रविवार, नवंबर 16, 2014

संग्रहणीय नवगीत संग्रह
भारतेन्दु मिश्र

हमारे समय की अनेक गीत कवयित्रियो मे राजकुमारी रश्मि का अपना अलग स्थान है।ग्वालियर से उठती हुई उनके गीतो की अनुगूंज उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश सहित दिल्ली तक सबको सुनाई देती है।उल्लेखनीय है कि उनकी मखमली आवाज का जादू कविसम्मेलनो मे श्रोताओ को श्रेष्ठ गीतो की सार्थक संवेदना से मंत्र मुग्ध करता रहा है। वे गीत गजल और दोहो के लिए जानी जाती हैं लेकिन गीतो मे उनकी अभिव्यक्ति मुझे अधिक सार्थक प्रतीत होती है। कविता के सामाजिक सरोकारो की बानगी जो राजकुमारी रश्मि के गीतो मे देखने को मिलती है वह मध्यप्रदेश की दूसरी किसी कवयित्री के गीतो मे नही मिलती।मेरे लिए यह बहुत सुख का विषय है।कवयित्री की गीत के प्रति प्रतिबद्धता देखिए-
चिमनी धुआं तेज रफ्तारें/चारो ओर जहर
इन सबके ही बीच बना है /गीतो का ये घर।
तो कवयित्री जीवन के खटराग से गीत की धुने चुरा लेने मे कुशल है।समकालीन नागर या कहें कि कस्बाई जीवन की सांकेतिक व्याख्या और गृहरति की व्यंजना का इससे बेहतर उद्धरण शायद और नही हो सकता।यह हम सबका भोगा हुआ यथार्थ है।राजकुमारी रश्मि की यह कुशलता उन्हे अपने समय की तमाम कवयित्रियों से अलग रेखांकित करने मे सहायक होती है।वो गीत का जो ताना लेकर चलती हैं उसे गीत का संपूर्ण बाना धीरे धीरे बनता है वे उसे जीती हैं और निभाती हैं। यानी गीत के निर्वाह की दृष्टि भी साफ तौर से कवयित्री के गीतो मे दिखाई देती है।ये गीत अपनी इन्ही विशेषताओ के चलते सामयिक नवगीत के रूप मे प्रतिफलित होते दिखाई देते हैं। वे डां.शांति सुमन के बाद एकमात्र कवयित्री प्रतीत होती हैं जिनके गीतो मे जन चेतना के स्वर बखूबी मुखर होते हैं। संभवत: राजकुमारी रश्मि ने अपने लेखन की शुरुआत कहानियो से की थी, उसका लाभ कवयित्री को इन गीतो में रचनात्मक चमक पैदा करने मे मिला।प्रस्तुत संग्रह-अक्षर बोलते हैं -मे कवयित्री के अनेक आख्यानधर्मी गीत बहुत लाजवाब बन गए हैं। यह विरूपता का मार्क्स्वादी सौन्दर्य शास्त्र कवयित्री ने कहीं पढा है या नही यह तो नही जानता , अलबत्ता जिया अवश्य है ।खास बात ये भी है कि राजकुमारी जी ने अपने आपको भी दुहराया नही।बेतहाशा तुकबन्दियां जोडकर जिस तरह लोग संग्रहो की संख्या बढाने मे लगे हैं कवयित्री ने  गीतो और संग्रहों की संख्या नही बढाई।देखें-
.दुरदिन मे अब हरखू कैसे /घर का पेट भरे।
गश्त लगाती पूरेघर मे /अब भूखी छिपकलियां/राह देखती हैं बच्चों की सूनी सूनी गलियां/घुन भी लगने लगा बीज में/घर मे धरे धरे।
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.कोर्ट कचेहरी जाते जाते/हांफे रामपियारी।
 छोटा बेटा बिना अन्न के /हुआ राम को प्यारा/कठिन समय मे सम्बन्धी भी/करने लगे किनारा/फटी हुई धोती मे क्या क्या ढांपे राम पियारी।
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.राजमार्ग के लिए गांव के /आधे खेत गए
छाप अंगूठा होती सब की/ खातो मे भरपाई/जबर लोग मनमानी करते/कहीं नहीं सुनवाई/दो बीघा सरसों की गरदन/पल मे रेत गए।
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.बीडी फूक फूंक दिन अपने /काटे राम भजन।
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.तुम क्या जानो कैसे जीते /कम पगार वाले
छोटे से कमरे मे सबको /रहना पडता संग/ भूखे पेट हुआ करती है/बच्चो मे हुडदंग/रोज तकाजा करने आते हैं/उधार वाले।
 इन गीतो की एक विशेषता यह भी है कि ये बहुत सहज सरल भाषा मे रचे गए हैं। किसान और मजदूर की चेतना के साथ ग्रामीड स्त्री की दशा का भी आकलन किया गया है।शब्दकोष वाली शब्दावली के सहारे दूर की कौडी खोज लाने का श्रमसाध्य कार्य बिल्कुल नही किया गया है।मुझे लगता है कि  कवयित्री के मन पर  कहीं न कहीं मुकुट बिहारी सरोज और महेश अनघ की ग्वालियर गीत परंपरा का भी गहरा प्रभाव पडा है। इन गीतो मे बेटियो की अनेक छवियां हैं,हरखू-  रामपियारी -रामभजन जैसे किसान और कामगर जन की वेदनाएं हैं जो इस संग्रह को मुकम्मल पठनीय और संग्रहणीय नवगीत संग्रह बनाते हैं। अंतत:इन पछपन गीतों मे आदि से अंत तक अक्षर बोलते हैं।जिनकी धुन कोई भी सजग पाठक सुनकर समझ सकता है।



