शनिवार, दिसंबर 19, 2020


समीक्षा

रोटी के संबंध

# भारतेंदु मिश्र

नव दोहा लेखन की परम्परा अब तीस वर्ष पुरानी हो चुकी है | देवेन्द्र शर्मा इंद्र जी ने लगभग पचास दोहाकारों को लेकर सप्तपदी के सात खंड संपादित किए थे | उसमें से कुछ लोग आज भी दोहे लिख रहे हैं | मंचीय कारोबारियों से अलग हट कर कुछ लोगों के दोहे हमारे समकाल की काव्य व्यंजना को साधने में बहुत कारगर रहे हैं | वरिष्ठ कवि नवगीतकार रमेश गौतम के दोहे हमारी समकालीन काव्य सर्जना का संतुलित खाका प्रस्तुत करते हैं | “बादल फेंटें ताश” शीर्षक से उनके श्रेष्ठ दोहों का संग्रह अभी देखने को मिला | असल में ये नेता ही बादल की तरह से हम सब लोगों को ताश की गड्डी की तरह फेंट रहे हैं| हम लोग उनके खेल को देखने के लिए विवश और अभिशप्त हैं |

इन दोहों को संवेदना के मर्म को दुह कर बहुत करीने से सहेजा गया है| ये चलताऊ मंचीय फब्तियां नहीं हैं बल्कि इनमें गहरी मानवीय संवेदना का आलाप और विलाप अनुस्यूत है | किसान मजदूर बच्चे शिक्षा चिकित्सा अर्थव्यवस्था में छिपी भ्रष्ट व्यवस्था की पड़ताल करते और सांप्रदायिक सोच पर प्रहार करते ये दोहे मुझे बहुत अच्छे लगे | श्रम के मूल्य और वास्तविक आजादी के अर्थ को विवेचित करता दोहा देखिए -

मिले पसीने को यहाँ उसका पूरा दाम

आजादी के शेष हैं ऐसे अभी मुकाम ||

सचमुच आजादी तब तक अधूरी ही है जब तक दलालों के चंगुल में फंसे किसान मजदूर को उसके श्रम का दाम नहीं मिलता | चुनाव में नेता वोट पाने के लिए जिस प्रकार सांप्रदायिक हिसा को बढाते हैं उसका परिणाम देखने योग्य है -
रामदीन का घर जला हामिद का खलिहान

दोनों के इस हाल पर रोया हिन्दुस्तान ||

ऐसे हिन्दुस्तान की कल्पना तो किसी ने नहीं की थी| यह हमारे सपनों का भारत कतई नहीं है | इक्कीसवी सदी में बीस वर्ष बीत जाने के बाद भी इस प्रकार की हिंसा जारी है | रमेश गौतम जी अपने काव्य प्रयोजन को भी साफ़ लिखकर बताते हुए कहते है-
कभी लिखूंगा बाद में रूप रंग के छंद

अभी लिखूंगा पेट से रोटी के संबंध ||

कवि के अनुसार वास्तविक ईश्वर तो प्रकृति के तत्वों में समाया हुआ है न कि मंदिर मस्जिद और मूर्तियों में है| यही हमारी सनातन परंपरा और भारतीय दार्शनिक बोध भी है| वास्तव में तो सच्चिदानंद का रूप ही व्यापक अगोचर और अनुभवगम्य है -
पृथ्वी नभ पावक पवन जलधारा स्वच्छंद

सृष्टि समूची सामने रूप सच्चिदानंद ||

इस सादगी के सौंदर्यशास्त्र को जिस प्रकार कवि ने अपने दोहों में अभिव्यक्त किया है वह नई पीढी के अन्य दोहाकारो के लिए आदर्श भी है |हम सब निम्न मध्यवर्ग के लोग कच्ची गिरिस्ती के खटराग में कुछ ऐसा ही सोचते हैं-

बस थोड़ी सी चांदनी बस थोड़ी सी धूप

कच्चे घर की प्रार्थना का निश्छल प्रारूप ||
काव्य विषय की गंभीरता कवि की शक्ति है किन्तु अभिमन्यू और कुलहाड़ी जैसे प्रयोग से कहीं कहीं छंद भंग भी प्रतीत होता है कवि को ऐसे प्रयोगों से बचना चाहिए |

