सोमवार, अप्रैल 20, 2009

श्रृद्धांजलि

न होना नईम का
भारतेन्दु मिश्र


गीत नवगीत की समकालीन काव्य धारा के प्रमुख कवि नईम नही रहे। जैसा कि उनके गीत की निम्न पंक्तियों में ध्वनित होता है-
काशी साधे नही सध रही, चलो कबीरा मगहर साधें
सौदा सुलुफ कर लिया हो तो, चलकर अपनी गठरी बाँधें ।
अपनी गठरी हर इंसान को बाँधनी होती है।और एक नएक दिन हर इंसान को इस बाजार से जाना ही है फिर भी आदरणीय देवेन्द्र शर्मा इन्द्र ने फोन द्वारा जब सूचित किया तो सहसा एक झटका सा लगा –कि नवगीत की एक और अपूरणीय -क्षति हुई और दूसरे क्षण तुरंत नईम जी के गीत की यही उपर्युक्त पंक्तियाँ उभर आयीं। नईम हमारे समाज के सहज और गंभीर कवि थे। सहज और गंभीर दोनो एक साथ होना आसान नही होता। पिछले ढाई महीने से वे ब्रेनहैमरेज के बाद इंदौर के एक अस्पताल में जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहे थे,परंतु अपनी गठरी बाँधकर वे इतनी जल्दी चल देंगे यह विश्वास किसी को नही था। यह सूचना तो मुझे थी कि वे लम्बे समय से अस्वस्थ चल रहे हैं और कॉमा में हैं। सच्चा रचनाकार जब जाता है तो अपने पीछे अपनी यश-काया छोड़ कर जाता है। नईम नवगीतदशक परंपरा के अग्रणी कवि थे। डाँ.शंभुनाथ सिंह ने आदरपूर्वक नवगीतदशक (1) में उनके नवगीत समेकित किये थे। आज जो कुछ हिन्दी नवगीत में प्रगति के स्वर दिखते हैं उस विकास यात्रा में नईम का भी बहुत योगदान रहा है-
जिन्दगी में जो भी लय है वह सब नवगीत में है। संगीतात्मकता की दृष्टि से देखें तो पायेंगे कि भातखण्डे स्कूल वाले नवगीतकारों को भीतर पैर नहीं रखने देंगे,क्योंकि क्लासिकल के साथ लोकगीतों से जो जीवंतता कुमार गंधर्व ने ग्रहण की है,वही नवगीतों में दिखायी देती है।(नवगीत दशक 1,दृष्टिबोध ,नईम)
नईम नवगीत में लोकोन्मुखता जीवंतता और गेयता के प्रबल पक्षधर थे। भाई राजगोपाल सिंह के आवास पर उनसे लगभग बारह वर्ष पहले मुलाकात हुई थी। दुबारा जब वो उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का साहित्यभूषण सम्मान ग्रहण करने लखनऊ पहुँचे थे।यह घटना सन् 2007 की है। इसी समरोह में आदरणीय रामदरश मिश्र को भारत भारती तथा कुमार रवीन्द्र, सुधांशु उपाध्याय को भी पुरस्कार मिलना था। मै संयोगवश उस दिन लखनऊ में ही था। यह नईम जी से मेरी दूसरी मुलाकात थी। यह मेरे लिए बड़े हर्ष की बात थी कि एक साथ इतने सारे मेरे परिचित गीतधर्मी कवियों को पुरस्कार मिल रहा था। नईम जी के गीत तो बहुत पहले से ही पढ़ता आ रहा हूँ। इन दोनो मुलाकातों में समय का बहुत अंतराल रहा । पहली बार जब उनसे मिला था तब वे उनदिनों अपने कालेज से रिटायर हो चुके थे और कविता के साथ-साथ काष्ठशिल्प के माध्यम से भी अपनी अभिव्यक्ति कर रहे थे। काठमारे हुए आदमी की पीड़ा काष्ठशिल्प से और बेहतर ढंग से अभिव्यक्त की जा सकती है संभवत: ऐसा ही विचार उनके दिल में रहा होगा। उनका काष्ठशिल्प भी मानवीय सरोकारों के साथ सदैव जुड़ा रहा। उनकी मस्त और निरभिमानी छवि उनकी कृतियों में तैरती दिखायी देती है। फोन से भी उनसे जब बातें हुईं तो वे बहुत सहज और आत्मीय लगे। वे साहित्यालोचन की राजनीति से सदैव अलग रहे। वे सच्चे सर्जक थे,जो लय उनकी कविता में विद्यमान है वही लय उनके काष्ठ शिल्प में भी उभरती है। उनके प्रथम गीतसंग्रह पथराई आँखें की भूमिका त्रिलोचन शास्त्री जी ने लिखी थी। नईम की गीतधर्मिता के विषय में त्रिलोचन जी ने लिखा था-
नईम छंद की आंतरिक लय और भाषा की लय से परिचित हैं, इसीकारण उनकी कविता स्वरूपत: स्पष्ट और गुणयुक्त है।
वास्तव में नईम के गीत अपने लोक की अभिव्यक्ति हैं। नईम का जीवन बुंदेलखंड और मालवा मे बीता इस लिए उनके नवगीतों में नदिया -ताल –झरने की तरलता और पठार की धरती वाली स्पष्टता साफ दिखयी देती है। महुआ और टेसू की गंध के आस्वाद से उनके गीत महकते हैं। छंद साधना कोई हँसी खेल कभी नही रहा । छंदपूर्ति तो लगातार लोग करते रहते हैं। नईम काव्य-साधक कृती रचनाकार थे-

