सोमवार, मार्च 11, 2013


टिप्पणी:
सोलह गीत स्वर

भारतेन्दु मिश्र
वरिष्ठ नवगीतकार आदरणीय देवेन्द्र शर्मा इन्द्र द्वारा सम्पादित हरियर धान रुपहरे चावल- सोलह नये पुराने गीतकारों के दस-दस गीतों / नवगीतों का संकलन है। इन्द्रजी समकालीन छन्दोबद्ध कविता के केन्द्रबिन्दु के रूप में जाने जाते हैं। नवगीतदशक -1 के यशस्वी कवि तो वे हैं ही। यहाँ इन सोलह गीत स्वरों में उनके अलावा इस समवेत संकलन में जिन पन्द्रह गीतकारों को शामिल किया गया है वरिष्ठता क्रम में उनके नाम क्रमशःइस प्रकार हैं-जगत्प्रकाश चतुर्वेदी,विद्यानन्दन राजीव,बाबूराम शुक्ल,ब्रजभूषणगौतम, अनुराग, श्रीकृष्णशर्मा,अवधबिहारी श्रीवास्तव,मधुकर अष्ठाना,कुमार रवीन्द्र,राधेश्यामशुक्ल,विष्णुविराट चतुर्वेदी,महेश अनघ,श्याम निर्मम,योगेन्द्रदत्त शर्मा,वेदप्रकाश शर्मा वेद और संजय शुक्ल। इस संकलन की उपलब्धि को यदि रेखांकित किया जाय तो अंतिम दो नाम वेद प्रकाश वेद और संजय शुक्ल के गीत नवगीत के भविष्य के प्रति अधिक आश्वस्त करते हैं। बाकी के अन्य गीतकार/ नवगीतकार किसी न किसी रूप में पहले से ही चर्चित हो चुके हैं।
संकलन मे सबसे कम उम्र के रचनाकार संजय शुक्ल के गीत की पंक्तियाँ देखें- राजतिलक होते ही सारा / मंजर बदल गया/ढूँढ-ढूँढ कर हारी परजा /राजा किधर गया ? अर्थात संजय शुक्ल के पास नवगीत की साफ-साफ दृष्टि मौजूद है। एक और खास बात यह भी है कि संजय के इन गीतों में समकालीन कविता का मुहावरा भी विद्यमान है । वेदप्रकाश शर्मा वेद के गीतों में गीत का पारम्परिक मुहावरा नयी काव्य भाषा में प्रकट हुआ है संकलित गीत का एक अंश देखें- जाने अनजाने में कितने /अर्जुन ब्रहन्नला हो बैठे /कितने अश्वत्थामा अपनी /मस्तक –मणियाँ ही खो बैठे/ सिंहासन हो चला व्यक्ति -भर / पायों को कुछ नाच नचायें ।
योगेन्द्रदत्तशर्मा गीत /नवगीत के स्थापित रचनाकार है इन दिनों वे जो सपने बुन रहे हैं उसका नवगीतात्मक चित्र देखें – चीजों से/जुडता हूँ /बेहद गहराई से /लडता हूँ जीवन की/नंगी सच्चाई से/हर कड्वे अनुभव पर/अपना सिर धुनता हूँ/बुनता हूँ रोज नये सपने/मैं बुनता हूँ। स्व. श्याम निर्मम इस संकलन के महत्वपूर्ण रचनाकार होने के साथ ही इस पुस्तक के प्रकाशन तथा साज सज्जा के प्रति भी उत्तरदायी भी रहे हैं एक गीत अंश इस प्रकार है- फूलों ने /वसंत आने पर/गुलदस्ते बाँटे/पर जाने क्यो/ अपने मन मे/ चुभे बहुत काँटे।
भाई महेश अनघ भी अब हमारे बीच नहीं हैं।नवगीत आन्दोलन के अत्यंत जाज्वल्यमान नक्षत्र के रूप मे महेश जी को हमेशा याद किया जाता रहेगा। उनका एक गीत अंश देखें-हम अभिनय के बाजारो मे/ जख्मों को छीला करते हैं/हम चेहरे नही मुखौटे हैं /जीवन भर लीला करते हैं। इसी नीचे से ऊपर या कहें कि पीछे से आगे जाने के क्रम में अगले कवि विष्णु विराट हैं फिर आगे राधेश्याम शुक्ल हैं,ये दोनो ही कवि बेहतर गीतकार के रूप मे पहले से ही चर्चित हैं।देखें दोनो कवियों का एक –एक अंश-तैरता है हंस का जोडा नदी में/कमल –दल पर/गुनगुनाता भ्रमर आता/मुस्कुराता एक पागल-आदमी।–विष्णु विराट । और-
एक सुनहले मृग के पीछे/पागल हुई अयोध्या सारी/इसे क्या कहें हवस या कि फिर/राजा परजा की लाचारी/सुकूँ खोजते इन्द्रजाल में कितने लव कुश का खो जाना/है कैसा लग रहा राम जी /सरयू का रेती हो जाना।–राधेश्याम शुक्ल।