अंतत; कवि रमेश गौतम जी को बधाई |उनकी सर्जना और आगे बढ़ती रहे |

शीर्षक- बादल फेंटें ताश / कवि - रमेश गौतम /अनुकृति प्रकाशन बरेली /मूल्य-175/ प्रकाशन वर्ष-2019

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संपर्क- सी -45 /वाई -4 ,दिलशाद गार्डन,दिल्ली -110095

बुधवार, अगस्त 26, 2020

 

 

‘ये भी क्या बात बनी’

# डॉ भारतेंदु मिश्र 

अक्सर आदमी अपने सपने के लिए जो बोता है फसल के रूप में वो उसे काटने खाने को नही मिलता, इस जीवन की यही विसंगति है| गुलाब बोने वालों को अक्सर नागफनी की फसल दिखाई देती है| ये समाज और मानव व्यवहार कुछ ऐसा ही है| कवि इस तथ्य को जानता है इस पंक्ति के अपने निहितार्थ  भी हैं |

भाई आवारा नवीन के साथ युवा रचानाकार मंच,लखनऊ में काम करते हुए बहुत से साहित्यकारों कवियों से मुलाक़ातें होती रहीं| उनदिनों साहित्य को लेकर एक दीवानगी होती थी| अस्सी के दशक में खासकर आठवें दशक के पूर्वार्ध में हमारा ये युवा रचनाकार मंच बहुत सक्रिय रहा| सीखने, पढ़ने, जानने के दिन थे| जो मिल जाता उसको सुनते ,भाषा संस्कृति और कविता के सरोकार पर बात होती थी|उन्ही दिनों नवीन जी से सेंवढ़ा (दतिया) के साहित्यकारों की भी बात होती थी| सेंवढ़ा मध्यप्रदेश का वह स्थान है जिसमें हिन्दी कविता के आदिकाल की व्याख्या विवेचना होती रही है| उन्ही दिनों गीतकार कवि रामस्वरूप स्वरूप से भी एकाधिक मुलाकातें हुईं | फोन पर भी अनेक बातें हुईं हैं , किन्तु उन्हें और उनके गीतों को तभी सूना भी था | वे  नवीन जी के संबंधी हैं और अक्सर लखनऊ आते जाते रहते थे | सन 1986 में मैं नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आ गया तो लखनऊ और अपने मंच से बहुत हद तक कट गया|

सेंवढ़ा तभी से मेरे लिए आकर्षण का केंद्र बना रहा| वहां स्थित कालेज के हिन्दी विभाग में उनदिनों प्रो.सीता किशोर जी थे,उनसे भी उन्ही दिनों से पत्राचार शुरू हुआ था|प्राचीन कविता खासकर आल्हखंड की पाठ्यचर्या की दृष्टि से उनके व्याख्यान बहुत महत्वपूर्ण होते थे| उनसे जो मेरा पत्राचार शुरू हुआ था वो यहाँ दिल्ली कार भी जारी रहा| धीरे धीरे पता लगा कि सीता किशोर जी और रामस्वरूप स्वरूप जी एक ही कालेज में कार्यरत हैं | रामस्वरूप जी कार्यालय में और सीता किशोर जी हिन्दी विभाग में प्राध्यापक थे| बहुत मन हुआ कि सेंवढ़ा जाकर वहां के कालेज और वहां के हिन्दी आचार्य सीता किशोर जी के निकट से दर्शन करूं लेकिन वह  संयोग नही बना सका| मैं सात महीने ललितपुर रहा ओरछा,बरुआ सागर, मऊरानी पुर देखा तब भी कोशिश की सेंवढ़ा पहुँचने की लेकिन संभव न हुआ |

