रविवार, नवंबर 21, 2010

सादतपुर की इन गलियो ने बाबाको चलते देखा है / भारतेन्दु मिश्र


पूर्वी दिल्ली की करावल नगर विधान सभा क्षेत्र मे स्थित सादतपुर बाबा नागार्जुन नगर के नाम से भी जाना जाता है।आज दि.21-11-2010 को सादतपुर निवासियो ने उनके मित्रो साहित्यकारो के साथ मिलकर उनकी जन्मशती के अवसर पर भव्य आयोजन किया। यह आयोजन किसी सरकारी सहायता के बिना बाबा के प्रति कृतज्ञ साहित्यकारो और जनभावना से जुडे साथियो द्वारा किया गया।
आयोजन की शुरुआतप्रात: प्रभात फेरी से हुई। जिसमे बाबा के पोस्टर लेकर सादतपुर के निवासियो और साहित्यकारोने सडको/गलियो मे फेरे लगाए।
समारोह मे मुख्य आकर्षणरही प्रसिद्ध पेण्टर चित्रकार श्री हरिपाल त्यागी की पोस्टर प्रदर्शनी।ये पोस्टर त्यागीजी ने बाबा की कविताओ के साथ-साथ चित्रित किए है। कविता और चित्र का अद्भुत समायोजनइइन पोस्तरो मे दर्शनीय है।इस पोस्टर प्रदर्षनी का उद्घाटन दिल्ली दूरदर्शन (आर्काइव)की निदेशक श्रीमती कमलिनी दत्त और बाबा की पौत्री कणिका मिश्र ने किया।
इस अवसर पर तयागी जी द्वारा निर्मित बाबा के तैल चित्र का अनावरण और उद्घाटन बनारस से पधारे डाँ वाचस्पति मिश्र ने किया।
। मंच पर वरिष्ट आलोचक डाँ.विश्वनाथ त्रिपाठी,डाँ.भगवान सिंह,हरिपाल त्यागी,कमलिनीदत्त, आदि उपस्थित थे।इस अवसर पर डाँ.प्रीति प्रकाश प्रजापति ने बाबा के दो गीतोका सुमधुर गायन प्रस्तुत किया। बाबा के तैल चित्र पर आधारित निर्दोष त्यागी द्वारानिर्मित पोस्टकार्ड और पोस्टर पुस्तिका को भी इसी अवसर पर जारी किया गया। कार्यक्रममे विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने बाबा नागार्जुन की कालजयिता पर प्रकाश डाला।मुरली मनोहरप्रसाद सिंह ने नागार्जुन के जनवादी व्यक्तित्व की घटनाए सुनाई।विष्णुचन्द शर्मा नेकविता सुनाई।रेखा अवस्थी तथा भगवान सिंह ने बाबा के महत्व को सबके सामने रखा।कई सत्रोवाले इस समारोह का संचालन राम कुमार कृषक,हीरालाल नागर,और महेश दर्पण ने किया।इस अवसरपर कुबेरदत्त,सुरेश सलिल ,प्रकाश मनु,रमेश उपाध्याय,दिविक रमेश,क्षितिज शर्मा, राधेश्याम तिवारी,रामनारायण स्वामी आचार्य सारथी,रमेशप्रजापति, रमेश आजाद आदि भी उपस्थित थे।मेरासौभाग्य है कि मुझे भी इस समारोह का हिस्सा बनने का मौका मिला।कार्यक्रम का आयोजन स्थानीय जीवन ज्योति विद्यालय मे किया गया।प्रस्तुत है कविता पोस्टरो की कुछ झलकियाँ-

रविवार, अक्तूबर 24, 2010

धरती पहला छन्द है


दोहे
1
फिर सरिता के कूलपर/फूली सुन्दर काँस
लहर लहर लिखनेलगी/रेती पर उल्लास।
2
चीटी अक्षत लेचढी/जब पीपल के शीश
ब्रह्मराक्षस सेबना/वह पीपल जगदीश।
3
ढलते ढलते ढलरहा/पश्चिम का दिनमान
अब सूरज सेप्रार्थना/लिखे किरण मुस्कान।
4
गीध कर रहे इनदिनो/रावण वध का स्वाँग
ठगी जा रहीजानकी/संत छानते भाँग।

5
फिर उत्सव मुद्राबनी/फिर खुश हैं महराज
नगर दुल्हन सा सजगया/इस चुनाव के ब्याज।
6
रोहित से कहनेलगे/हरिश्चन्द हो खिन्न
दुख ही भोगाउम्रभर/तू पथ चुन ले भिन्न।
7
हरे भरे थेफूलकर/पीले पडे कनेर
दिन फिरने मेआजकल/लगती कितनी देर।
8
काट बरगदो कीजडे/करते हैं उद्योग
गमलों मे बोनेलगे/बौनेपन को लोग।
9
नचिकेता से खुशहुए/तो बोले यमराज
घर कपडा रोटी नकह/स्वर्ग माँग ले आज।
10
हम हैं यह सौभाग्यहै/समय बडा ही ढीठ
चार चाम कीचाबुकें/एक अश्व की पीठ।
11
दस्तक दे कहनेलगा/सुबह सुबह ईमान
कविता मे जीवित रखो/भाईमेरे प्रान।
12
इतनी हो प्रभु कीकृपा/खाली रहे न जेब
घर कपडा रोटी मिले/भले न हो पाजेब।
13
हरे भरे थेफूलकर/पीले पडे कनेर
दिन फिरने मेआजकल/लगती कितनी देर।
14
धूल नहायी चिडी का/था इतना विश्वास
इक दिन बरसेगा यहाम/मुट्ठी भर आकाश।
15
मुँह फेरे लेटे रहे/पहलेदोनो मौन
पुन: परस्परपूछते/वह था,वह थी कौन?
16
बिना लिखे खत मेमिला/ सहमा हुआ गुलाब
और लिफाफे परलिखा/देना मुझे जवाब।
17
निंबिया बोली आम से/भूल गया अनुबन्ध
मै बौरी जब जब मिली/तेरे तन की गन्ध।
18
जिस निकुंज मेखेलते/ थे रति रस के खेल
वहाँ पडोसी बो गया/चिनगारी की बेल।
19
धरती पहला छन्द है/सुने गुने चुपचाप
खरबूजे की फाँक सा/इसे न बाँटे आप।
20
कल गाडी थी नाव पर/अब गाडी पर नाव
समझ सका है आजतक/कौन समय का दाँव।
(कालाय तस्मै नम: से)

सोमवार, अगस्त 23, 2010

कामगर हूँ



शून्य हूँ मैं
है न कोई मान अपना
कामगर हूँ
काम पर है ध्यान अपना।
छोड आया बात सब
बीते दिनों की
काठ सी   
संवेदना रीते पलों की
उम्र की आधी सदी को
पार करके
कुछ नही है
जिसे देखूँ ठहर करके
भूल बैठा हूँ
सकल अपमान अपना।
जुडा जिनके साथ
सबके कद बढे हैं
वो दहाई सैकडा
बनकर खडे हैं
जोडते हैं लोग पीछे
साथ अपने
दिखाते हैं
खूब वैभव सने सपने
टूटता है
ठिठक कर हरबार सपना।
लोग मेरी ही
प्रगति को काटते हैं
कुर्सियों के
रोज तलवे चाटते हैं
चिलचिलाती धूप में
चलता रहा हूँ
किरकिरी बन
आँख में खलता रहा हूँ
हर तरह
साधे रहा ईमान अपना।
(आयु के पचास वर्ष बीत जाने पर)

शुक्रवार, अगस्त 06, 2010


लोकमंगल के नवगीतकार
                    डाँ.भारतेन्दु मिश्र
                शिवबहादुर सिंह भदौरिया नवगीत दशक -1 के सम्मानित रचनाकार हैं।मैने लखनऊ के उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान में अनेक बार उनका काव्यपाठ सुना है।डाँ शम्भुनाथ सिंह ने नवगीत आन्दोलन का जो विराट ताना बाना बुना था उसमे प्रथम पंक्ति के रचनाकारो मे शिवबहादुर सिंह भदौरिया का नाम आता है।
पुरवा जो डोल गयी  उनका चर्चित गीत संग्रह रहा है। उनका काव्य संस्कार अवधी लोक जीवन से निकल कर आता है। उन्होने अपने जनपद रायबरेली को और उसकी माटी की गन्ध को कभी नही छोडा।मैने जब भदौरिया जी को सुना था तब नवगीत दशक-1 छपा ही था। हिन्दी भवन मे हमारे युवारचनाकार मंच के तमाम साथी अक्सर गोष्ठियों मे आया करते थे। यह समय सन1981 से1986 के बीच का रहा होगा। उनकी धीर गम्भीर छवि आज भी मेरे मन पर अंकित है। नवगीत दशक पढने का अवसर बाद में मिला लेकिन उनके जो गीत मुझे याद आते हैं उनमे गहरी मार्मिक व्यंजना छिपी हुई है-


मेरी कोशिश है कि
नदी का बहना मुझमें हो
मै न रुकूं संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में
मेरा बदन काटकर नहरें
ले जायें पानी ऊसर में
जहाँ कहीं हो
बंजरपन का मरना मुझमे हो।
ये पंक्तियाँ अपने लोक के आलोक मे अपने परिवेश को पहचाने बिना सम्भव नही है । अपनी धरती की प्यास बुझाने की ललक ही उन्हे लोक से जुडा हुआ प्रमाणित करती है।अपने परिवेश के बंजरपन को मिटाने के लिए कवि दधीचि की तरह अपने आपको काटने तक की बात करता है।लोक मंगल की भावना और अपने लोक के लिए कुछ करने का संकल्प जगाने वाली पंक्तियाँ फैशनेबल तुकबन्दी से और मंच की रंगबाजी से नही आतीं। भदौरिया जी को मैने शांत गम्भीर किंतु अपनी बात कहने के लिए बेचैन होते भी देखा है।यह अभिव्यक्ति की तडप अच्छे और बडे कवियों मे ही पायी जाती है। कह सकता हूँ कि वे रायबरेली के अकेले बडे कवि है जिनके बाद दिनेश सिंह,ओमप्रकाश सिंह आदि का नाम आता है। वे लोक मंगल के नवगीतकार हैं।
 एक और गीत याद आता है उनका जो हम युवा साथियो को अच्छा लगता था-
सूख रहे धान और पोखर का जल
चलो पिया गुहरायें बादल-बादल।
लदे कहाँ नीबू या फालसे करौदे
बये ने बनाये हैं कहाँ घर घरौदे
पपिहे ने रचे कहाँ गीत के महल
गजल कहाँ कह पाये ताल मे कँवल।
पौधो की कजरायी धूप ले गयी
रात भी उमंगो के रूप ले गयी
द्वारे पुरवाई खटकाती साँकल
आया है लेने कंगन या पायल।
इन्द्र को मनायेंगे टुटकों के बल
रात ढले निर्वसना जोतेगी हल
दे जाना तन-मन से होकर निर्मल
कोंछ भर चबेना औ लोटे भर जल।
 यह पूरा का पूरा गीत कवि की अपने परिवेश के प्रति आसक्ति का उदाहरण है।कृषि चेतना ही तो जनपद के कवि को धरती बादल और आसमान से जोडती है। निराला हो या मुक्तिबोध दोनो ने अपने परिवेश की चेतना को अंत तक अपनी रचनाधर्मिता का अनिवार्य अंग बनाये रखा। यह सूखे का गीत जहाँ कृषक दम्पति इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए लोकानुसारी जतन कर रहे हैं। ये टोटके और ये जतन किअतने कारगर हैं यह अलग बात है,महत्वपूर्ण है वह संवेदना जो इस पूरे कृषक समाज के हित से जुडी हुई है। लोक में ऐसी मान्यता रही है कि सूखे में इन्द्र देवता को प्रसन्न करने के लिए जब स्त्रियाँ निर्वसन होकर रात मे खेत जोतती हैं तो देवता प्रसन्न होते हैं और पानी बरसने लगता है।भदौरिया जी ने इसी सूक्ष्म संवेदना को इस गीत में बडे कलात्मक तरीके से पिरोया है। तात्पर्य यह है कि हम स्त्री पुरुष सब पानी के बिना अधूरे हैं।इसी लिए कृषक की पत्नी कहती है-चलो पिया गुहरायें बादल-बादल यह एक प्रकार का जनहित मे लिया गया संकल्प है। कोंछ भर चबेना और लोटा भर जल का तो जवाब नही है। जो श्रमश्लथ कृषक पत्नी को हल जोतने के बाद आवश्यक होगा। इस अनुपम श्रम सौन्दर्य की व्यंजना का अर्थ और महत्व वही समझ सकता है जो चबेना और पानी की संस्कृति को जानता है। केदारनाथ अग्रवाल-नागार्जुन-त्रिलोचन आदि के यहाँ श्रम सौन्दर्य और प्रगतिशीलता का अद्भुत सामंजस्य देखने को मिलता है। इसीलिए वे बडे कवि हैं। इस अर्थ मे भदौरिया जी भी हमारे समय के बडे नवगीतकार हैं।
मौसम और ऋतु को कई तरह से अनेक कवियों ने लिखा है लेकिन यहाँ भदौरिया जी की अभिव्यक्ति अपनी मौलिकता के कारण सबसे अलग दिखायी देती है। अवधी भाषा और अवध की जीवन शैली कवि की रचनात्मकता को आलोकित करती है। सुना है कुछ और काव्य संग्रह भी भदौरिया जी के प्रकाशित हुए हैं किंतु बाद की पुस्तकें पढने का सुयोग मुझे नही मिला। अंतत: चौरासी वर्ष की आयु में हम सबको यही प्रार्थना करनी चाहिए कि आदरणीय भदौरिया जी दीर्घायु हों और दूरतक हम सबका मार्गदर्शन करते रहें।
काव्यालोक  के सभी साथियों को अभिवादन सहित।