साधते जितना बना
साधा पुरानों से
नये रिश्ते लगाये।
नईम के गीतों में मालवा का सांस्कृतिक वैभव और लोकजीवन एक साथ भास्वर होता चलता है। नवगीत की यही तो प्रमुख विशेषता रही है। शब्द की लय अर्थ की लय और बिंबों की लोकधर्मी बुनावट नईम के यहाँ अद्भुत है । उनके गीतों का ग्राम्यचरित्र, लोकवादी सौंदर्यशास्त्र और सहजात रचना विधान उनको तमाम नवगीतकारों में अलग से चीन्हने में सहायता करता है--

नीले जल झीलों के ,बतखों सी तैर रही ,पुरवइया क्वार की।
नैहर के अल्हड़पन ,पीहर शर्माये मन, रूठ-रूठ जाती है , बेला में हार की।
कुछ इसी प्रकार की एक कविता केदारनाथ सिंह ने भी लिखी थी वसंती हवा किंतु उस कविता में वर्णन का विस्तार और खिलंदड़ापन है। जबकि नईम के यहाँ खिलंदड़ेपन के अलावा क्वार की पुरवइया में सघन रूप छवियों के अनेक बिंब जगमगाते हैं। छीजते मानवीय संबंधों की चिंता प्राय:सभी छंदोबद्ध कवियों में एक प्रवृत्ति के रूप में उभरती है। छंदोबद्ध कवि नवगीत रचे चाहे दोहा या फिर गज़ल वहाँ संवेदना की अनुगूँज कई परतों और अनेक भंगिमाओं में प्रकट होती है। यह व्यंजना की जादूगरी का कमाल छंदहीन कविताओं में कभी नही उभर पाता । छंदोबद्ध कवि संवेदनाओं की घनीभूत भाषिक संरचना के माध्यम से ही अपनी बात समाज तक पहुँचाता है। उसके पास नीरस सपाट भाषा नही होती ,परंतु लोक में व्याप्त मुहावरे उसके लिए जनवादी लोकोन्मुख नये सौन्दर्यशास्त्र की छवियाँ निर्मित करते चलते हैं। नईम इस लिहाज से बड़े कवि थे। उनके नवगीत मालवा और बुन्देली भाषा की आंचलिकता से सीधे जुड़े हुए हैं--

