सोमवार, अक्तूबर 14, 2019


आचार्य कवि का अवसान
# भारतेंदु मिश्र  
आज हिन्दी में अनेक तरह के कवि एक साथ सक्रिय हैं जैसे-फेसबुकिया कवि ,मोबाइल कवि,मंचीय कवि, अकादमिक कवि आदि|हम देखते हैं कि इन विविध रूप में हिन्दी की कविता तरह तरह से फल फूल रही है|इसके बावजूद हिन्दी में आचार्य कवियों की एक शाश्वत परंपरा रही है| देवेन्द्र शर्मा इंद्र इसी आचार्य परंपरा के कवि थे| छंदोबद्ध काव्य साधना की अविरल धारा उनके न रहने से लगभग सूख गयी है|उनका जन्म 1 अप्रैल सन 1934 में नगला अकबरा,आगरा,उत्तर प्रदेश  में हुआ और अपनी आयु के 86 वर्ष पूरे कर 17 अप्रैल 2019 को उनका स्वर्गवास हुआ| आगरा कालेज से संस्कृत और हिन्दी में एम. ए. करने के बाद इंद्र जी वहीं हिन्दी प्रवक्ता के रूप में अस्थायी तौर पर नियुक्त  हुए वहां उन्हें पंडित जगन्नाथ शर्मा आचार्य,और मार्क्सवादी चिन्तक डॉ.रामविलास शर्मा जैसे विद्वानों का भी स्नेह मिला| फिर कुछ समय बाद वर्ष 1966 में दिल्ली के श्याम लाल कालेज में हिन्दी के स्थायी प्रवक्ता के रूप में नियुक्त होकर वे दिल्ली आ गए| यहाँ दिल्ली के शाहदरा स्थित श्याम लाल कालेज में वे ऐसा रमे कि रमते चले गए|गीत और नवगीत की धुन इतनी समाई कि इसके अतिक्त उन्हें ज्यादा कुछ दिखाई भी न दिया| तात्पर्य यह कि उन्होंने पीएचडी भी नहीं की अन्यथा दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तो बन ही सकते थे|यहीं नवीन शाहदरा और बाबर पुर रोड स्थित किराए के घरों में उन्होंने अपना  आवास  बनाया| शाहदरा उस समय हिन्दी प्रकाशकों की मंडी  था|अत: अक्सर साहित्यकार प्रकाशन के सिलसिले में उनसे भी मिलने जुलने आते रहते थे|जीवन चलता रहा,परिवार बढ़ा|दो बेटियाँ और तीन पुत्र हुए|जिनमें से छोटी बेटी मानसिक रूप से विमंदित रह गयी|उसकी सेवा करना वे अपना धर्म मानते थे|इसके अलावा इंद्र जी को मैंने कभी पूजा पाठ करते या व्रत आदि करते नहीं देखा|अपनी बेटी को लेकर वे सदैव निराश रहते थे| उसकी सेवा को ही वे अपनी पूजा मानते थे| उसने भी अंतिम समय तक इंद्र जी का पीछा नहीं छोड़ा| मैं नौकरी के सिलसिले में 1986 में दिल्ली आया तब से उनके अनेक रचनात्मक प्रसंगों का साक्षी और सहभागी रहने का अवसर मिला| सन 1990 के दशक में इंद्र जी ने राजेन्द्र नगर गाजियाबाद में अपना स्थायी आवास बना लिया था|वर्ष 1994 में उनकी षष्ठिपूर्ति के अवसर पर जब ‘नवगीत एकादश’ का संपादन कर रहा था तो उनके अत्यंत निकट रहने का अवसर मिला|
