रविवार, दिसंबर 23, 2012


समीक्षा
                     श्रेष्ठ नवगीत की उम्मीद
                         डाँ.भारतेन्दु मिश्र
मनोज जैन मधुर हमारे समय के चर्चित युवा हस्ताक्षर हैं। उनके गीतों की भाषा नवगीत के प्रचलित मुहावरे के अत्यंत सन्निकट है। उनका छन्द सध गया है।गीतो की आंतरिक और बाह्य लय भावानुसारी है।इन गीतो की पठनीयता पाठक को अपनी आंतरिक और बाह्य दोनो संरचनाओ के माध्यम से अपनी ओर खींच लेती है।एक बूँद हम शीर्षकप्रस्तुत संग्रह मे कवि के कुल 52 गीत संकलित हैं।मनोज जैन का गीत के प्रति गहरा लगाव है।वस्तुत: गीत लिखना शहद के निर्माण की तरह होता है और कवि लगभग मधुमक्षिकावत होता है-लेकिन यहाँ कवि स्वयं को शहद के रूप मे अभिव्यक्त करता है। जिसका अर्थ यह हुआ कि वह स्वयं अपने गीत मे एकाकार हो गया है। इस प्रकार  कवि की गम्भीरता उसके अपने पहले ही गीत से प्रकट होती है जिसमे वह कहता है-
हित साधन सिद्ध मक्खियाँ/आसपास घूमने लगीं
परजीवी चतुर चीटिंयाँ/मुख अपना चूमने लगीं
दर्द नहीं हो पाया कम/एक बूँद शहद हुए हम।
मनोज जैन के गीतो का स्वर आस्था और प्रबोध का है। सार्थक जीवन मूल्यो के प्रति आस्था कवि का मूल स्वर प्रतीत होता है। संग्रह के अनेक गीतो मे कवि इसी आस्था के अनेक प्रकार दर्शन होते हैं।एक संस्कारी युवामन के गीत हैं ये।देखें-
जब तक साँसे हैं इस तन मे /दीपक जैसा जल।
और –
बस थोडी सी कोशिश भर में/छिपा हुआ है हल
अगर सहेजी आज बूँद तो/बचा रहेगा कल।
यह आस्था कवि के मन मे सतत गीत विधा के प्रति भी साफ दिखाई देती है-
भावना के सिन्धु को हम/ रोज मथते हैं
शब्द लय मे बाँधकर हम /छन्द रचते हैं
गीत दुख के पार जाकर/ठाँव देते हैं।
इसके अतिरिक्त कवि के मन मे लगातार बदले हुए माहौल मे नई तरह से अपने घर और गाँव को चीन्हने की कला विवशता के रूप मे हिलोर भरती रहती है।आधुनिकता बोध के इस वातावरण मे घर और मकान का अंतर बढता जा रहा है मनोज जैन को  भी कुछ ऎसा ही अनुभव होता है गीत की पंक्तियाँ देखें-
मोती चुगने वाली दादी/तिनके चुनती है
हुक्म चलाने वाली कैसे/ ताने सुनती हैं
लगा टकटकी देखा करती/ आसमान में
कुछ दिन पहले ही बदला है/घर मकान में।
यहाँ से या कहे कि इस प्रकार की भावभूमि से जहाँ नवता की संवेदना लय बनकर फूटती है वही से नवगीत के मुहावरे निकट कवि पहुँचता है। यह प्रगति का दौर है जिसमे नई बहुए मकान मालिक बन बैठी हैं जहाँ कहीं दादी ने कभी अपना एक घर बसाया था।इस नवगीत के मुहावरे मे जैसे जैसे कवि सिद्ध होता जाता है उसकी लेखनी मे निखार आता जाता है-
एक मित्र का लगा मुखौटा/हमे लुभाता है
सबकी दुखती रग पर आकर/ हाँथ लगाता है
रिश्ते अभी बनाकर/अभी भुनाने वाला है
रथ विकास का/गाँव हमारे आने वाला है।
समकालीन राजनीति की पहचान बताने वाले ऐसे गीत ही नवगीत के मुहावरे के निकट पहुँचते हैं। संग्रह के अनेक गीतो मे पुरातन की सुखद स्मृति का भाव बार्ंबार कवि ने दुहराया है।पुरातन की स्मृति कोई बुरी बात नही है लेकिन वह स्मृति गौरवपूर्ण हो या अवसाद पूर्ण जब हमारी संवेदना मे कुछ नया जुडता है तभी कविता मे नयापन प्रकट होता है। एकाकीपन अपनो के बीच का अजनबीपन आदि गृहरति के रूप मे भी कई दशको से नवगीतो मे प्रकट होता चला आ रहा है। आम आदमी की बेबसी का एक चित्र देखें-
हम हुए हैं/डाल से चूके हुए/लंगूर
है नियति/जलना धधकना/मन हुआ तन्दूर
मारती है पीठपर/ सुधियाँ निरंतर घन
गाँव जाने से /मुकरता है/हमारा मन।
इसी के आगे कवि गृहरति के इसी भाव को और साफ तौर पर स्पष्ट करता है-
गहन उदासी अम्मा ओढे /शायद ही अब चुप्पी तोडे
चिडिया सी उड जाना चाहे/तन पिंजरे के तार तोडकर
चले गये बाबू जी /घर मे दुनियाभर का दर्द छोडकर।
उत्तर-आधुनिकता के इस समय मे कवि को यांत्रिकता की अनुभूति परेशान करती है। लगातार हम सभी को कुछ नया नए ढंग से करना पड रहा है। वैज्ञानिक और तकनीकी विकास की ये परिस्थितियाँ ही कुछ हम सबसे ऐसा करवा रही हैं।देखिए मनोज जैन क्या कहते हैं-
पकड सुई तुम चलो /पिरोना इसमे हमको हाथी
तारे दिन मे गिनो /करो ई-मेल हमे तुम साथी
स्थितियाँ हैं विकट/इन्ही से हमे उबरना है। 
यहाँ स्थितियाँ शब्द के कारण छन्द मे एक मात्रा की कमी हो गयी है।किंतु मनोज जैन के इस पहले संग्रह को देखते हुए उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले संग्रह मे इस प्रकार की कमी नही रहेगी। समकालीन कविता मे विसंगतियो के स्वर बहुत आकर्षित करते हैं।मनोज के इस संग्रह मे भी विसंगतियो के अनेक बिम्ब हैं।कवि आम आदमी की समस्याओ का पता भी इन विसंगतियो द्वारा बताता चलता है।किसी भी नए कवि की जनपक्षधरता ही उसकी प्रगतिशीलता को प्रमाणित करती है-
मन झरिया का हुआ /कडाही से बतियाने का
चढते भावो ने बदला है/स्वाद जमाने का
छौक लगाना मजबूरी है /अब तो रोज डढेल में
जीना दूभर हुआ हमारा महँगाई के खेल में।
तो ऐसे अनेक गीत है जो मनोज जैन की प्रगति की उम्मीद जगाते हैं लेकिन अभी उन्हे अर्थ की लय को और माँजने की जरूरत है क्योकि कही कही दूरांवय
दोष भी शिल्प के रंग को धूमिल करता है जैसे- दूसरे गीत की दूसरी पक्ति में देखें-
मंजिल तेरे खुद चरणो को/ आकर खुद चूमेगी-के स्थान पर-मंजिल खुद तेरे चरणो को आकर चूमेगी-होता तो अर्थ की चारुता बढ जाती। बहरहाल मनोज जी इस समय के नए गीतकारो मे अग्रणी तो है ही यह निर्विवाद है। उनसे श्रेष्ठ नवगीत की उम्मीद है।उन्हे बधाई।
कृति-एक बूँद हम
कवि-मनोज जैन मधुर
प्रकाशक-पहले पहलप्रकाशन,भोपाल
मूल्य-रु-240/,प्रकाशनवर्ष-2011