शीर्षक:अक्षरबोलतेहैं/रचनाकार:राजकुमारी रश्मि/प्रकाशक:उत्तरायण प्रकाशन,लखनऊ/
वर्ष:2013/मूल्य:250/

शुक्रवार, अक्तूबर 31, 2014

               समीक्षा
                                      बात हिन्दी गजल की
  भारतेन्दु मिश्र

तारसप्तक  के बाद हिन्दी कविता मे पता नही कब और कैसे छन्दोबद्ध कविता और छन्दमुक्त कविता के दो खेमे बने और लगातार यह अनावश्यक विभाजन की रेखा और गाढी होती गई।कुछ समीक्षको और कवियों ने नया प्रयोग और विचारधारा के नाम पर इस विभाजन रेखा को और आगे बढाया।अन्य अधिकांश भाषाओ मे कविता का अर्थ समग्र कविता से होता है,नकि कविता की एक कोई विधा विशेष से।निराला, नागार्जुन ,केदारनाथ अग्रवाल,त्रिलोचन,आदि के यहां कविता समग्र रूप मे उपस्थित होती है।दुष्यंत ने  गजल के अलावा अन्य विधाओ मे भी कविताएं लिखी हैं।अब जहां तक दुष्यंत के बाद हिन्दी गजल की बात करें तो भाई ज्ञानप्रकाश विवेक की यह किताब निस्सन्देह सराहनीय प्रयास है।सचमुच यह किताब हिन्दी गजल के मिजाज की रंगत पेश करती है।ये सही है कि हिन्दी गजल का मुहावरा नए समय मे बदला है।जैसा कि ज्ञानप्रकाश विवेक कहते  हैं—प्रश्न केवल अभिव्यक्ति को जादुई अन्दाज मे व्यक्त करने का नही है।प्रश्न समकाल और उसके यथार्थ का भी है।समकालीन गजल मुग्धकारी छवियों के विपरीत यथार्थ को भेदती हुई नजर आती है।  (पृ.65)  तो ऐसा माना जा सकता है कि हिन्दी गजल भी आज के नए कवियों के नए अनुभवो की यथार्थ दृष्टि से भरी पुरी है।लेकिन यथार्थ का भेदन जैसा प्रयोग काव्यात्मक हो गया है ।समीक्षा करते समय समीक्षा की भाषा यानी तर्को की अभिधा अपनानी चाहिए लेकिन कभी कभी ऐसा हो जाता है। सवाल ये है कि यथार्थ को भेदकर हम कहां पहुंचते हैं या गजले हमे किधर ले जाती हैं,यह स्पष्ट नही है।जहां तक कथ्य और यथार्थवादी रचनात्मक विस्तार की बात है तो वो साहित्य की सभी विधाओ मे समानांतर रूप से हुआ है।वो हरेक कवि कथाकार और सजग शायर के यहां देखने को मिलेगा।नवगीत मे, दोहे मे सभी काव्य विधाओ मे नित नूतन अभिव्यक्ति  भंगिमाएं देखने को मिलती हैं।बात  ये है कि दुष्यंत के बाद हिन्दी गजल को सही परिप्रेक्ष्य मे पढा और सराहा नही गया।मुझे तो लगता है कि दुष्यंत को ही सही रूप मे अभी तक नही  प्रस्तुत किया गया।उनकी गजलो को मैने किसी पाठ्यक्रम मे पाठ के रूप मे नहीं देखा,हो सकता है यह मेरे अल्प ज्ञान की सीमा हो । हिन्दी की छन्दोबद्ध कविता ही पाठ्यक्रम से बहिष्कृत हो चुकी है।अधिकांश हिन्दी के पाठ्यक्रम निर्माताओ की नजर मे छन्दोबद्ध कविताएं पिछडे और बचकाने लोग लिखते हैं उनमे वैचारिकता नही होती। किंतु समस्या ये भी है कि जो साहित्य नई पीढी के नए विद्यार्थी के सामने नही आता या नही रखा जाता, उसका भविष्य अनिश्चित होता है।नवगीतकारो ने लंबे संघर्ष के बाद कहीं कहीं हिन्दी नवगीत को पाठ्यक्रम मे शामिल कराया है।हिन्दी गजल ने अपने आलोचक तैयार ही नही किए। जबकि कुछ लोगो का यह भी मानना है कि अभी हिन्दी गजल की शक्ल ही नही उभरी है।