पूनम और अमावस की क्या? ,हरियाले सावन गाने के- दिन अब नही रहे
इज्ज़त रहते उठजाने के , दिन अब नही रहे।
लोक बदल रहा है। नईम का गाँव समाज भी इस बदलाव से अछूता नहीं होगा। यह बिखराव और विस्मृति का युग है कवि इस मौसम में अपने परिवेष को याद करना चाहता है । जिसने बुन्देलखंड की धरती नही देखी वह महुए के टपकने से उत्पन्न सुगंध की घ्राण संवेदना के मर्म को नही जान सकता। कोसों तक फैलने वाली सुगंध मे रचनाकार का लोकवादी सौन्दर्य दर्शन एकाकार हो उठा है-
याद मुझे आता है
याद तुम्हें भी होगा, महुए सा टपकता हुआ मौसम।
होली का त्योहार नौजवानों में उल्लास भर ही देता है। फिर भी अवस्था के अनुसार लोक के पर्वों का आनंद सभी उम्र के लोग परंपरा से उठाते चले आरहे हैं। ऐसे अवसर पर भौजी और देवर का सदियों पुराना रिश्ता कवि के मन में भी सिहरन पैदा कर देता है। यही हमारे लोक की विशेषता है। निम्न पंक्तियों में भौजी का असमय बुढ़ा जाना कवि की पारदर्शिता का परिचायक है। भौजी की पीड़ा टीस बनकर कवि के मन में उतरती है । असमय बुढ़ा जाने की वेदना में उत्सव का सब चाव चुक गया है-
बुढा गयी भौजी असमय ही
रंगने और रंगाने के सब चाव चुक गये।
देवर और भौजी का जो रिश्ता हमारे गाँव में या कि हमारे लोकजीवन में रहा है वह स्त्री और पुरुष के परस्पर प्रेम और सम्मान का अद्भुत उदाहरण है। पाश्चात्य देशों में ऐसे रिश्ते प्राय: नहीं होते। हमारे विकसित समझे जाने वाले नगरों और महानगरों में भी अब ऐसे मानवीय संबंध केवल कल्पना में रह गये हैं। मेरी समझ से केवल छंदोबद्ध कवि ही हमारी संस्कृति का उद्गाता होता है। नईम सांस्कृतिक बिंबों के अलावा प्राकृतिक बिंबों के सफल नवगीतकार हैं। जैसे ठाकुर प्रसाद सिंह को संथाली लोकजीवन का श्रेष्ठ नवगीतकार माना गया । बहुत कुछ वैसे ही लोकबिंब नईम के नवगीतों में उभरते हैं। वे पाखंड के आलोचक भी रहे है। नईम के गीतों में मालवा के जीवन का लोकपाठ उभरता है। किसान और आमजन की पीड़ा देखिये किस प्रकार निम्न पंक्तियों से प्रकट होती है-

रावण ही रह गये आज प्रभु को उपासने
रुई बंद कर दी देना देशी कपास ने
प्रभु चोरों का भाग्य विधायक
ये कहते हैं ,वो कहते हैं।
असल में रावण ही सब ऒर सफल हो रहे हैं। अर्थात् जनसामान्य की दशा शोषित सर्वहारा की स्थित से ऊपर उठती हुई कभी नजर नही आती। यह जनपक्षधरता रमेश रंजक,नईम और नचिकेता के यहाँ साफ झलकती है।
नईम के पास अपने लोक के अनुरूप नवगीत रचने वाली अपनी काव्य भाषा है। अनुभव की आँख और साधना के ताप में पके हुए नईम के नवगीत -गीतकारौं के लिए आदर्श रहे हैं। बातों ही बातों में और लिख सकूँ तो उनके अन्य गीतसंग्रह हैं।