बाद में नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आ चुका था| सेंवढ़ा फिर भी मन में बसा था| नवीन भाई के साथ अनेक अफलातूनी योजनाएं भी बनीं और असफल होती गयीं| उनदिनों मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध कर रहा था| कैम्पस में अक्सर बड़े बड़े विद्वान आते जाते रहते थे| एक दिन एक मित्र से सूचना मिली कि किरोड़ी मल कालेज में कोई आल्हखंड के बड़े विद्वान पधारे हैं| वे आदिकाल पर व्याख्यान देने वाले हैं | मेरा विषय तो संस्कृत रहा है लेकिन रिसर्च फ्लोर पर इस प्रकार की खबरें सुनकर हम कई मित्र ऐसे विद्वानों को सुनने पहुँच जाते थे| वो डॉ.नागेन्द्र और डॉ.विजयेन्द्र स्नातक का समय था, उन दिनों तक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग पर डॉ नामवर सिंह की छाया तब तक नहीं पड़ी थी |  दिल्ली वि.वि. के केन्द्रीय पुस्तकालय के सामने स्थित पार्क में भी अक्सर बैठकें होती थीं| उस दिन भी गोविन्द प्रसाद, हरीश नवल,विनय विश्वास,बली सिंह,जैसे और भी साथी थे | सीताकिशोर जी नाम सुनकर मन में बहुत रोमांच हो आया| ये सूचना कुछ देर से मिली थी| फिर भी हम लोग उन्हें सुनने किरोड़ी मल कालेज पहुँच गए| व्याख्यान के बाद सीता किशोर जी से अपना परिचय बताया उन्हें प्रणाम किया तो मेरे कंधे पर हाँथ धरकर वो बहुत देर तक मन से आशीर्वाद देते रहे, मेरी कुशल क्षेम पूछते रहे| तब भी उनसे डॉ. कामिनी जी और रामस्वरूप जी के बारे में चर्चा हुई|  विडम्बना देखिये अभी तक  सेंवढ़ा इस तरह मेरे मन में किसी कहानी के रूप में बसा है,हालांकि अभी जाना नहीं हो पाया |

अब कुछ रामस्वरूप जी के गीतों की बात भी करूंगा| असल में ग्वालियर और आसपास की धरती गीत की उर्वरा धरती रही है| सेंवढ़ा भी निकट ही है तो वीरेन्द्र मिश्र ,मुकुटबिहारी सरोज,महेश अनघ,राजेश शर्मा,विष्णुश्रीवास्तव आदि अनेक गीतकारों से तथा उनकी रचनाधर्मिता से थोड़ा बहुत परिचय रहा है| लेकिन रामस्वरूप जी मंच से जुड़े गीतकार हैं |

मंच पर श्रृंगार ज्यादा गया जाता है, शायद वही चलता भी है--

एक तो मौसम मोरपंखिया

उस पर तुम हो पास

शहद घोल दी दूध में जैसे

इतनी बढी मिठास|

ये श्रृंगार की मिठास सार्थक कवि मंच पर अभी गाई जाती है| गाँव गिरांव में कहीं कहीं बची भी हो शायद लेकिन अब जीवन में सहज नही रही| एक और बिम्ब देखिए -

सन्दर्भ महके रात भर तेरी कहानी के

आंजुरी भर फूल जैसे रात रानी के |

आज भी कविसम्मेलन के मंच पर ऐसे काजर आँचर और स्त्री प्रेम के रूप सौन्दर्य के गीत बड़े मन से सुने सराहे जाते हैं| लेकिन जब गीत  में दार्शनिक बोध का आस्वाद भी उजागर होता है तो कवि उल्लेखनीय हो जाता है-

बदले है रोज वस्त्र मैले से उजरे

तन से तो लगें मस्त,मन से हैं दूबरे

जाने कब टूट जाय ,साँसों की अरगनी

कैसी ये जिन्दगी सुबह शाम अनमनी |

कवि जानता है जीवन की हकीकत को और मन के अनमनेपन  को | ये अनमनापन  ही हम सबकी विसंगति है जो हमे कविता से जोड़ता है| यही अस्थिरता का दुःख गीत की जीवनी शक्ति है| एक और प्रयोग देखें -

ये भी क्या बात बनी

बोए गुलाब

उगा आयी नागफनी |

इस गीत में कवि नवगीत की संवेदना के बहुत निकट आ गया है| लेकिन मंचीय कविताई ही रामस्वरूप जी के गीतों का मूल स्वर है| उन्हें दीर्घायु होने की और स्वस्थ सानंद रहने की शुभकामनाएं |

 संपर्क:--- सी-45/वाई -4 ,दिलशाद गार्डन,दिल्ली -110095

फोन-9868031384 

 

शनिवार, अगस्त 15, 2020

 समीक्षा 

 "   हो गए बेशर्म नेता // डॉ भारतेंदु मिश्र 

 