  





गुरुवार, जुलाई 22, 2010

समकालीन गीत : आलोचना के आयाम


भारतेन्दु मिश्र



हिन्दी कविता मे सर्वाधिक अंश गीत का है,स्वातंत्र्योत्तर गीत से ही विकसित हुए हैं :-नवगीत और जनगीत ,दोनो एकही सिक्के दो पहलू हैं। गीत की संवेदना वृत्ताकार होकर शब्दलय और अर्थलय की परिधियों को पार कर जीवन की केन्द्रीय लय तक पहुँचती है उसे ही रसानुभूति या रसलय कह सकते हैं।जीवन की केन्द्रीय लय तो जन्म से ही हमारी साँसों मे व्याप्त है। जैसे जैसे हमारे जीवन के सौन्दर्यमूल्य विकसित हुए हैं वैसी ही काव्य की अनुभूति हमें होती है। हमारे आचार्यों ने काव्य को सामान्य तौर पर व्यंजना के आधार पर उत्तम,मद्धयम और अधम तीन प्रकार का माना है। मम्मट आदि,के अनुसार हमारा नवगीत भी इन तीनो श्रेणियो मे रखा जा सकता है। अर्थात कही वह लय सहज है तो कही उसे पकडना पडता है तो कहीं वह टूट भी जाती है। हमारे प्रारम्भिक कवितापारखी, कलापारखी और रंगमंचकार भरत ने कहा था-अलातचक्रप्रतिमम कर्तव्यो नाट्य योक्तृभि:अर्थात नाटक को अलातचक्र के समान सृजित करना चाहिए।अलात चक्र अर्थात आग का वह गोला जो तमाशा करने वाले मदारी द्वारा जलता हुआ पलीता बाँधे हुए दण्ड को घुमाने से निर्मित होते हैं। उसकी वास्तव मे कोई सत्ता नही होती किंतु वह अपने सृजन से लेकर अवसान तक दर्शक को बाँधकर रखता है। वहाँ महत्वपूर्ण संतुलन होता है। संतुलन बिगडते ही आग के गोले की रचना बन्द हो जाती है,अर्थात कलात्मक सुख समाप्त हो जाता है। अर्थात संतुलन ही कला की सबसे बडी विशेषता है। गीत मूलत: काव्य कला का ही एक रूप है उसमें जहाँ कहीं भी संतुलन का अभाव होगा वहाँ वह गीत नही बन पायेगा।

समकालीन गीत के परिदृश्य में पारम्परिक शैली के गीत के अलावा हर एक गीतकार –नवगीत और जनगीत दोनो तरह की रचनाएँ लिख रहा है।जनगीत हो या नवगीत रचना मे गीति और छन्द का सही निर्वाह तो होना ही चाहिए। लेकिन आज कल अपने आपको प्रतिष्ठित करने के लिए ऐसी होड मची है कि कोई तो स्वयं को लघुगीत का जनक साबित करने मे लगा है, तो कोई गीतनवांतर आन्दोलन चला रहा है। जिसको देखो वह बिना किसी दृष्टि के निरुद्देश्य आठ-दस कवियों को लेकर संकलन सम्पादित किए चला जा रहा है-कि उसके नाम से एक किताब आ जाये और उसे सम्पादक का गौरव मिल सके। कोई अपनी पुरानी रचनाओं को फिर से झाड -पोंछ्कर नई के रूप में प्रस्तुत कर रहा है,कोई पत्रिका के आयोजन के माध्यम से आत्मप्रतिष्ठा मे लगा है। इन चालाकियों से न तो कोई प्रतिष्ठित होता है और न कोई महान बना है। कारण यही है कि समीक्षा/आलोचना का नितांत अभाव है। हमारे कई वरिष्ठ कवि लगातार अपने आपको दुहरा रहे हैं।एक ओर इण्टरनेट पर नवगीत की पाठशाला चल रही है। तमाम देश विदेश के कवि वहाँ नवगीत लिख रहे हैं। दुनिया भर मे पढे भी जा रहे हैं।लगातर व्यक्तिगत गीत /नवगीत संग्रह छप रहे हैं।आलोचना को न सह पाना सत्य को न स्वीकारने जैसा होता है। अधिकतर नये कवियों के छन्द लडखडा रहे हैं। छन्द पूरा है तो अर्थ की लय टूटी हुई है।सब जल्दी में हैं जब हम गीत की समीक्षा की बात करेंगे तो उसके क्राफ़्ट और टेक्स्ट दोनो पर विचार करना ही होगा। यह समय गीत के विविध प्रयोग और उनके आयामो को व्याख्यायित करने का है। न कि गीत नवगीत जनगीत के नामकरण को लेकर बहस करने का।हमने अपने समीक्षा कौशल के नाम पर गीत और नवगीत के नामकरण पर निरर्थक लम्बी बहसें की हैं। जब प्रलेस (1936) से जुडे कुछ कावियों/शायरों ने इफ्टा का गठन किया तो कैफी आजमी जैसे शायर जनता के बीच जाकर प्रलेस के अधिवेशनों में अपनी शायरी प्रस्तुत करते थे। बाद मे प्रगतिशील विचारों से जुडे कवियों ने जनगीत का नारा दिया। वे सचमुच समूह मे जाकर जन जागरण करते थे। लखनऊ के रवीन्द्र नागर जैसे गायकों से जिन लोगों ने प्रगतिशील कवियों(केदारनाथ अग्रवाल,नागार्जुन,शमशेर,त्रिलोचन आदि) का कविता पाठ सुना है वे जानते होंगे कि काव्यपाठ शैली किसे कहते हैं।रवीन्द्र नागर ऐसे ही जनगायक हैं।वे भी इफ्टा से जुडे रहे है।

चौथे,पाँचवे दशक में यह नवगीत आन्दोलन जो नई कविता के समय से शुरू हुआ था उसी के समकक्ष वर्गीय चेतना को प्रखर बनाने के लिए नुक्कड नाटकों,में प्रयुक्त गीतों द्वारा जनजागरण का कार्य भी शुरू किया गया। रमेश रंजक जनगीत के प्रमुख उन्नायक थे। हम यह भी कह सकते हैं कि नवगीत दशक योजना में शामिल न हो पाने की खीझ ने उन्हे जनगीतकार बनाया। अधिक शराब पीने,और गालियों से बात करने के कारण उनकी व्यक्तिगत छवि अच्छी नही थी हाँलाकि वे सचमुच बहुत श्रेष्ठ गीतकार थे।उन्हे उनके तथाकथित अपनों ने ही स्वीकार नही किया था। अपनों द्वारा स्वीकार न किया जाना बहुत मारक होता है।जैसा कि प्राचीन नाटककार भास ने कहा था-शरीरे अरि: प्रहरति हृदये स्वजनस्तथा। अर्थात दुश्मन तो शरीर पर वार करता है लेकिन अपना व्यक्ति हृदय पर प्रहार करता है।शरीर के प्रहार से मनुष्य बच सकता है किंतु हृदय पर वार करने से मनुष्य का मरना तय हो जाता है। रमेश रंजक जी के अंतिम दिन बहुत निराशा मे कटे। नचिकेता जी का उत्तरायण में छपा लेख नवगीत के जनबोध की हकीकत में नवगीत बनाम जनगीत की बहस है।उन्होने सप्रमाण श्रीकृष्ण तिवारी,देवेन्द्र शर्मा इन्द्र और कुमार रवीन्द्र के गीतों के अंश देते हुए अपनी बात रखी है। उन्हे बधाई कि साफगोई से नवगीत में यह आलोचना की परम्परा देर से ही सही आगे तो चलती हुई दिखाई दे रही है।बहुत प्रसन्नता हुई कि नवगीत के टेक्स्ट पर उन्होने बात की। मैने कुमार रवीन्द्र जी का लेख नही पढा। उत्तरायण के सम्पादक निर्मल शुक्ल को भी साधुवाद कि उन्होने बहस शुरू की। बात निकली है तो फिर दूर तलक जायेगी। सवाल यह है कि गीत नवगीत की आलोचना के सिद्धांत या औजार कौन से होंगे?अब सवाल यह भी उठता है कि मार्क्सवादी विचारधारा के अलावा क्या हमारे साहित्य के समाजशास्त्र मे और कोई विचार या धारा है ? यदि है तो कितनी महत्वपूर्ण और दूरगामी है? जलेस ने रमेश रंजक के लिए क्या किया ? मैने व्यक्तिगत तौर पर उन्हे जनवादी लेखक संघ के दफ्तर में चंचल चौहान जैसों से अगीत और जनगीत की अकेले लडाई लडते देखा है। जनवादियों ने उन्हे तब कवि नही माना था शम्भुनाथ जी ने अपने दुराग्रह के चलते उन्हे ही नही शलभ श्रीराम सिंह,शांतिसुमन और वीरेन्द्र मिश्र को नवगीतकार नही माना।हालाँकि जिन तीस कवियों को उन्होने नवगीतकार माना उनका क्या हस्र हुआ? यह अलग सवाल है।

विचार कोई जड वस्तु नही होती उसकी धारा में भी परिवर्तन होता है।.रूस मे पेरेस्त्रायिका लागू होने के बाद से पूरी दुनिया में बदलाव हुआ,अभी पश्चिम बंगाल में सिन्गुर ग्राम मे वर्ग चेतना की ही नही बल्कि आम जन की धज्जियाँ कलावादियों ने नही बल्कि मार्क्सवादी काडर द्वारा उडायी जा चुकी हैं।जिन्हे आम आदमी से जुडे होने के कारण कामरेड कहा जाता था उनमें से अधिकांश नवसामंत बन गये हैं। अभी-अभी अमरीका जैसे पूँजीवादी देश मे ओबामा की अध्यक्षता में कामन हेल्थ बिल पास हुआ तो सबकी आँखे खुल गयी हैं-कि पूँजीवादी देश में यह कामन मैन का फार्मूला कहाँ से आया? यह अंतर्विरोध और विरोधाभास अक्सर हर समाज में होता है । आज जब मार्क्सवाद और उसके वैचारिक पक्ष और वर्गीय चेतना का अवमूल्यन हो चुका है जब कामरेडों की घृणित सच्चाई सजग कवि के सामने समकालीन गीत के रूप में आने लगी है तो हमें सावधान होने की जरूरत है। क्या फर्क पडता है कि आप कवि को नवगीतकार कहें या जनगीतकार मानें- कमरों मे कामरेड बैठे हैं सडकों पर खून बह रहा है।.यश मालवीय,