जंग लगी बाहर से ,भीतर दीमक चाटे
खण्डहर हुए ये दिन,भय भरते सन्नाटे
ब्याज अभी बाकी है, मूल भर चुका हूँ मैं
दीवारों पर खूटी कील सा ठुका हूँ मैं।
खोखले हो चुके जीवन मूल्यों का सामना करते हुए नईम यह कहते हैं। अब उनके न रहने के बाद सचमुच लगता है कि गीत-नवगीत का ब्याज अभी चुकाना बाकी है। यह ब्याज हम छंदोबद्ध कवियों को ही चुकाना होगा । नईम साहित्य अकादमी के कवि नही बने क्योंकि वे लोक के बड़े कवि थे। जैसे लोग कहते हैं कि निराला और रामविलास शर्मा की उस रचनात्मक स्वाभिमानी परंपरा का अवसान हो गया है, आज नईम जैसे कवि के न होने पर यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि गीत-नवगीत को समर्पित मानो कोई एक भरी पूरी नदी सूख गयी है। धीरे-धीरे ऐसे ही छीज रही है गीत नवगीत की काव्य परंपरा। आवश्यक है कि हमसब मिलकर नईम की सुझायी हुई उन खूटियों- कीलों का उपयोग करेते हुए गीत और नवगीत के वितान को साहित्य के आकाश में तानें तथा भारतीय कविता की लोकोन्मुख और शाश्वत परंपरा को जीवंत बनायें ।



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रविवार, अप्रैल 12, 2009


श्रद्धांजलि

निराला के समकालीन महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री नही रहे