दूसरी ओर जिस विपुल मात्रा मे साहित्य का सृजन हो रहा है उसकी तुलना मे समीक्षा नगण्य है।आलोचक के पास विचारधारा नही है जिनके पास कुछ मुट्ठियो मे रेत बची भी थी वह अब धीरे धीरे झर गई है। साहित्य केवल कला की वस्तु बनकर रह गया है।कहने का मतलब जिसको भी रदीफ और काफिया मिलाना आगया वो मिसरे जोडने लगता है और उसका लक्ष्य लालकिले का मुशायरा हासिल करना हो जाता है।सच  ये भी है कि दुष्यंत की तरह गजल की पुरानी जमीन को तोडकर नई जमीन बनाने वाले हिन्दी शायर बहुत कम हुए।  हुआ ये भी कि लोगो को छन्द सध गया और एक ही भाव साम्य की हजारो गजले दिखाई देने लगीं।ये हो सकता है कि दुष्यंत के बाद हिन्दी गजल मे जो नए प्रयोग हुए है उनमे से कुछ उल्लेखनीय हों।इस पुस्तक मे अनेक कवियो के उद्धरण देते हुए भाई ज्ञानप्रकाश विवेक ने अपनी बात रखी है ,उनका उद्धरणो का चयन भी निर्विवाद हो सकता है जैसे -अदम गोंडवी और नार्वी का उल्लेख व्यवस्था विरोध के स्वर को आगे बढाने के लिए किया गया है। तो जहां तक हम सभी जानते हैं कि इन दोनो कवियो का जीवन ही अव्यवस्था अभाव और संघर्ष मे कटा है। ये दोनो हिन्दी गजल को नई शक्ल देने मे अपनी भूमिका भी निभाते रहे हैं, लेकिन जो तमाम शायर लालकिले से लेकर देश विदेश तक की दूरी अपनी शायरी से नाप रहे हैं और कुमार विश्वास जैसे गलेबाजो की तरह  कविता से कमाई करने  मे लगे हैं।तात्पर्य यह कि जब गजलकार ही अपनी विधा को लेकर संजीदा नही हैं तो फिर दूसरो को क्या पडी है।
दुष्यंत के बाद जो सर्वाधिक चर्चित नाम सामने आता है वो अदम गोण्डवी का है।
काजू भुने प्लेट मे ह्विस्की गिलास मे/आया है राम राज विधायक निवास में ।–इस तरह की मार्मिक यथार्थवादी अभिव्यक्ति के स्वर को मुकम्मल हिंदी गजल मे रखा जाना चाहिए।दूसरा नाम नार्वी का है-सरफरोशी के इरादे कल भी यू ही थे जवां/कल भी बस बीडी जली थी आज भी बीडी जला। लेकिन जब हम हिन्दी गजल कहते हैं तो हिन्दी के छन्दो और अवधी,ब्रज,बुदेली जैसी भाषाओ की संवेदनात्मक सघनता और एक तरह की लोच की भी बात होनी चाहिए।पुस्तक के पहले अध्याय मे त्रिलोचन शास्त्री,महेश अनघ, सहित अन्य कुछ साहित्यकारो की टिप्पणियो का आशय भी यही है।हिन्दी मे हजारो छन्द हैं उनमे भी गजल कही जा सकती है।सूर्यभानु गुप्त,देवेन्द्र आर्य,चन्द्रसेन विराट,जहीर कुरैशी,बाल स्वरूप राही,शेरजंग गर्ग,रामकुमार कृषक,कुंअर बेचैन,हरे राम समीप,अनंतराम मिश्र,शिवओम अम्बर ,कमलेश भट्ट कमल,योगेन्द्रदत्त शर्मा,राजेश रेड्डी,लक्ष्मीशंकर बाजपेयी,मयंक श्रीवास्तव,सलीम खां फरीद और इस पुस्तक के लेखक ज्ञानप्रकाश विवेक जैसे कुछ लोग कह भी रहे हैं।लेकिन वो कैसी गजले कह रहे हैं ये समीक्षा के बाद तय होगा।कई गजलकारो ने दोहा छन्द मे गजले कही हैं।दोहा अवध के लोक जीवन का जातीय छन्द है।