गुरुवार, अगस्त 23, 2012


पुण्य जन्मशती स्मरण(व्याख्यान)
              हिन्दी गीत परम्परा मे गोपाल सिह नेपाली
                          डाँ.भारतेन्दु मिश्र
           हिन्दी गीत परम्परा
 हिन्दी में गीत की शुरुआत छायावादी युग से ही मानी जाती है। इससे पहले की कविताएँ भी छन्दोबद्ध थीं लेकिन छायावाद तक आते आते हिन्दी कविता की भाषा और रूप रंग सब बदल गया। हिन्दी खडीबोली मे लिखे गये गीत हिन्दी मे छायावाद के समय मे ही शुरू हुए।प्रसाद का जन्म-सन 1889 मे हुआ निराला का 1896 मे और सुमित्रा नन्दन पंत का जन्म 1900 मे हुआ तो हिन्दी गीत या हिन्दी मे गीत चेतना का शुभारम्भ इन्ही कवियो द्वारा किया गया। यह समय हिन्दी और हिन्दुस्तान के नारे के साथ आगे बढ रहा था।अधिकांश कवि अपनी राष्ट्रीय अस्मिता और अपनी जातीयता के लिए संघर्ष कर रहे थे। हिन्दी गीत के छायावादी स्वर मे प्रेम श्रंगार-दर्शन-प्रकृति वर्णन के साथ ही देश प्रेम की भावना भी उत्कट रूप मे अभिव्यक्त हुई है।
गीत प्रणयानुभूति के बिना नही लिखा जा सकता। पंत ने कहा था-वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान/निकलकर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।   तो कविता  का उत्स ही प्रेम है। बस जब यह प्रेम राष्ट्र के प्रति होता है तो कवि देश भक्ति के गीत रचने लगता है,जब कवि प्रकृति से प्रेम करता है तो प्रकृति का सुकुमार कवि बन जाता है। जब कोई कवि ईश्वर से प्रेम करने लगता है तो भक्ति भाव के गीत/भजन लिखने लगता है,और जब किसी प्रेयसी के प्रति आकर्षित होता है तो वह श्रंगारी कवि बन जाता है। किसी किसी कवि मे प्रेम के विविध रंग एक साथ देखने को मिलते हैं- प्रसाद-पंत-निराला-बालकृष्ण शर्मा नवीन-महादेवी वर्मा-नागार्जुन-केदारनाथ अग्रवाल-आदि ऐसे ही समर्थ कवि हैं जिन्होने हर प्रकार के गीत लिखे लेकिन ये निरे मंच के गीतकार नही थे। दूसरी ओर -हरिवंश राय बच्चन -रामधारी सिंह दिनकर-बलबीर सिंह रंग-गोपाल सिह नेपाली- भवानी प्रसाद मिश्र-आरसी प्रसाद सिंह-जानकीवल्लभ शास्त्री-जैसे गीतकार कवि हैं जिंनका मंच से घनिष्ट सम्बन्ध रहा लेकिन पाठ्य के स्तर पर भी इन सभी की रचनाएँ उतनी ही खरी उतरती हैं। यहाँ इन सभी रचनाकारो के गीतो की ही बात कर रहा हूँ,उन्होने जो कुछ अन्य भी लिखा है उससे मेरा अभिप्राय नही है।

  यही वह समय था जब हिन्दी गीत कविता मे दो वर्ग सामने आने लगे थे। स्वतंत्रता के बहुत बाद तक मंच और गैरमंचीय कविता मे कोई भेद नही था। सन 1950-60 के उस समय में सिनेमा के गीतकारो को भी साहित्यकार ही समझा जाता था।गोपाल सिंह नेपाली-नरेन्द्र शर्मा-साहिर लुधियानवी-शैलेन्द्र-गोपालदास नीरज-वीरेन्द्र मिश्र आदि ने सिनेमा के साथ ही साहित्य की दुनिया मे भी अपने गीतो की छाप और छवि सुगढ और सुन्दर बना रखी थी।लेकिन जैसे हम सातवें दशक तक आते हैं तो यह विभाजक रेखा खिंचने लगती है और आठवे-नवे दशक तक गीत की अस्मिता से मंच पर खिलवाड होने लगता है। इसी बीच यानी सन 1960 के बाद के गीतकारो ने मंचीय प्रपंच से गीत को बचाने के लिए नवगीत का नारा दिया। इसप्रकार जब मंचीय गीत और साहित्यिक गीत मे साफ तौर पर भेद होने लगा। तब साठोत्तरी गीत धीरे धीरे नवगीत मे तब्दील होता गया। बाद मे नवगीत का बडा आन्दोलन उभरा। लेकिन आज भी गीत/नवगीत के कुछ नादान दोस्त लगातार यह खिलवाड कर रहे हैं। बहरहाल गीत की विकास परम्परा कवियों के समय के अनुसार देखने से ही हम जान सकते हैं इसलिए क्रमानुसार गीत के कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं-
प्रसाद(1889)
1.बीती विभावरी जाग री/अम्बर पनग़्हट मे डुबो रही ताराघट ऊषा नागरी।
2.अरुण यह मधुमय देश हमारा/जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।--निराला(1896)
1.सुख का दिनडूबे डूब जाय/तुमसे न सहज मन ऊब जाय/खुल जाय न मिली गाँठ मन की/लुट जाय न उठी राशि धन की
धुल जाय न आन शुभानन की/सारा जग रूठे रूठ जाय।
2.भारति जय विजय करे/कनक शस्य कँवल धरे।
3.बँधो न नाव इस ठाँव बन्धु/पूँछेगा सारा गाँव बन्धु
बालकृष्ण शर्मा नवीन (1897)
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ/जिससे उथल पुथल मच जाए
एक हिलोर इधर से आए/एक हिलोर उधर से आए।
पंत(1900)
छोड द्रुमो की मृदु छाया/तोड प्रकृति से भी माया/बाले तेरे बालजाल मे कैसे उलझा दू लोचन।
महादेवी(1907)
1.मै नीर भरी दुख की बदली/विस्तृत नभ का कोई कोना/मेरा न कभी अपना   होना/परिचय मेरा इतिहास यही/उमडी कल थी मिट आज चली।