और हम सब मूक दर्शक हैं।हर एक कवि के यहाँ कुछ रचनाएँ पारम्परिक गीत,या नवगीत या फिर जनगीत हो सकती हैं।यह मेरी संकल्पना है। यह कवि की मानसिकता और उसकी निर्मिति पर निर्भर करेगा। जहाँ तक मार्क्सवादी समीक्षा सिद्धांत की बात है तो उसकी कुछ बातें हम सभी स्वीकार करते हैं । आम आदमी के अधिकार के लिए संघर्ष का स्वर देने में गीतकार नवगीतकार पीछे नही रहे।श्रम सौन्दर्य की उपेक्षा नवगीत ने कभी नही की। लेकिन भारतीय सौन्दर्य चेतना का उत्स तो ऋग्वेदकालीन समाज से ही विकसित हुआ और बाद में सामभ्यो गीत मेव च की सदियों पुरानी भरत मुनि की अवधरणा से जुडा है।हमें उसकी सनातनता पर भी ध्यान देना होगा। गीत की रचना उसकी रससिद्धि से जुडा मामला है,वह केवल संवेग के विरेचन से जुडा मामला भर नही है। खण्डित लय और छन्द वाली कविताओं को हम गीत कैसे मान सकते हैं? केवल नामवर जी,मैनेजर जी या प्रभाकर श्रोत्रिय जी हमारे आदर्श समीक्षक विचारक कैसे हो सकते हैं? वे जब समीक्षा की बात करते हैं तो उनके सामने गीत बिल्कुल नही होता।हम उनके औजारों को गीत की समीक्षा में कैसे शामिल कर सकते हैं? जैसा कि नचिकेता जी उन्हे कोड करते हुए अपनी बात रखते हैं।मैने देखा है स्व.रमानाथ अवस्थी को नामवर जी के सामने गिडगिडाते हुए –हे नामवर अब बेचारे गरीब गीत पर रहम करो ,कुछ लिखो।‘श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन (सं.कन्हैया लाला नन्दन) के लोकार्पण के अवसर पर ,तब नामवर जी ने साहित्य अकादमी के मंच से कहा था-‘गीत मेरेलिए आलोचना से परे है।जैसा कि भागवत मे गोपी प्रेम के विषय मे कृष्ण ने कहा था-अनालोच्यो हि प्रेम्ण:।अर्थात जैसे गोपीप्रेम आलोचना का विषय नही हो सकता वैसे ही गीत मेरे लिए आलोचना का विषय नही है।‘ साहित्य अकादमी के सभागार मे एक ठहाका गूँजा था। इसप्रकार उड गया था सारा विचार हँसी में,तो इन लोगों ने कभी छन्दोबद्ध कविता को सकारात्मक कविता नही माना। उनके लिए,राजेश जोशी,मंगलेश डबराल,अरुण कमल आदि बडे कवि हैं ये सभी कितनी बार किसानों मजदूरों के साथ जेल गये हैं या उनके लिए पुलिस की लाठी खायी है,शायद ही किसी कवि को मालूम हो ,यह जरूर है कि ये सभी जनवादी राजनीति से जुडे रहे हैं। यह भी मालूम है कि नामवर जी और मंगलेश डबराल दोनो एक साथ सहारा श्री के दफ्तर मे नौकरी कर चुके हैं। सहारा श्री की छवि मार्क्सवादी या जनवादी तो कभी नही रही है।इनकी जनवादी वैचारिक प्रतिबद्धता के ऐसे अनेक प्रमाण हैं। ज्ञातव्य है कि मंगलेश डबराल ने वागर्थ मे छपे अपने एक साक्षातकार में गीतकारों को भाँड कहा था, तब संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय थे।ये सब प्रायोजित गोष्ठियों के अवसरवादी कलाकार हैं सुरेश सलिल के शब्दों में जो- गंगा गये गंगादास जमुना गये जमुनादास।..हो गये हैं,जो बडे अधिकारी, पत्रकार, निजी विद्यार्थी ,या बडे प्रकाशकों और उनके हितों के लिए काम करते रहे हैं तथा ऐसे कवियों को बडे-बडे पुरस्कार आदि दिलाने में इन्ही की भूमिका रहती है।ये अवसरानुकूल अपनों को स्थापित करने मे ही ये लगे रहते हैं। ये और इनके कुछ साथी ही सभी जगह समितियों मे निर्णायक है । तद्भव-2 मे छपी डाँ.नामवर सिंह की आत्मकथा पढने से बहुत निराशा होती है। ये परिस्थितियाँ आक्रांत तो करती है,लेकिन गीतकार को इनसे घबराने की जरूरत नही है। इनका विचार या चिंतन ही अंतिम सत्य नही हो सकता।हम सब- जब तब उनके दोहरे तेहरे वैचारिक विचलन और जीवन को देखते रहे हैं। ये चकित करने वाले हैं हमारी मिट्टी मे जनमी कविता की जडें खोदने के लिए विदेशी औजार इन्ही लोगों ने खोजे हैं। यही कारण है कि हमारा नवयुवक आज भारतीय चिंतन प्रक्रिया से कट गया है। आज का समीक्षक ब्रेख्त,चेमस्की,क्रिस्टोफर काडबेल,शिम्बोस्र्का जैसे विदेशी चिंतकों के विचारों के आधार पर सरोज स्मृति,राम की शक्तिपूजा,और तुलसीदास जैसी महान कविताओ को पीछे ढकेल कर मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस से दो दो हाथ करने की नाकाम कोशिश करते हैं।उसके सामने ,भरत,दण्डी,आनन्दवर्धन,अभिनवगुप्त,मम्मट, आदि नही हैं,क्योकि इन लोगों ने कवि को उसके लोक सन्दर्भ से काटकर उसकी व्याख्या अपने औजारों से की है। ये अभिनवगुप्त,रामचन्द्र शुक्ल,राहुल सांकृत्यायन और हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्य मनीषियों को मूर्ख मान बैठे हैं। महात्मा गाँधी को भी ये उल्लेखनीय विचारक नही मानते।अगर रामविलास शर्मा जैसा समन्वयवादी आलोचक निराला को नही मिलता तो इन्होने निराला को भी खारिज कर दिया होता। ये वही लोग हैं जिन्होने रामविलास शर्मा जैसे महान मार्क्सवादी विचारक को भी हिन्दुत्ववादी घोषित कर डाला। क्योकि रामविलास जी जानते थे कि कोई एक विचार या धारा या विचार धारा ही हमारे समाज का प्रतिनिधित्व नही करती। हमारा समाज बहुलतावादी रहा है। हर समाज का आम आदमी कह सकता है- जिस तरह तू सोचता है उस तरह तू लिख और इसके बाद भी मुझसे बडा तू दिख। * भवानी प्रसाद मिश्र या कि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के शब्दों में- सब अपनी अपनी कहते हैं कोई न किसी की सुनता है,नाहक कोई सिर धुनता है दिल बहलाने को चल फिर कर,फिर सब अपने में रहते हैं।

कविता के सरोकार आम आदमी से जुडे होने चाहिए इसमें कोई दो राय नही है। बहरहाल आज के समीक्षक को ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के भरत मुनि का नाम तक ज्ञात नही है।वह यह भी नही जानता कि भरत ही सर्व प्रथम भारतीय कलाविद रंगप्रयोक्ता और कला विश्लेशक हैं जिनके नाट्यशास्त्र की रचना स्त्रियों और दलित जातियों के लिए हुई थी। नमालूम कितने विविध जातियों के भरतपुत्रों ने मिलकर उस महाग्रंथ का समाज के हित में प्रयोग किया। कविता,नृत्य,अभिनय,वास्तु,चित्रकला,भाषा,व्याकरण,गीत- संगीत आदि के साथ लोक और जीवन के प्राय: सभी पक्षों पर वहाँ भी विचार किया गया है।भरत कहते हैं-तस्माल्लोकप्रमाणम हि विज्ञेयम नाट्यम

