रविवार, नवंबर 19, 2017





पथराई आकांक्षाओं के नवगीत स्वर
# डॉ.भारतेंदु मिश्र

गत माह नवगीत और गजल पर केन्द्रित हिन्दी साहित्य सम्मलेन की उमरिया शाखा के आयोजन में भाग लेने का अवसर मिला|यहीं पहली बार अनेक सुधीजनों तथा  कवियों के बीच अग्रज महेश कटारे सुगम जी से भी मुलाक़ात हुई|हालांकि उन्हें फेसबुक के माध्यम से पहले से  जानता था,और उनकी बुन्देली गजलों का पाठक और प्रशंशक भी हूँ| यहाँ मिलकर उन्हें पहचानने और उनकी रचनाशीलता को चीन्हने में सहायता मिली|वहीं मुझे पता लगा कि महेश जी नवगीत भी लिखते हैं|मंच से जब उन्होंने अपने नवगीत प्रस्तुत किये तब उनके रचनाकार के प्रति और भी आश्वस्ति हुई|विदा होते समय उन्होंने मुझे 'तुम कुछ ऐसा कहो ' शीर्षक अपना नवगीत संग्रह भी भेंट किया| इस नवगीत संग्रह में  छप्पन नवगीत संकलित हैं|इनमे से अधिकाँश में अपनी युगधर्मिता और सामयिकता से से टकराहट के स्वर गूंजते हैं|असल नवगीत की पूंजी वही है जो समय के दर्द के साथ करुण स्वर  में पर्यवसित हो जाए-
तुम रंगमहल के हो प्रकाश
मैं टिमटिम लौ फुटपाथों की|
मेरी मरियल सी आशाएं
तेरी पहाड़ सी इच्छाएं
तेरा जल कुल तो सीमित है
हर जगह हमारी शाखाएं
फिर भी मैं नाचा करता हूँ
कठपुतली बनकर हाथों की||
ऐसी अभिव्यक्ति से कौन न आकर्षित हो जाए|राग और विडम्बना का मार्मिक स्वर हमें खीच लेता है|असल में महेश जी ललितपुर से सागर पहुचे हैं|उन्हें बुन्देली समाज की अभावग्रस्त जीवन शैली का अभ्यास है|इस लिए इन पंक्तियों में भी पहाड़ और जल दोनों का नैसर्गिक अभाव और प्रभाव उन्हें नवगीत रचने के लिए प्रेरित करता है|अपनी विसंगति की और भी कवी ध्यान दिलाता है कि वह बस कठपुतली बनकर रह जाने के लिए विवश है| कवि की नवगीत चेतना को और अधिक निकट देखने के लिए अनेक नवगीत उद्धृत किये जा सकते हैं लेकिन उनके कमरे का बिम्ब अत्यंत मार्मिक है|इस तरह के कमरे को ही खोली भी कहा जाता है-
ये हमारा घर
बहुत सीलन भरा
उबकाइयां लेता  हुआ बस एक कमरा|
इस एक घर के कमरे में ही कवि की पूरी गिरिस्ती समाई हुई है|इसी कमरे में एक कोने में सिंगडी है,नन्हे के जूते,चारपाई और फटा गद्दा है,एक और भगवानो की भी अलमारी है| एक मार्मिक व्यंग्य देखिये-
तोड़ने के वास्ते
फेके गए पत्थर
डालियों पर लटक कर
रहा गए हैं
आम के फल तो
कभी के झड गए हैं|
ये पथराई आकांक्षाओं के स्वर ही तो मूलत: नवगीत का स्वर है|महेश जी के पास नवगीत की सधी हुई भाषा और लय की नवता  दोनों प्रकार की रचनात्मक पूंजी विद्यमान है|इस बिम्ब को देखकर लगता है कि कवि के साथ कहीं हम सब किसी फलदार पेड़ की डाल पर  फेके गए पत्थर की तरह लटके हुए हैं|कहने को और भी बहुत कहा जा सकता है लेकिन संग्रह का अंतिम नवगीत  'अम्मा 'अपने आप में एक कोलाज कीतरह महेश जी ने गढा है, अंतिम बंद देखिये  -
खुशियों के पैबंद मुसीबत की कीलें
भाव रहित चहरे को नहीं बदल पाते
दर्दों के अहसास
अभावों के तूफाँ
भावों के आगन में नहीं टहल पाते
अनुभव की चादर
मन की हरियाली से
खुश रहने की भाषा उनको भाती है
रिश्तों वाली पौध
प्रेम के पानी से
सिंचित कैसे करें नीति ये आती है
झुकी कमर ले तनी खडी हैं
इक अनबूझा पहेली अम्मा|
घर में नहीं अकेली अम्मा||
झुकी कमर के साथ कोई तन कर कैसे खडा हो सकता है ये हुनर या तो कवि जानता है या उसकी अम्मा को पता है|अंतत: यद्यपि यह उनका पहला नवगीत संग्रह है लेकिन किसी भी नवगीत के बड़े हस्ताक्षर की तुलना में उनके नवगीत कतई कमतर नहीं हैं|अग्रज भाई महेश कटारे सुगम जी की रचनाशीलता नवगीत के क्षेत्र में और अधिक विकसित ,चर्चित हो इसी आशा के साथ  उन्हें बधाई|
#################################################################################
शीर्षक: तुम कुछ ऐसा कहो,/कवि : महेश कटारे सुगम,/प्रकाशन वर्ष;2012  /प्रकाशक:निरुपमा प्रकाशन,शास्त्री नगर मेरठ/मूल्य:रु 150 /
कवि संपर्क:0 97 13 0 2  43 80