भाषा की समस्या का भी कोई सर्वमान्य हल अभी तक नही निकला है।पहले अध्याय मे हिन्दी और गजल को लेकर दुष्यंत कुमार ,त्रिलोचन शास्त्री,जानकी प्रसाद शर्मा,रामदरस मिश्र,जहीर कुरैशी,सुलतान अहमद,महेश अनघ,डा.सादिक आदि जो विद्वानो की टिप्पणियां दी गई हैं उनमे भी हिन्दी गजल को लेकर एक राय नही है।फारसी स्क्रिप्ट मे पेश की गई तमाम गजले उर्दू की हो जाती हैं लेकिन उन्हे जब हम देवनागरी मे पेश करते हैं तो वे हिन्दी की दिखाई देने लगती हैं।क्या उन सबको  भी हिन्दी गजलो मे शामिल किया जाना चाहिए। क्या लिप्यंतरण मात्र से हम हिन्दी गजल के खाते मे अपना नाम लिखवा रहे हैं? और उर्दू हिन्दी दोनो मुशायरो मे आवाजाही कर रहे हैं।उर्दू हिन्दी एक जैसी भाषाएं होते हुए भी समीक्षा और आलोचना की नजर से हमेशा अलग रहने वाली हैं।समीक्षा की नजर से यह गजल की खूबी भी है और ये उसकी सीमा भी है।हिन्दी गजल की जो प्रयोग परंपरा प्रसाद,निराला आदि ने शुरू की थी उस दिशा से वर्तमान हिन्दी गजल भटक गई है।तमाम कोशिश के बावजूद ज्ञानप्रकाश विवेक भाई ने हिन्दी और उर्दू के गजलकारो को अलग अलग रखने की कोशिश नही की।जब हम हिन्दी गजल की बात करते हैं तो गजल की भाषा और उसकी की समस्या पर भी विस्तार से बात करनी होगी।कम से कम हिन्दीगजल के लिए हिन्दी या हिन्दुस्तानी लोक का छन्द और देवनागरी लिपि तो अनिवार्य होनी चाहिए।हिन्दी मे संस्कृत और फारसी से आए शब्दो के बहुत ज्यादा शुद्धीकरण से भी बचना चाहिए।
  मुझे लगता है विज्ञान व्रत ने हिन्दी गजल मे छोटी बहर के प्रयोग का  नया सिलसिला शुरू किया है।लेकिन कथ्य और संवेदना मे सब लगभग एक जैसे ही हैं। जो कवि हिन्दी गजल के माध्यम से नई भाषा चेतना जागृत कर रहे हैं वे सचमुच अच्छा काम कर रहे हैं।बाकी तालीपिटाऊ मुशायरों और कवि सम्मेलनो मे एक साथ आने जाने वाले कलाकारों या गलेबाज और अदाकारी वाले कवियों की बात करना बेमानी है। अंतत: तारीफ करनी होगी भाई ज्ञान प्रकाश विवेक की कि उन्होने बहुत श्रम से इस किताब पर अपनी तरह से ये जोखिम भरा काम किया ।जिन तमाम श्रेष्ठ गजलकारो के उद्धरण इस पुस्तक मे दिए गए हैं ज्ञान जी की अपनी गजले किसी सूरत मे कम महत्वपूर्ण नही हैं ।वे खुद भी हिन्दी गजल को आगे बढाने वाले अग्रणी रचनाकार हैं ।यही उनकी इस पुस्तक मे व्यक्त की गई चिंता का कारण भी है।एक शेर देखिए-हौसला देखिए भिखारी का/शौक रखता है घुडसवारी का।
शीर्षक:हिन्दी गजल दुष्यंत के बाद
लेखक:ज्ञानप्रकाश विवेक
प्रकाशक :अयन प्रकाशन,मेहरौली,नई दिल्ली
वर्ष:2014,मूल्य:400/  