अर्थात नाटक या कला की श्रेष्ठता का अंतिम प्रमाण लोक है। लोक क्या है?-- जिसके आलोक में जन के सारे क्रिया व्यापार चलते हैं-वह लोक है, उसी में कविता भी है, गीत भी है। वहाँ लोक और जन का भेद नही है। वहाँ लोक भाषा,लोक रीत,लोक कलाएँ,लोक गीत,लोकमंच,सबकुछ है। वहाँ लोकजन भी है और अभिजन भी है किंतु वह ग्रामीड और नागर के रूप में है।अत:हमे लोक शब्द का अर्थ किसी बर्तोल्त ब्रेस्ट आदि से पूछने की जरूरत नही है। अब तनिक आज के हमारे सामाजिक ताने बाने को देखें तो यहाँ भी जिसे आज जन कहा जाता हैं, वह किसान मजदूर और सर्वहारा ही तो है।और जिसे वो अभिजन कहते हैं वो महानगरीय सभ्यता का पैरोकार सुविधा भोगी है।हम जन पर कविता लिखते हैं,उसके पैरोकार की भूमिका तो निभाना चाहते हैं ,परंतु उस जैसा जीवन कितने लोग जीते हैं?हमारे यहाँ जब किसान आत्महत्या करता है या जब किसी गरीब मज्दूर पर अत्याचार होता है,या जब आदिवासियों को उजाडा जाता है तब हमारा आज का जनगीतकार क्या कर रहा होता है? प्राचीन वीर रस के कवि चन्दबरदायी ,जगनिक आदि जैसे लडते हुए सकारात्मक ज्ञानात्मक संवेदना के आधार पर कविताई करते थे, वैसे आज कितने जनगीतकार हैं जो किसान मज्दूर के साथ खडे होकर लड रहे हैं।केवल धूमिल और मुक्तिबोध की माला जपने से तो काम नही बनेगा।हबीब तनवीर जैसे कितने रंगकर्मी हैं जो लण्डन से रंगनिर्देशन मे डिग्री लेकर अपने गाँव मे नया थियेटर की स्थापना करते हैं और अपने जन के साथ खडे हुए दिखायी देते हैं।महात्मा गाँधी जैसे कितने हैं जो स्वयं अपनी टट्टी साफ करने(मिट्टी मे दबाने) के बाद दलितों के हित की बात करते हैं। सवाल यह उठता है कि तेलगू के कवि वर्वर राव,और मराठी कवि नारायण सुर्वे जब कविता मे क्रांति की बात करते हैं तो अच्छे लगते हैं।वे सचमुच लडते रहे हैं, किंतु समकालीन हिन्दी का कवि जिसे अपना ही पडोसी नही जानता वह इण्टरनेट पर जब जब क्रांति की बात करता है तो उसका चेहरा मुझे अश्लील लगने लगता है। आज दशा यह है कि अमरीका के किसी पूँजीपति (फोर्डफाउण्डेशन आदि एन.जी.ओ.)से विज्ञापन के नाम पर एक तखत माँगकर उसपर खडे होकर हम उसी पूँजीवादी या नवसाम्राज्यवादी व्यवस्था को सिर्फ दिखावे के लिए गरिया रहे हैं।हम इसी नौटंकी में समझते हैं कि हमने क्रांति कर डाली ,हम ही केवल सार्थक हैं-हमने ही मंच लूट लिया, कि हमने बाजार का विरोध कर दिया- मगर हुआ क्या?पूँजीवादी ताकतें और मजबूत हुईं। हमने जिस तरह साम्प्रदायिकता विरोध का नाटक किया उससे सौ गुना धर्म का धन्धा फल फूल रहा है। हजारों बाबा अपनी दुकान सजाये बैठे हैं।हमने क्या किया इतने जनवादी कवियों के बावजूद ‘अब तक क्या किया ,जीवन क्या जिया?’जब मुक्तिबोध पूछते हैं तो सार्थक लगता है। जब वो मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र गढते हैं तो भारतीयता की कहीं उपेक्षा नही होती। लेकिन तुलसी,सूर ,मीरा को मनुवादी कह कर गरियाने वाले ,विवेकानन्द को हिन्दुत्ववादी,सुभाषचन्द्र बोस को भगोडा, महात्मा गान्धी को नपुंसक साबित करने वाले कुछ मूर्ख चिंतक भी हैं। जो अपने आपको मार्क्सवादी कहते हैं। उनसे हमें अपने को ही नही गीत को भी बचाना है। ये मन्दमति मार्क्सवादी इसी देश में पैदा हुए,और विदेशी मुखौटे लगाकर झूठ की मूठ पकडे तमाम नौटंकी रचने मे लगे हैं। प्रगतिशील लेखक संघ दिल्ली के प्रथम अध्यक्ष विष्णु प्रभाकर थे, उनको भी ऐसे ही लोगों ने न जाने कब भाजपाई साबित कर दिया। अत: नचिकेता जी से निवेदन है कि लोक और जन को पूरी भारतीय परम्परा में देखें मूर्ख मार्क्सवादियों की भाँति असम्बद्ध करके नही।मेरी दृष्टि में नवगीत की प्रगतिशील परम्परा का ही नाम जनगीत हो सकता है।जैसे हर गीतकार नवगीतकार नही होता वैसे ही हर नवगीतकार जनगीतकार नही होता। नवगीत की प्रवृत्ति के रूप में यदि कुमार रवीन्द्र जनबोध को रेखांकित करना चाहते हैं तो इसमें क्या बुरायी हैं? मेरी दृष्टि मे समकालीन नवगीतकार जनवादी संवेदना की प्रवृत्तियों के गीतकार हो सकते हैं जनगीतकार नही। अवध के हिसाब से कहूँ तो पढीस,बंशीधर शुक्ल , रमई काका, दिवाकर प्रकाश अग्निहोत्री, शील जी और घूरू किसान जैसे कवि जनकवि कहे जायेंगें- ईंट किसानन के हाँडन की,लगा खून का गारा पाथर अस जियरा किसान का चमक आँख का तारा।,बंशीधर शुक्ल जनगीत जनभाषा में होता है ,मुझे लगता है कि हिन्दी में कवि की अपनी किसी जनभाषा(बोली) का समावेश किए बिना खडीबोली में जनगीत नही लिखा जा सकता । अवधी,ब्रज,भोजपुरी,मगही,मैथिली,बुन्देली,कुमाउनी तथा अन्य सामान्य तौर पर किसान और मजदूरो द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं मे की जाने वाली कविता को जन कविता या जनगीत कहा जाता रहा है। अत: जब हम जनगीत को नवगीत से अलग करके देखेंगे तो ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनपर नचिकेता जी को गम्भीरता से विचार करना होगा। मेरी दृष्टि में ये सभी बिन्दु समकालीन गीत -नवगीत और जनगीत को समझने के लिए आवश्यक हैं। यह कह कर मै कलावादी या रूपवादी नवगीतकारों की रक्षा नही कर रहा हूँ। यह बात अवश्य है कि कलावादी और जनवादी दोनो प्रवृत्तियाँ हर समाज में हर समय मे रही हैं। सभी नवगीतकार कलावादी हैं और जनगीतकार नवगीतकार से नितांत भिन्न हैं। यह कहना गलत होगा। नकलीपन की अगर बात करेंगे तो नवगीत का ही नही अधिकांश हिन्दी कविता का जनबोध दिखावटी लगेगा कहीं कहीं जनगीत का भी। आवश्यक यह है कि पहले असली जनगीतकारों की सूची तैयार की जाये। जैसे राधावल्लभ त्रिपाठी ने संस्कृत कविता की दूसरी परम्परा की खोज की है और विल्हण,कल्हण,योगेश्वर ,श्रीधरदास,शार्डदेव जैसे करीब पाँच सौ प्राचीन लोक कवियों की कविताओं का कोश सम्पादित किया है।देखें-- स्तब्धस्तिष्ठसि पश्यदन्धपुरत:किं दर्शनाकाड्क्षया जल्पनमूकमुखादित: प्रतिवच: किं श्रोतुमाकाड्क्षसि य: शृण्वद्वधिर:शृणोति स कथं विज्ञप्तिकां तावकीं प्राणप्रेतमुपासमाननपठनमूर्खस्त्वदन्यो जन:।(वल्लण) अर्थात अन्धे के सामने चुपचाप खडे होकर उसके द्वारा देखे जाने की आकांक्षा रखते हो?मूक के सम्मुख कुछ कहकर उसका उत्तर सुन लेना चाहते हो?जो बधिर है वह तुम्हारा निवेदन कैसे सुनेगा? प्राणपण से जिस अन्धे –गूगे- बहरे प्रेत जैसे स्वामी की सेवा में लगे हो तुमसे अधिक मूर्ख और कौन होगा? वल्लण श्रमिक को जगाते हुए कहते हैं-हे,सेवक जिस मालिक की सेवा तू कर रहा है वह तेरी सेवकाई के प्रति न तो कुछ देखना चाहता है ,न कुछ सुनना चाहता है,न कुछ कहना चाहता है फिर भी मूर्ख तू उसकी सेवा प्राणपण से कर रहा है? ये जादातर गरीब किसान और खेतिहर मजदूरों तथा उनकी महिलाओं के सरोकारों पर लिखी गयी कविताएँ हैं। हम संस्कृत कवियों के नाम पर केवल कालिदास भारवि माघ आदि को ही जानते हैं।सचमुच हम अपने ही बारे में बहुत कम जानते हैं। अर्थात हमारे समाज मे जनपक्ष की कविताई पहले से ही होती आ रही है। जनवाद की राजनीति में गीत को घसीटना उचित नही है। हमारी परिस्थितियों मे विकसित हमारा सौन्दर्यशास्त्र हमारे लोक जीवन को आलोकित करता है।त्रिलोचन कहते थे-अवध का हर एक गाँव विश्वविद्यालय है।

ऐसा किसी भी क्षेत्र के गाँव के बारे मे कहा जा सकता है।जिन कवियों ने आम जन के हितो की उपेक्षा होने पर प्रतिरोध का परचम लहराया ,सत्ता के सामने जाकर धरना प्रदर्शन किया जेल गये और लाठी खायी। वे असली जनकवि या जनगीतकार कहे जाने चाहिए। अब ऐसे कितने बचे हैं। वे नही जो तमाम सुविधाएँ भोगते हुए केवल पुरस्कारों के लिए तिकडम फिट करते घूम रहे हैं। सवाल यहाँ अपनी रचनात्मकता और अपनी वैचारिक ईमानदारी का भी है। हमें सोचना होगा कि आज तुलसी का लोकमंगल वाला काव्यप्रयोजन या फिर निराला और मुक्तिबोध का काव्यप्रयोजन हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है?हम धन चाहते हैं,या यश?क्रांति या लोकहित तो हमारा ल्क्ष्य नही है? जो कवि अपनी फोटो अपनी किताब के मुखपृष्ट पर छपवाकर अपने जीते जी अपनी प्रशस्ति देख लेना चाहते हैं। ऐसे आत्ममुग्ध कवियों की रचनात्मक प्रतिबद्धता पर विचार करना अपना सिर पीटने से कम नही है।साहित्य का ऐसे कवियों से कभी कोई भला होने वाला नही है।यह विवाद नया नही है।माहेश्वर तिवारी कहते हैं- धूप में जब भी जले हैं पाँव/घर की याद आयी। इसके जवाब में देखिये रमेश रंजक लिखते हैं- धूप में जब भी जले हैं पाँव/सीना तन गया है।

सवाल यह है कि धूप में पाँव जलने से आम आदमी छाँव की तलाश करना चाहता है,वह घर हो सकता है,वृक्ष हो सकता है।ताप और थकान मिटाने के लिए स्वाभाविक रूप से सर्वहारा को घर की याद आती है खासकर जो वर्ग अपना घर गाँव छोडकर शहरों मे नौकरी करने आता है उसको, क्योकि वह अपने घर की बेहतरी के लिए ही धूप मे मेहनत कर रहा होता है,यह गृह रति है पलायन नही। यह माहेश्वर तिवारी के गीत की स्वाभाविक जनवादी व्यंजना है। दूसरी ओर रमेशरंजक की पंक्ति मे अक्खड और अडियलपन है यहाँ धूप में पाँव जलने पर सीना तन जाने की दुरूह कल्पना की गयी है। यहाँ यह स्पष्ट नही है कि वह किसान या मज्दूर किस प्रयोजन के लिए पाँव जलने पर भी धूप मे सीना ताने खडा है। गीत के भाव से लगता है कि वह आत्मघात करने जा रहा है। यह कल्पना कितनी वास्तविक है- इसका अन्दाजा धूप में नंगे पाँव काम करते किसान मजदूर से पूछकर ही तय किया जाना चाहिए। कही यह जनवादी नारे के शिल्प मे नवगीत को जवाब देने की कवायत तो नही थी? जो भी हो समकालीन गीत के भविष्य के लिए नवगीत या जनगीत जैसे विवाद बहुत हानिकर हैं। सृजन स्वच्छ मन से किया जाता है- तभी उसका महत्व होता है।



रविवार, जून 20, 2010

जेठ की दुपहरी  
दो घनाक्षरी

(डाँ श्याम गुप्त)

दहन सी दहकै, द्वार देहरी दगर दगर ,

कली कुञ्ज कुञ्ज क्यारी क्यारी कुम्हिलाई है।

पावक प्रतीति पवन , परसि पुष्प पात पात ,

जरै तरु गात , डारी डारी मुरिझाई है ।

जेठ की दुपहरी सखि, तपाय रही अंग अंग ,

मलय बयार मन मार अलसाई है।

तपैं नगर गाँव ,छावं ढूंढ रही शीतल ठावं ,

धरती गगन 'श्याम' आगि सी लगाई है।1।


सुनसान गलियाँ वन बाग़ बाज़ार पड़े ,

जीभ को निकाल श्वान हांफते से जारहे।

कोई पड़े ऐसी कक्ष कोई लेटे तरु छाँह ,

कोई झलें पंखा कोई कूलर चलारहे

जब कहीं आवश्यक कार्य से है जाना पड़े ,

पोंछते पसीना तेज कदमों से जारहे।

ऐनक लगाए ,श्याम छतरी लिए हैं हाथ,

नर नारी सब ही पसीने से नहा रहे॥2।

( श्याम गुप्त के मेल द्वारा प्रकाशनार्थ प्राप्त)





गुरुवार, जून 17, 2010


धार पर हम -2 : लोकार्पण और विमर्श


(प्रस्तुति:विनोद श्रीवास्तव,कानपुर)



11 मई,कानपुर,जुहारीदेवी महिला महाविद्यालय के प्रांगण में गीतकार वीरेन्द्र आस्तिक द्वारा सम्पादित धार पर हम-2 का लोकार्पण सम्पन्न हुआ। इस समारोह का आयोजन काव्यायन ,जनसंवाद तथा बैसवारा शोध संस्थान के सहयोग से किया गया। समारोह की अध्यक्षता हैदराबाद से पधारे विचारक डाँ विजेन्द्र नारायण सिंह ने की। इस अवसर पर डाँ विमल,राजेन्द्र राव,दिनेश प्रियमन आदि ने धार पर हम के बहाने इस गीत चर्चा मे भाग लिया। बीज भाषण डाँ विमल ने प्रस्तुत किया।उनका कहना था कि गीत नवगीत को कविता से अलग करके देखने की जरूरत नही है। कानपुर के कथाकार पत्रकार राजेन्द्र राव ने आस्तिक जी द्वारा लिखी पुस्तक की भूमिका पर विचार व्यक्त किये। दिनेश प्रियमन ने भी इस अवसर पर सम्पादक आस्तिक जी को बधाई दी और कहा कि यह संकलन धार पर हम -1 की तुलना मे अधिक पोटेंशियल वाला है। अपने अध्यक्षीय भाषण मे डाँ.विजेन्द्र नारायण सिंह ने पुस्तक के सम्पादकीय पर बोलते हुए अनेक ऐतिहासिक समवेत संकलनों पल्लव,तारसप्तक आदि की परम्परा से धार पर हम-2 को जोडते हुए इस संकलन के महत्व की विस्तार से चर्चा की। विषय को आगे बढाते हुए उन्होने डोमन साहू समीर,ठाकुर प्रसाद सिंह के गीतों पर भी टिप्पणी की तथा पुस्तक में संकलित मधुसूदन साहा,ओमप्रकाश सिंह,भारतेन्दु मिश्र आदि के गीतों को सन्दर्भित करते हुए अपने विचार व्यक्त किए। और अंत मे बैसवारा शोध संस्थान के अध्यक्ष डाँ ओमप्रकाश सिंह ने सभी के प्रति आभार व्यक्त किया। गीत विमर्श की दृष्टि से चर्चित इस समारोह का संचालन गीतकार विनोद श्रीवास्तव ने किया। यह समाचार दैनिक जागरण,राष्ट्रीय सहारा ,हिन्दुस्तान ,अमर उजाला जैसे अनेक प्रतिष्ठित अखबारों मे भी प्रमुखता से प्रकाशित हुआ।