वे सांस्कृतिक बोध के नवगीत कवि  हैं| शम्भुनाथ सिंह जी ने नवगीत पर काम करते हुए ‘नवगीत दशक’ 1 में उन्हें ‘इंद्र’ उपनाम हटाकर शामिल किया|नवगीत संबंधी अपनी यात्राओं में शंभुनाथ जी,वीरेन्द्र मिश्र ,रमेश रंजक,कुमार रवीन्द्र,राजेन्द्र गौतम,योगेन्द्र दत्त शर्मा ,कुंवर बेचैन,विज्ञान व्रत  आदि  उनके दिल्ली स्थित आवास पर चर्चा हेतु आया करते थे|शाहदरा स्थित अनेक साहित्यकारों डॉ.हरदयाल,डॉ.बाबूलाल गोस्वामी,बाबू राम शुक्ल,डॉ.विन्दु माधव मिश्र,पाल भसीन  आदि से भी उन्ही दिनों उनके सानिध्य में मुलाकातें हुईं| डॉ. शंभुनाथ जी ने अन्य नवगीत दशकों की योजना भी इंद्र जी के सहयोग से बनायी  कुछ नए नवगीतकारों को इंद्र जी ने इस योजना में शामिल भी करवाया | अस्सी के दशक में एक ओर छन्दोबद्ध और मुक्त छंद वाली नई कविता धारा के बीच तलवारें खिंची हुई थीं|दूसरी ओर बाद में डॉ.शंभुनाथ जी से उनकी  कुछ अनबन भी हुई और दोनों ने अपने रास्ते अलग अलग कर लिए,हालांकि संवाद बना रहा|
इंद्र जी का पहला नवगीत संग्रह –‘पथरीले शोर में’ 1972  में प्रकाशित हुआ था उसके बाद से अभी तक उनके 15 नवगीत संग्रह ,चार दोहा संग्रह और छः ग़जल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| निराला पर तुलसीदास छंद में लिखा उनका खंडकाव्य ‘कालजयी’ बेहद चर्चित रहा और कई वर्षों तक यह आगरा वि.वि. के पाठ्यक्रम में भी शामिल रहा|इंद्र जी द्वारा रचित साहित्य विपुल मात्रा में है जिसमें  हजारों नवगीत,25 हजार से अधिक दोहे,कई सौ ग़ज़लें “मैं साक्षी हूँ” (प्रबंध काव्य) आदि शामिल है| उनका बहुत सा काव्य साहित्य अप्रकाशित भी रहा गया|
जब 1990 के दशक में नवदोहा लेखन की बाढ़ सी आयी थी तो उनदिनों इंद्र जी ने ‘सप्तपदी’ शीर्षक से समवेत दोहा सतसई योजना को क्रियान्वित किया|इस प्रकार ‘सप्तपदी’ सात खण्डों में प्रकाशित हुई|उनके द्वारा अन्य संपादित कविता संग्रहों में – ताज की छाया में ,यात्रा में साथ साथ,वसंत का अग्रदूत,हरियर धान आदि बहुत चर्चित रहे| उनके विपुल साहित्यिक कार्य के लिए उन्हें सम्मान आदि भी मिले जिनमें उत्तर प्रदेश हि.सं. का ‘साहित्य भूषण’ अम्बेडकर वि.वि.आगरा का ‘ब्रज वैभव’,गाजियाबाद नगर का –‘काव्य पुरुष’ अदि प्रमुख हैं|
अपनी बेटी के कारण इंद्र जी प्राय: यात्राएं नहीं कर पाते थे| रिटायर होने के बाद उनका अधिकाँश समय चारपाई पर गोले(विशेष बेटी नीहारिका) के साथ बीता| पत्नी का देहांत पहले ही हो चुका था इसलिए गोले उनपर ही आश्रित थी|अक्सर उसे नहलाने धुलाने शौच आदि कराने से लेकर अधिकाँश कार्य वही करते थे,अब उनकी मंझली बहू गोले की सेवा करती है| इन परिस्थितयों में उन्हें अपनी अधिकाँश यात्राएं स्थगित ही करनी पडीं| इसके बावजूद एकबार उन्होंने मुम्बई और संभवत: दूसरी बार कुल्लू की यात्रा की थी| संयोगवश मैं भी उनकी कुल्लू यात्रा में साथ रहा|उस साहित्यिक यात्रा में वेदप्रकाश दीक्षित वटुक,त्रिलोचन शास्त्री,राजेन्द्र गौतम,पाल भसीन आदि भी सम्मिलित थे|       