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शनिवार, अक्तूबर 25, 2014

जन्मशती पर विशेष:
सदियो तक याद किये जाएंगे गीतकार प्रदीप

डा.भारतेन्दु मिश्र

हमारे देश यानी भारतीय समाज मे साहित्य और सिनेमा दोनो एक दूसरे के बहुत करीब रहे हैं।असल मे अपनी प्रभावशाली संप्रेषण क्षमता के कारण नाटक, प्रकरण,नौटंकी और स्वांग आदि जैसे लोक नाट्य और नृत्य माध्यम जनता की भावनाओ को सदियो से आन्दोलित करने मे लगे हैं।
संवाद भाषा मे लिखे जाने वाले गीतो का सर्वाधिक प्रभाव जनमानस पर पडा है। कई सहस्राब्दियों पूर्व भरत मुनि ने नाटक मे प्रयुक्त होने वाले गीतो पर विचार करते हुए बताया था कि नाट्यगीत लोकानुसारी हों और जिस समाज के लिए नाट्क खेला जाना है उस समाज की भाषा और जीवन चेतना से जुडे हों। समय बदला और उसी परंपरा मे नाट्यगीतो का स्थान सिनेमा के गीतो ने ले लिया।जबसे होश संभाला अवध के सामान्य  संवेदनशील  मनुष्य की तरह आल्हा,रासगीत,रामचरितमानस तथा लोकगीतो के साथ ही तमाम फिल्मी गीतो से भी प्रभावित होता गया।खासकर-ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख मे भर लो पानी..सुनकर सचमुच रोमांच हो आता था।ये गीत आज भी स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर विद्यालयो मे गाया जाता है। कवि प्रदीप का लिखी यह एक अकेली ऐसी गीत रचना है जिसके कारण प्रदीप जी अमर हो गए।सन 1962 मे भारत चीन युद्ध मे शहीद हुए जवानो को श्रद्धांजलि देते हुए कवि प्रदीप ने यह गीत रचा था।हालांकि सुर साम्राज्ञी लता जी ने इस गीत को गाया भी बहुत खूबसूरती से था लेकिन कवि का अपना स्थान होता है।शब्द और भाव सन्योजन मे कवि का स्थान  संगीतकार या गीतकार की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण होता है।  
उज्जैन मे 6 फरवरी 1915 मे जनमे कवि प्रदीप उन महान गीतकारो मे से एक हैं जिन्होने कोटि कोटि कंठो को पूरी संवेदना के साथ अपने गीत दुहराने पर विवश कर दिया। निश्चित रूप से ये सिनेमाई गीत दृश्य के हिसाब से लिखे और प्रस्तुत किए जाते हैं परंतु रचनाकार की भाषा और उसकी मार्मिक संवेदना उसकी निजता को व्याख्यायित करती चलती है।हिन्दी सिनेमा अपने सौ साल का सुनहरा सफर भी पूरा कर चुका है। 1943 मे रिलीज हुई गोल्डन जुब्ली फिल्म किस्मत के गीत-दूर हटो ए दुनियावालों हिन्दुस्तान हमारा है.....से कवि प्रदीप की पहचान बनी।इस गीत के कारण तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ्तारी के आदेश दिए थे और उन्हे उस समय भूमिगत होकर छिप छिपाकर अपना जीवन व्यतीत करना पडा। इस गीत ने तत्कालीन हिन्दी समाज मे देश भक्ति की भावना का जो संचार किया वह शब्दो मे व्यक्त नही किया जा सकता। हालांकि पहलीबार 1940 मे जारी हुई बन्धन फिल्म के भी कई गीत बहुत लोक प्रिय हुए थे जैसे –चल चल रे नौजवान.....चना जोर गरम बाबू...रुक न सको तो जाओ....आदि गीतो ने कवि प्रदीप को जो ख्याति प्रदान की वह बिरले ही कवि को मिल पाती है।सन 1954 मे फिल्म जाग्रति के गीतो ने प्रदीप जी को और बुलन्दी प्रदान कर दी थी-आओ बच्चो तुम्हे दिखाएं झांकी हिन्दुस्तान की..और –दे दी हमे आजादी बिना खड्ग बिना ढाल..जैसी अमर पंक्तियां देने वाले गीतकार प्रदीप आज भी करोडो बच्चों और नौजवानो के दिलो पर अपना अधिकार किए हैं।
पांचवां दशक लगातार संघर्ष का दौर था। भारतीय सिनेमा मे भी वही दौर चलरहा था तब हमारा बहुआयामी संघर्ष था।अजादी की लडाई,बीमारी- भुखमरी -गरीबी से लडाई,सांप्रदायिक तथा धार्मिक रूढियो से लडाई,सामाजिक और जाति बिरादरी की विसंगतियो से लडाई,माने हर ओर संघर्ष का ही दौर था।इन्ही परिस्थितियो मे स्वतंत्रता मिली मगर बटवारे के साथ-तो इन सब प्रकार के मानवीय संघर्षो को गीत की भाषा देने वाले गीतकारो मे कवि प्रदीप का नाम भी शामिल है। दिलोदिमाग पर छा जाने वाली भाषा किसी प्रदीप जी जैसे कवि के ही पास हो सकती थी जो प्रधानमंत्री पं नेहरू जी को अश्रुविगलित कर सके।पुराने लोगों को 26 जनवरी 1963 का वो दिन सबको अवश्य याद होगा।जब यह गीत दिल्ली के रामलीला मैदान से सीधा प्रसारित किया गया था।कवि प्रदीप ने इस गीत का राजस्व युद्ध विधवा कोष मे जमा कराने की अपील की और उच्चन्यायालय ने 25 अगस्त 2005 को संगीत कंपनी एह.एम.वी. को इस कोष में 10 लाख रुपए जमा करने का आदेश किया। यह उनका अति संवेदनशील मानवीय चेहरा भी है जो युद्धविधवाओ के बारे में सकारात्मक सोच रखता है।
प्रदीप जी ने सब तरह के गीत लिखे उनमे जयसंतोषी माता जैसी धार्मिक फिल्मो के भी गीत शामिल हैं, लेकिन उन्हे उनके देशभक्ति के गीतो के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा।1998 मे उन्हे प्रधानमंत्री बाजपेयी जी के काल मे दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया। अंतत: जोशीले हिन्दी गीतों के लिए सदियों तक प्रदीप जी को याद किया जाता रहेगा। जन्मशती वर्ष पर उन्हे याद करते हुए श्रद्धांजलि।
संपर्क:
बी-235/एफ.1
शालीमार गार्डन मेन, गाजियाबाद-201005
फोन-9868031384