बुधवार, जून 09, 2010

गीत के विविध आयाम :



                                       (चित्र में प्रो.सिदूर भाषण देते हुए,मंच पर अवधबिहारी श्रीवास्तव,नचिकेता,प्रो.रमेशकुंतल मेघ,भारतेन्दु मिश्र,  देवेन्द्र सफल और संचालक)

हल्दी के छापे का पुनर्पाठ

पिछले दिनों 17-18 अप्रैल कानपुर, भाई देवेन्द्र सफल के गीत संग्रह लेख लिखे माटी ने के लोकार्पण के बहाने कानपुर जाने का सुयोग बना। वहाँ की दो दिवसीय गीत गोष्ठी देवेन्द्र सफल ने ही आयोजित की थी। इस कार्यक्रम में प्रो.रमेशकुंतल मेघ चंडीगढ से पधारे थे,वरिष्ठ गीतकार नचिकेता पटना से पधारे थे। प्रो.रामस्वरूप सिन्दूर इस समारोह के अध्यक्ष थे। यह दो दिवसीय गोष्ठी समकालीन हिन्दी कविता मे गीत नवगीत के रचना विधान और गीत के विविध आयामों को समझने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण रही। बहुत बडा कोई सरकारी मंच नही था। इसे व्यक्तिगत तौर पर गीतकार देवेन्द्र सफल ने अपने प्रयास से आयोजित किया था। यही इस कार्यक्रम की सीमा भी थी कि वह किसी एक कवि द्वारा आयोजित किया गया था,और यही इस कार्यक्रम की शक्ति भी । बहरहाल इसी बहाने यहाँ अवधबिहारी श्रीवास्तव, वीरेन्द्र आस्तिक,शैलेन्द्र शर्मा,विनोद श्रीवास्तव जैसे कानपुर के कवियों से इस अवसर पर मिलने का मौका मिला जो मेरे लिए बहुत सुखद रहा। कानपुर से लौटकर श्रेष्ठ नवगीतकार कवि अवधबिहारी श्रीवास्तव की जो छवि मन पर अंकित हुई वह अविस्मरणीय है। उनकी पुस्तक हल्दी के छापे को दुबारा पढते हुए सचमुच बहुत संतोष मिला।आमतौर पर कुछ ही ऐसी पुस्तकें होती हैं जिन्हे आप दुबारा या बार बार पढना चाहते हैं हल्दी के छापे वैसी ही पुस्तक है। समकालीन कविता के रचनात्मक अभियान को सबल बनाते पुस्तक के कुछ गीत कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व की सुगन्ध बिखेरते हैं।हालाँकि हल्दी के छापे का प्रकाशन 1993 मे हुआ था किंतु अभी इन गीतों की चमक तमाम कवियों को चकित करती है।ये गीत कवि के आसपडोस की लोकधर्मी जीवन शैली से सीधे तौर पर जुडे हैं। अवधबिहारी जी ने बहुत अधिक गीत नही लिखे लेकिन जो गीत उनकी सधी हुई लेखनी से जनमें है वो बडे महत्वपूर्ण हैं। उनकी इस पुस्तक में गीत नवगीत प्रगीत और आख्यान धर्मी लम्बी कविताएँ भी संकलित हैं। ठाकुर प्रसाद सिंह ,अमरनाथ श्रीवास्तव,शतदल आदि ने अवधबिहारी के इन गीतों पर टिप्पणी की है।ठाकुर प्रसाद जी कहते हैं-‘हल्दी के छापे में ऐसे गीतों की संख्या बहुत बडी है जो अवधबिहारी के अत्यंत अंतरंग क्षणो के साक्षी हैं।’ यह अंतरंगता ही कवि के निजीपन का साक्ष्य बनती है और कविता में सौन्दर्य की चमक पैदा करती है। अवधबिहारी जी के कुछ गीत अंश देखिये-

भाभी की चपल ठिठोली है/माँ के आँचल की छाया है दादी की परी कथाओं का/वह जादू है वह टोना है हम हँसते थे घर हँसता था/फिर यादों में खो जाता था मैने देखा है कभी कभी/घर भूखा ही सो जाता था मुझको तीजों त्योहारों पर/दरवाजे पास बुलाते थे खिडकियाँ झाँकती रहती थीं/कमरे रिश्ते बतलाते थे आँगन में चलती हुई धूप/कल्पना लोक में चाँदी है दीवारों पर सूखती हुई/मक्के की बाली सोना है वैसे तो माटी माटी है/मेरे बाबा वाला वह घर लेकिन यादों का राजमहल/उस घर का कोना कोना है। माता पिता और अपने सगे सम्बन्धियों पर अनेक कविताएँ हिन्दी के कवियों ने लिखी हैं लेकिन अपने घर आँगन पर ऐसा मार्मिक मुझे इससे पहले कहीं पढने को नही मिला। अवधबिहारी के पास ऐसे कई गीत हैं जो गृहरति की व्यंजना को व्यापक स्तर पर सघन और सुसंवेद्य बनाते हैं। कवि के पास अपना घर आँगन है और अपनी कृषि संस्कृति वाली प्राथमिकताएँ हैं-

लगता है बरसेगा पानी/धूप भागकर गयी क्षितिज तक/वर्षा की करने अगवानी। इसके अतिरिक्त- चौक पूरते हाथ कलश जल,मन में उत्सव भरें/नयन में कितने चित्र तिरें गोबर लिपी देहरी खिडकी मुझसे बातें करें/नयन में कितने चित्र तिरें।

लोक जीवन के ऐसे विरल चित्र अवधबिहारी के यहाँ कई रूपों मे उभरते हैं।व्यंग्य और विसंगति का एक चित्र देखिए- मै बरगद के पास गया था छाया लेने

पर बरगद ने मुझसे मेरी छाया ले ली।

तथाकथित महान लोगों पर कवि का यह व्यंग्य कितना सार्थक है कहने की आवश्यकता नही। कानपुर की इस साहित्यिक यात्रा में मेघ जी का सानिध्य सिन्दूर और नचिकेता जी का स्नेह तथा वीरेन्द्र आस्तिक,अवधबिहारी श्रीवास्तव,शैलेन्द्र शर्मा ,विनोद श्रीवास्तव और देवेन्द्र सफल जैसे कानपुर के गीतकारों की कविताई का साक्षी बनने का अवसर मिला। भाई देवेन्द्र सफल को धन्यवाद कि उन्होने मुझे इस गोष्ठी में आमंत्रित किया।

रविवार, मई 09, 2010

मदारी की लड़की
(from,anubhooti.com)


मदारी की लड़की
सपनों की किरचों पर
नाच रही लड़की।

अपने ही
झोंक रहे चूल्हे की आग में
रोटी पानी ही तो है इसके
भाग में
संबंधों के अलाव ताप
रही लड़की।

ड्योढी की
सीमाएँ लाँघ नही पायी है
आज भी मदारी से बहुत मार
खायी है
तने हुए तारों पर काँप
रही लड़की।

तुलसी के
चौरे पर आरती सजाये है
अपनी उलझी लट को फिर फिर
सुलझाये है
बचपन से रामायन बाँच
रही लड़की।
--भारतेंदु मिश्र

बुधवार, अप्रैल 14, 2010

अशोक पाण्डेय अशोक की षष्ठिपूर्ति

छन्द प्रसंग के अप्रतिम हस्ताक्षर अशोक पाण्डेय अशोक छन्दविधा के आचार्य कवि हैं। उन्हे छन्दविधा की यह अप्रतिम कला अपने पिता स्व.गोमती प्रसाद पाण्डेय कुमुदेश से संस्कार रूप में प्राप्त हुए।मैने ही नही लखनऊ और आसपास के नमालूम कितने नए पुराने छन्दोबद्ध कवियों ने अशोक जी से छन्द की बारीकियाँ ,शब्द मैत्री और पारम्परिक भारतीय हिन्दी कविता के स्वरूप को जाना समझा है । वे जितने कुशल कवि हैं उतने ही सहज व्यक्ति भी हैं। संयोग देखिये कि वे चार भाई हैं –अशोक पाण्डेय,विजय पाण्डेय,महेश पाण्डेय और शरद पाण्डेय और सभी छन्दविधा में कविताई करते हैं। अशोक पाण्डेय अशोक के महत्व के विषय मे विद्वानों ने इस प्रकार राय दी है-

1.अशोक कुमार पाण्डेय ने कवित्त,सवैया के माध्यम को इतना सहज,अनलंकृत और आकर्षक बना दिया है कि उनकी रचनाओं से बासीपन नही बल्कि स्वाभाविक मिठास और टकटकेपन की अनुभूति होती है। *डाँ.शम्भुनाथ सिंह

2.अलंकारों के प्रयोग से छन्दोबद्ध शैली में रची गई कविता के निसर्ग सम्भव सौन्दर्य में और भी अधिक लालित्य का समावेश हो उठता है। पाण्डेय जी के ये सभी छंद अलंकॆत शैली में रचे गये हैं।उन्होने अपनी कविता में अलंकारों का प्रयोग साध्य रूप में न करके साधन रूप में ही किया है। *देवेन्द्र शर्मा इन्द्र
प्रभात के दो छन्द:
चाव से सजाये अंग अंग में वसुन्धरा ने,
पाये मोतियों के हार रजनी नवेली से।
स्नेह का पराग बिखराता झूम झूम कंज,
गान सुनता है अलिपंक्ति अलबेली से।
ऐसा मधु योग हुआ हो गये सरों के वृन्द,
हेम-रंग-रंजित उषा की रंगरेली से।
निकल गया है तम तोम जग-मन्दिर से,
फिसल गया है चन्द्र व्योम की हथेली से। 1।
खोया रूप रैन –श्रम-सीकरों ने अम्बर में,
संयमी द्विजों का दल वेद -मंत्र बोला है।
प्रेम से सुलाता नलिनी को थाप दे समीर,
रश्मियों ने सकल सरों में स्वर्ण घोला है।
मंद-मंद आये रवि जावक लगाये भाल,
देख मधु योग अलियों का मन डोला है।
मार हेतु मात ले बिता के प्रिय संग रात,
प्रात में संयोगिनी उषा ने द्वार खोला है।
(*व्योम की हथेली से)
मैं आज उन्हे युवा रचनाकार मंच,लखनऊ के पहले अध्यक्ष के रूप में याद करते हुए अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ। आज भी उन्हे छन्दोबद्ध कवि अंशुमालिनी और ब्रजकुमुदेश जैसी पारम्परिक छन्दोबद्ध पत्रिकाओं के सम्पादक के रूप में जानते मानते हैं।10 मार्च 2010 को उन्होने अपनी आयु के साठ वर्ष पूर्ण किये,ईश्वर उन्हे दीर्घायु करे।

गुरुवार, मार्च 25, 2010

समीक्षा 1.