डॉ. भारतेन्दु मिश्र


सब अपनी अपनी कहते है।
कोई न किसी की सुनता है ,नाहक कोई सिर धुनता है
दिल बहलाने को चल फिर कर,फिर सब अपने में रहते है।
सबके सिर पर है भार प्रचुर,सबका हारा बेचारा उर
अब ऊपर ही ऊपर हँसते,भीतर दुर्भर दुख सहते है।
ध्रुव लक्ष्य किसी को है न मिला,सबके पथ में हैशिला शिला
ले जाती जिधर बहा धारा,सब उसी ओर चुप बहते हैं।
ऐसी सहज गीत कविता धारा के कवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री हिन्दी कविता के उन महान कवियों में से एक थे जिन्होंने छंदोबद्ध हिन्दी कविता के कई युग एक साथ जिये थे। प्रारंभ में शास्त्री जी संस्कृत में कविता करते थे। उनका संस्कृत कविताओं का संकलन काकली के नाम से 1930 के आसपास प्रकाशित हुआ। संस्कृत साहित्य के इतिहास में नागार्जुन और शास्त्री जी को देश के नवजागरण काल का प्रमुख संस्कृत कवि माना जाता है। निराला जी ने काकली के गीत पढ़कर ही पहली बार उन्हे प्रिय बाल पिक संबोधित कर पत्र लिखा था। कुछदिन बाद निराला जी स्वयं उनसे मिलने काशी पहुँचे थे । कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव भी दिये थे। बाद में वे हिन्दी में आगये। शास्त्री जी स्वीकार करते हैं कि निराला ही उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं। या कहें कि वे महाप्राण निराला के ही परामर्श से हिन्दी कविता में आये। आये तो छाते ही चले गये। वह छायावाद का युग था। निराला ही उनके आदर्श बने हैं। आज(7-4-11) उम्र के 96वर्ष पूर्ण कर वे अनंत मे लीन हो गये। वे गत दो द्शको से लगभग विश्राम की मुद्रा में थे। निराला भी अपने अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में चले गये थे। निराला का संबंध बंगाल से था। वे जिस महिषासुर –मर्दिनी श्यामा सरस्वती की ओर संकेत करते चलते हैं शास्त्री जी उसी श्यामा सरस्वती के उपासक रहे हैं। खास कर निराला के उत्तर काव्य का उनके गीतों पर भी कहीं न कहीं गहरा प्रभाव पड़ा होगा। राधा सात खण्डों में विभक्त उनका महाकाव्य है। रूप- अरूप, तीर -तरंग, शिप्रा, मेघगीत, अवन्तिका ,धूपतरी, श्यामा- संगीत आदि शास्त्री जी के प्रसिद्ध काव्यसंग्रह हैं। इसके अतिरिक्त गीतिनाट्य, उपन्यास, नाटक, संस्मरण,आलोचना
ललित निबंध आदि उनकी अन्य अभिव्यक्ति की विधायें रही हैं हंसबलाका(संस्मरण) –कालिदास(उपन्यास)-अनकहा निराला(आलोचना) उनकी विख्यात गद्य पुस्तकें हैं- जिनके माध्यम से शास्त्री जी को जाना जाता है और आगे भी जाना जाता रहेगा।सहजता – दार्शनिकता और संगीत उनके गीतों को लोकप्रिय बनाते हैं। वे संस्कृति के उद्गाता हैं। वे रस और आनंद के कवि हैं। राग केदार उनका प्रिय राग रहा है। उनके कई गीत राग केदार में निबद्ध है। अपने गीतों के विषय में वे कहते हैं- मेरे गीतों में जीवन का दूसरा पहलू है जो शांति और स्थिरता का कायल है। गोल गोल घूमना इसमें नही है। बाहर से कुछ छीन झपटकर ले आने की खुशी नही अपने को पाने का आनंद है। (अष्टपदी पृ.220)
अपने कूल्हे की शल्यचिकित्सा हेतु जब शास्त्री जी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान दिल्ली में भर्ती थे ,सन् 1988 की घटना है तभी उनके प्रथम दर्शन हुए। फिर कई बार आदरणीय इन्द्र जी ,राजेन्द्र गौतम और पाल भसीन के साथ अस्पताल में उनसे कई मुलाकातें हुईं। तब शास्त्री जी कई महीने चिकित्सा लाभ के लिए दिल्ली में रहे थे।
एकबार उनसे मिलने उनके आवास निराला निकेतन,मुजफ्फरपुर जाने का भी सुयोग बना । एक पत्रिका के लिए मैने उनसे तभी बातचीत भी की थी । उनकी भव्यता ,उनकी दार्शनिकता और उनकी जीवन शैली वैदिक ऋषि परंपरा की याद दिलाती है। जैसा निराला कहते थे मैने मै शैली अपनायी वैसे ही शास्त्री जी ने अपने जीवन के मानक स्वयं गढे हैं । यह जो अपने को पाने का आनंद है असल में वही कविता का शाश्वत मूल्य है। शास्त्री जी की हर रचना नये सिरे से आत्म मंथन की प्रक्रिया के सूत्र खोलती चलती है। वह दौर भी था जब वे कविसम्मेलनों में खूब सुने सराहे जाते थे। एक ओर राधा जैसा विराट महाकाव्य जहाँ उनके विशाल साहित्यिक व्यक्तित्व का परिचायक है वहीं निम्नलिखित गीत पंक्तियाँ उनकी सहज भावधारा की और संकेत करती हैं-
बादलों से उलझ,बादलों से सुलझ
ताड़ की आड़ से चाँद क्या झाँकता।
............. उनके गीतों में सहजता का सौन्दर्य उल्लेखनीय है। जीवजगत की तमाम उलझनों को पार करते हुए मनुष्य की आत्मा अंतत: -परमात्मा की खोज में भटकती है।
शास्त्री जी बहुत सरल बिंब के माध्यम इस सनातन भाव को चित्रित करते हैं-
बना घोंसला पिंजड़ा पंछी
अब अनंत से कौन मिलाये
जिससे तू खुद बिछड़ा पंछी।
-शास्त्री जी निम्न गीत बिंब में संयम के सौंन्दर्य बिंब और संतुलन की ओर संकेत करते चलते हैं। श्रंगार उनका प्रिय रस है। माधुर्य उनकी कविता का गुण है। सत्यं शिवं सुन्दरम् उनके काव्य का प्रयोजन है। वे लोक और परलोक दोनो के कवि हैं। कालिदास,तुलसी,शेक्सपीयर,मिल्टन,रवीन्द्र नाथ ठाकुर ,प्रसाद और निराला उनके प्रिय कवि हैं । वैसे कहीं न कहीं वे बुद्ध के मध्यम मार्ग से भी गहरे तक प्रभावित जान पड़ते हैं--