हरिवंश राय बच्चन(1907)
1.चाँदनी फैली गगन मे चाह मन में/चाँद निखरा चन्द्रिका निखरी हुई है/भूमि से आकाश तक बिखरी हुई है/काश मै भी यूँ बिखर सकता भुवन में।
2.इस पार प्रिय्र तुम हो मधु है /उस पार न जाने क्या होगा?
3.यह महान दृश्य है /चल रहा मनुष्य है/अस्रु स्वेद रक्त से /लथपथ-लथपथ-लथपथ/अग्निपथ-अग्निपथ-अग्निपथ।
बलबीर सिंह रंग(1911)
अभी निकटता बहुत दूर है/अभी सफलता बहुत दूर है/निर्ममता से नही मुझे तो ममता से भय है/अभी तो केवल परिचय है।
कवि के गीत रिझाते जग को/कवि के गीत रुलाते जग को/इसमे कवि का क्या है/यह तो कविता की जय है/अभी तो केवल परिचय है।
नागार्जुन (1911)
1.अमल धवल गिरि के शिखरो पर बादल को घिरते देखा ऐ/छोटे-छोटे मोती जैसे/उसके शीतल तुहिन कणो को/मानसरोवर के उन स्वर्णिम/कमलो पर गिरते देखा है।
2.कालिदास सच-सच बतलाना/इन्दुमती के मृत्यु शोक से/अज ओया या तुम रोए थे।
3.कई दिनो तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास/कई दिनो तक कानी कुतिया सोई उनके पास।
 केदारनाथ अग्रवाल (1911)
 1.हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!/वही हाँ, वही जो युगों से गगन को
बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए हूँ;/हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
2. मैं /समय की धार में/धँसकर खड़ा हूँ।
मैं/छपाछप/छापते/छल से/लड़ा हूँ
क्योंकि मैं सत् से सधा हूँ-जी रहा हूँ;टूटने वाला नहीं/कच्चा घड़ा हूँ।
भवानी प्रसाद मिश्र (1913)
1.तुम कागज पर लिखते हो /वह सडक झाडता है/तुमव्यापारी/वह धरती मे बीज गाडता है।
2.सतपुडा के घने जंगल/ऊँघते अनमने जंगल।