परवरिस बिना बढते जन के गीत
*भारतेन्दु मिश्र


भगवत दुबे छन्द विधाके महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं।वे जबलपुर की कादम्बरी संस्था के नाते भी चर्चित हैं।‘हम जंगल के अमलतास’ उनका नवीनतम गीत संग्रह है।संग्रह में कुछ नवगीत भी स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। भगवत दुबे के ये गीत अपनी लोकधर्मी चेतना से जुडे होने के नाते पाठकों को आश्वस्त करते हैं। कवि के इन गीतों में समय की विसंगतियाँ विभिन्न रूपों में उभर कर सामने आती हैं।वरिष्ठ नवगीतकार कुमार रवीन्द्र की टिप्पणी भगवत दुबे के नवगीतों को समझने मे सहायक है। कवि आत्मनिवेदन में अपने तमाम सहयात्रियों को नामोल्लेख पूर्वक याद करता है, वह कहीं न कहीं संवेदना का अतिरेक ही कहा जायेगा।भगवत दुबे जैसे कवि को अपने ऊपर हो रहे शोध आदि का उल्लेख अपने आत्म निवेदन मे करने से बचना चाहिए क्योकि आत्म निवेदन और आत्मश्लाघा मे बहुत फर्क होता है। इसी पुस्तक में देवेन्द्र शर्मा इन्द्र,विद्यानन्दन राजीव ,राम अधीर और कुमार रवीन्द्र सहित सबकी प्रशस्तिपरक टिप्पणियों के बाद गीतों के बारे मे कुछ अधिक कहना खतरा मोल लेने जैसा है।दूसरी बात यह भी कि संकलन के कुछ गीत अपने समय समाज की बेहतरीन सूक्तियाँ हैं। भगवत दुबे ओज के कवि हैं-
प्राण गँवाये हैं हमने/ पर लाज रखी है प्रण की/हमने की दुर्दशा/दम्भ के कंस और रावण की।
कवि अपने जातीय परिवेष की व्यवस्था पर चिंतित है,उसे सामाजिक समीकरण बिगडता दिखायी देता है।वह जिस लोक जीवन मे जी रहा है वहाँ मनुवादी जातियाँ ताण्डव कर रही हैं। संवेदनशील कवि कहता है-
बँधी जातियों की नावें/मजहब के घाटों में/लहरों को बँटवाया/महतर,बाँभन,जाटों में।
दूसरी ओर कवि के सामने भुखमरी के दृश्य हैं जो उसे विवश करते हैं।रोजी रोटी के चक्कर में खोया आम आदमी भी उसे नजर आता है।कवि कहता है-
सुख राई सा बौना /पर्वत जैसे कष्ट मिले/भूख मिटाने के साधन/सारे पथभ्रष्ट मिले/छल छद्मों के हाथ/पराजित,दृढ संकल्प हुए/रोजी रोटी बुनते-बुनते/हम खुद गल्प हुए।
ऐसे ही अनेक समसामयिक गीत भगवत दुबे की कविताई का पता बताते हैं।प्राचीन महाकोसल की लोक परम्पराएँ भी कवि के इन गीतों मे कहीं-कहीं झलकती हैं। आज भी यहाँ का नेता अपने हित में धर्म का इस्तेमाल करने में लगा है।भगवत दुबे कहते हैं-
भ्रम से लिपटी हुई/धर्म की पोथी थमा गये/तृष्णा स्वार्थ मनुष्यों की/ नस नस में समा गये।
यह परिदृश्य सदियों पुराना होते हुए भी नया है। कवि की विशेषता यह है कि उसका छन्द सधा हुआ है,लोक बिम्बों की गन्ध कवि की भाषा मे पठनीयता पैदा करती है। समकालीन जीवन की तमाम कठिनाइयों की ओर ये गीत संकेत करते दिखायी देते हैं।एक बिम्ब देखें- हम जंगल के अमलतास/परवरिस बिना बढ्ते/पर गमलों की नागफनी की आँखों में गडते।
नागर और देसी होने यह फर्क सचमुच आज भी हमारे समाज में व्याप्त है। अधिकांश हमारे साथी जनजीवन मे परवरिस के बिना ही जीते हैं।कुल मिलाकर हर कवि का अपना समय होता है और उसके समय के अनुसार उसकी कविताएँ प्रतिध्वनित होती हैं।कवि के ये गीत भी अपने समय के साक्षी हैं।


पुस्तक शीर्षक: हम जंगल के अमलतास
कवि:आचार्य भगवत दुबे
प्रकाशक: कादम्बरी,जबलपुर
मूल्य:रु.150/
वर्ष :2008


समीक्षा 2

दर्द जोगिया के साक्षी गीत
*भारतेन्दु मिश्र

मधुकर अष्ठाना लखनऊ के छन्दोबद्ध कवियों मे सुपरिचित नाम है। मधुकर जी के अब तक अनेक काव्य संकलन प्रकाशित हो चुके हैं।वे गीत गज़ल और नवगीत जैसी छन्दोबद्ध विधाओं के कवि हैं,कवि के सामने एक कविता की सांस्कृतिक परम्परा है। वह अपनी परम्परा मे तनिक भी विचलन देखता है तो उसे विक्षोभ हो आता है और वह अपनी अभिव्यक्ति गीत या नवगीत के रूप मे प्रस्तुत करता है।कवि के सद्य:प्रकाशित गीतसंग्रह ‘दर्द जोगिया ठहर गया’ मे कवि के एक सौ से अधिक गीत हैं जो उनके गीतों की बहुआयामी अभिव्यक्तियों का दस्तावेज़ है। महानगरों मे उगे हुए कंकरीट के जंगलों मे अब देसी पंछी नजर नही आते।अब दिनोदिन विकसित हो रहे नगरों मे कौए ही सर्वाधिक नज़र आते हैं। कवि कहता है-
गली-गली में/डगर-डगर में काले कौए भरे नगर में।
असल में ये कौए शहरी प्रदूषण और धूर्तता का पर्याय भी बन गये हैं। मधुकर जी प्रगतिशील गीतकार हैं क्योकि उनके गीतों में लगातार भाषा-भाव छन्द तथा विचार के आधार पर भी प्रगति की चेतना दिखलायी देती है। महाकुम्भ पर कवि के दो गीत हैं जो दो विभ्न्न दृष्टियों से लिखे गये हैं,और बेहतरीन ढंग से लिखे गये हैं। एक नजर में जहाँ हरिद्वार नज़र आता है वहीं दूसरी नज़र में नरकद्वार दिखायी देता है।एक गीत मे कवि कहता है-
तम्बू खेमे और कनाते/ आने लगे नज़र/उतरा रातो-रात यहाँ पर कोई देव नगर।
दूसरे गीत मे कवि कहता है-
जाग गया उन्मुक्त प्रदूषण/कण-कण भरा जहर/ उतरा रातो रात यहाँ पर एक पिशाच नगर।
यहाँ पहला वाला दृश्य चिंतनीय है और दूसरा दृश्य तो भयावह है क्योंकि सच्ची आस्था तो मनुष्य के मन में और उसके व्यक्तिगत जीवन में होती है –उसका कोई भी रूप हो सकता है।उसके लिए किसी गुरु या महंत की आवश्यकता नही होती।कवि की नजर में अपने शहर के बच्चे भी हैं और उनकी विवशता भी है बच्चों के विकास की उम्र में अपने सपनों कीमत पर हम सभी उनसे किताबों का बोझ ढुलवा रहे हैं उसका बचपन कहीं खो चुका है कवि कहता है- धूप में बस्ता उठाये हाँफता बच्चा/तोतली भोली निगाहें लापता बच्चा। भ्रष्ट राजनीति का एक चित्र देखें- जय-जयकार भेडियों की /झंडा बरदारी है/ इसका आज और कल उसका/जग दरबारी है/कुछ पानी ही ऐसा/कोई दाल नही गलती/बहला देने से तो कोई बात नही बनती। ऐसे माहौल मे छुटभैये नेताओं की दशा मोहासन्न नारद जैसी हो जाती है।आम आदमी के मन में लगातार एक विभ्रम या विपर्यय का बोध चल रहा है।कवि कहता है- चार छोडकर/बीस भुजाओं पर/नारद का मन मचला है/रावण वही नाम बदला है/लिखा पढा अगला पिछला है। जैसे जैसे हमने प्रगति की है हमारे समाज मे नायकत्व का अभाव होता गया। पुराने नायकों पर विश्वास नही रहा नये नायक उभरकर आ नही पाये।कवि इसी चिंता को व्यक्त करता है- पढ-पढ कथा तुम्हारी राजा राम जी/हम हो गये भिखारी राजा राम जी। ऐसे पीडांतक समय में हम जी रहे हैं यह कम सौभाग्य नही है।अंतत:भोजपुरी मुहावरे की शक्ति कवि के गीतों मे चमक पैदा करती है, संवेदना के धरातल पर कवि का दर्द जोगी बन कर उसकी सघन चेतना मे मानो ठहर सा गया-
अपना लोहू आज आदमी बेबस चाट रहा/दर्द जोगिया ठहर गया चौमासा काट रहा।

पुस्तक शीर्षक: दर्द जोगिया ठहर गया
कवि: मधुकर अष्ठाना
प्रकाशक: उत्तरायण प्रकाशन
मूल्य:रु.250/
वर्ष :2009

शुक्रवार, मार्च 19, 2010

दाम्पत्य का आदर्श

दाम्पत्य का आदर्श

(तुलसी कृत कवितावली से)

जलको गये लक्खन हैं लरिका
परिखौ पिय छाँह घरीक ह्वै ठाढे
पोछि पसेऊ बयारि करौं
अरु पाँय पखारिहौं भूभुरि डाढे
तुलसी रघुबीर प्रिया स्रम जानिकै
बैठि बिलम्ब लौ कंटक काढे
जानकी नाह को नेह लख्यो
पुल्क्यो तन बारि बिलोचन बाढे।

छन्द का प्रसंग

वन गमन का दृश्य है।राम आगे आगे चल रहे है।सीता उनके पीछे और उनके पीछे लक्ष्मण चल रहे है।सीता थक गयी है परंतु अपनी थकान का संकेत वे राम से नही करना चाहतीं।अत: पीछे मुडकर सीता लक्ष्मण को जल लाने का आदेश देती हैं,लक्ष्मण चुपचाप जल लेने के लिए चले जाते है। अत: एकांत पाकर सीता राम से कहती हैं। हे प्रिये,बालक लक्ष्मण जल लेने गये हैं,अत: घरी भर वृक्ष की छाया मे खडे होकर उसकी प्रतीक्षा कर लीजिए,कहीं वह राह न भटक जायें। तब तक मै आपका पसीना पोछकर अपने आँचल से हवा कर देती हूँ,जब लक्ष्मण पानी ले आयेगे तब आपके गर्म धूल मे जले हुए पैर धो दूँगी।
तुलसीदास कहते है कि अंतर्यामी श्री राम ने प्रिया सीता के ऐसा कहने पर तुरंत उनकी थकान का अनुभव कर लिया और वृक्ष के नीचे बैठकर बडी देर तक पैरौं के काँटे निकालते रहे,ताकि सीता इतनी देर विश्राम कर सके। जब अधिक देर हो गयी तो सीता को भी इस बात का अनुभव हुआ कि श्री राम मेरे प्रेम के ही कारण इतनी देर से काँटे निकालने के बहाने बैठे हुए है।इस दाम्पत्य प्रेम के इस अनुभव के बाद सीता को रोमांच हो आया,उनका सारा शरीर प्रफुल्लित हो गया और आँखों से प्रणय अस्रु बह निकले।

मंगलवार, जनवरी 19, 2010

नवगीतकार डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा से भारतेन्दु मिश्र की बातचीत

मै तो कविता को एंज्वाय करता हूँ--डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा

आजकल साहित्यिक मासिक पत्रिका के सम्पादक,अनेक विधाओ के यशस्वी रचनाकार,डाँ योगेन्द्रदत्त शर्मा न केवल श्रेष्ठ नवगीतकार है बाल्कि कथाकार के रूप मे भी चर्चित रहे है । अगस्त 2010 मे योगेन्द्र जी अपने जीवन के साठ वर्ष पूर्ण कर रहे है,नवगीतकार योगेन्द्रदत्त शर्मा की प्रतिभा से प्रभावित होकर डाँ.शम्भुनाथ सिंह ने नवगीत दशक योजना मे उन्हे प्रमुख कवि के रूप मे संकलित किया।योगेन्द्रदत्त जितने अच्छे रचनाकार है उतने ही श्रेष्ठ मनुष्य भी है। आज 25-12-2009 को उनके पिताश्री पं.कन्हैयालाल मत्त की जयंती के अवसर पर प्र्स्तुत है -उनके आवास पर की गयी बातचीत के प्रमुख अंश-
भारतेन्दु मिश्र :योगेन्द्र जी आपकी की षष्ठिपूर्ति निकट है,आपकी छवि नवगीतकार,कथाकार,कुशल सम्पादक और विचारक की रही है- आप साहित्य की कई विधाओ से जुडे रहे है।आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : शुरुआत तो नवीं क्लास मे पढता था तभी हुई। मेरे घर मे बचपन से ही कविता का माहौल था। पिताश्री पं.कन्हैयालाल मत्त स्वयं अच्छे कवि थे तो उन दिनो राष्ट्रीय कविताओ का दौर था ,1965 मे चीन युद्ध चल रहा था।उसी समय पहली कविता बनी।........शीर्षक था।इसको हास्यास्पद न समझे कि जैसे मैथिलीशरण गुप्त जी या बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द जी ने बहुत कम आयु मे कविता लिखनी शुरू कर दी थी,वस्तुत:उस समय मेरे घर का वातावरण ऎसा था।अक्सर घर मे गोष्ठी जैसा वातावरण होता था।
भारतेन्दु मिश्र : तो यह पहली कविता क्या छन्दोबद्ध थी,गीत के शिल्प मे थी?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : घर मे छन्दोबद्ध कविता का ही माहौल था। पिता जी गीत लिखते थे तो छन्द मुझे विरासत मे मिला उसे गीत तो नही कह सकते हाँ छन्दोबद्ध कविता अवश्य थी। उन्ही दिनो एक नाटक लिखमारा था,नाटक क्या छोटी नाटिका थी- तो वह कविता और नाटिका दोनो कालेज की मैगजीन मे छपने के लिए दे दी। पं.हरप्रसाद शास्त्री जी हमारे पिता जी के मित्र थे वही उसका संपादन देखते थे।हुआ ये कि कविता तो कही खो गयी किंतु वह नाटिका उन्होने छाप दी। दोनो रचनाओ की पृष्ठभूमि चीन युद्ध ही था।
भारतेन्दु मिश्र : योगेन्द्र जी आज पीछे मुडकर देखते हुए कैसा लगता है,खास कर उस माहौल को याद करते हुए,या कि स्व.मत्त जी को याद करते हुए?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : दरअसल मै जो कुछ भी हूँ वह अपने पिताजी के कारण हूँ।शुरुआत मे मै विज्ञान का विद्यार्थी रहा , साहित्य की ओर आने की संभावना बहुत कम होती है विज्ञान के छात्रो मे परंतु घर मे ऎसा वातावरण था कि मै साहित्य से जुडता गया। पिता जी रिटायर हो गये थे वो पढते बहुत थे उनकी आँखें कमजोर हो गयी थी,फिर भी अखबार मे या किसी किताब मे धुँधलके मे भी आँखे गडाये घंटो बैठे रहते थे। फिर वो मुझसे अपनी रचनाये फेयर कराने लगे। तो इस प्रकार साहित्य की भाषा सीखने लगा, बहुत सारे शब्दो का ज्ञान नही होता था तो उन्ही से पूछता था। साहित्य की पुस्तको मे रुचि हुई तो साहित्य पढने लगा । भाषा मैने पिता जी से ही सीखी।
भारतेन्दु मिश्र : उन दिनो कौन से साहित्यकार आपके घर आया करते थे?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : हाँ पिताजी के कारण घर मे सहित्याकार आते रहते थे।बडा सुन्दर माहौल था। स्थानीयो मे खासकर प्रसिद्ध कथाकार से.रा.यात्री,गीतकार प्रेम शर्मा,कुँवर बेचैन और देवेन्द्र शर्मा इन्द्र,पाल भसीन जैसे श्रेष्ठ साहित्यकार अक्सर आया करते थे। मेरी शुरुआत थी तो इसीप्रकार मुझे भाषा और साहित्य के संस्कार मिलते रहे।
भारतेन्दु मिश्र : आपकी कविताएँ डाँ.शम्भुनाथ सिंह द्वारा सम्पादित नवगीत दशक 3 मे संकलित है,उसी मे राजेन्द्र गौतम है डाँ.सुरेश जैसे और भी कई महत्वपूर्ण कवि होंगे, कई लुप्त हो गये। प्रश्न यह है कि उस समय की रचनाएँ आपको अधिक प्रिय लगती है या आज कल जो लिख रहे है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :.देखिए सुखद कहें या दुखद,पता नही आप किस रूप लेंगें ,मेरे साथ यह स्थिति रही है कि मुझ पर किसी अपनी रचना का दो या तीन दिन से अधिक प्रभाव नही रह्ता उसके बाद वही रचना सामान्य लगने लगती है। जहाँ तक बात है रचनाशीलता की तो लगातार मेरी रचनाशीलता बरकरार है। कभी कभी अंतराल भी हो जाता है-साल साल भर का, लेकिन रचनात्मकता बनी हुई है। गीतो मे पहली पुस्तक खुशबुओं के दंश आयी फिर परछाइयो के पुल,और फिर दिवस की फुनगियो पर थरथराहट प्रकाशित हुई। गीत के अतिरिक्त कहानियो मे विसंवाद और परदा बे परदा मेरे प्रकाशित कथा संग्रह है।
भारतेन्दु मिश्र : तब के गीत और अब के गीत मे प्रयोगधर्मिता के आधार पर क्या अंतर महसूस करते है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : मैने कोशिश यह की कि मै अपने गीतो को रचनाशीलता के स्तर पर अलग रख सकूँ अपनी मौलिकता को लेकर चलूँ,पता नही कितना सफल हुआ हूँ,यह तो आप जैसे समीक्षक ही बता सकते है। पहले के गीतो पर पिता जी का बहुत प्रभाव था मैने बहुत परिश्रम से अपनी मनस्थिति को बदलकर उनके प्रभाव से स्वयं को हटाया। प्रयोगधर्मिता के आधार पर तब मे अब मे अंतर तो है ही,अब कितना और कैसा अंतर है यह तो दूसरे लोग ही तय करेंगे।
भारतेन्दु मिश्र : गीत के अतिरिक्त लम्बी कविताएँ,गजले आदि भी आपकी रचनाशीलता का हिस्सा रही है तो लम्बी कविता मे जो रचनात्मकता को विस्तार मिलता है उसका निर्वाह आपने कैसे किया?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : अरसा हो गया,अब जब पीछे मुडकर अपने लेखन को देखता हूँ तो लम्बी कविताएँ हमने लिखी है कुछ ऎसी कविताएँ भी है जिनमे तुकांत का भी निर्वाह होता रहा । मैने एक खण्डकाव्य लिखा था जिसका शीर्षक था गवाक्ष जिसमे मैने एक अध्याय मे निराला के तुलसीदास वाले छन्द का प्रयोग किया है। तो मैने अपनी लम्बी कविताओ मे तुक और लय को बचाकर रखा है। एक मेरी बहुत लम्बी कविता है जन्मदिन पित्रऋण और ऋतुचक्र,तो उसमे भी तुकांत का निर्वाह करने की कोशिश की है ,वह रचना मुझे प्रिय भी लगती है। एक और मेरी रचना थी गुमशुदा फागुन वह भी अब मुझे अधिक अच्छी लगने लगी है मै यही सोच रहा हूँ कि कुछ ऎसी ही प्रगीतात्मक रचनाएँ और लिख सकूँ..
भारतेन्दु मिश्र : योगेन्द्र जी यह गद्य का युग है,कविता भी गद्यात्मक हो गयी है। आप संपादक भी है तो ऎसी कविताओ के बारे मे आपकी क्या राय है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :मेरी राय बहुत अच्छी है। लोग बहुत अच्छी लिख रहे है,कुछ हमारे गीतकार मित्रो की राय हो सकती है कि ब्लैंकवर्स या गद्यकविता अच्छी नही होती किंतु मै तो कविता को एंज्वाय करता हूँ। मैने भी कुछ ऎसी कविताएँ लिखी है-अभी बहुत कुछ ऎसा है जो छप नही पाया। देखिए हमारे कई मित्र है जो कहानियाँ लिख रहे है हमे उनका लेखन पसन्द है वैसे ही छन्दहीन या गद्यकविता की बात है।
भारतेन्दु मिश्र : इनदिनो जो लोग लिख रहे है उनमे कौन से कवि आपको अच्छे लगते है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : देखिए आजकल जैसी सम्मानित साहित्यिक पत्रिका का संपादन करते हुए जो रचनाएँ आती है उन्हे पढ्ता हूँ,इसके अतिरिक्त बहुत अधिक समय नही मिलता तो भी समकालीन अधिकांश कवियो की रचनाएँ देखने को तो मिल ही जाती है। मै सबको छन्दहीन या छन्दोबद्ध कविता को उसकी गुणवत्ता के आधार पर चुनता हूँ। मै सर्वेश्वरदयाल सक्सेना,धर्मवीर भारती को बहुत पसन्द करता हूँ,कुँवर नारायण है, समकालीनो मे अरुण कमल है जो मुझे बहुत पसन्द है। इब्बार रब्बी,मंगलेश आदि की कुछ कविताएँ मुझे अच्छी लगती है।
भारतेन्दु मिश्र : गीतकारो मे कौन से नाम है जो आपको पसन्द है,और जो ठीक ठिकाने के गीत लिख रहे है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : गीतकारो मे जो ठीक ठिकाने के गीत लिखने वालो मे जो मेरे बाद के नये कवि है उनमे यश मालवीय अच्छा लिखते है,हरीश निगम है,सुधांशु उपाध्याय है,एक रचनाकार और है शिवाकांत मिश्र विद्रोही उनकी रचनाएँ भी मुझे बहुत पसन्द आती है बाकी और कई मेरे समकालीन है ,कई वरिष्ठ है जिनकी रचनाएँ मुझे पसन्द है। अन्यथा न ले तो आपकी रचनाएँ भी मुझे पसन्द आती है।
भारतेन्दु मिश्र : मै तो बहुत दिन हो गये गीत लिख ही नही पा रहा हूँ....
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : नही,आपको लिखते रहना चाहिए,आप अच्छा लिखते है।
भारतेन्दु मिश्र : डाँक्टर साहब, आपका नाम कहानियो से भी जुडा रहा है,कुछ लोग तो आपको कथाकार के रूप मे ही जानते है एक बार कथादेश के संपादक हरिनारायण से आपके बारे मे बात होरही थी तो उन्होने कहा कि मै तो योगेन्द्र जी को कथाकार के रूप मे ही जानता हूँ ,कथा लेखन की शुरुआत कैसे हुई?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : शुरुआत उसी समय हुई थी,जब कविता की हुई थी। सबसे पहले एक व्यंग्यात्मक लघुकथा लिखी थी जो सारिका के जुलाई सन 1975 अंक मे छपी थी।परन्तु वह इमरजेंसी का दौर था और वह मेरी पहली कहानी सेंसर की भेंट चढ गयी। अब उसकी कोई प्रति नही है।याद करके फिर से लिखना पडेगा। फिर अगली कहानी सारिका के नव लेखन अंक अप्रैल 1976 मे छपी।फिर आगे मै लिखता गया। मेरे दो कहानी संग्रह भी छपे –स्मृति संवाद और परदा बेपरदा। तीसरा संग्रह भी प्रकाशन की तैयारी मे है। तो यह सच बात है कि कुछ लोग मुझे केवल कथाकार के रूप मे जानते है और कुछ लोग केवल गीतकार के रूप मे जानते है। ऎसे ही मेरे एक मित्र थे रमेश बत्रा तो उन्हे भी आश्चर्य हुआ,उन दिनो मै अपनी थीसिस पर काम कर रहा था –उन्होने पूछा-आपका क्या टाँपिक है-मैने बताया-साठोत्तर हिन्दीगीत काव्य मे संवेदना और शिल्प- तो वे अचकचाये बोले तुम्हारा और कविता का क्या संबन्ध तो मैने बताया- मूलत: तो मै कवि ही हूँ।