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गुरुवार, सितंबर 04, 2014

शिक्षक दिवस की पूर्व सन्ध्या पर शिक्षक बन्धुओं के लिए एक गीत-


कक्षा अध्यापक


मेरी कक्षा मे पढते हैं
बच्चे पूरे साठ
मेरे लिए सभी बच्चे हैं
नई तरह के पाठ।

कुछ पाठों मे भावसाम्य है
कुछ पाठों में कठिनाई है
एक पाठ बिल्कुल सीधा है
एक पाठ बिल्कुल उलझा है
इनमे कुछ सीधे निबन्ध हैं
संस्मरण कुछ जटिल छन्द हैं।

किसी पाठ के ठाठ बाट हैं
किसी पाठ पर रोना आता
इन सबमें हैं कुछ कबिताएं
कुछ अनबूझी हुई ऋचाएं
कुछ पहाड तो कुछ सरिताएं।

मुसकाते गपियाते बच्चे
लगते हैं सब मन के सच्चे
रोज इन्हे खुलकर पढता हूं
कुछ अपने भीतर गढता हूं।

नहीं सिखा पाता हूं इनको
मै किताब की सारी बातें
नही जानता कितना मुझे
पढाना आता है
मुझको तो
बस इन बच्चों को पढना भाता है।



@भारतेन्दु मिश्र

रविवार, जुलाई 20, 2014


तीन वर्षा गीत


1.दिन ये बरसात के
कीचड के बदबू के/रपटीली रात के
दिन ये बरसात के/ये दिन बरसात के।
माटी की गन्ध 
गयी डूब किसी नाले में
माचिस भी सील गई 
रखे रखे आले में
आंधी के ,पानी के दुरदिन सौगात के
दिन ये बरसात के /ये दिन बरसात के।

पुरवाई पेंग भरे 
अंबुआ की डालपर
झींगुर दादुर गाते 
संग संग ताल पर
झूलों के फूलों के अन्धेरे प्रभात के
दिन ये बरसात के/ये दिन बरसात के।


2.आवारा बादल
खारे जलनिधि से उपजा हूं,मधुर माधुरी घोल रहा हूं
खट्टे कडुवे अनुभव लेकर तैर रहा हूं,डोल रहा हूं।

तन मन से सजल जलद मैं ऊंचे शिखरों से टकराता
बिखर गया हूं बरस गया हूं,फिर भी रोब नही सह पाता
पवन उडा ले जाता मुझको किंतु गरज कर बोल रहा हूं।

एक चातकी रट सुनने को व्याकुल होकर तरस गया हूं
आवारा बादल बन कर मै हर स्वाती मे बरस गया हूं
बस मन की सच्ची भाषा पर अपना सब कुछ तोल रहा हूं।

आंखों के खारे जल से भी कितने मेघ नित्य बन जाते
शून्य व्योम में स्वर्णिम सपने जैसे बिखर बिखर रह जाते
मैं अपने जीवन की पुस्तक धीरे धीरे खोल रहा हूं।

तुम मेरे जैसे सैलानी या मैं तुम सा आवारा हूं
तुम भी भटक रहे हू प्रतिपल मै भी थका और हारा हूं
किंतु हार कर भी जीवन में अपनी शक्ति टटोल रहा हूं।

3.पावस परिणय
वर अम्बर वधु वसुधा के आया द्वार है
मालती लता जैसे शुभ वन्दनवार है।

ताडपत्र करवाते मंडप का भान
कदली के पत्तों से छा गया वितान
पावन अभिषेक हेतु पावसी फुहार है।

बाराती सकल वृक्ष आम औ पलाश
समधी बनकर आया द्वारे मधुमास
बेले की लतिका या सुन्दर सा हार है।

निर्झर के रुनझुन सी बजती शहनाइयां
चपला सी चमक रही आतिश चिनगारियां
मेघ गर्जना शंख ध्वनि बार बार है।

दादुर की पंक्ति पढे मंत्र लगातार
मोर मोरनी करते नर्तन व्यापार
परिणय की भूमि बनी दूर क्षितिज पार है।


कमल और सूर्यमुखी केतकी गुलाब
सेवा मे तत्पर है पुष्प का समाज
सखी दिशाओं में भी सुख का अधिकार है।