आरसी प्रसाद सिंह (1913)
आया बन जग मे प्रात: रवि/मै भारत भाग्यविधाता कवि
तोडता अलस जग जाल जटिल/सुकुमार स्नेह धारा उर्मिल/मै पुरुष पुरातन प्रेम दान/चिर कविर्मनीषी सृष्टि प्रान/बरसाती लौह लेखनी पवि/मै विद्रोही इठलाता कवि।
गोपाल सिंह नेपाली
बडा कवि वही होता है जिसका संघर्ष बडा होता है।जिसकी कविताओ मे उसके समय की सच्चाई परिलक्षित होती है और जो अपने समय को दिशा दे सकता हो। बीसवी सदी मे दुनिया भर मे बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहे थे। तमाम देश इसी सदी मे स्वतंत्र हुए। जैसे जैसे देश स्वतंत्र हुए उनकी संस्कृतियो की झलक दुनिया भर मे दिखाई देने लगी। वह आजादी के लिए लगातार एक शाश्वतसंकल्प लेने और उसको याद रखने का समय था। अंग्रेजो के पैर चारो तरफ से उखड रहे थे। ऐसे समय मे सभी कवियो मे राष्ट्रीय भावना की हिलोर साफ दिखाई देती है। मैथिलीशरण गुप्त,जयशंकर प्रसाद,सूर्यकांत त्रिपाठी निरला,माखन लाल चतुर्वेदी,बालकृष्ण शर्मा नवीन,आरसी प्रसाद सिंह,बलबीर सिह रंग,दिनकर आदि कवियो की सारस्वतपरंपरा मे जनमे कविवर गोपाल सिंह नेपाली का हिन्दी साहित्य मे खासकर गीत विधा के कवि के रूप मे बडा महत्व है।आज जिनका हम स्मरण करने के लिए एकत्र हुए हैं वह गोपाल सिंह नेपाली अपने समय की मंचीय कविता की दृष्टि से बहुत आदरणीय रहे हैं।कहा जाता है कि उनकी काव्यपाठ शैली कमाल की थी। हजारो हजार की भीड मे नेपाली जी कविता पढते थे। सन 1960 मे मुजफ्फरपुर के एक महिला कालेज के हीरक जयन्ती समारोह मे तत्कालीन राज्यपाल डाँ.जाकिर हुसैन पधारे थे । दूसरी तरफ वही कविसम्मेलन का आयोजन था।जिसमे नेपाली जी,त्रिलोचन शास्त्री और बेधडक बनारसी शामिल थे। डाँ जाकिर हुसैन साहब ने उन्हे सन्देश भेजा और नेपाली जी से कविता सुनने का आग्रह किया परंतु नेपाली जी ने कहा-आज फिर जनता के आग्रह पर तिलक मैदान मे मेरा काव्यपाठ है महामहिम वहाँ पधारें तो आभारी रहूँगा। डाँ.जाकिर हुसैन नेपाली जी को सुनने वहाँ पहुँचे और सचमुच तृप्त होकर लौटे। नेपाली जी के रचनाविधान मे छन्द की सहजता और सार्थकता साफ दिखाई देती है और यही उनकी कविताई का खास गुण है। निकट आती स्वतंत्रता के बोध का गीत देखिए-
घोर अंधकार हो
चल रही बयार हो
आज द्वारद्वार पर यह दिया बुझे नहीं
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।
    उक्त पंक्तियो से आजादी के सूर्य की प्रतीक्षा करने वाले  कविवर गोपालसिंह नेपाली का जन्म 11-08-1911 को जन्माष्टमी के दिन बेतिया जिला चम्पारण ,बिहार मे हुआ। कहा जाता है कि यह क्षेत्र वही था जहाँ आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की और जहाँ गान्धी जी के सत्याग्रह आन्दोलन  की धमक हमारे इतिहास मे दर्ज है। गान्धी जी ने पूर्वी चम्पारण से ही सत्याग्रह आन्दोलन की शुरुआत की थी।यह सौभाग्य की बात है कि कविवर नेपाली भी उसी क्षेत्र से आते हैं। नेपाली उनका उपनाम था,यद्यपि वो कभी नेपाल मे नही रहे। हाँ नेपाल के निकटवर्ती क्षेत्र मे जनमे होने के कारण उन्होने यह उपनाम रख लिया होगा । उनका परिवार नेपाल मूल का हो यह भी संभावना है। बहरहाल नेपाली जी कवि ही नही भारतीय संस्कृति के व्याख्याता भी थे।अपनी माटी से जुडकर जीवन जीने वाले कवियो मे नेपाली का नाम सर्वोपरि है। कविता खासकर गीत को ही उन्होने अपने जीवन का सर्वस्व समर्पित कर दिया। गीत संगीत और कविताई का जो जादू उस समय के आधिकांश कवियो के यहाँ देखने को मिलता है कुछ उसी दिशा मे नेपाली भी आगे बढते हैं।उस समय कविसम्मेलनो मे आज जैसी भडैती नही होती थी। लोग सच्चे मन से कविता सुनने के लिए आते थे और रात रात भर कविसम्मेलन चलते थे। तब मंचो पर सार्थक गीत रचनाएँ ही पढी और सुनी जाती थीं। ये वो दौर था जब अच्छे कवियो की कविताएँ लोगो को याद हो जाया करती थीं।
  स्वतंत्रता आन्दोलन को नेपाली जी  ने खुली आँखो से देखा था। नेपाली जी के पिता फौजी थे और उनका बचपन देहरादून और मसूरी की प्राकृतिक घाटी मे बीता। यही कारण है कि नेपाली जी को प्रकृति से प्रेम था और अहिंसा से वह बहुत सहमत नहीं थे।गान्धी जी के लन्दन मे हुए गोल मेज सम्मेलन के बाद उन्होने लिखा था-(1931)
              कितनी टूटे रोज लाठियाँ/निरपराध नगे सर पर/होती है दिन रात चढाई/भूखों के रीते घर पर/छोडो यह रोटी का टुकडा/अदना चावल का दाना/आओ मोहन शंख बजाओ/पहने केशरिया बाना।

यह क्रांति का स्वर उनकी कविताई का मूल स्वर है।एक बार इलाहाबाद मे प्रयाग तट पर कविसम्मेलन हो रहा था तो नेपाली जी भी उस कवि सम्मेलन मे उपस्थित थे। उस समारोह मे मुंशी प्रेमचन्द जी भी उपस्थित थे। सुनते  है कि प्रेमचन्द जी ने उनके काव्यपाठ से प्रभावित होकर तब  कहा था-क्या  कविता पेट से ही सीख कर आए हो?-तो वह सच्चे प्रगतिशील कवियो का दौर था।बिहार मे किसान आन्दोलन खूब चलाए गये। नेपाली जी उस समय के किसान काचित्रण करते हुए लिखते हैं---

लटक रहा है सुख कितनो का आज खेत के गन्नो मे/भूखो के भगवान खडे हैं दो-दो मुट्ठी अन्नो में/कर जोडे अपने घर वाले हमसे भिक्षा माँग रहे/किंतु देखते उनकी किस्मत हम पोथी के पन्नो में।

क्रांति का आह्वान करते हुए नेपाली की गर्जना सुने-(1944)
              बढो तुहारे बलिदानो से/मानव जरा उदार बनेगा/बढो तुम्हारे इन कदमो से/जीवन बारंबार बनेगा/बढो लगा दे आग चिता पर/आज गुलामी को जलना है/बढो गीत विप्लव का गाते/थोडी दूर और चलना है।
(देख रहे हैं महल तमाशा-- --नीलिका)
      नेपाली जी छायावादोत्तर कविता मे सामाजिक सरोकारो  से लैस होकर गीत चेतना के साथ उपस्थित होते है और जब जनता को जगने की आवश्यकता थी तब जगाया फिर जब नवनिर्माण का सन्देश देना था तब उन्होने वह सन्देश दिया। नेपाली ओज और विद्रोह के साथ ही नवनिर्माण का स्वर भी देते है।सहज सरल गीतो से हिन्दी कविता के बृहत्तर हिन्दी मानस को गीत की सुदरतम पंक्तियाँ देते हैं।जब पूरे देश मे स्वाधीनता के बाद नवता बोध की प्रगतिशील चेतना चल रही थी जहाँ निराला ने नवगति नवलय ताल छन्द नव- की बात की तो दूसरी ओर नेपाली जी युवको का नवीन प्रगति की दिशा मे आह्वान कर रहे थे-

निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए/तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो,/तुम कल्पना करो।

 यह नवीन कल्पना हमारे समाज को बदलने के लिए थी।यहाँ कवि का संकेत एक प्रगतिशील समाज की ओर है। हमे अपने राष्ट्र के शरीर का श्रंगार करना है,नित नूतन कल्पनाओ से अपने समाज को सजाना है सँवारना है। इसी गीत मे नेपाली जी और आगे कहते हैं-
 
हम थे अभी-अभी गुलाम, यह न भूलना 
करना पड़ा हमें सलाम, यह न भूलना 
रोते फिरे उमर तमाम, यह न भूलना 
था फूट का मिला इनाम, वह न भूलना 