उनका संघर्ष बहु आयामी था|चारपाई पर लेटी बेटी से लेकर रचनाशीलता के नए आयाम तक वे चारपाई पर पेट के बल लेटकर नवगीत,दोहा ग़जल आदि का सृजन करते रहे |सैकड़ों छंदोबद्ध कवियों की किताबों की भूमिकाएं तथा अपने निकटवर्ती रचनाकारों पर भी लगातार लिखते पढ़ते रहने के कारण उन्होंने अपना शरीर बेडौल कर लिया था|पिछले कुछ वर्षों से वे लगातार अपने इष्ट मित्रों के लिए काम करते जा रहे थे लेकिन उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था| देहावसान से कुछ दिन पहले तक वे ब्रजकुमार वर्मा शैदी –पर केन्द्रित अभिनन्दन ग्रन्थ संपादित कर रहे थे जो संभवत: अभी प्रकाशित नहीं हो सका|
छंदोबद्ध कविता के इस आचार्य के पास लिखने पढ़ने और गोले की सेवा करते रहने के अलावा मानो और कुछ काम न था| उनकी अनेक कविताओं में सांस्कृतिक क्षय के प्रति निराशा का स्थायी भाव साफ़ तौर पर देखा जा सकता है|हालांकि उन्हें लेकर अनेक विश्वविद्यालयों में दर्जनों शोध भी संपन्न हो चुके हैं तथापि उनका बहुत कुछ अभी बाकी है जो अप्रकाशित है ,जो अनकहा और अविवेचित है| भारतीय हिन्दी कविता की शास्त्रीय परंपरा  के प्रयोक्ता और व्याख्याता आचार्य देवेन्द्र शर्मा इंद्र जैसा अब हिन्दी में कोई अन्य कवि मुझे दिखाई नहीं देता| अनेक वर्षों तक वे दिल्ली वि.वि. की एम.ए. की कक्षा में प्राकृत और अपभ्रंश पढ़ाते रहे|उनसे हमारे जैसे कितने लोगों ने बहुत कुछ सीखा ,अब वह स्रोत छिन्न हो गया है| साहित्य इतिहास काव्यशास्त्र और प्राचीन कवियों को लेकर जब कहीं कोई शंका मन में आती थी तो  उनसे अक्सर पूछ लिया करता था|अब उनके बाद वैसा कोई दूर दूर तक दिखाई नहीं देता| हिन्दी की सांस्कृतिक कविता धारा के लिए यह एक अपूरणीय क्षति है| इन्ही शब्दों के साथ उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि|
कविताई की बानगी-
महाप्राण निराला जी की पत्नी मनोहरा के रूप सौन्दर्य का चित्रण एक छंद में-
संभ्रांत विप्रकुल की कन्या
गुणवती यथा नाम धन्या
नागरी लता पर स्मित वन्या अलिका सी|
अपरा-सरस्वती –ऋतंभरा
सिद्धार्थमना ज्यों यशोधरा
नव सूर्यकांत की मनोहरा कालिका सी||( 60/कालजयी -खंड काव्य से )
# अपनी विशेष पुत्री नीहारिका के लिए लिखी कविता का एक अंश-
वह सबसे दूर एक सूने कोने में
ज्यों आत्मलीन विस्मृत जादू टोने में
नीहारिका न कुछ मुख से कह पाती
जिसकी हर व्यथा अनकही ही रह जाती
उसके मीठे दो बोल कभी सुन पाता
त्रिभुवन का वैभव भी पाकर ठुकराता
वह परम हंसिनी मेरे ही मानस की
कोकिला मूक जो पल भर भी गा न सकी
हो गए निरर्थक सुकृत सभी चिर संचित
कुछ कर न सका तेरे हित सुविधा वंचित||(‘मैं साक्षी हूँ’- से )
 दो नवगीत-
1.    फिर उगूंगा
मैं फिर उगूंगा सांझ के आकाश में
मुझको विदा दो भोर का नक्षत्र हूँ|
हिमप्रांत  के नीले गगन में रात भर
धूनी रमाये ज्योति का करता हवन
गन्धर्व किन्नर किरातों के यज्ञ में
मैंने किया आलोक मंडित स्वस्त्ययन
मधुपर्व के आरम्भ का अवसान हूँ  
उल्लास का अवसादधर्मी सत्र हूँ|
अलकापुरी के शिखर पर मैं हूँ खड़ा
वह जलद वलयित कल्पवृक्ष विशाल हूँ