ये नेताओं की बेशर्मी केवल राजनीति में ही नही बढी है, बल्कि जाति बिरादरी,  साहित्यिक,सांस्कृतिक संगठनों,बाजारों और मजदूर किसान संगठनों के नेताओं में भी लगातार  ख़ास किस्म का उन्माद, कमीनापन, निजी स्वार्थ वगैरह के लक्षण साफ दिखाई देने लगे हैं|आचार्य भागवत दुबे का नाम हिन्दी की छंदोबद्ध कविता के लिए नया नहीं है| मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी जबलपुर में उनका निवास है लेकिन उनकी कविता नर्वदा की जलधारा के सामान बहुत दूर तक प्रसरित हो चुकी है| कवि के पास पूरी सांस्कृतिक परंपरा आँखों के सामने जीवंत है| कंदमूल फल की सुगंध की तरह उनकी धरती आदिवासियों से लेकर वैश्विक पर्यटन तीर्थ तक फ़ैली  हुई   है | | छांदस स्वर के  कवि हैं| गीत, गजल, दोहा, नवगीत सब कुछ उनकी कविताई का अंग बना है| वे लगातार सहज मन से सक्रिय हैं| हालांकि अब किसी भी रचनाकार की कविताओं में विषयवस्तु की एक रूपता सामान्य बात है| तात्पर्य यह कि लोग एक जैसी समस्याओं और वंचनाओं का शिकार हो रहे हैं| इन एक जैसी विसंगतियों को एक साथ जीते हुए वे अपनी कठिनाइयों का चित्रण भी अपनी भाषा और अपनी काव्य सामर्थ्य से कर रहे हैं| इसके बावजूद केवल काव्य सामर्थ्य और भाषा ही कविता नहीं है| केवल छंद ही कविता नहीं है,कविताई तो जीवन के अनुभव से आती है| भाषा का लालित्य और काव्य शिल्प तो अभ्यास से चमक जाते हैं| जीवन का अनुभव परिस्थितियों से जूझने और जूझकर बाहर निकलने से मिलता है | भगवत दुबे इस दृष्टि से भी अनुभव संपन्न कवि प्रतीत होते हैं| आपने दधीचि पर महाकाव्य भी लिखा है गीत नवगीत गजल के तो अनेक संग्रह प्रकाशित हो  चुके हैं

 

भूखे भील गए’ शीर्षक उनका नया नवगीत संग्रह देखने को मिला| इसमें एक सौ पांच गीत हैं|कवि जब भीलों की भूख का जिक्र करता है और उन्हें अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ले जाने वाले स्वार्थी सरकारी गैरसरकारी संगठनों द्वारा चलाये जा रहे विकास कार्यक्रमों  की सच्चाई व्यक्त करता है तो उनके दुख को मांजता हुआ दिखाई देता है | किसी असमर्थ या अक्षम के दुख को समझना उसे मांजना और फिर समाज के सामने रेखांकित करना कविताई का परम प्रयोजन है | कवि के शब्दों में देखिये -

कभी न छंट पाया

जीवन से विपदा का कुहरा

राजनीति का इन्हें

बनाया गया सदा मुहरा

दिल्ली लोक कला दिखलाने

भूखे भील गए |

ऐसे अनेक बिम्ब इस संग्रह के गीतों में देखने को मिलते हैं| हम दलालों, ठेकेदारों, भ्रष्ट नेताओं लुटेरे सुरक्षा कर्मियों और महाझूठ की सौदेबाजी करने वाले समाज सुधारकों से घिरे हुए हैं| समझना मुश्किल है कि कौन कब किस रूप में किसी को भी लूट सकता है,और अब तो कम्पनियां मोबाइल में घुसकर ऐसे लूटती हैं कि लुटने वाले को पता भी नहीं चलता | ये  आपदाओं का समय है| सर्वत्र विपदाओं का कोलाहल है| असल में आम आदमी की किसी को चिंता नहीं है कवि  के शब्दों में -

बुद्धिवादियों की कविता है

नीरस और उबाऊ

मात्र मंच की चुहलबाजियाँ

औ मसखरी बिकाऊ

नैतिकता औ राष्ट्रवाद से

वंचित हुआ सृजन |

ये सही है कि कविता आम आदमी से दूर हो गयी है|लेकिन ये नैतिकता और राष्ट्रवाद की भी  दूकानदारी हो रही है |इस लिए हमने सच्ची जन सामान्य की नैतिकता और सच्चे किसान मजदूर वाले राष्ट्रवाद को समझने की आवश्यकता है| हम एक संगठन विशेष से जोड़कर  नैतिकता और राष्टवाद को परिभाषित नहीं कर सकते | आम आदमी से पार्टियों का चिंतन विमुख हो गया है इसमें दो राय नहीं है| सब कुर्सी की और भाग रहे हैं| लेकिन कवि की नैतिकता कुछ अलग होती है | कवि सत्ता के सामने खडा होता है सत्ता के आगे पीछे नहीं चलता| सवर्णों की और से कवि आरक्षण पर कटाक्ष करता है-