जो कसो, टूट जाये,तुनुक तार ये
ढील दो,छंद-लय हों निराधर ये
साज यह जिंदगी का नहीं दिल्लगी
जो छुओ छेड़ दो और बजता चले।
तुम कि तनहाइयाँ ढूँढते शून्य की
चाँद तारे तुम्हारे लिए हैं जले।
...........
मुक्त आकाश और गहन समुद्र जैसी उनकी कविता जितनी सहज प्रतीत होती है असल में वह उतनी ही गंभीर होती है। छायावादी गीत परंपरा की छवि देखिये कितनी मार्मिक बनकर उभरी है--
प्राणों में प्रिय दीप जलाओ
जिसकी शिखा न हो धूमाकुल,
सजग शांत वह ज्योति जगाओ।
ऊँची अहंकार की कारा,दिखता नभ में एक न तारा
अंध कक्ष में जीवन हारा,आत्मबोध का मिले सहारा
मन को और न गहन बनाओ।
...........निम्न पंक्तियों में तो वे बहुत कुछ निराला की तरह ही गाते हुए दिखायी दे रहे हैं। अलख रूप की जिस चेतना की ओर उनका संकेत है उसकी व्यंजना कितनी अद्भुत है। उच्वसित उदासी और अश्रु हास का बिखरता हुआ रूप कितना विलक्षण है कि धरती और गगन त्आह्लादित हो रहे हैं। असल में यही मूलप्रकृति और पुरुष का शाश्वत उल्लास है--
नाम हीन सहस्र नामों में खिला
अलख अनमिल विकल तिल तिल में मिला
उच्वसित होती उदासी
अश्रु हास बिखर रहा है
रूप निर्झर झर रहा है
मृणमयी मधुरस पगी है
विहँस गगन शिखर रहा है
...........शास्त्री जी की कविताओं में कलिदास जगह जगह झाँकते चलते हैं। बादलों के माध्यम से शास्त्री जी ने कई गीत रचे हैं । नागार्जुन ने भी कालिदास सच सच बतलाना जैसा प्रसिद्ध गीत उन्ही दिनों में लिखा था। निम्न पंक्तियाँ देखें--
काली रात नखत की पाँतें-आपस में करती हैं बातें
नई रोशनी कब फूटेगी?
बदल बदल दल छाये बादल
क्या खाकर बौराये बादल
झुग्गी-झोपड़ियाँ उजाड़ दीं,कंचन महल नहाये बादल।
......... और यह वर्षान्त का चित्र तो विलक्षण ही है। प्रकृति के माध्यम से यहाँ अद्भुत रागात्म सौंदर्य अपनी छटा बिखेर रहा है । यह पूरा का पूरा गीत मेरे प्रिय गीतों मे से एक है। यहाँ फिर लगता है शास्त्री जी कहीं निराला से दो-दो हाथ कर रहे हैं । कहना कठिन है कि वे सहज सौंदर्य के कवि हैं ,लोकोन्मुख खेत-वन-उपवन- जनजीवन के कवि हैं या कि वैदिक ऋषि परंपरा के कवि हैं --
अंबर तर आया।
परिमल मन मधुबन का –तनभर उतराया।
थरथरा रहे बादल ,झरझरा बहे हिमजल
अंग धुले,रंग घुले –शरद तरल छाया।
पवन हरसिंगार-हार निरख कमल वन विहार
हंसों का सरि धीमी –सरवर लहराया।
खेत ईख के विहँसे,काँस नीलकंठ बसे
मेड़ो पर खंजन का जोड़ा मँडराया।
चाँदनी किसी की पी ,आँखों ने झपकी ली
सिहरन सम्मोहन क्या शून्य कसमसाया।
सुन्दरता शुभ चेतन ,फहरा उज्ज्वल केतन
अर्पित अस्तित्व आज –कुहरायी काया।
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री सत्यं शिवं सुन्दरम् की अजस्र भाव धारा के कवि रहे हैं। उनके ये गीत राग रागिनियों में विधिवत निबद्ध हैं । वे किसी खास विचारधारा के कवि नही थे।अलबत्ता समालोचना की सभी धारायें जहाँ संगमित होकर प्रयाग की रचना करती हैं वहाँ से आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री को चीन्हने का जतन करना होगा। वे बहुपठित साधनासिद्ध कवि थे। वे मूलत:संस्कृत भाषा और साहित्य के आचार्य रहे हैं। अंग्रेजी-बांग्ला –हिन्दी आदि अनेक भाषाओं के विद्वान और अनेक भाषाओं के रचनाकार के रूप में उनकी ख्याति रही है। राका और बेला जैसी पत्रिकाओं के संपादक के रूप में उनकी छवि सभी हिन्दी जगत के विद्वानों में चर्चित रही है। हंसबलाका, निराला के पत्र, अनकहा निराला जैसी उनकी पुस्तकें हिन्दी साहित्य की संस्मरणात्मक आलोचना की दिशा को प्रखर करती हैं। डाँ.रामविलास शर्मा जी ने निराला पर काम करते हुए अनेक स्थलों पर शास्त्री जी का उल्लेख किया है। साहित्यिक गुटबंदियों से दूर मुजफ्फरपुर जैसे शहर में उन्होंने अपना पूरा जीवन व्यतीत किया । अपना खून पसीना लगाकर बेला जैसी साहित्यिक पत्रिका का संपादन करते रहे।अंतिम समय तक अपने निराला निकेतन मे गायों,बिल्लियों और संस्कृत परम्परा के निर्धन विद्यार्थियो को सदैव स्थान देते रहे।तथाकथित महान आलोचकों की दृष्टि में वे सदा अलक्षित ही रहे। गीतकारों और तमाम छंदधर्मी कवियों के वे आदर्श रहे हैं।छंदोबद्ध कविता के इतिहास मे जानकीवल्लभ शास्त्री जी जैसे महान कवियों का अवदान भारतीय काव्य परंपरा के विकास में स्वर्णाक्षरौं में लिखा जाएगा। अंतत: ईश्वर से प्रार्थना है कि वह उनकी आत्मा को चिरशांति प्रदान करे तथा उनके परिजनो को यह दुख सहने की शक्ति प्रदान करे।