मैं पीन कन्धों पर बिठाए झूमता
नर्तित शिखी सारंग मंजु -मराल हूँ
समिधा बनूगा एक दिन ,अब हो चला
निश्छाय मैं फलहीन औ निष्पत्र हूँ||
2.    नामधारी रामनामी
दीप की लौ हुई मद्धिम झुकीं पलकें
कोयलों की राख पर सोयी अंगीठी
रोशनी की निम्न मुख सोनल ध्वजाएं
अब कहाँ वे सुयोधा कुंडल किरीटी
शैल देही पड़ा है निष्प्राण कुंजर
सूंड में जिसकी घुसी है एक चींटी
सिंह की मृत दन्त-दंष्ट्र विशीर्ण काया
वन्य पथ पर जम्बुकों ने है घसीटी
बांस वन की बहुप्रसूता मेदिनी में
उग रही फिर दीमकों की एक भीटी
स्वप्न पंखी नींद में डूबे कथानक
रात घिरते पहरुओं की बजी सीटी
कौन सा किसने नया अध्याय जोड़ा
नई कह कह कर पुरानी  लीक पीटी
जिसे ओढ़े नामधारी रामधारी
वस्तुत: थी कांच में चादर पछींटी ||   
 # संपर्क- सी 45/वाई -4 दिलशाद गार्डन,दिल्ली-95
 9868031384



#कथादेश जून २०१९  में प्रकाशित 

नवगीत की अरगनी पर टंगी गजलें
# भारतेंदु मिश्र
गीत नवगीत की दुनिया से जुड़े तमाम रचनाकारों से मेरा रचनात्मक जुड़ाव होना स्वाभाविक है,लेकिन बहुत कम ऐसे लोग मिले जो सचमुच में हिन्दी की गजलें लिखते हैं| वशिष्ठ अनूप  उनमें से एक हैं| जब हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के लिए खडीबोली में नए प्रयोग किये जा रहे थे तभी बीसवीं सदी में इसी क्रम  में निराला और जयशंकर प्रसाद जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने भी गजलें लिखीं| तब हिन्दी वादियों ने ग़जल को ‘गीतिका’ नाम देकर अपनाया| उस समय के रचनाकार हिन्दी की साहित्यिक विधाओं में अन्य भाषाओं में प्रचलित साहित्यिक विधाओं का भावानुवाद जैसा काम भी अभिनव प्रयोग समझ कर रहे थे| तभी हिन्दी ग़जल का प्रयोग भी आरम्भ हुआ|  प्रयोगधर्मिता की दृष्टि से हिन्दी में यह नवलेखन का ही परिविस्तार है|खड़ीबोली का छायावादी गीत अपनी प्रयोगधर्मिता के कारण  नवगीत बना,हाइकू और सानेट जैसे छंद आये, नव दोहा अभियान आरम्भ हुआ|भाषा –छंद लय सन्दर्भ आदि में भी नवता आयी| इन साहित्यिक परिस्थितियों को पचाकर और खुद को  बचाकर जो कवि आगे बढे उनकी कविता में स्वाभाविक चमक बनी रही| गजलकारों ने भी नए प्रयोग किये| सूर्यभानु गुप्त,जहीर कुरेशी,ज्ञान प्रकाश विवेक,हस्तीमल हस्ती,शिव ओम अम्बर ,कैलाश गौतम,राजेश रेड्डी ,मयंक श्रीवास्तव,अशोक रावत,योगेन्द्र दत्त शर्मा ,लक्ष्मीशंकर बाजपेयी,आदि अनेक सार्थक नाम हिन्दी गजल में नए प्रयोग के लिए सम्प्रति चर्चित हैं| भाई विज्ञान व्रत ने छोटी बहर में बहुत सार्थक ऐतिहासिक प्रयोग किया| हिन्दी में दिनेश शुक्ल जैसे कुछ्लोगों ने दोहा छंद में भी गज़लें लिखी हैं,हिन्दी में गजल लिखने वालों के पास उर्दू के अलावा हिन्दी छंदों की भी कभी कमी नही रही| दुष्यंत कुमार के बाद आदम गोंडवी  से प्रेरणा लेकर आधुनिक समय के अनेक कवियों ने हिन्दी गजल में हिन्दी के मुहावरे और हिन्दी की लोक भाषाओं के ठसक दार शब्दों को बहुत सुन्दर ढंग  से पिरोया है | नई पीढी के हिन्दी गजलकारो में वशिष्ठ अनूप उनमें से एक हैं| उनके पास हिन्दी गजल की विशाल परंपरा के अनुभव और अपनी हिन्दी की तत्सम शब्द संपदा का बेहतर प्रयोग भी है-