भारतेन्दु मिश्र : आप आजकल से लम्बे अरसे सम्पादन से जुडे रहे है।वहाँ विभिन्न लोगो से- बडे छोटे साहित्यकारो से संपर्क होता रहा होगा,क्या सीमाएँ होती है खासकर सरकारी पत्रिका के सम्पादक के सामने?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : देखिये सम्पादक के सामने कुछ न कुछ तो सीमाएँ रहती ही है। जो निजी संस्थानो की पत्रिकाएँ है ,उनके सम्पादको के सामने भी कुछ अपनी तरह के दबाव रहते है। ऎसा नही है कि सिर्फ सरकारी पत्रिकाओ पर ही दबाव रहते है। यहाँ सरकारी पत्रिका मे ध्यान रखना होता है कि सरकार की तीखी आलोचना न हो। गाली-गलौच की भाषा न हो। आमतौर पर स्वस्थ आलोचना स्वीकार होती है यही थोडी सी सीमा आप कह सकते है। मैने ऎसे सम्पादको के साथ काम किया है जो थोडा सा जोखिम भी उठा लेते थे। तो वह संस्कार मुझे भी मिल गया और मै भी कभी-कभी ऎसी कोशिश कर लेता हूँ।
भारतेन्दु मिश्र :आपने शुरुआत किन सम्पादको के साथ की थी और पंकज विष्ट के साथ आपके कैसे संबन्ध रहे?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :शुरुआत मे जब मै आजकल से जुडा तो सम्पादक थे भगीरथ पांडेय और सहायक थे पंकज विष्ट । भगीरथ पांडेय कोई रुचि लेते नही थे। पंकज ही देखते थे उनसे मैने बहुत सीखा। मै उनका बहुत सम्मान करता हूँ। मैने उनसे सीखा कि रचना को ही वरीयता देनी चाहिए,रचनाकार को नही। रचना के चयन मे किस तरह से निर्मम होकर तटस्थता बरतनी है यह मैने उनसे ही सीखा,और यह भी कि पत्रिका को वरीयेता देनी है न कि अपने परिचितो को। किसी से द्वेष भी न हो किसी से राग भी न हो बस रचना ही ध्यान मे रहे। व्यक्तिगत रूप मे वे नैतिकतावादी किस्म के आदमी है। परंतु उस दौरान जब कोई उग्र होने लगता था तो वह भी पीछे नही रहते थे। बहुत प्यार करने वाले और सहायता करने वाले व्यक्ति है पंकज जी । मै उन्हे अपने बडे भाई के रूप मे ही देखता आया हूँ ।
भारतेन्दु मिश्र : इसके साथ ही प्रवीण उपाध्याय के साथ भी आप रहे ?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :प्रवीण जी मेरे अच्छे मित्र है सहकर्मी है,लेकिन हम दोनो आजकल मे एक साथ कभी नही रहे यह इत्तिफाक है। हम दोनो के बीच अच्छी समझदारी रही है जब वो पत्रिका मे रहे तो मै बाहर से उनका सहयोग करता रहा और अब जब मै पत्रिका मे हूँ तो उनका परोक्ष सहयोग मुझे मिल जाता है। हम दोनो के संबन्ध परस्पर ऎसे ही है।
भारतेन्दु मिश्र : योगेन्द्र जी, गाजियाबाद के साहित्यकारो से आपके रचनात्मक सरोकार किस रूप मे जुडे रहे,पिता श्री मत्त जी के समय से ही या बाद मे,गीताभ नामक संस्था से भी आप जुडे है और भी लोग है यहाँ जो अच्छा लिख रहे है उनके बारे मे आपकी क्या राय है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :जब मैने लिखना शुरू किया था तब तीने चार लोग मेरे समकक्ष थे धनंजय सिंह मुझसे सीनियर थे श्याम निर्मम मेरे सहपाठी है,हम लोग साथ-साथ पढते भी थे और कविता भी करने लगे थे। हम लोग ट्रेन से दिल्ली जाते थे,अक्सर ही मुलाकाते होती रहती थी।कभी-कभी ट्रेन मे ही हम लोग कविताएँ भी कह लेते थे। कभी-कभी मिटोब्रिज से शाहदरा तक आते-आते नई कविता बन जाती थी। ऎसा संयोग रहा कि दोस्ती भी निभती थी,रचनात्मक आदान-प्रदान भी होता रहता था।उन दिनो एक संस्था भी थी इंगित नामक उसमे भी हम लोग जुडते थे। अब पिछले आठ-दस वर्षो से गीताभ संस्था है जो काम कर रही है। उसमे भी तरह–तरह के लोग आते है,कुछ वरिष्ट उम्र के रचनाकार भी उसमे जुडे है जिनकी रचनाएँ शिथिल होती है,पर उनका भी महत्व होता है। संस्था का काम तो ऎसे ही चलता है। बाकी यहाँ पराग जी है,डाँ.मधु भारती है,कमलेश भट्ट कमल है,वेद प्रकाश वेद है ये सारे लोग अच्छा लिखने वाले है।
भारतेन्दु मिश्र : इन्द्र जी को आप कबसे जानते है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :अपने पिता जी के बाद मै आदरणीय इन्द्र जी को ही स्मरण करता हूँ,मैने उनसे बहुत कुछ सीखा है। उनका अनुसरण भी किया है,वो बहुत ही वरिष्ठ रचनाकार है। बहुत कुछ सिखाते है-बिना सिखाये भी उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। अधिक क्या कहूँ रचनाकार के नाते मै उनका ऋणी हूँ।
भारतेन्दु मिश्र :एक गजल संग्रह भी आपका आया था-नकाब का मौसम-उसपर आपको आर्य स्मृति पुरस्कार भी मिला था,तो उसके बारे मे कुछ बताये?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :हाँ पुरस्कार तो जरूर मिला ,मै यह तो नही कहूँगा कि मुझे अच्छा नही लगा क्योकि यह तो अपने साथ बेईमानी होगी अपने साथ।हाँ इतना अवश्य कहूँगा कि पुरस्कार के बाद मै कोई बडा कवि हो गया हूँ ऎसा नही लगा। निर्णायको को मेरी गजले अच्छी लगी। मै जैसा तब सामान्य था वैसा ही आज भी हूँ।
भारतेन्दु मिश्र : कुछ लोग कह रहे है कि कविता का अंत हो गया है तो ऎसे समय मे समकालीन कविता के बारे मे आपकी क्या राय है?आज नवलेखन की क्या चुनौतियाँ है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :देखिये, मेरी राय मिली जुली है।कुछ लोग बहुत अच्छा भी लिख रहे है,कुछ सामान्य भी लिख रहे है। ऎसा हर युग मे होता रहा है। अब कहने वालो की क्या बात है कोई कुछ भी कह सकता है-कविता का ही क्यो साहित्य का अंत हो गया है,या फिर मनुष्य का अंत हो गया है। बाकी लेखन का अंत तो हो ही नही सकता,अब किसी के दिमाग मे विचार आयेगे तो वह अपने को कैसे रोक लेगा। यह तो स्वाभाविक प्रक्रिया है,इसे बन्द नही किया जा सकता। चीजे जितनी जादा उलझती जा रही है उतना ही अनुभवो का विस्तार होगा तो रचनाकार लिखेगा ही। नये समय की नई चुनौतियो का सामना भी नया कवि कर रहा है।
भारतेन्दु मिश्र : अभी कुछ दिन हुए डाँ नामवर सिंह ने किसी कवि की एस.एम.एस. की हुई कविताओ का संकलन लोकार्पित किया है,इण्टरनेट पर भी कविताएँ आ रही है। हिन्दी विकीपीडिया मे बहुत से कवियो की कविताएँ दी हुई है आप इस सब को हिन्दी साहित्य की प्रगति का नया दौर मानते है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : देखिये विकास तो हो रहा है लेकिन अभी बहुत सीमित लोगो तक इण्टरनेट की पहुँच है। जैसे मै इस सबको के बारे मे अधिक नही जानता हूँ मुझे लगता है कि अधिकाश लोग अभी इण्टरनेट से जुडे नही है।हाँ, यह हो सकता है कि इसमे कुछ साहित्य सुरक्षित हो जाय। सुदूर बैठा हुआ सुविधा सम्पन्न पाठक भी इससे जुड सकता है।हो सकता है कि कुछ और अच्छे परिणाम आये,परंतु मुद्रित पुस्तक का कोई विकल्प नही हो सकता,उसका महत्व बराबर बना रहेगा।
भारतेन्दु मिश्र : तो नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के बाद आपने लेखन की कोई नई योजना बनाई है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :देखिये, मै बहुत सामान्य आदमी हूँ,कोई बडी एषणा मेरी नही है,कोई महत्वाकाक्षा भी नही है। दो तीन उपन्यासो की योजना जरूर मेरे मन मे है। पिछले बीस वर्षो से कई प्लाँट मेरे मन मे है,उसकी रूपरेखा मेरे दिमाग मे है अब समय मिलेगा तो मै उन पर ध्यान दूँगा। कुछ मेरी कहानियाँ ऎसी है जिनमे उपन्यास की संभावनाएँ है उस पर भी काम करना चाहता हूँ।सबसे पहले मै जिस उपन्यास पर काम करना चाहता हूँ उसका शीर्षक है अजगर पंछी, यह प्लाँट आफिस के माहौल पर है। अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम से इसका शीर्षक लिया है। अब देखिये कर पाता हूँ कि नही,मन मे इच्छा तो है।
भारतेन्दु मिश्र : आपका अप्रकाशित साहित्य भी है,एक काव्य नाटक भी है ।उसके प्रकाशन की क्या योजना है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : मेरा काव्य नाटक समयमंच अप्रकाशित है और मेरा खंडकाव्य है गवाक्ष वह भी अप्रकाशित है। प्रकाशन की दिशा मे भी विचार कर रहा हूँ। समयमंच की पृष्ठभूमि इमरजेंसी के दौर की है उस समय जयप्रकाश नारायण जी ने इन्दिरा जी को एक पत्र लिखा था। उसमे एक पंक्ति थी –कि आपने मुझे क्रांति के नायक से खलनायक बना दिया। -इसी सूत्र वाक्य को लेकर मैने वह काव्यनाटक लिखा था। उस नाटक मे राजनीति और कूटनीति मनुष्य और उसकी परिस्थितियो पर कैसे हावी होती है ,यही मूल विषय है। नाटक का सूत्रधार नायक को विक्षिप्त बना देखता है,तो ऎसे ही वह नाटक बन गया। बाकी रंगकर्मी देखेंगे।
भारतेन्दु मिश्र : आपका परिवार संयुक्त परिवार है? आज के समय मे महानगरो मे यह चकित करने वाला है,संयुक्त परिवार के कुछ लाभ भी है कुछ परेशानियाँ भी होती है आप कैसा अनुभव करते है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :देखिये, मै संयुक्त परिवार का बहुत अधिक पक्षधर हूँ, आजकल जो न्यूकिलियर फैमिलीज़ है उनसे मै बहुत सहमत नही हूँ। संयुक्त परिवार एक वटवृक्ष के समान है लेकिन उसमे यदि हम थोडा सा विवेक से काम ले तो बहुत अच्छा रहता है। उसमे यह रहता है कि हम अपने परिजनो की छोटी-छोटी बातो को यदि नजरन्दाज़ करते चले तो बहुत कठिनाई नही होती। संयुक्त परिवार मे यदि यह मान कर चले कि मै किसी के लिए क्या कर सकता हूँ,बजाय इसके कि कौन मेरे लिए क्या करदे तो अच्छे से निभाया जा सकता है। मुख्य उद्देश्य यह होना चाहिए कि हम किसी के लिए क्या कर सकते है। इससे संयुक्त परिवार बहुत सुदृढ बना रह सकता है।