बीती गुलामियाँ, न लौट आएँ फिर कभी 
तुम भावना करो, स्वतंत्र भावना करो
तुम कल्पना करो।(--नवीन-1944)

कवि को चिंता भी है कि कहीं हम पुन: गुलाम न हो जाएँ। खास बात यहाँ देखने की नेपाली जी कहते हैं कि अपनी भावना को स्वतंत्र करो। जब तक स्वातंत्रता का अनुभव नही होगा हमारी कल्पना मे और जीवन की अवधारणाओ मे स्वातंत्र्य चेतना का विकास कैसे होगा ? नेपाली जी याद दिलाते हुए कहते है कि गुलामी के चलते हमे बिला वजह दूसरो को सलाम भी करना पडा किंतु उन परिस्थितियो को हमे भूलना नही है और कोशिश करनी है कि वो बीती हुई गुलामियाँ कहीं फिर न लौट आए। इस लिए स्वतंत्रता का भावन करो और विधिवत आत्मसात करो। अपनी आजादी की सुरक्षा के लिए तलवार भी उठानी पडे तो हमे तैयार रहना चाहिए।
आज भी कहीं हम और हमारा समाज आर्थिक गुलामी की तरफ जा रहा है।तो आज के समाज पर भी नेपाली जी की ये पंक्तियाँ बहुत प्रासंगिक जान पडती हैं। नेपाली जी देश की रक्षा के लिए गान्धीदर्शन के विरोध मे जाकर भी अपनी बात करते हैं क्योकि विभाजन के बाद के भारतीय नेतृत्व मे जो एक आत्मविश्वास की कमी आयी और अहिंसा के दिखावे का वातावरण सृजित किया जा रहा था नेपाली जी उसकी विवशता की ओर संकेत करते हैं। वे अपने खास अन्दाज मे नेहरू जी को सन्देश मे कहते हैं कि शासन तो तलवार से चलता है। वेद कुरान सब तो स्याही से लिखा गया लेकिन आजादी का इतिहास रक्त की धार से लिखा गया है। इस लिए आजादी को अक्षुण्ण रखना हमारे समय की सबसे बडी आवश्यकता है-
सिद्धांत, धर्म कुछ और चीज़, आज़ादी है कुछ और चीज़
सब कुछ है तरु-डाली-पत्ते, आज़ादी है बुनियाद चीज़
इसलिए वेद, गीता, कुर‍आन, दुनिया ने लिखे स्याही से
लेकिन लिक्खा आज़ादी का इतिहास रुधिर की धार से
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
चर्खा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से ।
 देश की परिस्थितियो का उन्हे ज्ञान था। नेपाली जी कविकर्म बहुत महान था लेकिन वह अधिक दिन नही चल पाया और 52 वर्ष की अल्प आयु मे 17अप्रैल-1963 को नेपाली जी का देहावसान हो गया ।नेपाली जी ने पराधीनता के दुख से पीडित भारत और अंग्रेजो की गुलामी से स्वतंत्र दोनो तरह के भारत देखे थे। बटवारे के समय के भारत  देश की हम केवल कल्पना कर सकते हैं जिन लोगो ने खुली आँखो वह समय देखा होगा सहा होगा, उनकी पीडा का अनुमान करना बहुत कठिन है। देश प्रेम भी प्रेम या प्रणय का ही एक रंग है। देश की आर्थिक और सामाजिक दशा को लेकर नेपाली जी के गीतो मे देशप्रेम का विस्तार हुआ है- उनके गीतो पर छायावादी प्रवृत्तियाँ तो  झलकती हैं किंतु वे छायावादी भाषा और अपनी जातीय चेतना के अधिक निकट खडे दिखाई देते हैं।यह छयावादोत्तर प्रगीत का दौर था। जब अधिकांश छन्दोबद्ध कवि प्रगतिशील चेतना के या कहे कि समाज और देश के सामने सुधारवादी रचनाएँ प्रस्तुत कर है थे। राष्ट्रीय चेतना उस प्रगीत काव्यधारा की एक प्रमुख विशेषता थी। अधिकांश गीतकार सीधे सीधे अभिधा मे अपनी जनता के सम्मुख अपनी ओजस्वी शैली मे गीत रख रहे थे। नेपाली जी की कविता मे  जहाँ एक ओर माधुर्य है तो दूसरी ओर व्यंग्य की भी छवि साफ झलकती है-
बदनाम रहे बटमार मगर,
घर तो रखवालों ने लूटा
मेरी दुल्‍हन सी रातों को
,
नौलाख सितारों ने लूटा
दो दिन के रैन-बसेरे में
,
हर चीज़ चुरायी जाती है
दीपक तो जलता रहता है
,
पर रात पराई होती है
गलियों से नैन चुरा लाई
,
तस्‍वीर किसी के मुखड़े की
रह गये खुले भर रात नयन
,
दिल तो दिलदारों ने लूटा।

    प्रेम के कई रंग होते हैं।कवि जब प्रेम करता है तो उसका प्रेम बहुआयमी होता है।नेपाली जी इसी बहुआयामी प्रेम -पथ के पथिक हैं।अपने पडोस और अपने समाज अपनी भाषा और अपनी संस्कृति से उनका बहुत गहरा प्रेम है । अपने रीति रिवाज-अपनी धरती-खेत-बाग-वन-पर्वत-नदियाँ सभी कुछ तो हमारे परिवेष की रचना करते हैं। सच्चा कवि जब प्रेम करता है तो इन सभी चीजो से प्रेम करता है। जब कवि के अनुसार समाज मे बदलाव नही आता तो वह सत्ता को धिक्कारता है।सत्ता के विरुद्ध  संघर्ष का स्वर वही उठाते आये हैं जिन्हे अपनी जनता से प्रेम होता है।  अपने समय और सत्ता की आलोचना करते हुए नेपाली कहते हैं-
 कर्णधार तू बना तो हाथ में लगाम ले 
क्राँति को सफल बना नसीब का न नाम ले 
भेद सर उठा रहा मनुष्य को मिटा रहा 
गिर रहा समाज आज बाजुओं में थाम ले 
त्याग का न दाम ले 
दे बदल नसीब तो ग़रीब का सलाम ले 