अक्षत चन्दन मन्त्र पुष्प नैवेद्य अग्नि कुमकुम
ख्वाबो में भाँवरे लगाना अच्छा लगता है|
मन में यदि संकल्प भरे हों सुन्दर दुनिया के
तूफानों से भी टकराना अच्छा लगता है| (-रौशनी की कोपलें)
मुझे लगता है कि जैसे जैसे हिन्दी गद्य का विकास हुआ वह राजभाषा का चरित्र गृहण करती गयी उसका गद्य रूप अधिक विकसित होता गया,लेकिन दूसरी ओर  वह मानकीकृत भाषा का स्वरूप मौलिक लयवंती संवेदनाओं से दूर होता गया| कविता की भाषा खुरदरे गद्य में तब्दील होती गयी|यही कारण है कि अकविता की तर्ज पर लिखी गयी खबरनुमा कवितायेँ लोक संवेदनाओं से असम्पृक्त होती गयीं| इसके बावजूद दूसरी ओर  छंदोबद्ध कवियों ने  आंचलिक आलोक में अपनी लोक भाषाओं को जीवंत रखा| कविता लोक से संपृक्त होकर ही हरियाती है| वशिष्ठ अनूप के पास भी प्रारम्भिक अवधी से लेकर अपनी मातृभाषा के लोक का आलोक और उसका भरा पूरा संवेदना संसार है| जहां कहीं वो अपनी मूल मौलिक भाषा संवेदना को छू पाते हैं वहां उनकी कविताई में चमक पैदा हो जाती है-
भूख मदारी सी डुगडुगी बजाती जब
नंगा होकर पेट दिखाना पड़ता है|
सारे  काम कहाँ होते आसानी से
कभी कभी आस्तीन चढ़ाना पड़ता है| (-रोशनी खतरे में है)
भगवान के घरों में भी है चिल्ल पों मची
अल्लाह के घरों में बहुत शोर है मियाँ|
पढ़ लिख के अभी सभ्य कहाँ हो सके हैं हम
हर बात पे अब भी तो तोर मोर है मियाँ ||(-तेरी आँखें बहुत बोलती हैं )
 असल में ये ‘तोर-मोर’ जैसे देशज शब्दों की मिठास कविताई को प्रभावशाली स्वरूप देती है| छंदहीन कवियों की कविता में ये बात नही दिखाई देती| खासकर छंदहीन कवियों ने कविता को अनुवाद किये जाने के लिए अधिक लिखा या विदेशी भाषाओं के साहित्यकारों से हिन्दी में अनुवाद करते हुए कविताकामिनी को हृदयंगम किये जाने का बड़ा स्वांग रचा और सम्मानों -पुरस्कारों तथा विदेशी यात्राओं के मार्ग खोजे| यह हिन्दी के व्यापक प्रचार प्रसार के हित में भले ही बड़ा काम दिखाई देता हो, किन्तु लोकोन्मुख हिन्दी की कविताई तो लोक भाषाओं के संस्कार से अनुप्राणित हुए बिना पहले भी संभव न थी और आज भी संभव नहीं है| इसीलिए नागार्जुन,केदार बाबू और त्रिलोचन जैसे प्रगतिशील कवियों ने कभी लोक भाषा और आंचलिक शब्दसंपदा से अपना संपर्क नहीं तोड़ा| परन्तु कुछ अतिवादी  समकालीन मुक्तछंद कवियों ने नामवरी आलोचना की छत्रछाया में अपने निजी विकास को ही गाया बजाया और व्यूह बनाकर छंदोबद्ध कवियों की उपेक्षा भी की |