रचनाकार:भारतेन्दु मिश्र




शनिवार, अप्रैल 12, 2014

समीक्षा


कुमार रवीन्द्र की नई किताब:भारतेन्दु मिश्र







































 
    गत तीन चार दशकों से लगातार जो कवि अपने गीतों नवगीतों से हिन्दी  कविता में अपनी उपस्थिति दर्ज करता आ रहा है ।जिसने अपने गीतों के पाठ्य  से अपनी अलग पहचान बनाई उनके गीतों को लेकर विचार करते हुए यह कहा जा सकता है उन्होने लगातार प्रगतिशील गीत / नवगीत को नए आयाम दिए।ऐसे कवि कुमार रवीन्द्र उन तमाम नवगीतकारों से इस लिए भी अलग हैं क्योकि वे कविसम्मेलनों से कभी जुडे नहीं ।उन्होने आलाप और सुर की साधना न करके गीत के पाठ्य को लेकर सजगता से काम किया। उनकी मौलिकता का प्रमाण उनके गीतों की प्रगतिशील चेतना और युगधर्मिता से आंका जा सकता है। पिछले दशक में मैने अपने आवास पर प्रयोग के तौर पर कुछ कवियों के एकल गीतपाठ के कार्यक्रम आयोजित किए जिसमें श्रोताओं को कवि से उसकी रचना धर्मिता पर प्रश्न पूछने का भी अधिकार था। ऐसे कार्यक्रम में जाहिर है कि अधिक कवि/श्रोता नहीं शामिल हो सके लेकिन गीत के पाठ्य को लेकर कुछ सजग कवियों ने उसमें भागीदारी की कुमार रवीन्द्र उनमे से एक महत्वपूर्ण नाम हैं।उस प्रकार के आयोजन का भी यही उद्देश्य था कि गीत के पाठ्य और सामयिक रचनाविधान तथा कवि  की रचनाधर्मिता  पर बातचीत हो।कुछ लोग आलोचना से डरकर ऐसे आयोजनों में शामिल नहीं होते।बहरहाल कुमार रवीन्द्र जी ने उस दिन अपनी रचनाधर्मिता और वैचारिक प्रगतिशीलता से सबका मन मोह लिया था।  वे वरिष्ठ हैं, विद्वान हैं-उनके लिखे गीतों और विमर्श परक आलेखों का अपना महत्व है।कई काव्यनाटक भी उन्होंने लिखे हैं।आहत हैं वन,चेहरों के अंतरीप,पंख बिखरे रेत पर,सुनो तथागत,और हमने सन्धियां की,उनके गीत नवगीत संग्रह हैं।इसके अतिरिक्त-एक और कौंतेय,गाथा आहत संकल्पों की,अंगुलिमाल उनके काव्य नाटक हैं।इसके अतिरिक्त गीत नवगीत की समीक्षा से भी वे पिछले दशकों से लगातार जुडे रहे हैं।  लखनऊ से पढ लिखकर जीवन भर हिसार में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे। उनका एक अंग्रेजी कविताओ का संकलन भी  प्रकाशित हुआ है।तो उनके कवि कर्म पर बात होनी चाहिए । लोग पीछे पडकर भी समीक्षा लिखवाने के लिए तमाम जतन करते हैं कुमार रवीन्द्र जी ने कभी मुझे इस प्रकार तंग नही किया। गत दिनों लखनऊ के नवगीत परिसंवाद -2011 पर केन्द्रित एक किताब मुझे निर्मल शुक्ल जी ने भेजी थी उसके आवरण पर कुमार रवीन्द्र जी का नवगीत प्रकाशित हुआ था।वह गीत है--इसी गली के आखिर में-
इसी गली के आखिर में है /एक लखौरी ईंटो का घर/किस पुरखे ने था बनवाया/दादी को भी पता नही है/बसा रहा अब उजड रहा है/इसमें इसकी खता नही है/एक एक कर लडके सारे /निकल गए हैं इससे बाहर।  
तो ऐसे लखौरी ईंटो की चिता के बहाने पुराने लखनवी तेवर याद दिलाने वाले और गृहरति की व्यापकता वाले  कवि के नवगीतों पर बात करना मेरे लिए अत्यंत सुख की बात है। लखौरी ईंटों  के रूप में न जाने कितने सामाजिक सरोकार संवेदन  के स्तर पर मिट गये और काव्य संवेदना के रूप में यहां सिमट गए हैं। कवि की अपनी जातीयता को चीन्हने के लिए एक और गीत का मुखडा देखिए----
नदी गोमती /शहर लखनऊ/हम बाशिन्दे उसी शहर के
