शनिवार, अगस्त 10, 2013

उजली परम्परा के नवगीत


समीक्षा

डा.भारतेंदु मिश्र


ब्रजेश श्रीवास्तव की पहली गीत पुस्तक “बांसों के झुरमुट से” प्रकाशित हुई है|ब्रजेश जी के अध्यापक मन और अध्यवसाय की चमक उनके इन गीतों में विद्यमान है |उम्र के पैसठ वसंत बीत जाने के बाद अनुभव की पकी लेखनी उनके पास है|पके हुए अनुभवो के साथ उनके पास बुन्देलखंड की गीत वसुधा का संस्कार है |खासकर ग्वालियर में साहित्य संगीत रंगमंच और शिक्षा की अपनी सुदीर्घ परंपरा है|कवि के इन गीतों में वह सांस्क्रतिक परंपरा सहज ही देखी जा सकती है| वे गीत से नवगीत की यात्रा की और अग्रसर हैं |संग्रह के इन सभी सत्तावन गीतों में जो पाठ्य रूप प्रकट होता है वहा आश्वतिकारी है|भाषा भाव और प्रस्तुति सभी स्तरों पर ये गीत पठनीय और आकर्षक बन गए हैं |सहजता में फूटती व्यंजना की अनेक छवियाँ मनोरम हैं -
हिरना अब तुम मत वन जाओ /बसते वहां शिकारी हैं|
अर्थात जो हिरना मन वाले सहज लोग हैं उन्हें वन जाने की आवश्यकता नहीं है क्योकि शहरों के भेड़िए उनका शिकार करने को आतुर हैं | यह जंगल राज सभी ओर व्याप्त है|इसी प्रकार एक और बिम्ब देखें –
कितने बड़े मकान /किन्तु मन छोटे छोटे /स्वर्णमयी दिखाते हैं/ सिक्के खोंटे खोंटे|
यह आचरण का बौनापन आज हमारी सभ्यता का पर्याय सा बना गया है|व्यंग्य का एक और सुंदर बिम्ब देखें –
आज नेवला मिला रहा है /नागराज से हांथ /हंसा तुम्ही बताओ इसमे /छिपी कौन सी बात| -इस प्रकार की पंक्तियाँ सीधे तौर पर राजनीतिक दलों की अनैतिक गठजोड़ की ओर भी संकेत करती हैं |
कवि के पास व्यंग्य के अलावा ग्रहरति के अमूल्य चित्र भी हैं जो इन गीतों को मार्मिक स्वर देते हैं|देखिए माँ की शिक्षा का संस्कार –
चौका बरतन कपडे धोना /रोटी गोल बनाना/चिट्ठी पत्री लिखना पढ़ना /गुड जैसा बतियाना /मुँह धोकर बच्चे नहलाना /मेरे साथ रहा/माँ ने जो कुछ भी सिखलाया /मेरे हाँथ रहा|
कवि ने अपने हाथ में अपनी माँ की सीख कसकर रखी है|हम यह मान लेते है कि अच्छा अध्यापक अच्छा विद्यार्थी रहा चुका होता है| दूसरी ओर कवि ब्रजेश जी के संस्कारित मन में अभी तक अपने गाँव की मार्मिक उजली यादें बसी हुई हैं –ढूढा करते /तोता कुतरा आम पेड़ के नीचे/दीदी भैया लड़ते रहते/ इन आमों के पीछे /कंकरीट के वन में अटके/ छोडी रजधानी/भूला गया हूँ ताल तलैया /लोटा भर पानी |
इन यादो का अनुकीर्तन ही कवि का लक्ष्य नहीं है बस उसे तो यह कंकरीट का जंगल भाता ही नहीं है|कवि के पास सत्ता से सताई जनता का दर्द भी है और लूटने वाली व्यवस्था के रंगीन चित्र भी सुरक्षित हैं |देखें –
अनगिनत नव योजनाएं घोषणाएं हैं /खेत सूखा है निरी संवेदनाएँ हैं/कर रहे हैं सड़क चौड़ी/झोपडी बेघर /बुझे से चेहरे रुआंसे /खूब देखें हैं /मंच के हमने तमाशे खूब देखे हैं |
इसके अतिरिक्त –गाँव गाँव में बना दिए हैं/छोटे छोटे गाँव |
तो यह शक्ति है कवि ब्रजेश श्रीवास्तव जी के गीतों की| कुल मिलाकर इन गीतों से कवि के मन में नवगीत की उजली परंपरा के प्रति आस्था का भाव प्रकट होता है|

शीर्षक :बांसों के झुरमुट से ,कवि :ब्रजेश श्रीवास्तव,
प्रकाशन:उत्तरायण प्रकाशन,लखनऊ -२२६०१२,
मूल्य-२५०/,वर्ष:२०१३


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