गीत और गजल में हिन्दी और उर्दू की परंपरा का अंतर ही नहीं दोनों में छंदों के कहन और विषय वस्तु आदि का भी फ़र्क होता है रचाव में तो अंतर होता ही है| कुछ छंदोबद्ध कवियों ने केवल तुकों के सहारे छंदों की बेहिसाब जुगाली की है,मैं ऐसे कवियों को कविराज की श्रेणी में रखना चाहता हूँ, भगवान बचाए ऐसे कविराजों से| इसके अतिरिक्त  मंचीय तालीपिटाऊ, गलेबाज कवियों से भी हिन्दी गजल को सुरक्षित करने की आवश्यकता है| ये गलेबाज कविसम्मेलनों में अपनी आलाप वाली गायकी से छंदों में दो चार मात्राएँ तो आसानी से बढ़ा घटा लेते हैं|हिन्दी गजल में हिन्दी का रदीफ़ और काफिया भी वशिष्ठ अनूप के यहाँ साफ दिखाई देता है-
ये फूल बच्चियां नदियाँ पहाड़ यह सागर
ये सब बचेंगे तो सारा जहां सुरक्षित है|
चलो कि मिलके कहीं घोसला बनाए हम
बगैर प्यार के कुछ भी कहाँ सुरक्षित है|(-तेरी आँखें बहुत बोलती हैं)

इसी तरह हमारे गाँवों की तस्बीर भी हिन्दी गजलों में अब दिखाई देने लगी है| ये हिन्दी की गजलें अक्सर मुझे नवगीत की अरगनी पर टंगी हुई नजर आती हैं| जाने क्यों मैं हिन्दी कविता की विशाल परंपरा में गीत नवगीत की धारा से ही हिन्दी गजल को जोड़कर देख पाता  हूँ| इन गजलों मे वो पुरानी रोमानियत गुलाब -शराब और नाजों नखरे उठाने वाले बिम्ब अब नहीं दिखाई देते-
फूल खुशबू तितलियाँ अब भी हैं मेरे गाँव में
नेह की पुरवाइयां अब भी हैं मेरे गाँव में |
हैं अभी गाते कबीरा और मीरा के भजन
रस भरी चौपाइयां अब भी हैं मेरे गाँव में |
ऐसा नहीं है कि वशिष्ठ अनूप अकेले ही इस प्रकार की गजलें लिख रहे हैं,और भी हमारे समय के अनेक कवि इस तरह की अभिव्यक्ति अपनी हिन्दी गजलों के माध्यम से सामने रख रहे हैं-हिन्दी कविता के लिए ये बहुत अच्छी बात है-
गदोरी पर रची मेंहदी कि लाली याद आती है
मुझे अक्सर वो लड़की भोली भाली याद आती है|
बहुत सी बिजलियों की झालरे आँखों में जब चुभतीं
तो मिट्टी के दियों वाली दिवाली याद आती है|

(बारूद के बिस्तर पे )
सत्ता से आँख  मिलाकर उसके मर्म को समझने का हुनर भी आज का कवि जानता है| ये सच है कि कलम के सामने तख्तोताज बहुत बौने ही रहे हैं-
कलम को थपथपाती है हुकूमत
कलम से थरथराती है हुकूमत|
फतह करले भले ही मोर्चों पर
कलम से हार जाती है हुकूमत |
हिन्दी की छंदोबद्ध कविता आज इक्कीसवीं सदी के नए दौर में अपनी तमाम अर्थ ध्वनियों, शब्दविन्यास, और लोक भाषा चेतना को  लिए आगे बढ़ रही है| हिन्दी के मुहावरे लेकर लिखी जा रही समकालीन हिन्दी गजल का मैं हमेशा से स्वागत करता रहा हूँ|अंतत: वशिष्ठ अनूप का एक और शेर देखें जो अपनी पोशाक में गजल सा है लेकिन उसमें नवगीत की ऊर्जा भरी हुई है| एक शेर  में गिलहरी और पेड़ के रिश्ते को इस आसान ढंग से कहने की कोशिश कवि ने की है कि उसकी उक्ति वैचित्र्य को सराहे बिना नहीं रहा जा सकता|

कोई चूहा तो नहीं है कि बिल बनाएगी
गिलहरी पेड़ से जाये तो कहाँ जायेगी?
# संपर्क
सी-45 /वाई-4 ,दिलशाद गार्डन,दिल्ली-110095
9868031384