कौए,बगुले आरक्षण के मोती पाते हैं

राजहंस अपनी सवर्णता पर पछताते हैं

राजनीति ने लगा दिए     किस्मत पर ताले हैं"|

 यहाँ सवर्ण को राजहंस और अन्य आरक्षित जातियों को कौए बगुले न कहा जाता तो अच्छा होता | जातियां तो हमने ही बनाई हैं| अरक्ष्ण भी संविधान ने दिया है तो सवर्णवादी होना बुरा नहीं है लेकिन दूसरों पर अनुचित कटाक्ष करना उचित नहीं है| असल में कविता मनुष्यता की भाषा है | जाति बिरादरी से ऊपर मनुष्यता की प्रतिष्ठा करती है |पुस्तक में कवि के गीतों पर मधुकर अस्थाना जी ने मुग्धभाव से लम्बी भूमिका लिखी है| और गहन विश्लेषण किया भी है | दुबे जी की कविताई उनके छान्दस शिल्प और विषय वस्तु में कहीं कोई कमी नहीं है | कहीं कहीं उनके विचार नई सदी के जीवनमूल्यों से मेल नहीं खाते | हालांकि भाषा बिम्ब प्रतीक आदि की द्रष्टि से उनके इन गीतों में भी आचार्य भागवत दुबे का आचार्यत्व प्रतिष्ठित हुआ है |

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भूखे भील गए/ (गीत नवगीत ) / आचार्य भागवत दुबे /पाथेय  प्रकाशन जबलपुर ,.प्र.

फोन-9300 613975 

गुरुवार, जुलाई 09, 2020

😢कुलीन कवि अब नहीं गाते

भारतेंदु मिश्र 
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हिन्दी के कुलीन कवियों और कुलीनताबोध वाले संपादकों के लिए जिन्हें छन्दोबद्ध कविता पिछड़ी हुई,लोक भाषा की कविता जड़ और ठहरी हुई लगती है|जिन्होंने लोकभाषा को निष्ठापूर्वक बड़ी जतन से बोली में तब्दील कर दिया और छंदोबद्ध कविता लिखने वाले अकुलीन कवियों के लिए कुछ पत्र पत्रिकाओं में नो इंट्री का बोर्ड लगा रखा है|हिन्दी कविता की सत्ता पर बने रहने के लिए शायद ये अपरिहार्य हो --
#कुलीन कवि अब नहीं गाते
वे गहरे पैठकर गढ़ते हैं
खबरों का वाग्जाल
भद्रभाषा में भद्रलोक के लिए
कश खींचकर समस्याओं पर
उछालते है गंभीरतम सवाल पिछड़ेपन पर
विवादों और अनुवादों में लिप्त रहे
सपने में भी
हंसिया कभी पकड़ा नहीं
हथौड़ा कभी उठाया नहीं
समुद्र से पहाड़ तक
लालटेन लेकर
अडिग भाव से व्यस्त हैं
दो पैग के अभ्यस्त हैं
फिसलन भरी हवाई चर्चा में
युयुत्सु की भांति डटे हैं
पुराने खोखले बांसों में
खोजते फिरते हैं
सुदूर चर्च की घण्टियों के सुर
इसलिए समूह के झुरमुट से सटे हैं
और पथरा गए हैं पठार से
टेसू वन के करुण गीत
इन्हें नहीं लुभाते
इकतारे पर बजती
किसान मजदूर की अनगढ़ छंद लय
धुनिया के धनुष की खोई हुई धुन
जलते हुए बरगद के बिम्ब
गेरू के छापे
चीड़ों पर बिखरी चांदनी
और नदी के गीत
इन्हें नहीं सुहाते
भद्र भाषा में इनका अनुवाद संभव नही हैं
इसलिए कुलीन कवि अब नहीं गाते।
@भारतेंदु मिश्र (#कोरोना काल की कविताएं )