर्षक बन गये हैं।यह संग्रह दो दशक पूर्व आया होता तो कुछ और बात होती फिर भी इन गीतो द्वारा नए गीतकारो को सक्षेप मे और लघु फलक मे अपनी बात कहने का सलीका सीखने का अवसर अवश्य मिलेगा।
शीर्षक:बना रह जख्म तू ताजा
कवि:सुभाषवसिष्ठ
प्रकाशक:शब्दालोक,दिल्ली110094
मूल्य:120/,प्र.वर्ष:2012