शुक्रवार, अप्रैल 03, 2009

अमृत महोत्सव

छंद प्रसंग के केन्द: पं. देवेन्द्र शर्मा इन्द्र के पिछत्तर वर्ष पूरे होने पर

यात्रा पिछत्तर वर्ष की

भीगा हुआ मन का पुलिन
है व्यक्त कर पाना कठिन
यह शुभ दिवस है जन्म दिन उस सूर्य का ।
जिससे प्रकाशित हृद-गगन
है गंधमय जिसका सृजन
आलोकधर्मा प्रतिफलन वैदूर्य का ।
बेहद सहज बेहद सरल
देता अमृत ,पीकर गरल
बाहर सरस भीतर तरल वह कब विरत।
कुछ वेदना कुछ हर्ष की
संघर्ष की उत्कर्ष की
यात्रा पिछत्तर वर्ष की जारी सतत ।
देवेन्द्र शर्मा इन्द्र ने
रचकर रखे जो सामने
वे ग्रन्थ अब मानक बने हैं काव्य के ।
साक्षी चिरंतन प्यास के
उत्सव पगे उपवास के
वे पृष्ठ है इतिहास के साहित्य के।
दोहा गजल नवगीत क्या
ऊर्जस्वियों को शीत क्या
उनके लिए विपरीत क्या होगा समय ।
वह शुभ्र शुभ उज्ज्वल सुभग
सबमें मिले सबसे अलग
रस छंद गंधों में सजग रहते अभय।
कितना विपुल उनका सृजन
है श्रेष्ठता का स्वस्त्ययन
उपलब्धियों का आयतन भुजपाश में।
हम धन्य जो उनसे जुड़े
उनकी दिशा में ही मुड़े
कुछ दूर तक हम भी उड़े आकाश में।
चलती रहे यह सर्जना
बाधा न कोई वर्जना
कूके सदा संवेदनाओं की पिकी।
ऐसा सुखद बानक बने
आत्मीय क्षण ये हों घने
है कामना यो ही मने शतवार्षिकी।
(रामनवमी सं.2066,दि.3-4-2009 को अनुभव प्रकाशन द्वारा आयोजित गोष्ठी में प्रस्तुत)
योगेन्द्र दत्त शर्मा
कवि कुटीर
के.बी. 47 कवि नगर ,गाजियाबाद
फोन-09891942171