यह स्वतन्त्रता नहीं कि एक तो अमीर हो 
दूसरा मनुष्य तो रहे मगर फकीर हो 
न्याय हो तो आर-पार एक ही लकीर हो 
वर्ग की तनातनी न मानती है चाँदनी 
चाँदनी लिए चला तो घूम हर मुकाम ले 
त्याग का न दाम ले 
दे बदल नसीब तो ग़रीब का सलाम ले
         तो नेपाली जी वास्तविक प्रगति और सच्ची प्रगतिशीलता के हामी थे।उनका सपना सच्चे समाजवाद का था-क्रांति का था लेकिन समाजवाद तो तभी सफल होता जब अमीर गरीब की खाई को सही ढंग से भरा जा सकता - वह हो न सका।आज भी हमारे समाज मे अमीर गरीब की खाई लगातार गहरी होती  जा रही है। अब तो भ्रष्टाचार ही हमारे प्रजातंत्र और जीवन का मूल्य बन गया है। अब भ्रष्टाचार  खत्म करने की बात करने वाले ही दण्डित किए जा रहे हैं ।हमारे सामने बडी विकराल परिस्थिति है।
नेपाली जी  के सात काव्य संग्रह प्रकाशित हुए जो क्रमश:-उमंग (1933), पंछी (1934), रागिनी (1935), पंचमी (1942), नवीन (1944), नीलिमा (1945), हिमालय ने पुकारा (1963) हैं। ।यद्यपि नेपाली जी  पत्रकार के रूप मे भी जाने जाते हैं। उन्होने रतलाम टाइम्स जैसे अखबार मे और पटना से योगी जैसी पत्रिका भी निकाली । इसीप्रकार नेपाली जी ने लगभग 300 के करीब फिल्मी भी गीत लिखे हैं।कोई स्थायी आजीविका न होने पर ऐसा करना स्वाभाविक था।लेकिन नेपाली जी की ओजस्वी कवि गीतकार वाली छवि ही बनी रही। गीतकार तो वे थे ही, बिहार मे कृषि चेतना और सामाजिक सरोकारो के साथ राष्ट्रीय चेतना का उभार उस समय जोरो पर था। सामाजिक आन्दोलन और सरोकारो की चेतना से बिहार की धरती हमेशा लैस रही।
    देश की आजादी से एक दशक बाद ही लोगो का मोह भंग होने लगा था। क्रांतिकारियो की कुर्बानियाँ व्यर्थ सी प्रतीत होने लगी थीं।तब ऐसे वातावरण मे नेपाली जी कैसे चुप रहते। उन्होने रोटियो का चन्द्रमा शीर्षक कविता लिखी। सन 1956 मे यह कविता धर्मयुग मे प्रकाशित हुई थी। नेपाली जी का स्वर देखिए-
जो स्वयं भटक रहे,राह वह दिखा रहे/जो रमे महल-महल त्याग वह सिखा रहे/जग हुआ शहीद तो नाम वह लिखा रहे/पंच के प्रपंच की वंचना गयी नही/रोटियाँ गरीब की प्रार्थना बनी रहीं।
       सन 1962 मे नेपाली जी ने जो चीन के आक्रमण के अवसर पर जो गीत लिखे हैं वो लगातार हमे प्रेरणा देते हैं। सम्भवत: उनकी हिमालय कविता इसी समय लिखी गयी थी एक अंश देखिए-
 जैसा यह अटल, अडिग-अविचल, वैसे ही हैं भारतवासी ।
है अमर हिमालय धरती पर, तो भारतवासी अविनाशी ।।
कोई क्‍या हमको ललकारे
हम कभी न हिंसा से हारे
दु:ख देकर हमको क्‍या मारे
गंगा का जल जो भी पी ले, वह दु:ख में भी मुसकाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।
         नेपाली जी हिमालय को भारत का प्रहरी के रूप मे देखते हैं। उस समय के कवि अपना कवि कर्म और धर्म जानते भी थे और निभाते थे।नेपाली जी ने उस समय की समस्त जनता का आह्वान किया था जब चीन ने आक्रमण किया था। देखिए उनकी भाषा और तेवर-

तिब्बत को अगर चीन के करते न हवाले/पडते न हिमालय के शिखर चोर के पाले/समझा न सितारो ने घटाओ का इशारा/चालीस करोडो को हिमालय ने पुकारा।
उस समय की जनसख्या शायद चालीस करोड रही होगी। नेपाली जी ने फिल्मो के लिए भी जो गीत लिखे वो सामाजिक सरोकारो से जुडे हुए हैं।सन-1953 मे आयी फिल्म नागपंचमी के एक गीत की पंक्तियाँ देखें
 अर्थी नहीं नारी का सुहाग जा रहा है
भगवान तेरे घर का सिंगार जा रहा है।
इसी प्रकार  फिल्म नरसी भगत मे उनका एक गीत बहुत चर्चित रहा था-

दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे ।
पानी पी कर प्यास बुझाऊँ
, नैनन को कैसे समझाऊँ ।
आँख मिचौली छोड़ो अब तो
, घट-घट वासी रे ।।
 दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे ।।
      आज जिन महान लेखको /कवियो की जन्मशती के अवसर पर पुण्यस्मरण करने के लिए हम एकत्र हुए हैं नेपाली जी उनमे अत्यंत समादरणीय  हैं । उनकी छवि अपने समय के जनगीतकार की रही है। मुझे लगता है कि जिन ऐसे कृती साहित्यकारो की रचनावलियाँ अभी नही निकल पायी हैं उन्हे भी निकालने का काम करना शेष है। यदि हिन्दी भवन,अथवा कोई अन्य सस्था इस काम को प्राथमिकता के आधार पर चुने तो वह बहुत महत्वपूर्ण काम होगा।इसी के साथ  मै कविवर गोपाल सिंह नेपाली की स्मृति को कोटि-कोटि नमन करता हूँ।हिन्दी भवन के आयोजको के प्रति  आभारी हूँ कि उन्होने मुझे यहाँ आने का यह सुखद अवसर प्रदान किया।
धन्यवाद।

सोमवार, जुलाई 16, 2012

राजेन्द्र गौतम की नवगीत चेतना


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रविवार, अप्रैल 22, 2012


  
                   (1916-2011)