दो कदम और ऊपर चढने पर कुमार रवीन्द्र और मधुकर अष्ठाना मिलते हैं । इन दोनों के नवगीत हमारे समय की नयी काव्य भाषा रचते हैं, बानगी देखें- वन पवित्र है/ क्योकि पेड हैं सामगान /धरती के साधो/ रोज आरती करते वे/उगते सूरज की/ पूरे दिन कविताये रचते वे अचरज की।– कुमार रवीन्द्र । और-
सूखने को आ गये हैं/नेह के झरने /कि कुछ तो कीजिये /हंस मानस के/चले हाराकिरी करने /कि कुछ तो कीजिये –मधुकर अष्ठाना। थोडा और ऊपर चढने पर लोकधर्मी चेतना के अप्रतिम गीतकार अवध बिहारी श्रीवास्तव और इस संकलन के सम्पादक देवेन्द्र शर्मा इन्द्र के गीत मिलते हैं। दोनो गीतकारों के उद्धरण इस प्र कार हैं –काट रही सोने की फसलें /कब से बिरजू की घर वाली/ गढा रही मन ही मन कंगन/ मँगा रही बिटिया की बाली/ पायल आयी नहीं मगरपायल बजती है पाँव में ।-अवध बिहारी श्रीवास्तव
और-
भिक्षुक है सारी दुनिया/मुझको यह देगी भी क्या/ द्वार –द्वार जाकर मैंने/झोली को कब फैलाया/ सीमित हूँ/फैलूँ तो दिगंत हूँ/ अपने एकांत पीठ का/मैं महंत हूँ ।-देवेन्द्र शर्मा इन्द्र
इसके बाद और ऊपर पांच वरिष्ठ गीतकार दिखाई देते हैँ।आरोही क्रम मे जिनके उद्धरण इस प्रकार हैं- काँपते पाँव /दिग्भ्रांत दृष्टि/है पथ में धुन्ध-अन्धेरी/हम व्यर्थ हुए ज्यों व्यर्थ हुई/सूखे पत्तो की ढेरी।–श्री कृष्ण शर्मा फेरियाँ शीतल पवन की/लग रहीं/हाथ थामें गन्ध/हरसिंगार की/हरी शाखों से लिपट कर तितलियाँ/कर रही अभिव्यक्तियाँ अब प्यार की/सुरसुरी रस गन्ध की ऐसी बही/पाँखुरी दर पाँखुरी खुलने लगी।–ब्रजभूषण गौतम अनुराग।
मछली!तेरे लिए लगाते/रहते ये बंसी पर चारा/जरा जीभ लपती तो/पल मे करते वारा न्यारा/जाल फैकते परम हितैषी/ये कितने मछुवारे।–बाबूराम शुक्ल।
फिसलन है चलते रहना है/कोई और विकल्प नही/भय सता रहा/छूट न जाए/हाँथों से संकल्प कहीं?—विद्यानन्दन राजीव और अंतत: इस संग्रह का पहला गीत जो कि आयु के आरोही क्रम मे अंतिम गीत है उसका अंश देखिए-
आग चूल्हे की चिता की/भेद कितना है/उस ललाई की खबर/आ ही रही होगी/वह सुबह,वह दोपहर,/यह शाम/अब विदाई की खबर आ ही रही होगी।–जगत्प्रकाश चतुर्वेदी। मैने इस किताब को पीछे से पढना शुरू किया क्योकि मुझे नए /युवा स्वर की खोज करनी थी,जहाँ संघर्ष -आस्था -आशा और उल्लास के नवगीतात्मक बिम्ब देखने को मिलें। दूसरी बात यह कि संजय शुक्ल और वेदप्रकाश वेद इन दिनो कैसा लिख रहे हैं उनके लेखन से नवगीत का भविष्य जुडा है। शेष अन्य कवि साठ से ऊपर की आयु के हो चुके हैं।अर्थात नवगीत मे युवा स्वर आगे नही आ रहे हैं यह चिंता भी है। यह सच है कि नई सोच का संबन्ध केवल मनुष्य की आयु से नही होता तथापि यदि कुछ और नए नवगीतकार इसमे शामिल होते बेशक कुछ पुराने छूट भी जाते तो इस संग्रह की महत्ता और बढ जाती। तभी संग्रह का शीर्षक और अधिक सार्थक हो पाता। यहाँ रुपहरे चावल तो कई हैं और उन रुपहरे चावलों की बेहद सुन्दर गीत भंगिमाएँ भी हैं ,लेकिन हरियर धान अर्थात गीत के नए स्वर केवल दो ही हैं। तथापि गीत नवगीत के समवेत संकलनो की श्रंखला मे इस संकलन का अपना महत्व तो है ही।
शीर्षक:हरियर धान रुपहरे चावल
सम्पादक:देवेन्द्र शर्मा इन्द्र
प्रकाशन:अनुभव प्रकाशन,गाजियाबाद
वर्ष:2012,मूल्य रु-300/

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