शुक्रवार, नवंबर 10, 2017

कुमुदेश जी की स्मृति को प्रणाम
#:भारतेंदु मिश्र

प्रसिद्ध छंदकार अग्रज अशोक कुमार पाण्डेय अशोक जी लखनऊ के शताधिक छंदोबद्ध कवियों के काव्य गुरु हैं | हिन्दी खड़ीबोली में घनाक्षरी का जैसा सुन्दर प्रयोग वे करते हैं वैसा कम ही आधुनिक कवियों की कविताई में देखने को मिलता है|पिछली लखनऊ यात्रा में उन्होंने अपने पिताश्री स्व.गोमती प्रसाद पाण्डेय कुमुदेश जी की रचनावली भेंट की ये पुस्तक अनेक कारणों से मेरे लिए संग्रहणीय है|कुमुदेश जी के सभी चारों पुत्र क्रमश:अशोक कुमार पाण्डेय,विजय कुमार पाण्डेय,महेश कुमार पाण्डेय और शरद कुमार पाण्डेय सभी छंदोबद्ध कविता के कौशल से संपन्न सुकवि तो हैं ही,मेरी युवावस्था के मित्र और सहचर भी रहे हैं|युवारचनाकार मंच की सभी गतिविधियों में इन सभी की भागीदारी होती थी|मुझे इस कवि परिवार से भाई आवारा नवीन जी ने ही जोड़ा था|बहरहाल ये रचनावली हिन्दी छंद विधा के रचनाकारों के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज है|इसमें कविवर कुमुदेश जी की सभी पांच कृतियों-कुमुदावाली,तुलसी रत्नावली,मालती,वनमाला और जाग्रति को समाविष्ट किया गया है|उनका जन्म 15 नवंबर 19 23 को हुआ और मात्र 55 वर्ष की अवस्था में ही 7 सितम्बर 19 78 को उनका देहांत हो गया|वे निशंक जी के अत्यंत प्रिय कवि थे|सुकवि,साप्ताहिक हिन्दुस्तान,धर्मयुग,स्वतन्त्र भारत आदि में लगातार उनके कवित्त प्रकाशित होते थे| जब एक और छंदहीनता और मुक्तछंद कविता की वकालत की जा रही थी तब कुमुदेश जैसे कवियों ने ही छंदोबद्ध कविता की आंच को सुरक्षित रखा|निशंक जी उनके बारे में लिखते हैं-'कुमुदेश जी के सवैये बड़े मार्मिक और चुटीले हैं |वे ब्रजभाषा एवं खड़ीबोली दोनों में ही कवित्त घनाक्षरी और सवैया छंद लिखने में सिद्ध हस्त थे|'सनेही,हितैषी जी की परंपरा में लोग आज भी उन्हें याद करते हैं| मित्रो के लिए उनकी अंतिम कविता इस प्रकार है-
चोट जब भी लगी खा के गम रह गये
झेलते नित सितम पर सितम रह गये
लोग जाने कहाँ से कहाँ बढ़ गए
और हम देखते अधिनियम रह गये |
इन्ही शब्दों के साथ उनकी स्मृति को प्रणाम|