 एक पुराना साक्षात्कार

सम्बन्धो को भुनाया जाता है।

                     *आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री हिन्दी के उन बडे साहित्यकारो मे गिने जाते हैं जिन्होने अपने समय मे हिन्दी साहित्य मे हो रहे तमाम परिवर्तनो को जिया था। वे निसन्देह स्वाभिमानी और अजातशत्रु रचनाकार थे। बार बार निराला मानो उनके सिर पर सवार होकर नाचते थे। वे निराला के ही कहने से संस्कृत से हिन्दी मे आये थे।पद्मश्री से लेकर भारतभारती तक अनेक साहित्य के सम्मानो से सम्मानित रचनाकार के रूप मे उनकी याद सदैव आती रहेगी और यह भी कि उन्होने पद्मश्री स्वीकार करने से मना भी कर दिया था । साहित्य जगत मे महाप्राण निराला के साथ उनके प्रसंग  जहाँ कौतूहल का विषय रहे तो वहीं -हंस बलाका- मे उनके संसमरण धर्मा ललित गद्य से उनकी अलग पहचान बनी। राधा सात खंडो मे प्रकाशित उनका महाकाव्य है। कई उपन्यासे जिनमे कालिदास विशेष रूप से चर्चित रहा। बेला का निरंतर संपादन और अंतिम पुस्तक अनकहा निराला ने उन्हे बहुत यश दिलाया।
 एक बार जब (सन-1987-88)आचार्य जी के कूल्हे की हड्डी टूट गयी और पटना के चिकित्सक उनहे ठीक नही कर सके तब वे अग्रज भाई पाल भसीन के आग्रह पर दिल्ली आये भसीन जी उनके गद्य साहित्य पर शोध कर रहे थे। और उनका अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान मे इलाज हुआ। मुझ सरीखे तमाम नौसिखिए उनदिनो उनके दर्शन हेतु पहुँचते थे। उसी अवसर पर (फरवरी-1988) जब आचार्य जी स्वास्थ्यलाभ कर रहे थे तभी एक दिन उनसे तनिक देर बातचीत करने का मौका मिल पाया था। जो इस प्रकार है-
  भा.मि.- 
आचार्य जी आपकी सद्य:प्रकाशित गीत पुस्तक-श्यामा संगीत-में नील सरस्वती की परिकल्पना आपने की है,जबकि श्यामा सरस्वती के स्थान पर श्वेतवसना सरस्वती की ही क्ल्पना प्राय: साहित्य समाज मे मिलती है। फिर श्यामा सरस्वती से आपका क्या अभिप्राय है..?
  शास्त्री जी --
आप तो संस्कृत के विद्यार्थी हैं..शैव मत से परिचित होंगे-शैव मत मे शिव की शक्ति को श्यामा ही कहा जा सकता है।..फिर जिस काली की कृपा से कालिदास कालिदास बने वह भी तो नील सरस्वती ही है। वही महाकाली है उसे ही निराला ने नीलवसना कहा है।उसको मैने नील सरस्वती के रूप मे श्यामा संगीत मे प्रस्तुत किया,बल्कि स्मरन किया है-
माम श्यामा जान गया/श्याम गगन क्यो है
क्यो सागर श्याम/श्याम मेरा मन क्यो है ?
  भा.मि.
नयी कविता जो छप रही है या जो कविसम्मेलनो मे चल रही है क्या आप उससे संतुष्ट हैं-?

  शास्त्री जी-
कविसम्मेलनो मे जो कविताएँ चल रही हैं वे कविताएँ नही हैं..और छपने वाली कविताओ मे नब्बे प्रतिशत नकल है। बचा दस प्रतिशत वो समसामयिक है। सम्मेलन की कविताएँ तो अनुरंजन के लिए हैं पैसे वाले श्रोताओ के लिए हैं उनको तुकबन्दी कहा जा सकता है कविता नही। छपने वाली कविताओ मे सम्बन्धो को भुनाया जाता है इसीलिए कुछ शाश्वत मौलिक उभरकर सामने नही आता।
  भा.मि.
क्या आप कभी साहित्य के वादो से प्रभावित रहे हैं जैसे प्रयोगवाअ-प्रगतिवाद-जनवाद आदि ?
  शास्त्री जी-
देखिए ये युग का तकाजा है-रचनाओ को कहाँ रखे,इसके लिए समीक्षक को नया स्थान बनाना पडता है इसीलिए समय समय पर ये वाद खडे होते रहते हैं। मै किसी वाद का हामी नहीं हूँ बल्कि समग्रता मेरा उद्देश्य है इसकारण किसी को मेरी रचना घासलेटी लगे तो मै उसकी चिंता भी नही करता।...अब मै त्रिकाल सन्ध्या करता हूँ तो करता हूँ-युग क्यो करे.?.उसी प्रकार मै अपने ढंग से अपना काम करता हूँ उसके साथ कोई वाद जुडे या न जुडे।..प्राचीने कवियो ने जीवन को समग्रता मे ही देखा व जिया था,समग्रता ही मेरी जमीन है,मै अपनी इसी जमीन को स्वीकारता हूँ परंतु किसी पर आरोपित नही करता।
भा.मि.
महाप्राण निराला से आपको हिन्दी मे कविता लिखने की प्रेरणा मिली,क्या यह सत्य है ?
शास्त्री जी-
 निराला जी से परिचय से पूर्व काकली छप चुकी थी,सुधा के सम्पादक थे निराला उनदिनों। दो चार पत्रो द्वारा प्रारम्भिक विमर्श हुआ पुन; वे यकायक बनारस पहुँच गये। वहाँ और तमाम बातो के बीच उन्होने मुझसे मुख्यत; एक ही बात कही-there is nether platform nor place in Sanskrit. अर्थात संस्कृत (कविता करने के लिए)  मे न तो कोई स्थान है और न कोई प्लेटफार्म। उनकी इस बात को मैने गाँठ बाँध लिया और संस्कृत छोडकर हिन्दी मे निकल आया। निराला जी की मातृभाषा बांग्ला थी, संस्कृत मे वे पत्र लिखते थे अंग्रेजी धाराप्रवाह बोलते थे। अनेक भाषाओ पर उनका अधिकार था परंतु कविता के लिए हिन्दी को उन्होने स्वयं चुना और मुझे भी प्रेरित किया।