 कुमार रवीन्द्र बिम्बों का घना शाल नहीं बुनते बल्कि सीधी सरल भाषा में संवेदना की अनुगूंज पैदा करते हैं।संयोगवश मैने कुमार रवीन्द्र जी का लखनऊ वाला पुराना मकान देखा है।मुझे एकबार उनकी माता जी के दर्शन करने और आशीर्वाद लेने का अवसर मिला है।पिछले दिनों-रखो खुला यह द्वार –शीर्षक से नया नवगीत संग्रह प्रकाशित हुआ है। यह कवि की लगतार सक्रियता का नया दस्तावेज है।
हालांकि सीधे साफ सुथरे गीत रचना कुमार रवीन्द्र की सीमा भी है और शक्ति भी ,कि वे गृहरति यानी घर आंगन के काव्य संसार से बेहतर संवेदनाएं चुराकर वे नवगीत मे ढालने का सफल प्रयोग करते हैं। उनके यहां नचिकेता जैसा जनवाद नही है और जनवाद की नारेबाजी भी  नही है। कभी कभी उनके गीतों मे अतीत चिंता नास्टेलिजिक स्तर पर भी दिखाई दे सकती है।लेकिन यह छन्दोबद्ध कवियों में नवगीत/गजल /दोहा कहते समय आ ही जाती है।
    इस संकलन की भूमिका में कवि ने जो गीत की समकालीनता के प्रश्न पर टिप्पणी की है वह भी पठनीय है। यहां यदि अप्रासंगिक न हो तो कहना चाहता हूं कि कुमार रवीन्द्र जी ने अपने पांच पृष्ठ के वक्तव्य में पांच शब्द भी अपने गीतों पर नही कहा है।तात्पर्य यह कि उन्हे विचार और निजी संवेदना को अलग करने का सलीका आता है।अन्यथा अधिकांश गीतकारों की भूमिका पढकर मन कचकचा जाता(उल्टी करने का  हो आता है ) है।ऐसे वास्तविक रचनाकार और आत्मप्रशस्ति की मदिरा मे धुत्त रचनाकार का फर्क कुछ लोग मिटा देना चाहते हैं। मुझे लंपटो की इस  नव बाजारवादी विकृति पर ऐतराज है।कुमार रवीन्द्र जी नवगीत के कबीर की तरह अपना ताना बाना लेकर  केवल अपनी सृजन धर्मिता से अपने सक्रिय होने का सबूत दे रहे हैं।इस समय में यह बडी बात है कबीर इस लिए क्योकि कबीर का मुहाबरा उनके गीतों मे उनके सिर चढकर बोलता है। साधो को संबोधित उनके गीत समावेशी समाजिक परिवेश की ओर संकेत तो करते ही हैं,कवि की निर्लिप्तता के भी परिचायक हैं। यह कवि के मन का साधो सूर और मिल्टन के पास से तथागत तक भी जाता है। लेकिन अपनी जमीन नहीं छोडता। वे कहते हैं-
सुनो बन्धु/यह गीत नहीं/अचरज की बोली है।
अर्थात कविता कवि के लिए संवाद की भाषा है।वो सुर ताल से श्रोताओं को रिझाने के लिए मंच के प्रपंच की भाषा कदापि नहीं है। जहां वे –
सुनो /बावरे नचिकेता की उल्टी बातें।  
कह कर पौराणिक मिथकों को नवगीत की परिभाषा देने की कोशिश करते हैं तो वहीं –
बांचो साधो/चार पदों का /सांसों का यह गीत हमारा।
कहकर एक ही  गीत में  जीवन के चार आयाम –बचपन ,जवानी,वृद्धावस्था और देहांतर तक की संवेदना को समो लेने का प्रयत्न किया है।प्रत्येक सजग कवि के पास उसकी अपनी जमीन और  जातीयता को आसानी से लक्षित किया जाता है । नगर बोध के स्वर नवगीत में खूब देखने को मिलते हैं कुमार रवीन्द्र के यहां भी ऐसे तमाम गीत हैं। देखें-
हवा बेदम/रौशनी कम/महानगरी की सुबह है
एक और चित्र देखें लेकिन लगता है यहां शायद प्रूफ की कोई कमी रह गई है-
अपनी आंखों पर/पट्टी सब बांधे रहते/कोई भी घर के बंटने का /हाल न कहते/आम कट चुके/खूब फले हैं आक धतूरा/महानगर में।
यहां कोई भी घर के बंटने का हाल न कहते के स्थान पर कहता होना चाहिए क्योकि कोई शब्द एक वचन है और उसकी क्रिया भी एक वचन की ही होनी चाहिए। बहरहाल  रोमानियत और नास्टेल्जिया दोनो ही गीत की संवेदना के साथ हमेशा जुडे. रहते हैं उनसे काटकर गीत को नही देखा जा सकता।अंतत: कुमार रवीन्द्र के नवगीत और उनका पाठ्य हमें नए आस्वाद के प्रति आश्वस्त तो करता ही है।  
शीर्षक:रखो खुला यह द्वार/कुमार रवीन्द्र/उत्तरायण प्रकाशन ,लखनऊ/वर्ष: 2013/मूल्य:295/