रविवार, अप्रैल 15, 2012


समीक्षा:-
बुन्देली लय के नवगीत
हेश अनघ हमारे समय के एक महत्वपूर्ण नवगीतकार हैं। झनन झकास के बाद अब कनबतियाँ शीर्षक से उनका दूसरा नवगीत संग्रह प्रकाशित हुआ है। महेश जी अपनी माटी के गीतकार हैं उनके इस संग्रह मे भी बुन्देली भाषा की लय और बिम्ब साफ दिखाई देते हैं। महेश जी के नवगीत ग्वालियर और उसके आसपास की माटी की खुशबू लिए हुए हैं। इसका अर्थ यह नही कि वे बुन्देलखंड तक सीमित है बल्कि कवि का अपनी जमीन पर जमे रहकर पूरे परिवेश को सम्बोधित करना बडी बात होती है। अपने पहले गीत मे महेश जी कहते हैं- समाधान तो नही/मगर जीने की कोशिश है
हरी भरी उम्मीदें हैं/लय भी है-बन्दिश है खारे जल से मै खुशियो के /पाँव पखारा करता हूँ।
खारे जल से खुशियो के पाँव पखारने का अर्थ है आँसुओ से खुशियो का स्वागत करना या दु में सुख के पल जी लेना। ऐसा तब होता है जब मनुष्य को बहुत बडे श्रम के बाद किसी सुखद क्षण की प्राप्ति या उसकी प्रतीक्षा होती है। इस तरह कवि और आगे अपने कविताई के प्रयोजन को स्पष्ट करने का प्रयास करता है।साधना के बिना सुन्दर गीत नही बनते।गोदोहन का विरल चित्र देखिए इसे-भारतीय आंचलिक सांस्कृतिक पहचान और सन्दर्य-छवि के रूप मे देखिए- नन्हे की किलकारी सुनकर/गैया रम्भाई चारो थन पी लें/दोपाए चौपाए भाई भौजी दूध नहाई अम्मा मुस्काई किस्से चले कवित्त चले चुटकुले चले। हामारा लोक अभी बहुत कुछ वैसा ही है जैसा कि हमारे बडे बुजुर्गो के मुहावरो मे सुना जाता रहा है। दूधो नहाना सांस्कृतिक रूप से समृद्धि का प्रतीक है। महेश अनघ के गीतो की यही खूबी मन को सहज रूपसे आकर्षित करती है ।महेश के गीतो मे ध्वन्यालंकार की बडी मोहक शब्द योजना रहती है-मानो शब्द बजते हैं।छन्द एकदम सधा होता है।गेयता की दृष्टि से भी कोई कमी नही होती लेकिन अक्सर महेश जी के गीतो मे समानार्थी शब्दो का ध्वन्यात्मकता के लिए निरर्थक प्रयोग भी मिलता है उदाहरणार्थ-खनन-खनन,चिहुँक-चिहुँक,ठुमक-ठुमक,फुदक-फुदक , जगमग -जगमग,
सोन्धी-सोन्धी आदि। अब देखिए महेश जी कहते हैं- बारहमास रजो गुण है/हम हर मौसम में फलते हैं दाने का न्योता देने/फूलो की तरह निकलते हैं माटी सूरज हवा नमी है/साहब जी आना पकी फसल जैसा/पकने का मन हो।
यहाँ पकने की जगह चखने हो सकता है।यह तो हुई प्रूफ की गलती उसके लिए महेश जी से क्या कहें लेकिन हर समय रजो गुणी होना यानी हर समय गीत लिखते रहना खतरनाक है। हर समय खिलनेवाले फूल की तरह हर मौसम मे यदि गीत पैदा हो भी रहे हैं तो उनमे क्या नैसर्गिक कविताई की गन्ध और अर्थवत्ता बची रह सकती है।यह महेश जी को बताना होगा। इसके बावजूद महेश अनघ के इन गीतो में जो गीत बिम्ब उभरते हैं वे उनके अपने निजी परिवेश के हैं,जिनका चयन बहुत ईमानदारी से किया गया है।कही कही पर समानार्थी शब्दो का दुहराव भी गीत की कलात्मकता को क्षीण करता है। यथा-इसके विपरीत जहाँ कहीं महेश जी अपने मूल सांस्कृतिक बिम्ब को पकडते हैं वहाँ वो मार्मिक हो जाते हैं- नैना मूँदो नेह उघारौ/महके मान तुम्हारो रण से जो मोती लाये हो/हमरे आँचल डारौ जो जीतीं नीरा जागीरें/रस- चौरस पर हारौ।
सब दरबार उठी राजा जी /अब रनिवास पधारो।
तो ये है असली बुन्देली संस्कृति की गीत पंक्तियाँ। इसी प्रकार गीतो से सार्थक होता है इस संकलन का शीर्षक-कनबतियाँ-अर्थात कान मे कही सुनी जाने वाली बातें। इन कनबतियों मे प्यार है-शिकायत है-चुहल है –उत्सवधर्मिता है-सत्ता की आलोचना है-माने वह सब कुछ है जो एक श्रेष्ठ नवगीत संकलन से आपेक्षित है।कनबतिया का अर्थ कुछ कुछ गजल जैसा (कान मे की जानेवाली गुफ्तगू) यानी एकांत में निवेदन की जाने वाली बात होता है। बतिया है तो संवादधर्मिता स्वयमेव आ गयी है।बहरहाल इस संकलन मे कवि के 101 गीत नवगीत संग्रहीत हैं। एक और कनबतिया में दरबार का रूप देखें यहाँ मंत्री राजा के ऊपर बैठे हैं सामंत हैं हाकिम हैं सब अपने मन के मालिक हैं बिल्कुल अन्धेरनगरी के चौपटराजा की तरह जहाँ गरीब के छप्पर /छत की मरम्मत की अर्जी पर सुनवाई करने वाला कोई नही है-
एक छोर सामंत विराजे/एक चोर पर हाकिम थे एक चूर पर चारण चाकरब रूर मे रिमझिम थे चौथा खम्भा बजा रहा था/जैजैवंती धुन।
.......... चर्चा मे शामिल थे दादुर/मसला टाँग खिचाई था जिसकी चली दलील अंत में/वह जोरू का भाई था फटी छान की अर्जी लेकर/ठाडे रहे अपुन।
श्रमजीवी महिला घूरनी ,रमकलिया जैसे पात्र और तमाम ऐसे घर-खेत-ओसारे-खलिहान-गाँव के गीतचित्र महेश अनघ के इस दूसरे गीत संग्रह मे बखूबी देखने को मिलते हैं।


शीर्षक:कनबतियाँ(नवगीत संग्रह)
कवि: महेश अनघ
प्रकाशन:अनुभव प्रकाशन,गाजियाबाद
मूल्य:160/,वर्ष:2011